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ये मर्द

MORE BYउपेन्द्र नाथ अश्क

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे मर्द की कहानी है, जो अकेले में तो अपनी पत्नी लक्ष्मी से बहुत प्यार जताता है मगर अपनी माँ के सामने ख़ामोश हो जाता है। उसकी माँ लक्ष्मी पर एक के बाद एक ज़ुल्म करती जाती है। उन ज़ुल्मों को सहते हुए एक दिन लक्ष्मी अस्पताल पहुँच जाती है। अस्पताल में भी उसे चैन नहीं मिलता। उसका शौहर वहाँ आकर उसके सारे गहने ले जाता है और उसके मरने से पहले ही दूसरी शादी कर लेता है।

    किसी क़िस्म के एहसास के बग़ैर गोबिंद ने चुपचाप लक्ष्मी की चारपाई के इर्द गिर्द पर्दे लगा दिये, पर्दे... जो लकड़ी के फ्रे़म में सफ़ेद कपड़ा लगा कर बनाए गए थे और हस्ब-ए-ख़्वाहिश खोले या बंद किए जा सकते थे। तब मिस सुल्ताना और बकेटी तेज़-तेज़ चलती हुई आईं और उनके बाद मतीन और संजीदा डाक्टर साहब अपने भारी क़दम आहिस्ता-आहिस्ता उठाते हुए पर्दों के अंदर चले गए।

    कुछ लम्हे तक कमरे में ख़ामोशी छाई रही। सिर्फ़ छत पर लगे हुए सफ़ेद पर्दों वाले पंखे अपनी पूरी रफ़्तार से घर घर करते रहे और जून की तप्ती दोपहर अपनी नीम-वा आँखों से ग़ुनूदगी की सी हालत में चुप चाप पड़ी रही।

    यका य़क पर्दे के पीछे से कुछ उखड़ी उखड़ी साँसों की आवाज़ आई, फिर लक्ष्मी के बहके-बहके अलफ़ाज़ और फिर सुल्ताना की लंबी सांस! डाक्टर ने कहा,स्ट्रेचर ले आओ! और ये कह कर पर्दे के पीछे से निकल कर वो जैसे आए थे, वैसे ही चले गए। उनके पीछे रूमाल से आँखें पोंछती हुई सुल्ताना निकली। दूसरी बीमार औरतें तजस्सुस भरी नज़रों से उसकी तरफ़ देख रही थीं। उसके निकलते ही रशीदा ने पूछा... क्यों?

    ख़त्म हो गई! भरे गले से सुल्ताना ने जवाब दिया।

    आख़िरी वक़्त क्या कहती थी? सुरती बोली।

    सिर्फ़ एक बार खन्ना साहब को याद किया और बस! और ये कह कर आँसू पोंछती हुई सुल्ताना जल्द जल्द स्ट्रेचर लेने के लिए चली गई।

    लक्ष्मी अपने ख़ाविंद को खन्ना साहब, कह कर पुकारा करती थी। वो लाहौर ही में मुलाज़िम थे और हर सातवें दिन बाक़ायदा उसे देखने आते थे। कोई ऐसे ख़ुश शक्ल तो थे, मगर ऐसे भी नहीं कि बदसूरत कहे जा सकें। उनकी आँखों में कुछ ऐसी बात थी कि आदमी बेसाख़्ता उनकी तरफ़ खिंच जाता था और फिर इतनी बातें करते थे, इतने क़हक़हे लगाते थे कि जब वो जाते तो हस्पताल की इस ख़ामोश और साकिन फ़िज़ा में ज़िंदगी सी दौड़ जाती। फ़क़त लक्ष्मी ही उनके आने का इंतिज़ार करती हो ये बात नहीं। इस खुले और कुशादा कमरे में लोहे की सख़्त, बेदर्द चारपाइयों पर लेटी हुई बुख़ार, हरारत, दवा, परहेज़ की बातें सुन सुनकर आजिज़ आई हुई दूसरी बीमार औरतें भी उनके आने की राह देखा करती थीं। वो बातें चाहे अपने रिश्तेदारों से करती हों, लेकिन कान उनके उधर ही लगे रहते थे और लक्ष्मी वो तो जाने ये सात दिन कैसे काटती थी? हँसती थी, दूसरों को हंसाती थी, लेकिन इस तमाम हंसी ठट्ठे में अपने ख़ाविंद का इंतिज़ार जैसे उसके दिल के किसी मालूम गोशे में छुपा रहता था और कौन जानता है कि ये हंसी क़हक़हे, हस्पताल में एक बार तूलूअ हो कर फिर ग़ुरूब ही होने वाले, दिनों का काटने का महज़ बहाना थे। ये बात भी नहीं उसे अपने ख़ाविंद से इतनी मुहब्बत इस मोहलिक बीमारी के दिनों में हुई, उसी दिन, जब शादी के बाद एक महीना गुज़ार कर वो अपने मैके वापस आई थी तो उसकी सहेलियों ने जान लिया था कि बस्ती की आज़ाद फ़िज़ा में दिन रात खेलने वाली, गली मोहल्लों को अपने क़हक़हों से गुँजा देने वाली लक्ष्मी अब मुहब्बत की ज़ंजीरों में जकड़ी गई है।

    जब सहेलियाँ उसे चारों तरफ़ से घेर कर बैठ गई थीं तो उसने फ़ख़्र से कहा था, उनकी बात पूछती हो? वो तो मुझे पल भर के लिए भी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देते। कितनी कितनी देर मेरी तरफ़ देखते रहते हैं और कहते हैं...

    फर्त-ए-हया से उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया था और फिर सहेलियों के इसरार पर उसने गुलाब बन-बन कर कहा था। कहते हैं, तुम तो स्वर्ग की देवी हो, मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ।

    सत्या की रश्क भरी आँखों ने तब देखा था कि उसकी ये बात अपने ख़ाविंद से हर हिंदू औरत को जो मुहब्बत होती है, उसकी ही मज़हर नहीं, बल्कि इस हक़ीक़त पर मबनी थी जिसकी ताईद उसका रोंवां रोंवां कर रहा था। तब अपने ख़ाविंद के बे इल्तिफ़ाती का ध्यान जाने पर एक सर्द आह उसके दिल की गहराईयों से निकल गई।

    सावित्री ने अपने हसद का इज़हार एक दूसरे ही तरीक़ पर किया। खिसियानी सी हंसी हंसते हुए बोली... हाँ बहन, उन्हें मुहब्बत क्यों होगी, एक-बार हाथ से गंवा कर ही आदमी किसी चीज़ की क़दर करना सीखता है।

    इस फ़िक़रे में जो तन्ज़ पिनहां था उसकी तरफ़ ध्यान दिए बग़ैर सादा लौह लक्ष्मी ने मसर्रत की रौ में सहेलियों को अपनी इस एक महीने की इज़दवाजी ज़िंदगी की बीसियों कहानियां सुना डाली थीं। किस तरह उसके शौहर उसपे जान छिड़कते हैं। उसे आँखों से ओझल करना पसंद नहीं करते। दफ़्तर में जाने कैसे वक़्त गुज़ारते हैं? पहली बीवी... वो कहते हैं, वो तो गंवार और बेवक़ूफ़ थी। तुम्हें पा कर तो मैंने ज़िंदगी की मसर्रतें पा ली हैं।

    तारा ने तब हंसते हुए कहा... सास को ये सब कुछ कैसे भाता होगा?

    उनके दिल की मैं क्या जानूं। लक्ष्मी ने मसर्रत भरे लहजे में जवाब दिया, लेकिन मीठी तो वो ऐसी हैं जैसे मिस्री। बोलती हैं तो रस घोल देती हैं। मेरी तो आदत तुम जानती हो, सोते सोते दिन निकल आता है। मगर उन्होंने इसका कभी बुरा नहीं माना। वो ख़ुद चार बजे अलस्सबाह उठकर नहा-धो, पूजा पाठ कर, घर का सब काम ख़त्म कर देती हैं। मैं कुछ करने की कोशिश भी करूँ तो कहती हैं, तुम्हें ही तो करना है बहू, मैं कब तक बैठी रहूंगी।

    और उस दिन बस्ती में लक्ष्मी की रहम दिल और फ़र्ज़ शनास सास और मुहब्बत करने वाले हँसमुख ख़ाविंद की कहानी घर घर फैल गई थी और शादीशुदा लड़कियों ने दुआ की कि उनके ख़ाविंद और सासें भी ऐसी ही बन जाएं और कुँवारी लड़कियों ने दिल ही दिल में कहा, भगवान हमें भी ऐसा ही घर-वर देना।

    रबड़ के पहियों वाला स्ट्रेचर चुपचाप मशरिक़ी दरवाज़े से दाख़िल हुआ, गोबिंद उसे धकेल रहा था और मिस सुल्ताना ख़ामोशी से उसके साथ चली रही थी। उसका हमेशा हँसने वाला चेहरा उतरा हुआ था। जैसे उसी के किसी क़रीबी रिश्तेदार की मौत हो गई हो। मौतें, हस्पताल में हमेशा ही हुआ करती हैं और हस्पताल के मुलाज़िम इस दर्जा उनके ख़ूगर हो जाते हैं कि वो अपने सब काम किसी क़िस्म के एहसास के बग़ैर किए जाते हैं। लेकिन लक्ष्मी से सुल्ताना को मुहब्बत सी हो गई थी। सुल्ताना पर ही क्या मौक़ूफ़, सब को उस से उन्स हो गया था। उसने अपनी इज़दवाजी ज़िंदगी के कितने ही वाक़ियात एक अजीब सादगी से बयान किए थे। अपनी सास के मुताल्लिक़ उसके दिल में जो बुलंद ख़यालात थे उन्हें हवा होते देर नहीं लगी। वही ज़बान जो पहले रस की धारें बहाती थी बाद को ज़हर भी उगलने लगी। खन्ना साहब तब मुलाज़िम नहीं हुए थे। मगर घर की सियासियात में वो माहिर थे। अपना काम चालाकी से निकालना जानते थे। माँ के सामने चुप रहते लेकिन तन्हाई में कहते, लक्ष्मी इन सब क़ुसूरों के लिए मैं तुमसे माफ़ी चाहता हूँ और तब उसे सास की झिड़कियां, ताने कोसने, गालियां बिल्कुल भूल जातीं और ख़ाविंद से उसकी अक़ीदत कई गुना बढ़ जाती। वो साथ हैं तो फिर चाहे सारा जहान ख़िलाफ़ हो जाये, वो सबकी मुख़ालिफ़त ख़ुशी ख़ुशी झेल लेगी। जी चाहते हुए भी, सास को ख़ुश करने के लिए उसने भगवती दुर्गा की पूजा सीखी और अपनी सहल अंगारी को छोड़कर मेहनत से काम करने की आदत भी डाली। लेकिन इन सब बातों के बावजूद सास के तेवर बदले। उसकी झिड़कियां, ताने, कोसने बदस्तूर जारी रहे मगर लक्ष्मी ने सब कुछ हंस हंसकर सहना सीख लिया था। हाँ एक बार जब जलता हुआ घी गिर जाने से उसके हाथ जल गए थे और अभी आराम भी आने पाया था कि उसकी सास ने कपड़ों की भरी गठड़ी उसके सामने रख दी थी, तो उसकी हमेशा मुस्कुराने वाली आँखें भर आई थीं। कपड़े धोते धोते उसके छाले फूट गए थे। तब अंदर कमरे में जा कर वो ख़ूब जी भर कर रोई थी और जब खन्ना साहब आए थे तो उसने कहा था, मुझे इस नरक से छुटकारा दिलाओ। माँ अगर धन वाली है तो क्या इसीलिए ये नरक की अज़ीयतें बर्दाश्त किए जाएं। तुम्हारे साथ तो मुझे सूखी रोटी पसंद है। मगर ये ज़ुल्म तो अब नहीं सहा जाता।

    खन्ना साहब ने उसे तसल्ली दी थी और मुस्तक़बिल के तसव्वुरात का ठंडा फाहा उसके जलते हुए ज़ख़्मों पर रख दिया था। उन्होंने क्या-क्या कुछ कहा था। जब वो मुलाज़िम हो जाएंगे तो उसे अपने साथ लाहौर ले जाएंगे। माँ तो नवां शहर ही में रहेगी और वहां लाहौर में... अनारकली, माल, लौरंस, बाग़, सिनेमा, तमाशे, नुमाइशें और उन ही मसर्रत बख़्श तसव्वुरात में गुम हो कर वो अपने छालों की टीस, अपने दिल का दर्द सब कुछ भूल गई थी। लेकिन संगदिल क़िस्मत! जब वो दिन आया और खन्ना साहब लाहौर ही में सिविल सेक्रेटरिएट में मुलाज़िम हो गए तो वो दिक़ जैसी बीमारी में मुब्तला हो गई।

    आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ स्ट्रेचर पर्दे के पीछे पहुंचा और कुछ लम्हे बाद सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ हड्डियों का एक ढांचा लेकर दोनों तरफ़ बिछी हुई चारपाइयों में से होता हुआ मग़रिबी दरवाज़े से बाहर निकल गया। डाक्टर साहब बरामदे ही में खड़े थे। वहीं से उन्होंने कहा, मुर्दाख़ाने में ले जाओ। तब तक खन्ना साहब जाएंगे। लहना सिंह तो कब का गया हुआ है।

    पल भरके लिए बीमार औरतों के दिल धक धक करने लगे।

    लक्ष्मी का नहीफ़ नातवां दिक़ से मुरझाया हुआ, मौत की इस सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ मदक़ूक़ जिस्म सबकी आँखों के सामने फिर गया। दिक़ की इन सब मरीज़ाओं का भी तो आख़िर यही हश्र होगा। मौत से भी ज़्यादा अंदोहनाक है, अपने ही जैसी बीमारी से किसी को मरते देखना और ख़ुद तिल तिल करके मरना बहुतों की आँखों के सामने अंधेरा सा छा गया और बा'ज़ के आँसू बहने लगे।

    पर्दे के पीछे से निकल कर मिस बेटी ग़ुस्लख़ाने में हाथ साफ़ करने चली गई तो हमेशा दूसरों का दुख-दर्द बटाने वाली रहम-दिल सुल्ताना ने इस ग़मनाक माहौल को कुछ बदलने की कोशिश की। हमेशा यही होता था हमेशा, जब कोई मरीज़ा इस भयानक बीमारी के हाथों नजात पाई थी और कमरे में मौत की उदास ख़ामोशी छा जाती थी तो मिस सुल्ताना अपने मीठे, तसल्ली आमेज़ लहजे में अपनी दिलचस्प बातों, अपने हैरत अंगेज़ क़िस्सों से उस मौत की ख़ामोशी को दूर करने की कोशिश किया करती थी। बरस डेढ़ बरस से लक्ष्मी भी इस काम में उसका हाथ बटाती आई थी। लेकिन आज वो ख़ुद ही मौत की गहरी ख़ामोशी में समा गई थी।

    घड़ी ने टन-टन दो बजाये। टेमप्रेचर लेने का वक़्त हो गया था। दिल में उठते हुए आँसुओं के तूफ़ान को ज़बरदस्ती रोक कर, दवा में पड़े हुए थर्मामीटर को हाथ में लिये और मुस्कुराने की कोशिश करते हुए वो रशीदा की चारपाई के पास पहुंची। लेकिन आज सई बिस्यार के बावजूद वो लक्ष्मी की मौत को हंसी के पर्दे में छुपा सकी।

    रशीदा ने कहा, मिस साहिब, लक्ष्मी भी चली गई।

    थर्मामीटर को रशीदा की ज़बान के नीचे रखकर सुल्ताना ने एक लंबी सांस ली और नब्ज़ की रफ़्तार देखने के लिए उसकी कलाई हाथ में थाम ली।

    सुरती ने कहा, आख़िरी वक़्त तक अपने ख़ाविंद का नाम उसकी ज़बान पर रहा। क्यों मिस साहिब! खन्ना साहब भी उससे इतना ही प्यार करते होंगे?

    होंगे क्या, करते हैं। सुल्ताना ने रशीदा की कलाई को छोड़ कर कहा, लक्ष्मी को मरना भी इसीलिए सहल हो गया। मैं तो सोचती हूँ, मुहब्बत करने वाला ख़ाविंद जिस ख़ुशक़िस्मत के पास है, मौत उसे कुछ भी तकलीफ़ नहीं पहुंचा सकती। बेहोश होने के कुछ देर पहले जब उसे मालूम हो गया कि उस का आख़िरी वक़्त बस अब नज़दीक ही है तो मुझसे उसने कहा था... मिस साहिब जाने वो क्यों नहीं आए? इस बार तो उन्हें आए पंद्रह दिन हो गए। इस वक़्त जी चाहता है काश वो मेरे पास होते। फिर ख़ुद ही हंसकर बोली, मिस साहिब मैं भी कितनी बेवक़ूफ़ हूँ, वो भी आएं तो वो मुझसे दूर हैं क्या? मेरे दिल में तो हर वक़्त उन्हीं की तस्वीर रहती है और मैं ही उनसे क्या दूर हूँ? कई बार उन्होंने कहा है लक्ष्मी! तुम तो हर वक़्त मेरे पास रहती हो। बारहा काम करते करते तुम्हारा ख़याल जाने से ग़लती हो जाती है, इसके बाद वो बेहोश हो गई थी। मरते दम भी जब उसे होश आया तो ख़ाविंद का नाम ही उसकी ज़बान पर था।

    ये कहते हुए भीगी आँखों को पोंछ, घड़ी देख कर सुल्ताना ने थर्मामीटर रशीदा के मुँह से निकाल लिया और हरारत नोट करने के लिए चार्ट उठाया।

    सुरती ने पूछा, लेकिन मिस साहब ये गहनों की बात क्या थी। जब भी खन्ना साहब आते थे। उनका ज़िक्र ज़रूर छिड़ जाता था। जब से गहने ले गए। बस एक बार ही तो फिर आए।

    थर्मामीटर को दवा में डाल कर और दूसरा उठा कर सुरती को देते हुए उसने कहा, मैंने पूछा नहीं, लेकिन जब लक्ष्मी आई थी तो सब गहने साथ ही ले आई थी। उसकी सास नहीं चाहती थी कि वो एक भी गहना साथ ले जाये। आख़िर हस्पताल में इतने गहनों का काम भी क्या है? बाज़ूबंद, चूड़ियां, माला, लॉकेट कोई एक गहना हो तो गिनाऊँ। जाने क्यों उसे गहनों से इतनी मुहब्बत थी। सास तो मरते दम तक ले जाने देती। लेकिन खन्ना साहब अपनी माँ को समझा बुझा कर ले आए थे। यहां मरीज़ों को गहने पहनने की इजाज़त नहीं। डाक्टर साहब ने समझाया कि उन्हें साथ नहीं लाना चाहिए था। अब भी बेहतर है कि उन्हें खन्ना साहब के हवाले कर दो लेकिन वो गहने अपने पास ही रखना चाहती थी। आख़िर डाक्टर साहब ने गहने एक लोहे के संदूक़चे में बंद कर के चाबी उसे दे दी और संदूक़चे को हस्पताल के सेफ में रख दिया। उस चाबी को वो लहज़ा भर के लिए भी जुदा करती थी। लेकिन जब बीमारी बढ़ गई और तन-बदन का भी होश उसे रहा और जब एक दिन खन्ना साहब के कहने पर मैंने उसे समझाया कि गहने तुम्हारे ही नाम बैंक में जमा कराए जा सकते हैं तो उसने चाबी दे दी। यही एक बात लक्ष्मी में मुझे अजीब नज़र आई लेकिन शायद उन्ही के ज़रिये वो अपने आपको ज़िंदा समझती थी। उसी रात उसने मुझे पास बुला कर कहा था... मिस साहिब अब मैं बहुत देर तक ज़िंदा नहीं रहूंगी।

    सुरती की ज़बान थर्मामीटर की वजह से दुखने लगी थी। आख़िर उसने ख़ुद ही उसे निकाल कर मिस सुल्ताना को दे दिया। चौंक कर सुल्ताना ने थर्मामीटर ले लिया और टेमप्रेचर देखने लगी।

    सुरती ने कहा, ये तो ठीक है मिस साहिब, लेकिन गहने लेने के बाद खन्ना साहब ने हर हफ़्ता आना क्यों छोड़ दिया? दो हफ़्ते गुज़र गए उन्हें आए हुए।

    रशीदा बोली, बीमार हो गए हों। नहीं तो गर्मी-सर्दी, बारिश-धूप उन्होंने किसी बात का कभी ख़याल नहीं किया। बाक़ायदा हर हफ़्ते आते रहे और मैं तो सोचती हूँ मिस साहब लक्ष्मी की मौत की ख़बर सुन कर उनके दिल पर कैसी गुज़रेगी? अपनी बीवी से किसी को ही ऐसी मुहब्बत होगी।

    तब शायद स्ट्रेचर मुर्दा ख़ाने में पहुंचा कर गोबिंद वापस आया और उसके पीछे डाक्टर साहब भी आए। पर्दे के पास पहुंच कर गोबिंद ने पूछा, कपड़ों को लपेट दूं डाक्टर साहब। डाक्टर साहब उसके पास जा कर खड़े हो गए। बोले, हस्पताल की चादरों को डिस इनफ़ेकटर में डाल दो और बाक़ी का सामान पड़ा रहने दो। अभी शायद खन्ना साहब या उनका आदमी जाये। हाँ गद्दे बाहर धूप में डाल दो।

    उसी लम्हे बरामदे के पास सीढ़ियों पर से साईकल फेंक कर हांपता हुआ पसीने से तर लहना सिंह अंदर आया। डाक्टर साहब ने आगे बढ़कर पूछा,

    लहना सिंह ने सर हिलाया। उसकी सांस फूल रही थी। जवाब बन पड़ता था।

    ज़रा तल्ख़ी से डाक्टर साहब ने पूछा, मिले या नहीं? कहा नहीं, तुमने कहा कि लाश को आज शाम से पहले ले जाएं।

    थूक निगल कर लहना सिंह ने कहा, वो तो शादी करने अपने घर चले गए हैं।

    ठन से टेमप्रेचर का चार्ट मिस सुल्ताना के हाथ से फ़र्श पर गिर पड़ा और रशीदा ने जैसे घबरा कर चीख़ते हुए कहा... मिस साहिब! मिस साहिब!

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