वही फूल वही आग
इतवार का दिन था। सुब्ह से ही बादल छाए हुए थे। सर्द हवा ने अन्दर बैठने पर मजबूर कर दिया था। मैं सोफ़े पर लेटा साईकोलॉजी में एक दिलचस्प मज़्मून “आप अच्छे बाप कैसे बन सकते हैं” पढ़ रहा था। सीमा सामने कुर्सी पर बैठी हुई मेरा पुलओवर बुन रही थी। उसकी गोद में “वूमन एण्ड होम” का ताज़ा पर्चा खुला पड़ा था। जिसमें उसकी किसी सहेली का “घर और आप” के उ’न्वान से मज़्मून शाए’ हुआ था।
मेरे दोनों बच्चे आशा और विनोद सर्दियों की छुट्टियों में शिमला से आए हुए थे। वो ऐसे घबराए-घबराए से कमरों के चक्कर काट रहे थे जैसे आज़ाद पंछी पकड़ कर पिंजरे में डाल दिए गए हों। इस कमरे से उस में, वहाँ से बरामदे में, फिर वापस इस चक्कर में वो अपना दिल बहलाने की कोशिश कर रहे थे।
उन्हें कमरे में न पा कर सीमा दरीचे में से झाँक कर आवाज़ देती - आशी बेटा, बाहर सर्दी है, अन्दर आ जाओ।
वो अन्दर आ जाते। चंद मिनट बैठते। फिर बाहर लान में जा पहुँचते।
नौकर ने दोपहर का खाना मेज़ पर चुन कर गांग बजाई। ये गांग सीमा ने अंग्रेज़ी नाविलों से हासिल की थी। दर-अस्ल ये चीज़ पटियाले में हमारे घर आई थी। वहाँ फ़ैक्ट्री की तरफ़ से जो कोठी मुझे मिली थी, वो जागीरदारी दौर की याद दिलाती थी। कोठी से मुलहक़ा तक़रीबन एक एकड़ का बाग़ था जिसमें अन्वाअ’-ओ-अक़्साम के फलदार और साया-दार दरख़्त थे। ऊँचे घने हरे-हरे दरख़्तों में छिपी हुई क़िला-नुमा कोठी की इ’मारत दूर से बड़ी पुर-असरार मा’लूम होती थी। बड़े-बड़े ऊँची छतों वाले दस कमरे, लंबे-लंबे बरामदे और ग़ुलाम-गर्दिशें, ऊँचे गोल सुतून, बड़ी-बड़ी मेहराबें। सारी कोठी पर हमारा क़ब्ज़ा था। मालिक कलकत्ता में रहने लगा था। कलकत्ता से उसने मुझे अपनी नई फ़ैक्ट्री का चीफ़ इंजीनियर बनाकर पटियाले भेज दिया था और रिहाइश के लिए अपनी कोठी दे दी थी। चार माली अपने बाल बच्चों समेत मुलहक़ा क्वार्टरों में रह रहे थे। बाग़ में चार मोर थे जो बरसात में माहौल को अपनी आवाज़ और रक़्स से ख़ूबसूरत बना देते। एक तालाब था जिसमें बतख़ें तैरती रहती थीं। एक और छोटा सा तालाब था जिस पर जाली तनी हुई थी और जिसमें रंग-बिरंगी नन्ही-नन्ही, ख़ूबसूरत मछलियाँ थीं। बड़े सरदार साहब ख़ासे शौक़ीन आदमी थे और ये कोठी उनकी ‘ऐश-गाह थी। उनके बा’द लड़कों ने कारख़ाने वग़ैरा लगा लिए और बिज़नेस के सिलसिले में कलकत्ता, बंबई, दिल्ली, मद्रास और लखनऊ वग़ैरा में फैल गए।
सीमा तो वो जगह देखते ही ख़ुश हो गई थी। उसका बस चलता तो ख़रीद लेती। मेरे दफ़्तर जाने के बा’द वो दिन-भर बाग़ की सैर करती रहती। उसने कई ऐसी जगहें और ख़ूबसूरत कुंज तलाश कर लिए थे जहाँ अपनी सहेलियों को पिकनिक के लिए बुलाया करती थी। वहीं उसे गांग की भी सूझी। हम टहलते-टहलते दूर निकल जाते तो नौकर को भागना पड़ता। उसकी मदद के लिए गांग लाई गई थी।
आशा और विनोद जब छुट्टियों में पटियाला आए तो बहुत ख़ुश हुए। सारा-सारा दिन वो तितलियों के पीछे भागते फिरते, फूल इकट्ठे करते। या बतख़ों और मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाया करते। जब जाते तो उनकी तितलियों और फूलों की एल्बम ख़ूब भरी होती। यहाँ आकर तो वो ख़ुद को जेल में समझने लगे थे।
घंटी की आवाज़ सुनकर विनोद भागता हुआ आया और सीमा से टकरा गया। पर्चा नीचे क़ालीन पर जा गिरा। सलाइयाँ उसने सँभाल लीं।
“विन्नी, ये क्या बद-तमीज़ी है”, उसने अंग्रेज़ी में डाँटा।
वो बच्चों की तर्बियत में ज़रा सी बात का भी ख़याल रखती है। और उनसे हमेशा अंग्रेज़ी में गुफ़्तुगू करती है। इसीलिए उसने दोनों बच्चों को शिमले अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िल कराया है। वो उन्हें अच्छा, बा-वक़ार और ज़िम्मेदार शह्री बनाना चाहती है। वैसे इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि दोनों बच्चे शिमले में रह कर बहुत कुछ सीख गए हैं।
विन्नी सँभल गया और गर्दन लटका कर बोला, “सौरी मम्मी”
मैं सात साला विनोद की तरफ़ देखकर मुस्कुरा दिया। कॉन्वेंट की ता’लीम ने उसे भी ये बातें सिखा दी हैं। ये सीमा की दूर-अन्देशी का नतीजा है। घर की सारी ज़िम्मेदारी उस पर है। हर महीने मैं अठारह सौ रुपए लाकर उसके हवाले कर देता हूँ। वही घर का ख़र्च चलाती है। यहाँ तक कि मेरे लिए टाईयाँ और जुराबें वग़ैरा भी वही ख़रीदती है। ये नहीं कि वो बहुत बे-दर्दी से ख़र्च करती है। हर माह एक कसीर रक़म बैंक में अलग-अलग हिसाबों में जमा’ करा देती है। इंशोरेंस की क़िस्त भी अदा कर देती है। सच तो ये है कि सीमा ने मेरे घर को स्वर्ग बना दिया है।
आशा जो ताश के पत्तों से घर बनाने में मसरूफ़ थी। मुँह बनाकर बोली, “मम्मी, इत्ती सी तो कोठी है। हम तो बोर हो गए हैं यहाँ आकर।”
आशा ने बिल्कुल दुरुस्त कहा था। शिमला की खुली और शगुफ़्ता फ़ज़ा से निकल कर अमृतसर की घुटन में बोर हो जाना यक़ीनी था। ले दे के तीन तो कमरे थे। वो भी छोटे-छोटे। अन्दर एक छोटा सा सहन और बाहर बराए-नाम लान और आगे कच्ची सड़क जिस पर दिन-भर गर्द उड़ा करती। नालियों में पानी खड़ा रहता और फ़ज़ा में सड़ांद भरी रहती। बाईं तरफ़ कोठी के साथ एक ख़ाली प्लाट था जो इस ‘इलाक़े का कबाड़-ख़ाना बन गया था। या’नी जो घर की फ़ुज़ूल और काम न आने वाली चीज़ होती, लोग बग़ैर सोचे समझे उधर फेंक देते। टीन के ज़ंग-ख़ुर्दा डिब्बे, चीथड़े, गत्ते के मुड़े हुए डिब्बे। मिट्टी और प्लास्टिक वग़ैरा के टूटे हुए खिलौने और रद्दी काग़ज़, सब्ज़ियों के छिलके, सूखी रोटियाँ। इस ढेर को आप डिपार्टमैंटल कबाड़-ख़ाना कह सकते हैं। उसके साथ में एक गढ़ा है जिसमें अत्राफ़ की कोठियों वाले अपना गंदा पानी निकाला करते हैं। उस सियाह पानी की झील, जिसमें मच्छरों के दल रहा करते हैं, के ज़रा परे एक झोंपड़ी सी है, इधर-उधर से ईंटें उठाकर वहीं ज़मीन से मिट्टी खोद कर गारे से चिनाई करके वो कोठरी बनाई गई है। उसे देखकर जुग़राफ़िया की किताबों में देखे हुए एस्कीमोज़ के घर याद आने लगते हैं। कोठरी के दरवाज़े की जगह एक पुराना ज़ंग-ख़ुर्दा टीन लगा दिया गया है जो हर पाँच मिनट के बा’द चूँ, चर्र, चीं के गीत गाता है और जब उसमें रहने वालों का कोई बच्चा रूठ जाता है तो गु़स्से में उसे बजाने लगता है। या माँ अपने सबसे छोटे बच्चे को बहलाने के लिए सूखी दातुन से टीन का तबला बजाने लगती। दिन हो या रात ये हंगामा जारी रहता। सीमा तंग आ गई थी। हाल तो मेरा भी बुरा था। लेकिन कोई ढंग की जगह मिल नहीं रही थी। इस कोठड़ी में कोई बूटा सिंह लंगड़ा मा’ एक ‘अदद सूखी हुई, ऊँचे-ऊँचे दाँतों वाली बीवी और छः बच्चों के रहा करता था। वो इस ‘इलाक़े में सब्ज़ी बेचा करता था उसका ख़ानदान देखकर ऐसा महसूस होता जैसे समाज ने उठाकर उन्हें भी इस कबाड़-ख़ाने में फेंक दिया हो। ग़ैर-ज़रूरी और नाकारा समझ कर।
इधर गांग बजी उधर टीन बजाया गया।
“ओह नानसेंस।”, सीमा खिच कर बोली, “मैं तो पागल हो जाऊँ यहाँ।”
“फिर तो मम्मी बड़ा मज़ा आया करेगा तुम्हें छेड़कर।”, विनोद बोला।
सीमा हँस दी। बच्चों की िवट (Wit) पर वो बहुत लुत्फ़-अन्दोज़ होती है।
“अच्छा चलो खाने की घंटी हो गई है।”, सीमा ने ऊन के गोले और सलाइयाँ बास्केट में रखकर उठ खड़ी हुई - “आओ बेटे।”
आशा और विनोद खाने से पेशतर वाश-बेसिन पर जा कर हाथ धो आए कुर्सियों पर बैठ कर।
इतवार का दिन था सुब्ह से बादल छाए हुए। दोनों ने...। परकंज़ बिछाए और चमचे से सूप पीने लगे। सूप के बा’द विनोद ने छुरी बाएँ हाथ में पकड़ी तो सीमा ने झट टोका।
विनोद को फ़ौरन अपनी ग़लती का एहसास हो गया। उसने छुरी दाएँ हाथ में ले ली और कांटे से खाने लगा।
“मम्मी हम अंकल के हाँ गए थे ना, उनका रमेश चार ये बड़ी-बड़ी रोटियाँ खा गया, और सारे बाज़ू और मुँह ख़राब कर लिया था। जैसा मैंने कहा कि इस तरह नहीं खाते तो हँसने लगा।”
“मम्मी उनकी गड्डी बड़ी डर्टी थी।”, आशा बोली।
मेरे बच्चे अंग्रेज़ी के अल्फ़ाज़ ज़रूर इस्ति’माल करते हैं। और उन्हें ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार, और बा, बा, ब्लैक शीप, ज़बानी याद हैं। उन्हें ये भी पता है कि क्राइस्ट कौन था और सलीब पर चढ़ा दिया गया था लेकिन उन्हें अर्जुन और राम के बारे में कोई ख़ास इ’ल्म नहीं।
खाने से फ़ारिग़ हो कर हम आकर लेटे ही थे कि बाहर एक दम शोर बुलन्द हुआ।
“हराम-ज़ादी!”, करनैल सिंह की भद्दी आवाज़ सुनाई दी।
“ज़बान खींच लूँगी जो फिर गाली दी।”, उसकी बीवी की तीखी आवाज़ उभरी।
उनकी लड़ाई तो कोई नई बात नहीं थी। लेकिन आज अन्दाज़ निराला था। हम सब बाहर लान में चले गए।
“कैसे बेहूदा लोग हैं ये।”, सीमा ने कहा।
“जाहिल गँवार।”, मैंने राय दी।
“मम्मी ये अपने बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भेजते।”, विनोद ने कहा, “एक दिन मैंने उससे पूछा था स्कूल क्यों नहीं जाता। अकड़ के बोला नहीं जाता। मम्मी उनको ज़रा अ’क़्ल नहीं।”
“तुम उससे बात क्यों करते हो?”, सीमा ने दुरुश्ती से कहा।
विनोद ने जवाब दिया, “उस दिन कहने लगा। तेरे कपड़े बड़े अच्छे हैं। मैंने कहा तू भी पहना कर। तो बोला हमारे पास नहीं हैं। मम्मी उनके पास क्यों नहीं हैं?”
सीमा ने विनोद के सवाल का जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा।
“और मम्मी उसकी बहन है ना। अपनी फ़्राक से नाक पोंछ रही थी। बड़ी गंदी है वो मम्मी। उसके सर में जुएँ पड़ी हैं। कल उसने मुँह भी नहीं धोया था। और सुब्ह-सुब्ह रोटी खा रही थी। मम्मी ये ब्रेकफास्ट नहीं करते
“ज़रा तमीज़ नहीं करनैल के बच्चों को।”, सीमा कहने लगी। चीज़ माँग कर खा लेते हैं। चोरी की भी आ’दत है। कल सामने वालों के हाँ से अमरूद उठा लाई उसकी छोटी लड़की।”
“कमीने शख़्स हैं”, मैंने कहा।
“गोली मार देनी चाहिए इन्हें तो।”, सीमा ने फ़ैसला सुना दिया।
करनैल सिंह गालियाँ देता हुआ दुकान की तरफ़ चला गया। उसकी बीवी गालियाँ बकती हुई कोठरी में चली गई। बच्चे बाहर रह गए। बड़ा लड़का और लड़की सड़क की तरफ़ भाग गए। दूसरे बच्चे मिट्टी के ढेर पर बैठ गए। न जाने किस चीज़ पर उनका आपस में झगड़ा हो गया कि एक ने दूसरे के बाल पकड़ कर ढेर पर ही गिरा लिया। और एक दूसरे को ग़लीज़ गालियाँ देने लगे। उनमें से एक भाग कर दरवाज़े के नज़्दीक जा खड़ा हुआ।
माँ ने बाहर आकर उसी के दो-चार लगा दीं। वो कूदता हुआ सड़क पर चला गया। उसकी सबसे छोटी बच्ची रोने लगी। उसे बहलाने के लिए उसने सड़क पर फेंकी हुई दातुन उठाकर टीन बजाना शुरू’ कर दिया। और बच्ची को बहलाने लगी।
आँ, आँ... अर... अर्र... रा.... आँ...
हम लोग अन्दर आ गए। बच्चे लूडो खेलने लगे सीमा फिर पुलओवर बुनने लगी। मैंने पर्चा उठा लिया।
सलाइयाँ रख सीमा अंग्रेज़ी में बोली,
“बराबर बच्चे पैदा किए जाते हैं ये लोग। घर में खाने को होता नहीं, मैंने उस औ’रत से कहा था बन्द करो ये सिलसिला बेवक़ूफ़। बोली, सब वाहेगुरू के हाथ में है।”
बच्चे लूडो छोड़कर कैरम उठा लाए और मुझे और सीमा को भी शामिल कर लिया। दूसरी गेम शुरू’ करने से पहले आशा बोली, “अब की आप हारे तो हमें फ़िल्म दिखाएँगे।”
“मन्ज़ूर कर लीजिए डैडी।”, विनोद बोल उठा। वो मेरा पार्टनर था
“अरे भाई ये दोनों औ’रतें मिलकर हम दोनों को हरा देंगी।”
“नहीं डैडी, हम इन्हें हरा देंगे।”, विनोद जोश में बोला।
“अरे तुम्हारे डैडी क्या जीतेंगे हमसे”, सीमा ने मुस्कराकर कहा।
“सच फ़रमाया मुहतरमा।”, मैंने कहा।
सीमा के रुख़्सार गुलाबी हो गए।
“अच्छा, अच्छा, आप स्ट्राईक कीजिए।”
खेल हो रहा था। बाहर नौकर से किसी के बातें करने की आवाज़ आई। कोई मेरा नाम लेकर पूछ रहा था।
“वक़्त दे रखा था किसी को?”, सीमा ने पूछा।
“नहीं तो, न जाने कौन आ गया है।”, मैंने कहा और उठकर बाहर चला गया।
बाहर मेरा करन सुधीर मा’ बीवी बच्चों के खड़ा था। मैं उसे अन्दर ले आया।
सुधीर मेरा ख़ाला-ज़ाद भाई है। दसवीं पास करने के बा’द एक बैंक में क्लर्क हो गया था। आज भी क्लर्क है। जब से मैं अमृतसर आया था। वो सड़क पर दो-चार मर्तबा मिल चुका था। बड़े तपाक से हाथ जोड़ कर नमस्ते करता और इस तरह धीरे-धीरे बात करता जैसे अपने मैनेजर के सामने खड़ा है। उसकी बातों से मुझे इ’ल्म हुआ कि वो अपने मैनेजर से कह चुका है कि उसका बड़ा भाई बहुत बड़ा इंजीनियर है और अठारह सौ रुपए तनख़्वाह लेता है। वो मुझे सीमा और बच्चों को लेकर घर आने की दा’वत भी दे चुका था। सीमा शह्र की गंदी गलियों से घबराती है। उसका वहाँ दम घुटने लगता है। मेरे दोनों बच्चे भी पसन्द नहीं करते। मैं इस लिए टाल जाता। अख़्लाक़ी तौर पर फ़र्ज़ समझते हुए मैंने उसे यूँही आने के लिए कह दिया था। और वो सच-मुच आ गया है।
अन्दर आकर मैंने सीमा से उनका त’आरुफ़ कराया। जब मैंने बच्चों से कहा कि ये तुम्हारे अंकल हैं तो दोनों ने मुस्कराकर कहा, “गुड आफ़्टर-नून।”
सुधीर के चारों बच्चे हैरान से आशा और विनोद की तरफ़ देखने लगे। ये हमारे हम-उ’म्र अंग्रेज़ी भी बोल लेते हैं।
सुधीर ने अपने बच्चों से कहा, “नमस्ते करो।”
वो हँसकर रह गए।
“शर्मा रहे हैं।”, सुधीर की बीवी ने पर्दा डाला।
जब हम बातों में मह्व हुए तो सुधीर के बच्चे ख़ासे बे-तकल्लुफ़ हो चुके थे। एक ने बढ़कर सीमा के मन-पसन्द मनी प्लांट की एक टहनी जड़ से उखाड़ ली थी और ऐसे पौदे को हैरत से देख रहा था जो पीतल के गमले में कमरे के अन्दर ही उग रहा था।
दूसरा दरवाज़े के पर्दे से मुँह साफ़ कर आया।
तीसरा उठ कर कारनिस पर रखे ताज-महल का मुआ’इना कर रहा था। जब वहाँ से हटा तो कोट की आस्तीं से उलझ कर चीनी का एक गुल-दान फ़र्श पर आ रहा। और बाक़ी कभी ये एक गुल-दान था, रह गया।
“मोहन तू एक जगह नहीं बैठ सकता।”, सुधीर ने उसे डाँटा
“कोई बात नहीं। बच्चा ही तो है।”, सीमा ने अख़्लाक़न नर्मी दिखाई। अगर ये हरकत विनोद या आशा से हुई होती तो वो कभी मु’आफ़ न कर सकती। ये दोनों गुल-दान उसकी एक सहेली ने लाहौर से भेजे थे। वो उन्हें देख-देख कर कॉलेज के दिन याद किया करती थी। और ज़ह्रा की शरारतें बयान किया करती थी।
“आशी, बेटा इन्हें ले जाकर अपने खिलौने दिखाओ।”, मैंने कहा।
आशा और विनोद उन्हें अपने साथ ले गए।
“आप तो बड़ी साफ़ सुथरी जगह रह रही हैं।”, सुधीर की बीवी ने कहा, “हमें तो गंदी सी गली में एक कमरा और एक रसोई मिली है।”
“आप गुज़ारा कैसे करती हैं, इतनी कम जगह में।”
“इसके भी बीस देते हैं। ज़ियादा दे नहीं सकते।”, सुधीर ने बड़ी मा’सूमियत से कहा।
“बच्चों की ता’लीम पर भी बहुत ख़र्च हो जाता है।”, सीमा ने कहा।
“वो तो अभी कमेटी के स्कूल में पढ़ते हैं।”, उनकी माँ ने कहा।
“कमेटी के!”, सीमा हैरान सी उसकी तरफ़ देखने लगी। वहाँ क्या पढ़ाई होती होगी। भूके मास्टर पढ़ाएँगे ख़ाक।”
“आपने बच्चों को कहाँ दाख़िल कराया है।”, सुधीर की बीवी ने पूछा।
“शिमले!”, सीमा ने ठाठ सा कहा।
सुधीर और उसकी बीवी बेहद मर’ऊब हुए और कमरे की छत की तरफ़ देखने लगे।
“बड़ा ख़र्च होता होगा?”, सुधीर की बीवी ने पूछा।
“चार-सौ रुपया महीना दोनों का।”
वो मियाँ बीवी खिड़की से बाहर धूप का नज़ारा करने लगे।
साथ वाले कमरे से गाली की आवाज़ आई।
“जी, ये मोहन बड़ी गालियाँ बकने लग गया है।”, सुधीर की बीवी ने कहा।
विनोद रोता हुआ आया।
“डैडी, रमेश ने मेरी लूडो फाड़ वाली है और गालियाँ भी दे रहा है।”
“जी उसे इधर बुलाइए।”, सुधीर की बीवी ने कहा। फिर सीमा से मुख़ातिब होती, “बहन जी। मैं तो तंग आ गई हूँ इन बच्चों से।”
सुधीर आवाज़ देने ही वाला था कि वो ख़ुद आ गए। सब के हाथ में गुलाब और डेलिया के फूल थे।
“मम्मी इन्होंने सारे फूल तोड़ लिए।”, आशा ने शिकायत की, “मैंने मना’ भी किया पर माने नहीं।”
सीमा ने पौदे ख़ुद लगाए थे। छोटे से सहन में गिनती के तो पौदे थे। उन्हें ख़ुद सींचा था। उनकी हिफ़ाज़त की थी और वो फूल जिन्हें वो मुझे भी नहीं तोड़ने देती थी। इन बच्चों ने तोड़ लिए थे। मैंने देखा वो जब्र किए बैठी थी। उसके चेहरे पर दुख और ग़ुस्से की परछाइयाँ तैर रही थीं।
सुधीर ने बड़े लड़के को पकड़ कर ज़ोर से चपत जड़ दी।
“मारते क्यों हो।”, मैंने उसे समझाया, “छोड़ो, जाने दो।”
“नहीं भाई साहब, नाक में दम कर दिया है इन बच्चों ने। एक मिनट नहीं बैठते आराम से।”
रमेश हाथ छुड़ा कर बाहर चला गया और लान में जाकर सर में धूल डालने लगा।
“मम्मी, रमेश, अपने कपड़े गंदे कर रहा है।”, विनोद ने खिड़की से देखकर बताया।
सुधीर की बीवी ख़ाविन्द से पहले बाहर निकल गई और मोहन को अन्दर ले आई।
नौकर ने चाय का वक़्त होने पर चाय लगा दी। हम सब चाय की मेज़ पर जा बैठे।
“मोहन हाथ धो लो।”, विनोद ने कहा।
मोहन ने मिठाई की प्लेट से दोनों हाथों में मिठाई भर ली। फिर एक हाथ की मिठाई जेब में डाल कर प्लेट से केला उठा लिया।
“हम भी लेंगे।”, दूसरे बच्चे ज़िद करने लगे।
“ले लो।”, मैंने कहा।
वो भूकों की तरह प्लेटों पर टूट पड़े। मिनटों में दोनों प्लेटें ख़ाली हो गईं।
“मोहन तुम्हारे होंटों पर लड्डू लग गया है।”, आशा ने बताया।
मोहन ने कोट की आस्तीं से मुँह साफ़ कर लिया।
“तुम्हारे पास रूमाल नहीं है?”, आशा ने पूछा।
“जा नहीं है तुझे क्या।”, मोहन ने डाँट दिया।
आशा माँ की तरफ़ देखकर चुप रह गई।
“हमारी सिस्टर ऐसी बात पर नाराज़ होती है।”, विनोद बोला।
“सिस्टर क्या होती है।”, मोहन ने पूछा।
“जो पढ़ाती है स्कूल में।”, विनोद बोला।
“हमें मास्टर पढ़ाता है।”, मोहन ने बताया, “उसे पढ़ाना ही नहीं आता। कुर्सी में सोया रहता है।”
इस बात पर सब हँस दिए।
कुछ देर बा’द वो लोग चले गए। सीमा ने जैसे सुख का साँस लिया। बोली,
“ऐसे थर्ड क्लास बच्चे मैंने आज तक नहीं देखे।”, और “वूमन ऐंड होम” में मज़्मून पढ़ने लगी।
मैंने साईकोलॉजी के वरक़ पलटने शुरू’ कर दिए। एक जगह लिखा था,
आपके बच्चों को अच्छा शह्री बनने के लिए अच्छा माहौल चाहिए।
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