ये बच्चे
स्टोरीलाइन
भारत और कम्युनिस्ट रूस में पैदा होने वाले बच्चों की परवरिश और उनकी देखभाल की तुलना करती हुई यह कहानी बताती है कि आख़िर हमारे समाज में बच्चों को मुसीबत क्यों समझा जाता है। आख़िर माँयें अपने बच्चों से परेशान क्यों रहती हैं और बड़े हो कर वे बच्चे लायक़ इंसान क्यों नहीं बन पाते? इसकी वजह है हमारी सरकारों के नज़रिए। जो आप इस कहानी में पढ़ सकते हैं।
एक ज़माना था जब मेरा ख़याल था कि दुनिया में बच्चे के सबसे बड़े दुश्मन उसके माँ बाप और भाई-बंद होते हैं। वो उसके दिल की बात समझने की कोशिश नहीं करते। बेजा ज़बर-दस्तियों से उसकी उभरती हुई ताक़तों को कुचल देते हैं। यही वज्ह है कि जब बड़े हो जाते हैं तो बजाए मुकम्मल इंसान बनने के चोर, डाकू और उचक्के बन जाते हैं। जभी तो हमारा देश तरक़्क़ी नहीं कर पाता।
लेकिन ख़ुद माँ बनने के बा'द मेरे ख़यालात ने एक-दम से पल्टा खाया और यक़ीन हो गया कि आजकल के बच्चे ही कुछ ज़रूरत से ज़्यादा हटीले, बेचैन और मुँह-ज़ोर पैदा हो रहे हैं। उनकी ता'मीर में ही कोई ख़राबी पैदा हो जाती है जो उन्हें जंगली बना देती है। अगर सलीक़े से बच्चे पैदा किए जाएँ तो हमारे देश के दलिद्दर दूर हो जाएँगे।
इसी सिलसिले में मैंने साईकोलॉजी से मदद लेनी चाही और जी भर कर तहलील-ए-नफ़सी कर डाली। मगर बे-कार क्योंकि मुझे जल्द ही मा’लूम हो गया कि ये जिस पगडंडी पर मैं बहक कर चली आई हूँ, ‘ये कुछ भी नहीं’ की दुनिया के बीचों बीच ख़त्म हो जाती है। मेरे दोनों ख़याल ग़लत थे, न माओं का क़ुसूर है न बेचारे बच्चों का। क़ुसूर सारा है इस तरीक़ा-ए-ज़िंदगी का, जो एक मख़सूस निज़ाम ने हमारी जानों पर लागू कर रखा है।
जिसने माँ और बच्चे का रिश्ता भी तोड़-मरोड़ कर एक कारोबारी शय बना दिया है। अव्वल तो बच्चे के ख़याल ही से एक माँ लरज़ उठती है। जिस्मानी कोफ़्त के डर से नहीं, इस डर से कि घर में एक और खाने वाला मुँह बढ़ा। एक और जिस्म ढाँकने की फ़िक्र बढ़ी। फिर अगर लड़का है तो ख़ैर, खुदा न करे लड़की है तो एक और तावान भुगतने को तैयार हो जाइए। उसकी शादी ब्याह की फ़िक्र।
लोग कहते हैं कि अदीबों को अदब से सरोकार रखना चाहिए और ख़्वाह-मख़्वाह सरकार से न उलझना चाहिए, तो भई यहाँ किसे सरकार से दस्त-ओ-गरीबाँ होने का शौक़ है। अब इसमें हमारा क्या क़ुसूर कि ज़िंदगी के हर मोड़ पर सरकार से मुड़भेड़ हो जाती है। कित्ता ही दिल को समझाएँ, अब यक़ीन नहीं आता कि हमारी मुसीबतों के बढ़ाने में देवी-देवता या तक़दीर का हाथ है। हम अब पहचान चुके हैं कि किसका हाथ है, जिसने अपने भयानक शिकंजे में हमारी ज़िंदगी की ज़रूरीयात को दबोच रखा है। वो मुनाफ़ा-ख़ोरों.. चोर-बाज़ारियों का हाथ जो हमारी सरकार की लगामें थामे है और जिसके इशारों पर हमारे ऊपर फ़ील-ए-मस्त हमले करता है और हम ये सब कुछ इसलिए समझ गए हैं कि हमारे सामने रूस की शानदार मिसाल है।
जहाँ का निज़ाम मज़दूरों और किसानों का है जो उन्होंने बरसों की मेहनतों और क़ुर्बानियों के बा'द ख़ुद अपने लिए ता'मीर किया है। रूस में बच्चा जंजाल नहीं, मुल्क का एक ताक़तवर बाज़ू है, मुल्क की दौलत है, जहाँ पैदाइश से पहले ही माँ की तख़लीक़ी अज़मतों को मर्हबा कह कर आने वाले मेहमान की आवभगत शुरू' हो जाती है। उससे बार-बरदारी के काम नहीं लिए जाते बल्कि उसकी सेहत को और बढ़ाने के लिए हल्के-हल्के दिल-चस्प काम लिए जाते हैं। उसके लिए बा-क़ायदा ख़ास ख़ुराक का राशन मुक़र्रर हो जाता है।
जब ज़माना क़रीब हो जाता है तो उसे अच्छे ज़च्चा-ख़ाने में भेज दिया जाता है जहाँ वो बड़े सुकून-ओ-आराम से जनम देती है। ग़ुलाम मुल्कों में ज़च्चाएँ फ़ौरन ही मेहनत-मज़दूरी पर मजबूर हो जाती हैं। जिसकी वज्ह से अपनी रही सही ताक़त खो बैठती हैं।
मगर रूस में जब तक ज़च्चा को डाक्टर इस क़ाबिल नहीं समझते, नर्सिंग होम में ही रहती हैं। जब मुकम्मल तौर पर चाक़-ओ-चौबंद हो जाती है तब वो काम पर लौटती है। यहाँ वो बच्चे को कमर पर लाद कर नहीं लाती जैसे हमारी मेहनत-कश औरतों को करना पड़ता है कि दूध पीते बच्चे को सड़क के किनारे रेत... धूल में डाल कर ख़ुद-काम पर जुट जाती हैं।
रूस के सुनहरे देश में बच्चों के घर में जहाँ मुहब्बत करने वाली नर्सें और मश्शाक़ डाक्टर उनकी देख-भाल करते हैं। दिन-भर बच्चे वहाँ बड़े आराम से रहते हैं, शाम को माएँ उन्हें अपने घर ले आती हैं। हमारे यहाँ दूसरे से तीसरे बच्चे के आने की ख़बर से ही माँ बाप के होश उड़ जाते हैं।
पहले तो महल्ले टोले ही की फ़न-कार रवाइयाँ उसको अल्टीमेटम देने की कोशिश करती हैं जिसकी वज्ह से मुल्क में हज़ारों औरतें मौत के घाट उतर जाती हैं, या सदा की रोगी बन जाती हैं। मगर रूस में ज़र-ख़ेज़ होने को जुर्म या गुनाह नहीं समझा जाता, बल्कि जैसे अच्छे फल-फूल पैदा करने पर काश्त-कार की शोहरत होती है, उसी तरह ज़्यादा बच्चों वाली माँ को तमग़ा या इनआ'म मिलते हैं।
वहाँ ये सारे बच्चे माँ की छाती पर मूँग दलने को पिले नहीं रहते न महल्ले टोले का नातिक़ा बंद करने को उचक्कों के गिरोह मज़बूत करते हैं बल्कि उनके लिए भी घर होते हैं। जहाँ उनकी ता’लीम-ओ-तर्बियत का पूरा ख़याल रखा जाता है। यूँ तो अमरीका और इंग्लिस्तान में भी ऐसे बोर्डिंग मौजूद हैं जहाँ बच्चों को रखा जाता है। मगर हम देखते हैं कि इन मुल्कों के बच्चे छोटी सी उ'म्र में ही निहायत गंदी आदतों के शिकार हो जाते हैं। अमरीका के मुफ़क्किर बड़ी फ़िक्र में हैं कि ये बच्चे इतने गुमराह क्यों पैदा हो रहे हैं और वो बैठ-बैठ कर नफ़सियाती तवज्जीहें ढूँढ रहे हैं हालाँकि बात सीधी-सादी है।
अमरीका के बच्चे वहाँ के सामराजी निज़ाम की पैदावार हैं। जो वालिदैन तिजारती मंडियों और सियासी स्टेज पर कर रहे हैं, बच्चे वही स्कूलों और कॉलिजों में कर रहे हैं, वही लूट मार, वही मुँह-ज़ोरी और ग़ुंडा-गर्दी... आज वो ग़ुंडों के सरदार हैं। कल उन्हें फर्मों और मिलों का मालिक बन कर उसी खेल को हक़ीक़त बनाना है, वही रंग-ए-नस्ल की तफ़रीक़, एटम-बम की धमकियाँ इन खेलों में रची नज़र आती हैं।
इन मुल्कों को तो फ़ख़्र करना चाहिए कि उनकी आइंदा नस्लें इतनी होनहार पैदा हो रही हैं तो फिर ये हैरत और तअ'स्सुफ़ कैसा? इस फ़िज़ा में पलने वाले बच्चों पर कोई ता’लीम कोई तर्बियत असर न डाल सकेगी। सबसे बड़ी तर्बियत अ'मल है और रूस की गर्वनमैंट का अ'मल वहाँ के अ'वाम में झलकता है। हर रूसी बच्चा इस अ'मल का अक्स लेकर ज़िंदगी में क़दम रखता है।
इसके अ'लावा बच्चों के लिए वहाँ अलाहिदा सिनेमा घर, थियटर और लाइब्रेरियां हैं। जहाँ उन्हें खेल ही खेल में मेहनत-कश और मुफ़ीद इंसान बनने की ता’लीम दी जाती है। तबीअ'त के रुझान को देखकर उसका आइंदा फ़र्ज़-ए-ज़िंदगी मुक़र्रर किया जाता है। वहाँ उन्हें बताया जाता है कि एक मेहनत-कश, एक फ़नकार, वो ख़्वाह किसी मुल्क और किसी रंग और नस्ल का हो सारी दुनिया की दौलत है। और उसकी अपनी दौलत है और अपने मुल्क के लिए दौलत ख़रीद कर नहीं ख़ुद अपने क़ुव्वत-ए-बाज़ू से पैदा की जाती है। बच्चों को मिलों में भारी काम नहीं दिए जाते ताकि उनकी बढ़वार न मारी जाए।
वो माएँ जिनके बच्चे दिन रात उन घरों में रहते हैं, अपने काम से लौट कर वहाँ जाती हैं और वहाँ अपने ही नहीं हज़ारों और बच्चों को कलेजे से लगाकर ममता ठंडी कर सकती हैं। रूस के दुश्मन कहते हैं कि इज्तिमाई' ज़िंदगी ने घरेलू ज़िंदगी को फ़ना कर दिया है। इन अहमक़ों को कौन समझाए कि रूस में एक बाँझ को भी बच्चे गोद लेने की ज़रूरत नहीं, मुल्क के सारे बच्चे ही उसके बच्चे हैं, सारा मुल़्क ही एक ख़ानदान है जहाँ न बच्चों की कमी हो सकती है न माँ-बाप की।
मगर हमारे मुल्क में हमारी सरकार की राय है कि शकर के दाने गिन गिन कर माएँ बच्चों को जनम दें, न ज़रूरत से ज़्यादा बच्चे पैदा होंगे न शकर की कमी पड़ेगी। क्योंकि अब ये डर हो गया है कि कम्यूनिस्ट माँ के पेट ही में बच्चे के कान में सरकार के ख़िलाफ़ भड़काने वाली बातें फूँक देते हैं। जभी तो आजकल के बच्चे जनम से शकर-ओ-दूध के लिए मुँह फाड़े पैदा होते हैं।
इसीलिए हमारी मेहरबान सरकार ने “अनाज उगाओ” की स्कीम से ज़्यादा ज़ोर-ओ-शोर से “बच्चा न उगाओ” की स्कीम चालू करने की ठान ली है। ऐसे मुल्क में अगर कोई ढीट बच्चा आन ही टपकता है तो वो एक मुसीबत समझा जाता है। लोग कहते हैं बच्चे आँख का नूर, दिल का सुरूर होते हैं। होते होंगे, मगर हमारी आँखें तो आँखों के इस नूर को ना-काफ़ी और ग़लत ख़ुराक की वज्ह से बुझते दिए की तरह काँपता देखती हैं। जिस बच्चे को देखते दुनिया-भर के रोग जान को चिमटे नज़र आते हैं। ख़ून की कमी की शिकायत तो आम होती है। जिसकी वज्ह से आए दिन बीमारियों का शिकार होते रहते हैं।
अस्पतालों में नन्हे-नन्हे मुरझाए हुए फूल हज़ारों की ता'दाद में क्यों खड़े रहते हैं? सड़कों पर लाखों मा'सूम हाथ हमारी तरफ़ भीक के लिए फैले नज़र आते हैं, और हमारा ज़मीर इस तमाँचे से तिलमिला कर रह जाता है। जिस उ'म्र में रूस के बच्चे खेल कूद कर सेहत बनाते हैं, हमारे बच्चे रोज़ी की फ़िक्र में परेशान फ़ुट-पाथ पर पाटिया लिए बैठने में गुज़ार देते हैं, रूस में चौदह-पंद्रह बरस की लड़कियाँ यूनीवर्सिटी की डिग्री की तैयारी करती हैं। हमारे मुल्क की इस उ'म्र की ज़्यादा-तर लड़कियाँ फ़िल्मी गीत गुनगुना कर साजन को पुकारने में गुज़ार देती हैं।
रूस में हर बच्चे को मुफ़्त ता’लीम दी जाती है बल्कि जब्रिया ता’लीम दी जाती है, और हमारे मुल्क के तालिब-इ'ल्म उल्टी जब्रिया ता’लीम हासिल करना चाहते हैं तो उन पर लाठी चार्ज होते हैं, गोलियाँ चलती हैं और उन्हें सज़ाएँ दी जाती हैं, स्कूल में दाख़िल ही नहीं किया जाता। अब तो नाम निहाद ता’लीम के दरवाज़े भी बंद होते जा रहे हैं। हमारी गवर्नमेंट इ'ल्म को हिमाक़त समझ कर फ़ीस बढ़ाती जा रही है। ज़ाहिर है जहाँ पेट की आग बुझाने ही से फ़ुर्सत नहीं मिलती वहाँ ता’लीम के लिए ख़र्चा कहाँ से आए? दूसरे हमारे नेताओं का ख़याल है कि ता’लीम हासिल करने के बा'द लोग मेहनत से जी चुराने लगते हैं मगर हम जानते हैं कि हमारे नेता ता’लीम से क्यों डरते हैं।
क्योंकि वो जानते हैं कि बा-शऊ'र इंसान का ख़ून आसानी से नहीं चूसा जा सकता। पढ़-लिख कर वो अगर अमरीकी ब्लॉक की ता’लीम के दाइरे तक महदूद रहे तब तो ख़ैरियत है, मगर मुश्किल ये है कि वो रूस की ता’लीम पर भी नज़र डालने लगते हैं। जो उसे मशीन में पिसने, हलों में जोते जाने और कारख़ानों में ना-काफ़ी मुआवज़े पर जुटे रहने के ख़िलाफ़ बग़ावत पर उभारती है। हिंदोस्तान की माएँ जब रूसी बच्चों की तरफ़ देखती हैं तो वो अपने लालों के लिए भी वही सहूलतें माँगने लगती हैं जो उन्हें मयस्सर नहीं।
जभी तो हुकूमत के दुश्मनों के कैंप में जा शामिल हो जाती हैं। मगर हमारी ममता महदूद नहीं। हमें रूस के बच्चों से प्यार है, वहाँ की ख़ुश-नसीब माओं से प्यार है, वो ख़्वाह किसी मुल़्क रंग और नस्ल के बच्चे हों। दुनिया के बच्चे, दुनिया की माओं के बच्चे हैं। वो हमारे बच्चे हैं। उन पर ये मंडलाते हुए गिद्ध छापा न मार पाएँगे। हम दुनिया के बच्चों के लिए, इंसानियत के मुस्तक़बिल के लिए हर मकरूह ताक़त से मुक़ाबला करेंगे। हमने जो कुछ अपनी ज़िंदगी में खोया अपने बच्चों की ज़िंदगी में पाने की कोशिश करेंगे। हम उनके लिए उनका मुस्तक़बिल पुर-अम्न और रौशन बनाने के लिए अपनी जान की बाज़ी भी लगा देंगे।
मुबारक है वो मुल्क जहाँ बच्चा सच्चे मायनों में आँखों का नूर और दिल का सुरूर है। मुबारक है वो मुल्क जो इंसानियत का मुहाफ़िज़ है। जहाँ औरत माँ बन कर पछताती नहीं बल्कि निस्वानियत को चार चाँद लगाती है और फ़ख़्र के साथ अपनी कोख की दौलत को फलता-फूलता देखती है।
आज रूस की बत्तीसवीं साल-गिरह के मौक़े पर हम अहद करते हैं कि रूस के अ'ज़ाइम को मिशअ'ल-ए-राह बना कर हम अपने बच्चों का मुस्तक़बिल भी उतना ही रौशन उतना ही शानदार बनाएँगे जैसा रूसी बच्चों का है। हमारी ये जंग हमारे बच्चों की ख़ातिर है, उनकी हिफ़ाज़त के लिए हम तमाम फ़ाशिस्त ताक़तों से लड़ेंगे।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.