Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

वीज़िटिंग कार्ड

मोहम्मद हुमायूँ

वीज़िटिंग कार्ड

मोहम्मद हुमायूँ

MORE BYमोहम्मद हुमायूँ

    “अब इस लाश का क्या करें?”

    उसने नफ़रत भरे लहजे में ताव खाती नागिन की तरह फुन्कार कर कहा।

    मुझे इसका कुछ जवाब ना सूझा।

    मैं तो बल्कि उस लम्हे के बारे में सोचने लगा जब उस पर मेरी पहली नज़र पड़ी थी

    ये सन छयालीस की बात है जब मेरी तीसरी बड़ी पेंटिंग एगज़ीबीशन थी जो दिल्ली में म्यूनसिंपल कारपोरेशन के दफ़्तर में थी। हॉल तंबाकू के धुएँ और क़हक़हों में डूबा हुआ था और मिरा दिल बल्लियों उछल रहा था। कलेक्टर साहब फ़ैमिली के साथ चुके थे। कई गोरे और मुत'अद्दिद मेमें तस्वीरों में अज़-हद दिलचस्पी ले रही थीं।

    में एक गोरे नक़्क़ाद को वर्मा की “शकुन्तला”। की नक़्ल दिखा ही रहा था कि ऐन उसी लम्हे दरवाज़ा खुला।।। वो सीमाब-सिफ़त अंदर आई।

    उसके लिए हॉल का बड़ा दरवाज़ा जैसे आप ही आप खुला और उसके क़दमों की ताल के साथ रक़्स करने लगा। वो अंदर क्या आई मुझे यूँ लगा जैसे वक़्त थम गया हो, सब लोग साकित हो गए हों मगर दीवारों पर लगी तस्वीरों में जान पड़ गई हो।

    वो निसबतन लंबे क़द और बारीक नुक़ूश वाली इंतिहाई जाज़िब-ए-नज़र ख़ातून थी और उस दिन उसने हल्के गुलाबी रंग की जॉर्जजट की साड़ी पहनी हुई थी जिसका चुस्त बलाउज़ उसके गोरे बदन को ढापंने में तक़रीबन नाकाम था। पहले तो मुझे यूँ लगा कि वो सीधे मेरी तरफ़ ही रही है। मैंने धक धक करते दल के साथ साँस अंदर खींची, मुंतशिर हवास बहाल किए ताकि उसे बेहतर तौर पर अपनी तरफ़ राग़िब कर सकूँ लेकिन फिर शायद उसको वहाँ अपनी कोई जानने वाली मिल गई।।। वो रुक गई।।। उसे भीड़ में बाज़ू से खींच कर एक तरफ़ कोने में ले गई।

    दूर से मुझे यूँ लगा जैसे वो दोनों आपस में कोई नाराज़गी मिटा रही हों।

    उसे अपनी तरफ़ मुतवज्जा ना पा कर मेरे दिल की धड़कन मज़ीद बे-तरतीब हो गई। मैंने श्री बनर्जी से कुछ तस्वीरों पर तबादला-ए-ख़्यालात शुरू तो किया लेकिन मेरा दिल कहीं और था, तवज्जा बट चुकी थी। मैंने दिल ही दिल में उस से बात करने की ठान ली और फिर जैसे अंजान बन कर, खिसकते हुए और लोगों की भीड़ पर गोया तैरते हुए उसके क़रीब पहुँचा। मेरी मौजूदगी से बे-ख़बर, वो दूसरी लड़की के साथ, जो बस क़बूल-ए-सूरत ही थी, आने वाली किसी शादी में साड़ी के रंग के इंतिख़ाब पर गुफ़्त-ओ-शनीद में मसरूफ़ थी। मैंने इंतिहाई ग़ैर महसूस अंदाज़ में दोनों के पहलू में पहुँच कर आहिस्ता से गला खंकारा,

    “आर यू बोथ कम्फर्टेबल हियर?,बाई दिवे आई एम नबील, आई हीव आर्गनाइज्ड दिस इवेंट।

    “अरे नबील साहब आप? बड़ी ख़ुशी हुई आपकी एगज़ीबीशन देखकर। बहुत बढ़िया काम करते हैं आप। मेरा नाम माला है और ये है मेरी सहेली बिमला।”

    फिर दोनों ने हंसते हुए ब-यक ज़बान कहा,

    “यू लक यंग्र दिन योर पिक्चर आउट साईड, वी आर इंप्रेस्ड मिस्टर नबील।”

    मैंने ज़रा झुक कर और मुस्कुरा कर अपने बारे में उनके तारीफ़ी कलिमात को सराहा और साथ ही अपना वज़ीटिंग कार्ड उनको थमा दिया। मैंने दिल में ये बाँधा कि थोड़ी देर बाद उस से दूबारा मिलने का कोई बहाना करूँगा लेकिन में कुछ ऐसा उलझ गया कि होते होते एगज़ीबीशन ही ख़त्म हो गई।

    लोग आहिस्ता-आहिस्ता सिरकते गए और हॉल ख़ाली हो गया। मेरी उस से दुबारा मिलने की कोशिश, शदीद ख़्वाहिश के बावजूद भी बर-आवर साबित ना हो सकी। मैंने हॉल के बुलंद दरवाज़े को कई मर्तबा देखा। शायद वो कोई चीज़ भूल गई हो।।। किसी तस्वीर की क़ीमत या मुसव्विर के बारे में पूछने के लिए दुबारा वापिस जाए।

    शाम हो गई। मैंने बची-खूची तसावीर अस्सिटैंट को दीं कि उन्हें मुकर्जी के हाँ छोड़ आएँ और घर चला आया। विज़ीटिंग कार्ड पर फ़ोन नंबर था और मैंने इसी उम्मीद पर तीन दिन इन्तिज़ार किया कि वो राबिता करेगी लेकिन उस का फ़ोन नहीं आया। इसके बावजूद भी मै उसका ख़याल दिल से खुरच ना सका, वो मेरे हवास पर छाई रही।

    अचानक मुल्क की सियासी फ़ज़ा में कशीदगी आई। रास्त इक़दाम के साथ ही बटवारे का सफ़र तेज़ हो गया और साथ ही साथ मुल्क भर में तनाव भी बढ़ गया। कलकत्ता मैं हज़ारों जानें गईं लेकिन मुझे उसका एक फ़ायदा हुआ।।। माला मुझे दिसंबर में दुबारा एक नीम सयासी तक़रीब में मिली जो बंगाल और बिहार के हिंदू मुस्लिम फ़सादाद जैसे वाक़ियात के सद्द-ए-बाब के लिए मुनाक़िद की गई थी। मैं ऐसी महफ़िलों से दूर भागता हूँ लेकिन चूँकि वो तक़रीब कमाल रिज़वी साहब और श्री राम चरण ने मिलकर मुनाक़िद करवाई थी और ये दोनों किसी ज़माने में मेरे सरपरस्त रहे थे, सो उनको ख़ुश करने के लिए मुझे वहाँ जाना ही पड़ा।

    मुझे देखकर वो जैसे खिल उठी या शायद हम दोनों एक दूसरे को देख कर खिल उठे।।। ये ताय्युन करना मुश्किल था। ये ग़ैर मुतवक़्क़े मुलाक़ात अलबत्ता मेरे लिए एक क़िस्म का बहाना बन गई कि मैं दुबारा उस से राबिता जोड़ू। इस दिन उसने सियाह-रंग की साटन की साड़ी पहनी हुई थी जो उस पर बहुत जच रही थी। लोग उसे घूर घूर के देख रहे थे और मेरी नज़रें भी उसके कटीले बदन में पैवस्त थीं। उसने मुझे पहचानने में ज़रा भी देर ना लगाई और क़दरे ऊंची और शोख़ आवाज़ में कहा,

    “नबील साहब इन से मिलीए ये हैं मेरे मिस्टर, रणधीर चोपड़ा और ये हैं नबील साहब,मैंने बताया था ना डार्लिंग उस एगज़ीबीशन का जिसमें बिमला मेरे साथ थी।”

    चोपड़ा साहब लंबे क़द के ख़ुश-पोश और जैंटल-मैन क़िस्म के मर्द थे। पतली मूँछें, बारीक क़लमें, नए फ़ैशन की साफ़ कोट पतलून पहने और यक-चश्मी-'ऐनक लगाए हुए वो बा सलीक़ा क़िस्म के आदमी मालूम होते थे। जब मैंने ग़ौर किया तो वो मुझे कुछ सन रसीदा से दिखाई दीए, यही साठ से कुछ ऊपर।।। मैंने एक लम्हे के लिए सोचा कि शायद ये उनके पिता जी होंगे।

    “मेरे मिस्टर,मतलब?”

    मैंने मस्नूई मुस्कुराहट चेहरे पर सजाई और जवाब जानते हुए भी शोख़ी से पूछा,

    “अरे हाँ, में इनकी मिसिज़ हूँ तो ये मेरे मिस्टर हुए।”

    अगरचे मुझे अंदाज़ा था लेकिन फिर भी ये इन्किशाफ़ मेरे लिए एक धमाके से कम नहीं था। ताल्लुक़, राह राह-ओ-रस्म और आगे जाने के तमाम रास्ते जैसे यक़ीनी तौर पर मस्दूद होते दिखाइ दीए। मैंने अपने तास्सुरात को छुपाया और एक तरह से चोपड़ा साहब से ख़ंदा-पेशानी से मिला और उनको अपना विज़ीटिंग कार्ड भी दिया जिसके जवाब में उन्होंने भी मुझे अपना कार्ड थमाया। मैंने उसे पलट कर देखा।

    “मेजर (रिटायर्ड) रणधीर चोपड़ा, ऐक्स एडम ऑफीसर फ़र्स्ट पंजाब रेजीमेंट।”

    “मेजर साहब आप तो पहली जंग-ए-अज़ीम के हीरो हैं। फ़र्स्ट पंजाब तो शेर दलों की रेजीमेंट थी। इराक़ में तो आपकी यूनिट ने कमाल ही कर दिया था, वाह वाह, मुझे बड़ी ख़ुशी हुई आपसे मिलकर।”

    मुझे जंग और फ़ौज से तो ख़ैर क्या दिलचस्पी होनी थी लेकिन इस बात का यूँ पता था कि सूबेदार बहादुर सिंह, जो मेरा पक्का गाहक था, किसी ज़माने में फ़रस्ट पंजाब में रहा था और उसके तूलानी फ़ौजी क़िस्से सन सुन कर मेरे कान पक गए थे। आज उन मालूमात का कुछ मसरफ़ भी नज़र आया सौ दाग़ दीं।

    उसने शुस्ता अंग्रेज़ी में कहा,

    ”हाँ मै 62 पंजाब में1914 मे मेसोपटीमया के महाज़ पर लड़ा हूँ, बे-जिगरी से।”

    फिर पता नहीं वो क्या-क्या कहता रहा लेकिन तमाम फ़ौजीयों की बातें एक जैसी होती हैं मेरी यूनिट, कमांडैंट, वर्दी, ऐड जो टिंट, राशन, क़ुव्वत, बंदूक़, प्रोमोशन, ये जंग वो जंग, पोस्टिंग। मुझे उसकी बे-मज़ा कहानियाँ सुनते हुए सिर्फ सर हिलाना पड़ा क्योंकि मेरा दिमाग़ कहीं और था। आप जानते हैं कहाँ!

    रात को मैं देर तक इसी विज़ीटिंग कार्ड को उलट-पलट कर कई ज़ावियों से देखता रहा। नाम के नीचे उनके घर का पता था और साथ ही फ़ोन नंबर। मैं पैग की चुसकीयाँ लेते लेते तक़रीबन एक बोतल चढ़ा गया। मुझे यक-बारगी एक ख़्याल सूझा लेकिन उसको अमली जामा नहीं पहना सका।।। मेरे ऊपर नींद ग़ालिब आना शुरू हो गई।

    नींद की वादी में उतरते हुए मेरे ज़हन पर ये ख़्याल छाया रहा कि क्या बदक़िस्मत लड़की है माला, बीस बाईस बरस की अच्छी भली ख़ूबसूरत नैन नक़्शे वाली जाज़िब-ए-नज़र लड़की, जिसके नख़रे उठाने वाले हज़ारों लोग उस पर मर मिटें। मैं ये समझने से क़ासिर था कि वो क्यों इस बुड्ढे खूसट की बग़ल में है? जैसे राक्षस की क़ैद में परी। मैंने सोचा हो ना होया बूढ्ढा उसकी ज़िंदगी में ज़हर घोल रहा है, सुख का एक भी साँस नहीं मयस्सर इस कामनी सूरत जल-परी को।।। इस तरह तो ये घुट-घुट के मर जाएगी।

    मैंने नीम ग़ुनूदगी की हालत में सोचा कि उसे तो किसी जवान और ख़ूब-सूरत मर्द के पहलू में होना चाहीए था,जो उसकी तारीफ़ करता,उसे बाँहों में उठाता,उसकी बातें सुनता और उसके ख़ूबसूरत और रसीले होंटों को।।। किया हुस्न।।। दिला वेज़ ख़ुतूत।।। होंट।।। जिस्म।।। मैं सो गया।

    अगले दिन ज़ोर की बारिश हुई और मुझे यूँ लगा जैसे मुझे फ़ूलू या कोई मौसमी बुख़ार हो गया हो। मैं आतिश-दान के सामने सोफ़े पर बैठ गया। मैंने कार्ड दुबारा हाथ में पकड़ा और सोचा कि इस कार्ड का माला के साथ कुछ तो ताल्लुक़ है कि मेरा दिल उसकी तरफ़ खीचा चला जाता है।

    रात की शराब-नोशी के बाइस मेरे हाथ में हल्का सा रअशा था और कुछ मूड भी ठीक नहीं था, अजीब सी बद-मज़गी थी तबियत में, सो मज़ीद शराब-नोशी से दिल को बहलाया और बे-ख़याली की कैफ़ियत में एक मर्तबा फिर कार्ड को उलट-पलट कर देखने लगा। गाहे-गाहे उसको सूंघ कर लुतफ़ उठाया, कभी दिल पर रखा और एक मौक़ा पर उसके बारे में सोचते हुए में कुछ इतना जज़्बाती हो गया कि मैंने उसको अपने गालों से मस किया।।। फिर मैंने एक मुश्किल फ़ैसला किया,

    “हेलो कौन बोल रहे हैं?”

    उसकी आवाज़ ऐसे आई जैसे जल-तरंग बज उठीं”

    “मिसिज़ चोपड़ा मैं नबील बोल रहा हूँ।”

    “नबील साहब आप? आप को ये फ़ोन नंबर कैसे मिला?”

    उसने क़दरे शक और तरद्दुद वाले लहजे में ज़रा ठहर-ठहर कर कहा,

    “माला जी मुझे ये नंबर चोपड़ा साहब के विज़िटिंग कार्ड पर मिला। याद है उन्होंने पार्टी में मुझे अपना कार्ड दिया था। आपको तो याद ही होगा हम दोनों मिले थे, आपने सियाह-रंग की साटन की चुस्त साड़ी।।।”

    “हाँ वो सब ठीक है, याद आया लेकिन अभी रणधीर जी घर पर नहीं हैं।

    उसने बात काट कर जज़्बात से आरी खूश्क लहजा अपनाया,

    “मैं जानता हूँ कि वो घर पर नहीं हैं, इसलिए तो फ़ोन किया है। मैं सिर्फ आप ही से बात करना चाहता हूँ।।। सिर्फ़ आपसे।”

    “मुझ ही से? वो क्यों नबील साहब?”

    “इसलिए कि आप ने मुझे रिंग ही नहीं किया।”

    “नबील साहब वाट डू यू मीन? वाइ वुड आई कॉल यू।”

    “श्रीमती जी आप बन रही हैं,आपको अच्छी तरह पता है कि मैंने किस लिए फ़ोन किया है।”

    मैंने सीधा तीर दाग़ दिया और वो निशाने पर लगा। इसका फ़ायदा ये हुआ कि उसने मुझे हफ़्ते में से दो दिन ऐसे बताए जिनमें में उस से बिला झिझक बात कर सकता था क्योंकि मेजर साहब इस दौरान अपने दोस्तों के साथ बुरज खेलने जाते थे।

    माला लखनऊ की थी लेकिन पली बढ़ी दिल्ली में थी और बड़े ही मज़े की चीज़ थी। उसको महा भारत, और इस क़िस्म की देवमालाई चीज़ों का इल्म तो था ही लेकिन साथ साथ पेंटिंगज़ और उर्दू अदब से भी बहुत लगाव था। वो एक उभरते लिखारी सआदत हसन मंटो की तारीफ़ें करते नहीं थकती थी। ज़बानों में उसे अंग्रेज़ी और फ़्रांसीसी पर पूरा उबूर था और इसके इलावा उसे मौसीक़ी और मुजस्समा साज़ी से भी लगाव था और जैसे बाद में ये बात खुली कि वो मुझ पर पहली नज़र में इसलिए मर मिट्टी थी क्योंकि मेरी शक्ल राज कपूर से मिलती थी।

    ख़ैर हमारी मुलाक़ातें होने लगीं जिसमें कुछ उसकी दोस्त बिमला के हाँ और कुछ रेस कोर्स कलब, लेकिन वो मेरे घर आने से कतरा रही थी। उधर में भी ताल्लुक़ की अगली सीढ़ी के लिए जल्दी में बिल्कुल नहीं था। उसे मुतास्सिर करने के लिए अलबत्ता मुझे बहुत कुछ पढ़ना पड़ता था और ये दिखाने के लिए कि मैं इन मौज़ूआत में, जिनमें उसका मुताला वसीअ था, अनाड़ी हूँ, बनना भी पड़ता था और यूँ धीरे धीरे मै उसको ये बावर कराने में कामियाब हो गया कि मै एक बेज़रर क़िस्म का आदमी हूँ।

    एक दिन उसने इंतिहाई घबराए हुए लहजे में मुझे बताया,

    “रणधीर को हल्का सा भी संधे हो गया तो वो हम दोनों को जान से मार देगा। आप उसे नहीं जानते वो बड़ा कमीना आदमी है। उसके पास उसका पिस्तौल हर समय मौजूद रहता है जिसे उसने कई बार मेरे ऊपर ताना भी है। मैं उसके ग़ुस्से से बहुत डरती हूँ, वो पागल हो जाता है, यू डोंट नो हिम।”

    मुझे इन दोनों के पेचीदा ताल्लुक़ात का सुनकर एक तरह से बड़ी ख़ुशी हुई क्योंकि इसी चोर दरवाज़े से मुझे माला से कुर्बत बढ़ाने का मौक़ा मिल सकता था। बात सिर्फ इतनी थी कि किसी तरीक़े से उसको बस हिम्मत देनी थी। मज़लूम औरत तो घायल शेरनी होती है, उस में हिम्मत जाए तो बड़े बड़े सूरमाओं को चित्त कर जाती है। उसे रणधीर के सामने खड़े हो कर बस ये कहना था,

    “आई डोंट केयर, ऐंड आई वांट टू लव माई लाईफ़ माई वे।”

    एक दिन रात को उसका रिंग आया। वो बहुत घबराई हुई थी और उसने मुझसे कहा कि मैं अभी उसके घर जाऊँ मैंने रणधीर का पूछा तो लंबा साँस लिया,

    “ही इज़ नोट हीयर, हरी अप प्लीज़ जस्ट कम नाव।”

    घबराई औरत को तसल्ली देने का ख़ुशकुन मौक़ा देखा तो मैंने गाड़ी निकाली और सख़्त बारिश में उनके घर की तरफ़ चला।

    जब मैं वहाँ पहुँचा तो काफ़ी रात बीत चुकी थी और उनकी कोठी का गेट खुला हुआ था। मैंने मोटर बाहर दरख़्त के नीचे खड़ी की, बारिश से बचता बचाता तेज़ी से उनकी कोठी में दाख़िल हुआ। इंद्र का दरवाज़ा भी खुला हुआ था जिससे गुज़र कर मैंने अपने आपको एक बड़े लंबे चौड़े हॉल में पाया जिस के दाएँ बाएँ कमरे थे जिनमें एक शायद उनका ड्राइंग रुम था और फिर दाएँ जानिब एक तरफ़ शायद स्टडी रूम भी थी लेकिन मेरा हदफ़ वो कमरा था जिससे माला की आवाज़ रही थी।

    वो ज़ोर-ज़ोर से किसी से महव-ए-गुफ़्तुगू थी और साथ ही सिसकियाँ भी ले रही थी।

    मैं आगे बढ़ा और कमरे के दरवाज़े को हल्का सा दबाया तो वो आप ही खुलता गया। अन्दर मैंने उसे फ़ोन पर बातें करते और आँसू पोंछते देखा। जब उसकी नज़र मुझ पर पड़ी तो घबरा कर फ़ौरन फ़ोन रख दिया और आगे बढ़ कर मुझ से लिपट कर रोना शुरू हो गई। मैंने उसे तसल्ली दी तो उसने मुझे हॉल की तरफ़ खींचा और रोते हुए बताना शुरू किया।

    मैंने महसूस किया कि उसकी गुफ़्तगु में शराबनोशी की वजह से हकलाहट थी,

    “नबील साहब आज रणधीर ने मुझे बहुत डाँटा वो बार-बार आपका पूछ रहा था। उसे पूरा विश्वास था कि मैं आपके साथ यानी।।। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि वो इतना घटिया हो सकता था। मैं मुकर गई तो उसने पहले तो मुझे धक्का दिया और फिर मारना शुरू किया।

    ये कह कर हिचकियाँ लेने लगी और साथ ही उसकी साड़ी का पल्लू सिर्क गया

    मैंने देखा कि उसके गोरे बदन पर नील ही नील थे। मुझे उसके जिस्म से नज़रें हटाने में ख़ासी दुशवारी महसूस हो रही थी

    उसने कंधा सहलाते, ग़ुस्से भरे लहजे में ग़ुर्राते हुए बात जारी रखी,

    “उस कुत्ते ने मुझे ज़लील किया और कहा कि मैं जो कुछ भी हूँ उसके कारण हूँ। उसने मेरे पिता जी को भी बहुत बुरा-भला कहा।।। उनको भिकारी तक कह दिया। नबील साहब मै सुनती रही लेकिन फिर जब उसने मुझे और मेरी माता को वेश्या कहा तो मुझसे सहन नहीं हो सका और मैंने क्रोध में आकर फूलदान उठाया और उसके सर पर दे मारा। वो गिर कर तड़पने लगा और उसकी साँसें उखड़ सी गईं।”

    वो रुक गई और अटकते लहजे में कहा,

    “आप विश्वास करें मेरा आशय उसकी हत्या का नहीं था।”

    उसने ज़ोर ज़ोर से सिसकियाँ लेनी शुरू कीं।

    मुझे जैसे झटका सा लगा,

    “माला आर यू शियोर ही इज़ डेड? मेरा मतलब है हमें उन्हें हस्पताल ले जाने की ज़रूरत तो नहीं?”

    उसने मेरे सवाल का जवाब तो नहीं दिया लेकिन मुझे खींच कर बग़ल वाली बेडरूम में ले गई जहाँ फ़र्श पर शब ख़ाबी के लिबास में रणधीर औंधा पड़ा था, बग़ैर किसी हरकत के, अकड़ी हुई हालत में और ऐनक क़रीब ही टूटी पड़ी थी।

    मैंने झुक कर उसकी गर्दन की नब्ज़ को टटोला जो ग़ायब थी। मैंने सीधा लेटाकर उसे छू कर देखा तो उसका पूरा जिस्म ठंडा यख़ था।।। उसकी पुतलीयाँ चढ़ी हुई थीं और सर पर दाहिनी तरफ़ गहरे ज़ख़म का निशान था जिसके इर्द-गिर्द ख़ून लोथड़ों की शक्ल में जम चुका था।

    ये सब देखकर मुझे इतना अंदाज़ा तो हो गया कि उसे मरे हुए काफ़ी वक़्त गुज़र चुका है लेकिन ये वक़्त इस बात का नहीं था कि मैं माला से उन बातों की तफ़सीलात पूछूँ, ये वक़्त तो उसकी मदद करने का था।

    इस ग़ैर मुतवक़्क़े सूरत-ए-हाल में मेरा ज़हन एक साथ कई ताने-बाने बुनने लगा। मैं किसी ऐसे लायेहा-ए-अमल के बारे में सोचने लगा कि वो मेरी झोली में पके हुए आम की तरह गिरे और मुआमला वहाँ तक तब पहुँचता जब रणधीर की लाश ठिकाने लगती।

    उसने दुबारा पूछा,

    “अब इस लाश का क्या करें?”

    मैं यकदम चौंका लेकिन दुबारा ख़्यालात में उलझ गया।

    मैंने फिर सोचा कि माला एक तरह से रणधीर को मेरे लिए रास्ते से हटा चुकी है अब उसकी लाश को ठिकाने लगाऊँ तो मेरी दाल गले। वो साला घटिया बूढ्ढा खूसट एक ही वार में गिर कर ढेर हो गया होगा।

    मैंने एक मर्तबा फिर उसकी नब्ज़ टटोली और पूरी तरह से तसल्ली कर ली कि वो बेहोश नहीं बल्कि आँजहानी हो चुका है तो फिर माला का सवाल सामने आया,

    “लाश का क्या करें?”

    “मैं इस कमीने बुड्ढे की वजह से नरक में थी। ये करो ये ना करो, किस से मिलों किस से ना मिलूँ, क्या पहनूँ किया ना पहनूँ हर जगह रोक-टोक।।। मैं तो मानसिक रोगी बन गई थी। मुझे ये काम बहुत पहले कर लेना चाहीए था लेकिन साहस ही नहीं पड़ी। अब क्या करें? ये कह दें कि सीढ़ीयों से गिर गया, उसको हार्ट-अटैक हो गया। हाय भगवान मुझे तो कुछ समझ नहीं रहा।।। आप ही कुछ बताएँ क्या करें?आप बोलते क्यों नहीं?”

    वो बार-बार सिसकियाँ लेकर बे-रब्त अंदाज़ में मेरा बाज़ू पकड़ के मुझे बताती रही लेकिन मेरा ज़हन कुछ और खिचड़ी पका रहा था।

    “मैं सिर्फ आपके साथ जीवन बिताना चाहती हूँ, मेरे लिए इस संसार में सिर्फ तुम ही हो।”

    ये कहते हुए वो मेरे क़रीब गई और उसने अपना सर मेरे कंधे पर रख दिया।

    जब वो आप से तुम पर गई तो मैंने भी उसे अपने क़रीब किया और उसके बदन की हरारत को अपने अंदर महसूस किया। वो मेरे सीने पर अपना सर रखे कुछ देर तक इतनी शिद्दत से रोती रही कि मेरी शर्ट भीग गई। धड़कते दिल के साथ मैंने उसे काफ़ी तसल्ली दी और उसे कुर्सी पर बिठाया। उसे एक पैग बना के दिया और एक अपने लिए और जब उसके होश क़दरे बहाल हुए तो मैंने संजीदा लहजे में कहना शुरू किया,

    “माला जो होना था वो हो चुका, रणधीर एक बुरा आदमी था। वो अपने अंजाम को पहुँच गया और उसने जो बोया वही काटा।”

    मैंने माला की ताईद में कुछ इबतिदाई जुमले कहे जिससे मुझे ये लगा कि उसे कुछ तसल्ली सी हुई।

    “लेकिन माला ये लाश अब एक बहुत बड़ा संकट है। अब हम ये नहीं कह सकते कि ये आप ही मर गया। इसके सर पर निशान और जिस ज़ावीए से ये चोट लगी है।।। साफ़ दिखाई देता है कि ये सीढ़ीयाँ गिरने से नहीं।।। बल्कि।।।”

    मैंने रुक कर उसकी आँखों में देखा,

    “माला उसका अंदाज़ा तो अहमक़ तरीन पुलिस वाले को भी मिनटों में हो जाएगी कि इसकी मौत गिरने से नहीं बल्कि कारी ज़रब लगने से हुई है और फिर कड़ियाँ मिलाना।।। वो तो उसके लिए बिल्कुल मुश्किल नहीं होगा।”

    ये कह कर मैंने दुबारा उसकी आँखों में देखा,

    “माला एक बात तो तै है, पुलिस जब भी तफ़तीश करेगी पहला शक तुम पर ही होगा। मुझे लगता ये है कि तुम ला-मुहाला पकड़ी जाओगीं”

    मैंने तसल्ली आमेज़ लहजे में बात जारी रखी,

    “लेकिन घबराने की बात नहीं मेरी जान, मेरे पास एक प्लान है। ऐसा करते हैं लाश को किसी सूटकेस में बंद करते हैं। मैं यहाँ से अंबाला निकलता हूँ और इसको मै कहीं फेंक दूँगा मेरा मतलब है गाड़ दूँगा। फिर मै जान-बूझ कर करनाल स्टेशन पर उतरूंगा और बाक़ी रात वहीं पर गुज़ारूँगा। इस तरह तुम्हें वक़्त मिल जाएगा कि अंबाला तक अपनी गाड़ी में जाऔ जहाँ मै कर तुमसे मिलूँगा। फिर हम दोनों एक हफ़्ते के लिए शिमला चले जाऐंगे और वापसी पर आकर रणधीर की गुम-शुदगी की रिपोर्ट पुलिस को कर देंगे, क्या ख़्याल है? इस तरह तुम्हारे ऊपर किसी को शक भी नहीं होगा। मेरा ख़्याल है ये सबसे महफ़ूज़ रास्ता है।”

    मैंने उसे एक अलल्टप प्लान बता दिया जो लगता है उसको आधा ही समझ आया लेकिन वो इस्बात में सर हिलाती रही। मुझे ख़ुद इस प्लान में कई झोल नज़र आए लेकिन सोचा मेरे पास उसका टेलीफ़ोन नंबर तो है ही अगर प्लान में कोई तब्दीली करनी भी पड़ी तो मैं उसे फ़ोन करके बता सकता हूँ।

    शिमला में उसके पहलू की हिद्दत के तसव्वुर से मेरा पूरा बदन सुरूर से भर गया।

    फिर हम दोनों ने मिलकर लाश को कई बैड शीटों में लपेटा, घुटने छाती से लगा कर, कमर को ख़म देकर उसे रणधीर ही के नए सूटकेस में बंद कर दिया। मसला ये था कि इस सूटकेस के पहीए नहीं थे लेकिन फिर माला ने बताया कि उसके पास पहीयों वाला स्टील का एक स्टैंड है जिसमें ये सूटकेस ऐसे फिट बैठ सकता है कि उसके पहीयों से उसे खींचा जा सके

    मुझे ये तजवीज़ काबिल-ए-अमल लगी और ज़िप बंद करके जब माला की तरफ़ देखा तो उसने मुझे एक छोटा सा ताला थमा दिया जिसे मैंने ज़िप को लगाया। जब मैंने सूटकेस उठा कर खड़ा करना चाहा तो मेरी तो जान ही निकल गई लेकिन जैसे-तैसे उसे पहीयों वाले धाती फ्रे़म में फिक्स किया और उसे फ्रे़म समेत आगे पीछे हिलाया,

    “ये फ्रे़म टूट तो नहीं जाएगा”

    “नहीं ये नहीं टूटेगा।।। अब तुम यहाँ से निकलो प्लीज़, मै बिनती करती हूँ उनको ले जाओ, मुझे बहुत डर लग रहा है। हाय भगवान मैं किस समस्या में फंस गई हूँ।”

    जाने से पहले मैंने उसे अपनी तरफ़ खिंच कर गाल पर चूमा जो उसके ऑंसूं से नमकीन हो चुका था लेकिन उसने सर्दमहरी से काम लिया। शायद वो अभी तक इस वाक़े के ख़ौफ़ से सकते की हालत में थी।

    सूटकेस खिंचते हुए मैंने दरवाज़े से बाहर देखा। मुझे कोई नज़र नहीं आया और बारिश भी रुक चुकी थी। मैंने हिम्मत मुजतमा की और उसे खींच कर पिछली सीट पर रखा। मुझे कमर में टीसें सी महसूस हुईं। बिजली चमकने लगी और मैं दुबारा बारिश का सोच कर इतना डरा कि जल्दी से गाड़ी स्टार्ट की।

    रास्ते में मुझे ख़्याल आया कि मैंने उसको ये क्यों बताया कि मैं उसे अंबाला स्टेशन में मिलूँगा क्योंकि मेरे पास मेरी गाड़ी थी जिसे में दिल्ली स्टेशन में तो नहीं छोड़ सकता था लेकिन फिर ये सोच कर कि उसे किसी क़िस्म की दिक़्क़त ना हो मैंने प्लान तब्दील नहीं किया। पहले गाड़ी घर में छोड़ी और फिर सूटकेस खीचते ख़ुद वहाँ से चलता हुआ स्टैंड आया। काफ़ी इंतिज़ार के बाद मुझे एक विक्टोरिया मिली जिसमें मैंने सूटकेस लोड करवा दिया। उसी वक़्त हल्की सी बारिश शुरू हो गई।

    कोचवान ने शक से भरी नज़रों से उसे देखा,

    “साब इस में किया है? बहुत भारी है।”

    “अपने काम से काम रखो और टेशन चलो।।। जल्दी करो।”

    स्टेशन में रश् नहीं था और जो गाड़ी मैंने पकड़नी थी वो तो जा चुकी थी। प्लान में इस ग़ैर मुतवक़्क़े तब्दीली का ये असर हुआ कि अब मुझे लाहौर तक जाने वाली ट्रेन का इंतिज़ार करना था जो अंबाला से हो कर गुज़रती थी। इस पूरी ऊंच नीच में मै एक बात तो बिल्कुल ही भूल गया कि मुझे इस सूटकेस से भी जान छुड़ानी थी लेकिन वो सब मुम्किन ना रहा और कैसे होता, कोचवान को तो जैसे शुबा हो गया था। वो बार-बार तिरछी नज़रों से सूटकेस की तरफ़ देख रहा था। स्टेशन के अंदर आते हुए क़ुली ने भी उसे ऐसे देखा जैसे उसे सब पता हो।

    मैंने आने से पहले एक पैग और चढ़ा लिया था ताकि हवास बहाल रहें और कुछ हिम्मत ऐसी मिले कि चेहरे से ख़ौफ़ अयाँ ना हो। मैंने फर्स्ट क्लास का टिकट लिया और वेटिंग रुम में आकर बैठ गया। इतने में गाड़ी गई, और मैं इंतिहाई एतिमाद के साथ सूटकेस खींचते हुए डिब्बे में दाख़िल हो गया।

    सीटी बजी, गार्ड ने हरी झंडी हिलाई, इंजन ने एक लंबा हूक भरा और तेज़ सीटी के साथ झिरझिरा कर लाहौर का सफ़र शुरू किया।

    बाहर हल्की सी फुवार अब भी जारी थी और बारिश के क़तरे, जो खिड़की के शीशों पर पडकर और फिर आपस में मिलकर लंबे लंबे साँपों की सूरत में नज़र आते थे, मुझे बहुत डराने लगे। एक-बार तो मुझे यूँ लगा कि ये साँप नहीं पुलिस के हाथ हैं जो मेरी तरफ़ बढ़ रहे हैं, मैं डर गया

    गाड़ी सोनीपत जंक्शन पर रुकी लेकिन ना तो इस से कोई उतरा और ना कोई चढ़ा।

    अगला स्टेशन पानीपत था और यकायक मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लगा कि मैं पकड़ा जाऊंगा। अब रात ढल चुकी थी और सुब्ह की सफ़ेदी नमूरदार हो चुकी थी।

    अब तक मैंने जो हिम्मत की थी वो बुख़ारात बन के उड़ चुकी थी, और साथ ही मेरे अंदर से वो तमाम बहादुरी भी निकल गई थी जिसके बलबूते पर मैं यहाँ तक पहुँचा था। मुझे ये सोच कर हौल आने लगे कि गाड़ी आहिस्ता-आहिस्ता मुझे अपनी मौत की तरफ़ ले के जा रही थी

    पानीपत में गाड़ी एक झटके के साथ रुकी और मैंने वहाँ लाठीयाँ थामे, दो एक हवालदार प्लेटफार्म पर बिड़ियाँ फूँकते मुस्त'इदी से फिरते दिखे। उनमें से एक ने मुझे घूर कर भी देखा जिससे मेरी बेचैनी बढ़ गई। वो गाड़ी की तरफ़ तो नहीं आया लेकिन लोगों का एक सैलाब ट्रेन से उतरा और इसी तरह लोगों का एक ग़ोल गाड़ी में सवार हुआ।

    गार्ड ने झंडी लहराई और गाड़ी ने दुबारा रेंगना शुरू किया और करनाल स्टेशन की तरफ़ बढ़ने लगी। ये वही स्टेशन था जिसका मैंने माला को बताया था लेकिन ज़ाहिर है अब उसकी ज़रूरत नहीं थी और मुझे सीधा अंबाला ही जाना था जहाँ मुझे उस से मिलना था।

    गाड़ी ने लम्हे बाद अपनी पूरी रफ़्तार पकड़ ली और अंदर से मेरी हालत दीगरगूँ हो गई।

    फिर जैसे में इस पूरे मंज़र से उछल कर बाहर गया और गो अगले स्टेशन के आने में दस ही मिनट रह गए थे लेकिन मैंने इसी हालत में घंटों गुज़ारे, वक़्त मेरे लिए खिंच सा गया।

    इस तवील वक़फ़े में मुअल्लक़ मैंने सोचा कि आगे मेरे लिए फंदा तैयार है। वो हराफ़ा अगर अपने मियाँ को क़त्ल कर सकती है तो मैं किस शुमार में हूँ। इस का कटीला बदन भाड़ में जाये, भाड़ में जाएँ उसकी ज़ुल्फ़ें और उसकी मख़मूर आँखें। ये बात तो पक्की थी कि मै इस जाल में फंस चुका था जिसे मैंने अपने लिए ख़ुद बूना था, मै भी कितना बेवक़ूफ़ हूँ, लड़की देखी और मैं।।। ख़ैर।

    यकायक मुझे यूँ लगा कि रणधीर उछल कर सूटकेस से निकल आया है और मुझसे कह रहा है,

    “मेरी तरह तुम भी इस छिनाल के जाल में गए एगज़ीबीशन मास्टर, निगल लिया ना कांटा? अब भुगतो। अबे गधे इस वेश्या की यारी तेरे से नहीं, मराठी मैनेजर से है जिसके लिए इस बेसवा ने तुझे बलि का बकरा बनाया है।।। ये रंडी ज़हनी मरीज़ा है।।। नमफ़ोमीनीक है ये कंचनी। इस कसबी की मुस्कुराहट और कटीले बदन के चकमे में गए ना, अब भुगतो साले पुलिस अगले स्टेशन पर तेरा इंतिज़ार कर रही है। ऐसे सीधे साधे क़तल के केस में कोर्ट कचहरी में भला वक़्त ही कितना लगता है।।। सोचने दो।।। हिना।।। तीन ही महीने।।। शायद चार। नहीं नहीं पाँच।।। फिर फंदा उधर।।। इधर।।। और तो यूँ लटका होगा।।”

    ये कहते हुए रणधीर ने अपने हाथ से फंदा सा बनाया और गले के गिर्द डाल कर उसे दबाया और फिर अपनी आँखें यूँ बाहर निकाल दीं जैसे रस्सी की गिरफ़्त से ना सिर्फ उसकी गर्दन का मनका टूट गया हो बल्कि साथ साथ उसकी साँस की नाली और पूरी गर्दन भिंच सी गई हो। फिर तो जैसे वो हवा में मुअल्लक़ हो गया और फंदे से लटके रणधीर को झटके से लगे और अकड़ी हालत में उसका बदन तना हुआ कमान बन गया।

    ये देख कर मुझे झुरझुरी सी गई।

    यही वो लम्हा था जब गाड़ी करनाल स्टेशन में दाख़िल हो गई और मैंने हस्ब-ए-तवक़्क़ो प्लेटफार्म पर बहुत सारे सिपाही और कई हवालदार हाथों में हथकड़ीयाँ लिए तैयार खड़े देखे।

    मेरा दिल उछल कर हलक़ में गया।

    गाड़ी की रफ़्तार बहुत आहिस्ता हो गई मुझे यूँ लगा कि गाड़ी रुकी हुई है और प्लेटफार्म एक फांसी घाट बन कर गाड़ी की तरफ़ रेंगते हुए रहा है।।। मेरी हालत ग़ैर हो गई।

    गाड़ी आहिस्ता होते-होते एक झटके से रुक गई।

    मुतअद्दिद पुलिस वाले तेज़ी से उसके क़रीब आए और मेरे डिब्बे की तरफ़ इशारे कर के चीख़ चीख़ के कुछ कहते हुए बड़ी सुरअत से इसकी तरफ़ बढ़े।

    ख़ौफ़ से मेरा पूरा बदन पीला पड़ गया। अब भागने का कोई रास्ता नहीं था।

    यकायक मेरे स्लीपर का दरवाज़ा ज़ोर से हिलने लगा। चाबियाँ खनखनाने की आवाज़ आई और फिर दरवाज़ा एक झटके से खिसका और अगले लम्हे निस्फ़-दर्जन पुलिस वाले हथकड़ियों समेत स्लीपर के अंदर थे।

    मेरा गला ख़ुशक हो गया, दिल की धड़कन बेक़ाबू हो गई, हाथ पैर ठंडे हो गए और मैं ख़िज़ाँ-रसीदा पत्ते की तरह लरज़ने लगा। कई पुलिस वाले एक साथ मेरी तरफ़ बढ़े और मुझे चक्कर सा गया जब मुझे अपने हाथ में धात से बनी कोई चीज़ चुभती हुई महसूस हुई।

    “मिस्टर नबील फिर हमारी यूनिट वापिस इंडिया आई और मुझे मेरे कमांडैंट, कर्नल जॉर्ज ब्राउन, ने मेरी बे-मिसाल जुरअत और बहादुरी पर ये मैडल दिया।”

    रणधीर ने ये कहते हुए धात से बना मैडल मेरे हाथ में थमा दिया, जो मुझे क़दरे चुभा और जिसे पकड़ते हुए उसका विज़िटिंग कार्ड मेरे हाथ से फिसल कर गिर गया।

    इसी लम्हे मैंने अपने सामने माला की ख़ूबसूरत और क़ातिल आँखें मुस्कुराती देखीं। उसने रणधीर के दाहने हाथ में अपना हाथ हमाइल किया हुआ था।

    “नबील साहब आपकी अगली एगज़ीबीशन कब है, अब तो मै और रणधीर दोनों आएँगे और हाँ बिमला आपका बड़ा पूछ रही थी, कह रही थी नबील साहब बहुत स्मार्ट हैं, फ़िल्मी हीरो,आर-के की तरह।”

    ऐन उसी लम्हे स्टेज पर रिज़वी साहब और श्री राम चरण मिलकर कोई क़रादाद मंज़ूर करवा रहे थे और रणधीर और माला मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे। मैंने मैडल की तरफ़ देखा और हॉल की मद्धम रोशनी में भी इसकी चमक से मेरी आँखें चुँधिया सी गईं।

    मेरे मुँह से बे-साख़ता निकला,

    “मेजर किया है कि आपकी बहादुरी की दाद देनी पड़ेगी। आप तो इराक़ में मौत को गच्चा दे आए हैं। क्या इस बेमिसाल बहादुरी का ये मैडल मै बतौर निशानी अपने पास रख सकता हूँ?”

    “हरगिज़ नहीं।”

    उसने मुस्कुराते हुए मैडल मेरे हाथ से उचक लिया। उसके बाद वो दोनों हॉल से निकल गए। मैंने नीचे देखा और विज़िटिंग कार्ड को अपने पैरों में मसला देखा।

    “मेजर (रिटायर्ड) रणधीर चोपड़ा, ऐक्स एडम ऑफीसर फ़र्स्ट पंजाब रेजिमेंट।”

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए