ज़कात
स्टोरीलाइन
एक ऐसे हैदराबादी नवाब की कहानी, जो अपनी सख़ावत के लिए मशहूर था। उसने कभी किसी से कुछ नहीं लिया था, हमेशा दिया ही था। एक बार एक ग़रीब लड़की पर उसका दिल आ जाता है। लड़की के माँ-बाप पहले तो नवाब को इंकार कर देते हैं मगर फिर हालात से मजबूर होकर अपनी लड़की को उसके पास भेज देते हैं। एक महफ़िल में जब नवाब के दोस्त उसकी नई बांदी की तारीफ़ करते हैं तो वह कहती है कि नवाब साहब तो सबको देते हैं मगर मैंने उन्हें अपना हुस्न दिया है, वह भी ज़क़ात में।
चाँद आसमान पर नहीं नीचे ज़मीन पर जगमगा रहा था! नवाब ज़ैन यार जंग के बरसों पहले किसी शादी की महफ़िल में ढोलक पर गाती हुई मिरासनों के वो बोल याद आ गए,
कैसे पागल ये दुनिया, के लोगाँ माँ।
छत पो काए को तो जाते ये लोगाँ माँ।
आँखा खुले रक्खो ताका झाँकी नक्को।
अपने आँगन को देखो माँ... चंदा सजा कैसे पागल
वाक़ई वो पागल ही तो थे। अब ये पागलपन नहीं तो और क्या था कि इतने ज़माने से उस हवेली में रह रहे थे और अब तक यही मालूम नहीं हो सका था कि चाँद आसमान पर ही नहीं ज़मीन पर भी चमक सकता है।
ईद की आमद आमद थी... कल भी सारी हवेली के लोग चाँद देखने के लिए छत पर चढ़े थे... नवाब साहब की कुछ तो उम्र भी ऐसी थी, कुछ ईद की ख़ुशी भी उन्हें न होती थी कि रोज़े नमाज़ों से वो अल्लाह ताला के पास से माफ़ी लिखवा के लाए थे। ईद के चांद की असल ख़ुशी तो उन रोज़ादारों को होती है जो रमज़ान भर के पूरे रोज़े रखते हैं। वो छत पर जाते भी तो क्यूँ? लेकिन आज सबने ही ज़िद की... यहाँ तक कि हवेली के मौलवी साहब ने भी कहा, मुबारक महीनों की पहली का चाँद देखने से बीनाई बढ़ती है और बरकतों का नुज़ूल होता है। तो वो बरकतों के नुज़ूल से ज़्यादा बीनाई बढ़ाने के लालच में ऊपर चले आए, क्यूँकि आज कल वो वाक़ई आँखों की कमज़ोरी का शिकार हो रहे थे... उम्र तो यही कोई चालीस बयालिस के क़रीब थी, वो मंज़िल अभी नहीं आई थी कि उन पर साठे पाठे का इतलाक़ होने लगता। लेकिन जवानी को वो शुरू जवानी से ही यूँ दिल खोल कर लुटाते आ रहे थे कि अक्सर आज़ा कस बल खो चुके थे। वो अपने हिसाबों वो अभी तक ख़ुद को बड़ा धाकड़ जवान समझते थे। लेकिन ख़्वाबगाह से निकलने वाली तरार और घाट घाट का पानी पी हुई ख़वासें दुपट्टों में मुँह छुपा छुपा कर हंस हंस कर एक दूसरी को रातों की वारदात सुनाते तो दबे छुपे अलफ़ाज़ में उनकी जवानी का पोल भी खोल कर रख देतीं।
“उजाड़ पता-इच नईं चला की रात किधर गुज़र गई...”
“क्यूँ?” कोई दूसरी पूछती, “इत्ते लाडाँ हुए क्या?”
“लाडाँ?” वो हंस कर कहती, “अगे जो जाको सोई तो बस सोती-इच रही... उजाड़ दम ही किया है बोल के उन्नों में।”
कोई यूँही सर झाड़ मुँह फाड़ घूमती तो दूसरी ठेलती, “अगे ग़ुसल नईं करी क्या मैं अभी हम्माम में गई थी तो पानी गर्म का गर्म वैस-इच रक्खे दा है।”
वो उलझ कर बोलती, “बावा हौर भाइयाँ बन के कोई मर्द सोएंगा तो काय का ग़ुस्ल और काय की पाकी?”
लेकिन इन तमाम बातों से नवाब साहब की जवानी पर कोई हर्फ़ नहीं आता था। आख़िर हकीम साहब किस मर्ज़ की दवा थे? और फिर हकीम साहब का कहना ये भी था कि क़िबला आप ज़्यादा से ज़्यादा नौख़ेज़ छोरियाँ हासिल करना। ऐसा करे-इच तो इच आपको ज़्यादा ख़ुव्वत मिलती हौर आप ज़्यादा दिनाँ जवान रहते।
लेकिन उस वक़्त नवाब साहब का छत चांदनी पर जाना क़तई किसी बुरी नियत से न था। वो तो वाक़ई ईद का चांद देखने के लिए ऊपर चढ़े थे। चाँद-वाँद तो उन्हें क्या नज़र आता, जिसने भी जिधर उंगली उठा दी, हो हो... जी हो... जी हो। कर के उधर ही नज़र जमा दी। लेकिन अचानक अपनी बुलंद बाँग हवेली की आख़िरी और ऊंची छत पर से उनकी नज़र फिसली और नीचे के ग़रीबाना मिलगी (झोंपड़ी) के आँगन में ठहर गई... आँखें कमज़ोर थीं ज़रूर, पहली का चांद यक़ीनन नहीं देख सकती थीं, लेकिन चौदहवीं का चमचमाता चांद सामने हो तो कमज़ोर बीनाई वाली आँखें ख़ुद भी जगमगाने लगती हैं।
“कैसे पागल थे हमीं... इतने दिनाँ हो गए हौर ये भी नईं मालूम करे की ईं पड़ोस कैसा है अपना।
दीवान जी सामने ही खड़े हाथ मल रहे थे।
“आप तो कभी हमे न बोलना था की पड़ोस में ख़यामत है।”
“जी... जी... वो... वो सरकार मैं ने कभी ग़ौर नईं करा।”
“आपको ग़ौर करने की ज़रूरत भी नईं, बस आप कैसा तो भी कर के, वो लड़की हाज़िर कर देना। फ़ख़त इत्ता-इच काम है आपका।”
दीवान जी पलटे तो उन्होंने पास वाली दराज़ खोली और खन खनाते कलदार हाली रूपों से भरा बटवा उछाल कर दीवान जी के पैरों में फेंका।
हम मुफ़्त में कोई चीज़ नहीं लेते। वो छोकरी अगर चूँ चरा करी, या माँ-बाप अगर मगर करे तो ये रुपये पकड़ा देना ... उन लोगाँ ज़िंदगी भर खाएँगे तो भी इत्ते रुपये ख़त्म नईं होवेंगे।”
लेकिन दूसरे ही दिन दीवान जी फिर उसी तरह खड़े थे। हाथ मलते हुए ख़ाली रूपयों का तोड़ा उन्होंने टेबल पर रख दिया था।
“सरकार...” उनकी ज़बान उनका साथ नहीं दे रही थी, “उन्ने... उन्ने...”
“ये उन्ने उन्ने क्या कर रे आप?” सरकार उलझ कर बोले, “जो बात है, साफ़ बोलते। हुआ क्या नईं कुछ?”
“सरकार वो लोगाँ बहोत ही बहोत शरीफ़ लोगाँ निकले। बोलने लगे, “रुपये पैसे में बेटियाँ कैसा बेचते। हम शरीफ़ नमाज़ी अल्लाह वाले लोगाँ हैं। हमारी बेटी को हम अल्लाह रसूल के बनाए ख़ानून के मुताबिख़ अख़द ख़्वानी कर के विदा करेंगे। हौर... हौर... सरकार इत्ता वज़नी तोड़ा उठा के उन्नों मेरे मुंह पौ फेंक मारे।”
नवाब साहिब दाँत पीस कर बोले, तो आप इन्सान की औलाद बोलता था। “नईं की ऐसा है तो अख़द में दे देव?”
दीवान जी लरज़ गए... नवाब साहब इंतिहाई ग़ुस्से की हालत में ही नहीं बजाए गाली देने के इन्सान की औलाद कहा करते थे जो हज़ार गालियों से बदतर गाली थी।
“बोला सरकार।”
“फिर उन लोगाँ क्या बोले?”
“बोले... बोले सरकार की उम्र बहोत होती, हमारी बच्ची कच्ची उम्र की है।”
उस वक़्त दीवान जी के मुंह से कच्ची उम्र सुनकर नवाब साहब के अंग अंग में ख़ून बोल उठा। ज़रा भन्ना कर बोले, “हम न ज़्यादा उम्र के दिखते जी?”
“नईं सरकार।” दीवान जी चापलूसी से बोले, “ऐसी भी क्या उम्र होएँगी आपकी। ऐसे ऐसे तो कित्ते पोट्टियाँ आप...” फिर वो अदब तहज़ीब का ख़याल कर के चुप हो गए, लेकिन नवाब साहब की बाछें खिल गईं, वो मुस्कुराए,
“वो-इच तो हम भी कह रहे थे...” अचानक वो फिर संजीदा हो गए, “मगर वो छोकरी कैसा तो भी हमको मिलना।”
“आप अख़ल वाले हैं, सरकार आप सोचो, हम ग़रीब कम अख़ल लोगाँ... आप जैसा हुक्म दिए वैसा बजा लाए... बस...”
“ये पता चलाव आपकी घर में कित्ते लोगाँ हैं...”
“वो मैं चला लिया सरकार...” दीवान जी जल्दी से बोले, “माँ है, बीमार बाप है... चल फिर नईं सकती, सो दादी है। हौर तीन चार छोटे छोटे भाइयाँ बहनाँ हैं... ये उजाला-इच सबसे बड़ी है।”
नवाब साहिब का ज़ेह्न जैसे रौशन हो गया। “उजाला... इत्ता ख़ूबसूरत नाम! बेताबी से बोले, “जैसा मुंह वैसा-इच नाम।”
“जी हौ सरकार, सचमुच उजाला-इच है। हिंद हारे (अंधेरे) में भी बैठे सो उजाला हो जाता...”
“आप चुप उसके तारीफ़ाँ नक्को करो जी”, नवाब साहब जल कर बोले, “आप अब ये करो की उन लोगाँ को जाको बोलो की नवाब साहब आस-पास के पूरे गलियाँ तोड़ को पक्का अहाता बनवा रईं। बोल को ये जगह कल शाम तक-इच ख़ाली कर देना।”
दीवान जी ख़ुश हो कर बोले, “जी हौ सरकार! बहुत अच्छी बात सोचे आप... इतना बड़ा कुम्बा लय को हक्कल को कहाँ जाएंगे बदबख़्ताँ... झुकना पड़ेगा।”
ईद के दिन रोते धोते मियाँ बीवी सरकार के हुज़ूर में पेश हुए।
“हुज़ूर... सरकार... आपके ख़दमों में ज़िंदगी कट गई। अब किधर जाना? बुढ़ी माँ है, उठ को अपने आपसे बैठ भी नईं सकती। ये मर्द मेरा कब से दुख का बीमार है। छोटे छोटे बाल बच्चे। ऐच बोलो सरकार। काँ जाना...” सकीना बी रो-रो कर कहने लगी।
“हमारे हवेली के नौकर ख़ाने में बहोत जगह है, यहाँ आ जाते।” नवाब साहब नर्मी से बोले।
अपने बीमार शौहर पर नज़र पड़ते ही उसका हौसला जवाब दे गया।
“एहसान है सरकार का... सच्ची बोलती सारी रइय्यत की हुज़ूर बड़ी दीवाल हुईं।”
और ये हक़ीक़त भी थी कि नवाब ज़ैन यार जंग से बड़ा दिल वाला उनसे ज़्यादा सख़ी, उनसे ज़्यादा दीवाल, कोई नवाब हैदराबाद ने पैदा नहीं किया... लेने से उन्हें सख़्त चिड़ थी। ख़ुद अपने रिश्तेदारों, अज़ीज़ों से भी ज़िंदगी में कभी एक पाई का तोहफ़ा क़ुबूल नहीं किया। सदा हाथ उठा हुआ ही रहा था, लेकिन सिर्फ़ देने के लिए। देने में तो इस हद तक पहुंचे हुए थे कि उनकी हाथों से कितनी ही क़ीमती चीज़ क्यूँ न गिर जाती, कभी झुक कर उठाते भी न थे... मुलाज़िमों से उठवाते और फिर उन ही को बख़्शिश भी देते।
सौदागरों का एक ख़ानदान हैदराबाद में मुद्दतों राज करता रहा। इतनी दौलत सौदागरों के ख़ानदान में आई कहाँ से? हुआ ये था कि एक-बार इन ही नवाब साहब के हाथों से बचपन में सोने की जिगर मगर अशर्फ़ियों से भरी थैली छूट कर ज़मीन पर गिरी। सख़ावत तो बचपन से ही घोल कर पिलाई गई थी। झुकना भी कभी न जाना था। मुलाज़िम को बुलाया और उसने थैली उठा कर देना चाही तो ग़ुस्से से बोले, “गिरा हुआ माल हम ने देता है ना-मख़ूल... निकल जा अभी हवेली से, हौर ये थैली भी लेता जा।”
थैली के साथ जैसे उसकी ख़ुशबख़्ती भी लगी थी... बाद में कहते हैं उसने कोई कारोबार किया और ख़ुद भी बड़े बड़े नवाबों की तरह रहा जिया... सोचो बचपन से ऐसा था, बड़ा हो कर क्या न बनता कि बचपन की आदतें ही बड़े हो कर पुख़्ता और रासिख़ बनती हैं।
हवेली का नौकरख़ाना महज़ नाम का ही नौकरख़ाना था। अच्छे अच्छों से आला रिहाइश मुसीबत के मारों को नसीब हो गई। दिल में एक वसवसा ज़रूर था कि अल्लाह जाने इस इनायत और बख़्शिश का नवाब साहब क्या मोल मांगें... मगर नवाब साहिब भला क्या मांगते वो तो सिर्फ़ देने के क़ाएल थे।
एहसानों से चूर सकीना बी का बस न चलता कि अपनी जान को नवाब साहब पर से सदक़े कर के फेंक देती... किसी न किसी तरह कि कुछ तो सरकार के काम आ सकूँ। छोटे बच्चों बच्ची को और कुछ नहीं तो पाँव दबाने को ही सरकार के कमरे में भेज देती।
सरकार एक दिन मुस्कुरा कर बोले, “इतने इतने बच्चे क्या पाँव दबाएंगे, ऐसा-इच है तो बड़ी को भेज दिया कर...”
सकीना बी ने हौल कर उन्हें देखा... याद आ गया कि उनही सरकार ने तो बेटी को ख़रीदने के लिए तोड़ा भर माली रुपये भिजवाए थे... जब रूपयों से बेटी नहीं बेची तो अब... अब ख़ाली कमरे में, बंद दरवाज़ों के पीछे यूँही अकेले बेटी को कैसे भेजे?
सरकार ने उसके चेहरे पर लिखे हुए ख़्यालात एक ही नज़र में पढ़ डाले।
“हम ना मालूम है तो क्या सोच रई। पर ये भी सोच, हम चाहते तो क्या तेरी बेटी पर-ज़ोर ज़बरदस्ती कर के उसको उठवा के नहीं मंगा सकते थे! हमको रोकने वाला कोई है क्या?”
“सरकार, आप शादी-इच कर लेयो...” मजबूर सकीना बी रो देने वाले लहजे में बोली, “जवान बेटी की इज़्ज़त कांच का बर्तन होती... ज़रा धक्का लगी की टूटी।”
“शादी?” नवाब साहब कुछ ग़ुस्से और कुछ अचंबे से बोले, “शादी का मतलब होता है पूरी ज़िंदगी-भर की ज़िम्मेदारी ... फिर वारिसाँ पैदा हो गए तो जायदाद के झगड़े अलग उठते, तू पागल है क्या?”
सकीना डरते डरते बोली, “पन सरकार वो जब आपके शेरवानी हौर ऊंची टोपी वाले नौकर आए थे तो उन्नों तो बोले थे कि आप... वो मस्लिहतन चुप रह गई।”
नवाब साहब सच्चाई से बोले, “हम बोले थे ज़रूर, मगर हमारा मतलब वो नईं था, हम तो मुता करने का सोचे थे।”
“मुत... मुत... मुता?” सकीना हकला हकला कर बोली, “वो क्या होता सरकार।”
सरकार ने साफ़ साफ़ कह दिया, “अभी जब हम दो हफ़्ते के वास्ते जागीर पौ गए थे की नईं तो बग़ैर औरत के कैसा रहना... बोल के हम शादी कर लिए वहाँ एक छोकरी से। फिर वापस आने लगे तो तलाख़ दे को आ गए। मतलब ये कि थोड़े दिनों की शादी... तू डर मत, मगर... हम तलाख देंगे तो महर के नाम पौ इत्ता पैसा वी देंगे की तेरी दो पुश्तें चैन से खा लेना। उतार देंगे... बस हमारे जी भरने पर है कि हम कब तलाख़ देते। पर इत्ता हौर सुन ले, ऐसे ऐसे तो कई मुता हम करे, पर जहाँ किसी नीच कमीनी ज़ात से वारिस पैदा होने के इमकान हम न नज़र आए हम अपने हकीम जी से कोई भी गर्म दवा खिला देते की गंदे ख़ून का वारिस हम न नईं होता।”
“ये सब हराम है सरकार... ये काम हराम है। सकीना का रुवाँ रुवाँ चिल्ला रहा था मगर सकीना मैं, जी हो, या जी नईं, कहने की सकत होती तब ना... वो तो हवन्नक़ों की तरह बस मुंह खोले बैठी की बैठी थी और नवाब साहब फ़तवे पर फ़तवा सादिर किए जा रहे थे, “हम अख़द ख़्वानी कर के बाख़ाएदा ब्याहता बीबी तो बस एक ही रखे हैं, जो बड़ी पाशा के नाम से मशहूर हैं... वैसे हमने देना ही देना सीखा हैं बस... इस वास्ते अब ये जती ही ग़रीब ग़ुर्बा पोट्टियाँ, ख़वासाँ हमारे साथ रहते हम सबको बारी बारी मुता करते रहे हो तलाख़ देते रहते... आख़िर ग़रीबों का पेट तो पलना ही चाहिए न। हम नईं देंगे तो उन लोगाँ का क्या होएंगा?”
ये तो उस झुटपुटे की बात थी जिसमें नवाब साहब ने छत की ऊंचाई पर से मल्गजे अंधेरे में दूर नीचे चाँद चमकता देखा था। वो दूरी और ये क़ुरबत!
आज उन्हें ये पता चला कि उजाला क्या चीज़ थी। उंह बाल तो उन कमबख़्त ग़रीब हैदराबाद की औरतों को अल्लाह ताला ने जी खोल कर दिए थे, उसकी कोई बात नहीं। लेकिन रंग? क्या रंग था! चांदी को घोल कर जैसे उसके जिस्म में, रग-रग में दौड़ाया गया था। फिर आँखें थीं, शराब-ओ-राब सब बेकार चीज़ है। ये आँखें तो सिर्फ़ इस लिए बनी थीं कि जिन पर उठें उन्हें होश-ओ-हवास से बेगाना कर दें। क़द-ओ-क़ामत तो जो था वो सामने ही था... अरबी शाइरी में औरत के हुस्न की तारीफ़ यूँ की गई है कि औरत के ब्रहना जिस्म पर अगर एक चादर सर पर से डाल दी जाये तो वो चादर सिर्फ़ दो जगह से जिस्म को मस करे... एक सीने पर से दूसरे कूल्हों पर से... बाक़ी चादर यूँही जिस्म के लम्स को तरसती रहे। उजाला ऐसे ही जिस्म की मालिक थी जो चादरों को तरसाता है... दो सबीह रुख़्सारों से सजे हुए वो क़ातिल होंट, जो उजाला का सबसे बड़ा सरमाया थे। वो होंट जो एक ऐसी चुप-चाप कटीली कटीली और हल्की सी तंज़िया मुस्कुराहट से महके और दहके हुए थे कि नवाब साहब अपने आपको बचा ही न सके।
सबसे ज़्यादा हैरत तो नवाब साहब को इस बात पर थी कि उन्हें हकीम साहब की मुतलक़ भी ज़रूरत नहीं पड़ी थी। वो जो बजा-ए-ख़ुद हीरों, मोतियों, सोने चांदी और जवाहरात की कशीदा थी, उसके होते हुए किसी माजून की क्या ज़रूरत थी।
कैसे कैसे लम्हे उस नवाब साहब को अता किए कि अपनी सारी पिछली ज़िंदगी उन्हें बेकार, बे रस और बर्बाद-ए-नज़र आने लगी। उसके साथ गुज़ारा हुआ एक एक दिन उन्हें जन्नत में गुज़ारा हुआ मालूम होता... ये सब तो था, लेकिन उजाला ने कभी उनसे बात नहीं की... हर-चंद कि वो उसकी कमी महसूस भी नहीं करते थे, लेकिन फिर भी दिल चाहता ज़रूर था कि ये दो आतिशा शराब, ये क़यामत, ये फ़ित्ना कुछ जादू अपने दहन-ए-लब से भी जगाए। किसी भी बात पर बस वो हल्की सी चुभती हुई सी मुस्कुराहट के साथ सर झुका लेती। बस गर्दन की एक हल्की सी जुंबिश उसकी हर बात का जवाब दे देती।
“तुमे हमारे साथ ख़ुश है न, उजाला?”
जवाब में वो तंज़िया, हल्की सी, क़ातिल सी मुस्कुराहट और बस!
“तुम्हारा कोई चीज़ पौ जी चाहता? वैसे तो हम-इच तुम को सब दे डाले। फिर भी कुछ होना?”
गर्दन की एक जुंबिश से वो नहीं का इज़हार कर देती।
“तुम बात क्यूँ नहीं करते उजाला... तमे इतने ख़ूबसूरत है। तुम्हारी आवाज़ भी बहोत बी बहोत अच्छी होएंगी... कभी तो बोला चाला करो।”
वही मुस्कुराहट, कुछ क़ातिल, कुछ भोली, कुछ कटीली, कुछ तंज़ में डूबी... मगर हल्की सी!
नवाब साहब की महफ़िलें जमतीं तो अपनी मिसाल आप होतीं... नाच-गाने राग रंग शबाब-ओ-शराब की महफ़िलें... वो बड़े दिल वाले थे। ऐसी महफ़िलों में अगर उनकी मुता की हुई कोई कनीज़ किसी दोस्त नवाब को जी जान से पसंद आ जाती तो वो उसे झट तलाक़ देकर दोस्त को तोहफ़े में दे देते। ये उनकी सख़ी और दिल वाले होने की छोटी सी मिसाल थी... ख़ुद उनके नवाब दोस्तों में भी यही चलता था, लेकिन ख़ुद नवाब ज़ैन यार जंग ने कभी किसी का ऐसा तोहफ़ा क़ुबूल नहीं किया कि वो बने ही इसलिए थे कि लोगों को दिया करें..लेने का सवाल उनके यहाँ उठता ही न था।
उस रात ऐसी ही एक होश-ओ-हवास गुम कर देने वाली महफ़िल सजी हुई थी... गर्मा गर्म कबाबों के तश्त आ रहे थे ... सुनहरी, नुक़रई, बिलौरीं जामों में, जिनके क़ब्ज़े और बिठावे सोने और चांदी के बने हुए थे, शराब पेश की जा रही थी कि नवाब साहब के ख़ास हुक्म पर सुर्ख़ ज़रतार लिबास में मल्बूस उजाला, सुर्ख़ शराब का छलकता हुआ बिलौरीं जाम बन कर महफ़िल में दाख़िल हुई... जिसने देखा, देखता ही रह गया। ऊपर की सांस ऊपर... नीचे की नीचे।
नवाब साहिब फ़ख़्र से सबको देख रहे थे... वो उस वक़्त दुगने नशे में थे। एक शराब का नशा और एक ऐसी बेमिसाल हसीना के एहसास-ए-मिल्कियत का नशा था, जिसका कोई सानी ही ना था... वो फ़ख़्र से एक एक को देख रहे थे, जवाब में धीरे धीरे होश में आ रहे थे।
“इसको बोलते जमाल।” कोई दिल थाम कर बोले,
“हौर इसको बोलते चाल।”
“जन्नत के हूरों का ज़िक्र बहोत सुने। आज दुनिया में इच देख लिए।”
“अब नवाब साहब को दोज़ख़ भी मिली तो क्या ग़म। वो तो यहीं-इच जन्नत के मज़े देख डाले। ले डाले।”
“मगर, ख़िस्सत, आप ये ला ख़ीमत हीरा कित्ते में ख़रीदे?”
नवाब साहब ने फ़ख़्र से सबको देखा। जाने वो क्या कहने वाले थे कि ज़िंदगी में पहली बार... उनके साथ गुज़ारी हुई ज़िंदगी में पहली बार उजाला की बाँसुरी की तरह बज उठने वाली आवाज़ उनके कानों से टकराई... जो सवाल पूछने वाले नवाब साहब से मुख़ातिब हो कर तंज़िया लहजे में कह रही थी,
“आप लोगाँ तो बस यही जानते कि नवाब ज़ैन यार जंग बहोत बड़े नवाब हईं... बहोत बड़े दिल वाले, बहोत सख़ी दीवाल। बस देते रहते मगर लेते नईं... मगर इस हैदराबाद की, एक छोटे से ग़रीब घराने की ये ग़रीब बच्ची भी कुछ कम सख़ी नईं है... मैं आप लोगों को बताऊँ। ज़िंदगी-भर किसी से कुछ नईं लेने वाला मेरे से भीक लिया सो मैं अपने हुस्न की “ज़कात” निकाल तो भिकारियों और फ़ख़ीरों की खतार में सबसे आगे जो फ़ख़ीर झोली फैलाए खड़ा था वो यही-इच आप के नवाब ज़ैन यार जंग थे... मैं तो सुनी थी कि उन्नों ऐसे दिल वाले हुईं की किसी का कोई तोहफ़ा तक नहीं लेते, बस देते-इच रहते... फिर मैं पूछतियों की उन्नों मेरी ख़ूबसूरती की “ज़कात” कैसा ख़ुबूल कर लिये? उनकी क्या औख़ात थी कि मेरी को ख़रीदते, मैं ख़ुद उन्नों को भिकारी बना दी।”
वो जो हर लम्हा उसकी आवाज़ को सुनने को तरसते थे, आज उसी की आवाज़ सुन तो ली, लेकिन जैसे कानों में हर धात पिघला पिघला कर डाल दी गई कि फिर उसके बाद कुछ न सुन सके... शराब का जाम उनके हाथ से छूट गिरा और इसके साथ ही वो भी लहराते हुए फिर कभी न उठने के लिए ज़मीन पर आ रहे।
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