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ज़र्द चेहरे

इब्राहिम जलीस

ज़र्द चेहरे

इब्राहिम जलीस

MORE BYइब्राहिम जलीस

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके साथ की सभी लड़कियों की शादी हो गई है, लेकिन वह अभी तक कुँवारी है। उसका भाई अपनी बहन के ज़र्द चेहरे पर सुर्ख़ी लाने के लिए दिन-रात मेहनत करता है और अपनी सारी इच्छाओं को दफ़न कर देता है। आख़िरकार वह अपनी बहन की शादी करने में कामयाब हो जाता है। इस परेशानी और मुसीबत से उसके अपने चेहरे की सुर्ख़़ी ज़र्दी में बदल जाती है। तभी उसकी ज़िंदगी में मिशनरी में काम करने वाली एक नन आती है। काफी दिनों बाद जब उसे पता चलता है कि उस नन का उसके बहनोई के साथ भी चक्कर है तो वह अपनी बहन के चेहरे की सुर्ख़़ी को बरक़रार रखने के लिए उस नन की हत्या कर देता है।

    आसिफ़ की बहन जवान थी और पाँच साल से अपने दूल्हे का इंतिज़ार कर रही थी। जाने उसका दूल्हा कौन था? कैसा था कहाँ का रहने वाला था और कब आने वाला था। आसिफ़ को कुछ ऐसा महसूस होता कि जब तक उसकी बहन के रुख़्सारों पर गेंदे के पीले पीले फूल खिले हैं, उसका दूल्हा कभी आएगा। क्यों कि दूल्हे गेंदे के फूलों को मुतलक़ पसंद नहीं करते। वो तो गुलाब के सुर्ख़ सुर्ख़ फूलों पर जान देते हैं। उसकी सहेलियों हाजिरा, प्रोतिमा, ज़हरा, शहला और सईदा के गालों में कितने बड़े बड़े सुर्ख़ गुलाब थे और उनके दूल्हे कितनी जल्दी कितने इज़्तिराब और कितनी बेताबी से कर उन सुर्ख़ सुर्ख़ फूलों को तोड़-मोड़ कर ले गए। अब सारे मुहल्ले में सिर्फ़ एक ही फूल रह गया था। गेंदे का पीला पीला फूल। उसकी बहन जो पूरे पाँच साल से ख़्वाबों में, तसव्वुर में, ख़लाओं में अपने दूल्हे को देख रही थी, मुम्किन है ख़्वाबों में उसका दूल्हा दिखाई देता हो। तसव्वुर में चला आता हो और ख़लाओं में उसकी तरफ़ बढ़ता हो। लेकिन वो तो धरती पर रहती थी। ख़्वाबों, ख़लाओं और तसव्वुर में आने वाले दूल्हे धरती पर कैसे उतर सकते हैं। वो तो ख़्वाबों की नर्म नर्म सतह पर ही चल फिर सकते हैं। धरती तो उनके लिए बड़ी सख़्त खुरदुरी और पथरीली होती है।

    सारे मुहल्ले में मशहूर था कि उसकी बहन को दिक़ हो गई है। लेकिन शहर के बड़े बड़े डाक्टरों ने बताया था कि दिक़ विक कुछ भी नहीं। सिर्फ़ एक मर्ज़ है, तवील कंवारापन जो बहुत मुम्किन है तवील होते होते दिक़ के गले में भी बाँहें डाल दे। जूँ-जूँ उसकी बहन का कँवारापन लंबा होता जाता था वो भी इसकी फ़िक्र में घुल घुल कर सूख सूख कर लंबा होता जाता था। हड्डियों का लंबा ढांचा।

    बहन की मांग में अफ़्शां चुनने के लिए उसने क्या कुछ नहीं किया। जब बाप बग़ैर किसी बीमारी के अचानक मर गया तो उसने क़ानून की तालीम अधूरी छोड़कर तीस रुपया माहवार की क्लर्की जैसी अदना गु़लामी भी चार-ओ-नाचार क़ुबूल कर ली। अगर उसकी बहन होती... या जवान होती या वो मुफ़्लिस होता, अपने मशहूर क़ौम परस्त बाप की तरह वकालत या कोई दूसरा पेशा इख़्तियार करता। उसकी तरह ख़ुद भी हुकूमत से टक्करें लेता रहता। लेकिन जिसका बाप मर गया हो जिसकी आमदनी तीस रुपये माहवार हो, जिसकी बहन कुँवारी हो और जिसकी बहन के रुख़्सारों पर गेंदे के ज़र्द फूल खिले हों वो क्या हुकूमत से टक्कर ले सकता है। वो क्या दफ़्तर से जीत सकता है।

    मगर उसकी बहन तो अभी औरत बनने से पहले मुअम्मा बन गई थी। वो बेचारा तो उसके लिए सुबह से शाम तक दफ़्तर की मेज़ पर झुका रहता। साहिबों की फटकारें सुनता और महीने के महीने तीस रुपये अपनी बहन की हथेली में रख देता और इसके बावजूद उसके होंटों पर एक मुब्हम सी मुस्कुराहट तक आई। उसके पीले पीले गालों में लहू की एक मद्धम सी धार एक हल्की सी शहाबी रौ तक रेंगती। इस बात पर वो झल्ला उठता और बात बे बात उसको झिड़की देता लेकिन जब पीले पीले फूलों पर शबनम की बूँदें रेंगने लगतीं तो वो उन भीगे हुए फूलों को अपने मैले दबीज़ कोट के लंबे लंबे कालरों में छुपा कर ख़ुद भी रोने लगता। क्यों कि शबनम की बूँदों से धुल कर उन फूलों की ज़र्दी ख़तरनाक हद तक निखर जाती।

    मगर वो मायूस नहीं हुआ था। उसको यक़ीन था कि एक एक दिन वो अपनी बहन के दूल्हे को ख़्वाबों, तसव्वुरात और ख़लाओं से घसीट कर इस धरती पर ले आएगा क्योंकि दूल्हे बड़े लालची होते हैं। फूल ख़्वाह कितना ही मामूली और पीला क्यों हो अगर उसको सोने और चांदी के गुलदान में रखकर पेश करो तो दूल्हे आँख बंद कर के वो गुलदान ले लेते हैं। इसलिए वो क्लर्की के इलावा अख़बारों, रिसालों के दफ़ातिर में भी आधी आधी रात तक काम करने लगा। उसकी आमदनी बढ़ने लगी। पच्चास रुपया, साठ रुपया, सत्तर रुपया।

    सुबह बालों में कंघा करते वक़्त वो आईने में अपनी सूरत देखता कि आधी आधी रात तक काम करने से उसके अपने गालों की सुर्ख़ी मद्धम पड़ रही है। लेकिन अब उसको उस सुर्ख़ी की ज़रूरत ही क्या थी। वो तो जानता था कि यही सुर्ख़ी उस की बहन के रुख़्सारों में दाख़िल हो जाएगी और बस और अगर ये नहीं हो सकता तो वो अपनी बहन को सोने और चांदी के जगमग-जगमग करते ज़ेवरों से ऐसा सजाएगा कि हाजिरा, प्रोतिमा, ज़हरा, शीला और सईदा के दूल्हों की आँखें चुन्ध्या जाएँगी। वो अपने बेमस्रफ़ फ़ुज़ूल मुस्कुराने वाले सुर्ख़ गुलाबों से मुतनफ़्फ़िर हो जाएंगे और जब शहर की सड़कों पर से दूल्हा उसकी बहन के गले में पड़े हुए जड़ाऊ हार को पकड़े उसको बाजों ढोलों और ताशों के शोर और गैस लैम्पों की सपेद चमकदार रौशनी में फ़ातिहाना अंदाज़ में खींचे लिए जाएगा तो वो हाथ मल मलकर अपनी जल्द बाज़ी अपनी बेवक़ूफ़ी और अपनी हिमाक़त पर पछताते रहेंगे।

    जिस महीने उसकी आमदनी पच्चास रुपये हो गई उसके गालों की शफ़क़ बिल्कुल ही डूब गई। अब उसके चेहरे को देख कर ऐसा मालूम होता था जैसे वो किसी ज़र्द रंग के शीशों वाली खिड़की से मुनअकिस होती हुई रौशनी में खड़ा है। उसके दोस्त अहबाब जब उसके पीले मुर्झाए हुए चेहरे को देखते तो कड़वा कड़वा मज़ाक़ करते, इलाज कराओ अपना। कोई लड़की तुमसे शादी करना पसंद करेगी। जवानी सारी औरत बग़ैर ही गुज़र जाएगी। वो मुस्कुरा देता। अब उसके होंट बहुत मुस्कुराने लगे थे। बार-बार मुस्कुराते थे। एक महीने में उसको पच्चास रुपये मिलते थे और वह पच्चास दफ़ा मुस्कुराता था। अरे कोई लड़की शादी करे करे उसकी बला से। जवानी सिर्फ़ औरत की आग़ोश में गुज़ार देने के लिए तो नहीं है जवानी हजला-ए-उरूसी और औरत की ख़ल्वतों में बसर करने के लिए तो अता नहीं हुई। जवानी तो अलिफ़-लैला के सूरमाओं की तरह आताल पाताल छानने के लिए है और फिर बक़िया जुमले वो अपने दिल ही दिल में चुपके चुपके कहता, जवानी ज़िंदगी से लड़ने के लिए है। अपनी जवान बहनों की मांग में सुहाग की अफ़्शां भरने के लिए है। उनके शर्मीले लालची रंग-ओ-बू पर जान देने वाले दूल्हों को आसमान से धरती पर घसीट लाने के लिए है। मैं जो अपनी बहन का हजला उरूसी बनाऊँगा वो ताज महल से ज़्यादा शानदार होगा।

    चंद ही महीनों बाद वो सौ-सौ और सवा सौ रुपये एक एक महीने में कमाने लगा। सेहत दिन-ब-दिन गिरती जा रही थी। जान-ए-अज़ीज़ रोने बिसोरने लगी थी। लेकिन वो अंधा धुंद दिन के उजाले और रात के अंधेरे में रूपों के पीछे दौड़ता रहा। अपनी नींदें अपने तसव्वुर के जज़ीरे अपने सीने और अपनी जवानी यानी बिर्जीस जहां को भी भूल गया। उसकी बिर्जीस जहां जिससे उसको एक दबी-दबी ढकी-ढकी और चोर मुहब्बत थी। जिसकी बड़ी बड़ी आँखों से निकले हुए तीरों ने उसके नन्हे से दिल में बेशुमार आँखें पैदा कर दी थीं।

    एक दिन वो बहुत थका हुआ घर लौटा और चारपाई पर गिर कर बुरी तरह खाँसने लगा। उसकी बहन ने उसके जूते के तस्मे खोले उसका मैला दबीज़ कोट निकाला और उसके सिरहाने बैठ कर नीलगिरी के तेल से उसके सीने की मालिश करने लगी। उसने मुस्कुराती हुई आँखों से अपनी बेज़बान मजबूर बहन के पीले पीले अफ़्सुर्दगी से कुम्हलाए हुए चेहरे को देखते हुए कहा, मेरी अच्छी गुड़िया! बाप का साया सर से उठ गया तो क्या हुआ, मैं अपने साये से तेरे हाथों को ऐसी लाल लाल हाथों से भर दूँगा कि तू... हाँ तू जा इसी बात पर मेरे लिए अच्छी सी चाय बना ला। बहन एक हज़ीं यास भरी मुस्कुराहट से मुँह छुपा कर चली गई। अपने भाई की ये हालत देख कर अपने हाथों को मेहंदी से रंगा देखने से बिल्कुल ही मायूस हो गई थी।

    मसर्रत के मौक़े पर अक़्ल कहाँ चली जाती है वो अपने साये का बाप के साये से मुक़ाबला कर रहा था। उसका बाप तो खाते पीते पुराने हिन्दोस्तान का एक भारी भरकम इन्सान था। छः फुट लंबा, तीन फुट चौड़ा और उसकी आमदनी बेटे की आमदनी से गुना ज़्यादा थी। उसके साये में अठारह इन्सानों का एक ख़ानदान पल रहा था। कई ग़रीब रिश्तेदार की माँगों में सुहाग अफ़्शां चुनी गई थी। अब ये डींगें मारने वाला हड्डियों का लंबा ही लंबा ढेर। मैला दबीज़ कोट उतार देने पर इस का साया टेलीफ़ोन के खम्बे की तरह इतना पतला और मुनहनी था कि एक ही दुबली-पतली नर्म-ओ-नाज़ुक बहन जवानी में धूप और हिद्दत से नहीं बचती थी। वो तो उस धूप में जैसे जल रही थी, उबल रही थी। बिल्कुल उस देगची की तरह जिसमें पकते हुए चाय के पानी में उबाल रहा हो, हाँ जब वो रूपों से फूली हुई जेबों वाला दबीज़ कोट पहन लेता तो उस के बड़े बड़े कालरों में मुँह छुपा कर जवानी, हिद्दत धूप सभी कुछ भूल जाती थी। भाई की दिन दिन गिरती हुई सेहत और सूखते हुए जिस्म को देखकर बहन ने आख़िर जी कड़ा करके, शर्म की केंचुली उतार फेंकते हुए एक रोज़ कह दिया, भय्या! आपकी ज़िंदगी मेरी ज़िंदगी है। आप पर से मेरी जैसी हज़ार बहनें वार कर फेंकी जा सकती हैं। आप मेरे लिए क्यों अपनी ज़िंदगी, अपनी जवानी इस तरह बर्बाद कर रहे हैं। मुझे आप जैसे प्यारे भाई के क़दमों में बड़ी आराम और चैन की ज़िंदगी हासिल है। मैं कहीं और जाना नहीं चाहती, मैं... मैं शादी भी नहीं करना चाहती। हाँ आप शादी कर लीजिए। गुलाब के फूल जैसी भाबी ब्याह लाइए। मैं आप दोनों की ख़िदमत में हंसते मुस्कुराते गुज़ार दूँगी। आप दोनों के होते मुझे शादी की क्या ज़रूरत है?

    उसने उसके आँसुओं से भीगे हुए गालों पर मुहब्बत और लताफ़त से गुनगुनाता हुआ एक नर्म तमांचा लगाते हुए कहा, पगली! मैं जानता हूँ कि तू इतनी पीली है कि तेरे जिस्म में लहू की बहुत थोड़ी बूँदें हैं। इन बूँदों में कभी तलातुम पैदा होगा, तू चाहे या चाहे। लेकिन दुनिया वालों के लिए तेरी शादी करना बहुत ज़रूरी है। वर्ना अगर तू मुसल्ले पर बैठ कर क़सम खाए तो भी कोई तेरी पाक दामनी का यक़ीन नहीं करेगा।

    उसने भी जी कड़ा करके शर्म को बालाए ताक़ रखकर कह दिया, इस वक़्त उसके जी में आई कि ये भी कह दे, तू झूटी है। तुझे शादी की ज़रूरत है। मैं ख़ुद तेरी चारपाई से उबलती हुई दबी दबी भयानक आहें सुनता हूँ। बेशुमार करवटों से चरचराती हुई चारपाई से तेरी प्यासी जवानी की चीख़ें सुनता हूँ। मुझे धोका देने की कोशिश कर। तू ने ये सिर्फ़ घर की चारदीवारी देखी है, मगर मैंने बहुत बड़ी दुनिया देखी है। अट्ठाइसवें बरस में सर में सफ़ेद बाल, गर्दन में झुकाव और आँखों में यासियत का धुँदलका, ये क्या है? मैंने दुनिया देखी है, तू तो सिर्फ़ चौबीस बरस की एक कुँवारी है...

    फिर उसकी ज़िंदगी में एक बड़ा ही चमकीला दिन तूलूअ हुआ। अपनी बहन को सर से पांव तक सोने और चांदी के ज़ेवरात से जगमगा दिया। उसकी मांग को कहकशां से ज़्यादा चमकीला बना कर सँवारा। उसकी हथेलियों में ऐसी सुर्ख़ सुर्ख़ मेहंदी लगाई कि शफ़क़ तक शर्मा कर पहाड़ों के पीछे छुप गई। सब्ज़ रंग की सलमा-सितारा टंकी हुई बनारसी साड़ी और सोने के पीले-पीले चमकते ज़ेवर, ऐसा मालूम हो रहा था जैसे सब्ज़ रंग के गुलदान पर पुराने हिन्दोस्तान के किसी मशहूर नक़्क़ाश ने बड़े फ़नकाराना अंदाज़ से मुनसबत निगारी की हो और उसमें गेंदे का एक फूल शर्मा रहा हो। उस फूल की पत्तियाँ शबनम की लातादाद बूँदों से भीग रही थीं, वो ख़ुद भी रोता हुआ मस्नूई ख़ुशी से मुस्कुराते हुए उसकी पीठ फपकते हुए दिलासे दे रहा था, अरे! दुल्हनें कहीं रोती हैं, कहीं रोती हैं... हुँह... और ताशों, नफ़ीरियों, ढोलों का शोर फ़िज़ाओं में बुलंद हो हो कर उस पर ठट्टे लगा रहा था कि देखो ये आँसू पोंछने वाला ख़ुद भी तो आँसू बहा रहा है। हाहाहा... ढम ढम... पें-पें पें-पें। तररत तररतरर...

    बहन के चले जाने के बाद उसकी ज़िंदगी, उसका घर सभी सुनसान पड़ गए थे। उसकी बहन की चारपाई अब बिल्कुल चुप चाप अकेली पड़ी थी। वो अब आहें नहीं भरती थी और उससे किसी प्यासी जवानी की चर चराती हुई चीख़ें सुनाई देती थीं। वो अब होटलों में खाना खा रहा था। किसी देगची में खाना ही आता था। मगर हाँ उसकी गर्दन अब फिर से ऊंची हो गई थी। कितने साल से उसकी बहन की वज़नी जवानी उसके गले में बाँहें डाले झूल रही थी। अब तो बोझ उतर गया था। वो फ़ख़्र से गर्दन उठा कर सड़कों पर चलता था। बात बात पर गर्दन पीछे फेंक फेंक कर क़हक़हे लगाता था। कितने अर्सा से उसके क़हक़हे उसके हलक़ में रुके हुए थे। महफ़ूज़ थे। अब वो शाज़ो नादिर ही ज़मीन की तरफ़ देखता। अब उसको ज़मीन की तरफ़ देखने की ज़रूरत ही क्या थी। जितना सोना-चांदी और रुपया-पैसा उसकी बहन की शादी के लिए ज़रूरी था उसने ज़मीन के हलक़ में उंगली डाल कर सब उगलवा लिया था।

    अब वो दिन में एक बार ज़रूर अपनी बहन को देखने उसकी ससुराल चला जाता और निहायत मसरूर घर लौटता कि बहन के गालों में गुलाब की सुर्ख़ सुर्ख़ कलियाँ नुमूदार हो रही थीं। आजकल या परसों में कलियाँ खिल कर बड़े बड़े लाल फूल बन जाएंगे और उसका दूल्हा उन फूलों के गिर्द मस्त-मख़्मूर और मसरूर भंवरे की तरह मंडलाया करेगा। इस मज़ेदार ख़याल से ख़ुश हो कर सिगरेट का एक लंबा कश लेते हुए वो आसमान की तरफ़ देख कर मुस्कुरा देता, जैसे वो तन्हा फ़ातेह है जिसे आसमान शिकस्त दे सका और ज़िंदगी। अलबत्ता उसको सारी ज़िंदगी में अगरचे सिर्फ़ एक ग़म था कि वो बिर्जीस जहां को अपना बना सका। अगरचे कि बिर्जीस जहां अभी तक कुँवारी थी लेकिन उसका कुँवारापन एक ट्रॉफी की तरह था जिसको जीतने के लिए चंद ख़ास ख़ास शराइत मुक़र्रर थीं। आसिफ़ ने बिर्जीस जहां के बाप को उसके बेतकल्लुफ़ दोस्तों और अज़ीज़ों से कहलवा भेजा कि वो बिर्जीस जहां से मुहब्बत करता है। बिर्जीस के बाप ने जवाब दिया कि शादी के लिए मुहब्बत इतनी अहम नहीं। बीवी के लिए अच्छा मकान, अच्छी ग़िज़ा, अच्छे कपड़े ज़्यादा ज़रूरी हैं। आसिफ़ के रक़ीब नीलाम की बोली लगा रहे थे।

    मेरे तीन मकानात हैं वो तीनों बिर्जीस के नाम लिख दूँगा।

    मेरी आमदनी चार सौ रुपये माहाना है।

    मेरी जवाहरात की दुकान है, बिर्जीस सारी उम्र जगमगाती रहेगी।

    मेरी पेंशन पंद्रह सौ रुपये माहाना है। मैं बिर्जीस को कश्मीर की जन्नत में ले जाऊँगा।

    आसिफ़ हार गया उसके दफ़्तर में हेडक्लर्क ने वो ट्रॉफ़ी जीत ली। आसिफ़ की जान-ए-तमन्ना जीत ली।

    महबूबा के छिन जाने के बाद आसिफ़ को किसी दूसरी महबूबा की ज़रूरत नहीं थी। अलबत्ता उसकी जवानी के ख़ला में उसको इतना सन्नाटा, सुकूत और डर महसूस होता था कि उसका जी चाहता था... कि इस मुहीब सन्नाटे में दफ़्अतन कांच की चूड़ियां बजने लगीं, पाज़ेब की मीठी-मीठी झनकार पैदा हो। दुपट्टे सरसराने लगें फर... फर... फर, अब फिर महबूबा सही कोई औरत ही सही जो उसकी ज़िंदगी में मेहमान की तरह ही क्यों आए।

    और जल्द ही एक औरत उसे मिल गई। शहर में ईसाइयत की तब्लीग़ करने के लिए एक मिशन आया हुआ था। उसमें बहुत सी लाल परियाँ थीं। उनके जिस्म जैसे सपेद सपेद शीशों से बनाए गए थे और अंदर गहरा सुर्ख़ रंग भर दिया गया था। हिन्दोस्तान के भूकों और नंगों की जान में जान आई। वो अपने वीरान रास्तों जैसे मज़ाहिब को छोड़कर इस शाहराह पर चलने लगे। जहां क़दम क़दम पर होटलें और सराएं लगी हुई थीं। खाना-पीना, रुपया-पैसा, औरतें। आसिफ़ को इन नेअमतों में सिर्फ़ एक ही नेअमत चाहिए थी, फॉक्स। वल्लाह क्या औरत थी मिस फॉक्स, पहली बार आसिफ़ ने उसको इम्पैरियल पोस्ट ऑफ़िस से निकलते देखा था। भरा भरा जिस्म, लंबा क़द और उसके मुसव्विर ने उसको रंगने में जैसे सारा गुलाबी रंग सर्फ़ कर दिया था। उसके गालों पर मीठे सेबों के बजाय पार्क शायर के कसीले टमाटर थे। पोस्ट ऑफ़िस से निकल कर जब वो अपनी साईकल पर चढ़ रही थी तो उसकी पिंडलियों की थिरकती हुई लाल-लाल मछलियों को देखकर उसने ऐसा महसूस किया जैसे वो मर गया है।

    उसने क़ौमी नसली तअस्सुब को दिल ही दिल में धुतकार बताई और एक साफ़ दिल से एतराफ़ करने लगा कि वाक़ई दुनिया के दूसरे मुल्कों ने औरत की असली क़दर जानी-पहचानी है। यहां हिन्दोस्तान में तो औरत की मिट्टी पलीद हो गई। इस मिट्टी को तो सिर्फ़ गेंदे, ज़ाफ़रान, बनफ़्शे और सूरजमुखी के फूल ही उगाने लगे हैं। दूसरे तीसरे दिन उसने मिस फॉक्स से राह-ओ-रस्म बढ़ा ली और जवानी फिर लौट आई। वो अब अपनी बहन को भी बहुत कम याद करने लगा। गुलाब का फूल सामने हो तो गेंदा कहाँ याद आता है।

    एक दिन मिस फॉक्स आरकेस्ट्रा पर अलमिया फ़िराक़िया गीत अलाप रही थी और आसिफ़ उस शायर को जिसने ऐसा गीत लिखा, दिल ही दिल में कोसता हुआ चुपचाप सुन रहा था कि अचानक उसको गेंदे का फूल याद गया क्योंकि दरवाज़े से उसकी बहन का लालची शौहर दाख़िल हुआ और फिर आसिफ़ को देखकर ठिटका, रुका, झिजका लेकिन जब मिस फॉक्स मुस्कुराते हुए उसको बुलाने लगी तो आसिफ़ सोफ़े से उठ खड़ा हुआ। मिस फॉक्स आसिफ़ के बदलते हुए तेवर देखकर हंस पड़ी यानी वो तो रोज़ यहां आता है। उस शाम वो अपनी बहन के घर गया... उसने इससे एक लफ़्ज़ पूछा। सिगरेट पीता रहा और उसके भिंचे हुए होंट जो बार-बार हल्की हल्की सी कपकपाहट से खुल जाते थे। उसकी झुकी झुकी पलकें और पलकों की घनेरी छालों में काँपते हुए तारे देखे। अभी कुछ ही दिन पहले उन्हीं गालों पर उसने सुर्ख़ सुर्ख़ लकीरों का एक जाल बनते देखा था, आज वो जाल और औरत का रंग भी तग़य्युर पज़ीर है। कैसा बेएतिबार, कैसा ना पायदार और कैसा आरिज़ी होता है।

    जब वो घर पहुंचा तो उसका दिमाग़ एक दम साकित हो गया था। उसको अब कुछ भी महसूस नहीं होता कि वो हंस रहा है तो क्यों हंस रहा है, रो रहा है तो क्यों रो रहा है। अब शायद इस एहसास की ज़रूरत ही नहीं थी। ज़िंदगी ने उसकी हड्डियां निकले हुए सीने पर एक ऐसा घूँसा लगाया था कि वो तीन दिन तक चारपाई से नहीं उठ सका, खांसता रहा। बाल नोच-नोच कर रोता रहा। कभी हँसता रहा, कभी गाता रहा और चौथे दिन जाने उसके जी में क्या आई, अपना पुराना रफ़ीक़ वही मैला कोट पहने बाहर निकला, उसकी आँखों में सुर्ख़-सुर्ख़ शोले लपक रहे थे जैसे किसी को झुलस ही देंगे। चीनी रेस्तोराँ के चौराहे पर निखरी हुई शाम अपना सफ़ेद भीगा हुआ दुपट्टा फैलाए खड़ी थी। वो बस स्टॉप के सुतून से कंधा टेके सिगरेट के धुंए के मरगोले बना बना कर तोड़ रहा था। एक भारी भरकम पंजाबी औरत को अपने दुबले पतले मुनहनी पिसता क़द शौहर के साथ झुक-झुक कर बातें करता देख कर तो वो बड़ी ज़ोर से हंस पड़ा। पंजाबी औरत ख़शमगीं निगाहों से उसे देखते हुए अपने शौहर का ग़ुस्सा रफ़ा करने लगी।

    कोई पागल मालूम होता है।

    हूँ! वो उनके क़रीब जा कर कहे।

    नहीं नहीं। मैं पागल नहीं हूँ। पागल तो गांधी है। नहीं जिन्ना पागल है। नहीं फ़कीरा ही पागल है। वो मज़दूरी करता है हो हो हो...

    पंजाबी औरत चौराहे पर खड़े पुलिस मैन को देखने लगी और इसी अस्ना में सामने से मिस फॉक्स साईकल पर आती दिखाई दी और आसिफ़ डार्लिंग हसीना, तेरा इंतिज़ार कब से था कहता हुआ उसकी तरफ़ बढ़ा। वो भी उसको देखकर मुस्कुराती हुई साईकल पर से उतर पड़ी। फिर जाने क्या हुआ। चीनी रेस्तोराँ का सारा चौराहा ग़ज़बनाक चीख़ों से गूंज रहा था। मार डाला, हाँ मार डाला। ख़ून! दौड़ो, पकड़ो। मॉरो। जब चीख़ें मद्धम हो कर भिनभिनाने लगीं तो आसमान के पहले सितारे ने देखा कि मिस फॉक्स ख़ून में सीमेंट रोड पर पड़ी हुई थी और ख़ून की धारें उसकी मर्मरीं लंबी पतली दिल आवेज़ गर्दन से निकल निकल कर बह रही थीं। आसिफ़ को दो सिपाहियों ने पकड़ रखा था और वो अपना ख़ूनी छुरा फ़िज़ा में उठा कर चीख़ रहा था, देखो सारा चूसा हुआ ख़ून बह रहा है। अब मेरी बहन के रुख़्सारों पर गेंदे के फूल कभी खिलेंगे। हाँ अह्ले वतन। सारा चूसा हुआ ख़ून। मैंने फॉक्स को मार डाला है। अपनी जवानी को मार डाला है। हाँ अह्ले वतन।

    पुलिस इंस्पेक्टर आसिफ़ के गर्दनियां दे रहा था और लोगों की चरचर... चरचर ज़बानें चल रही थीं।

    वाह बड़ा बहादुर है औरत को मार डाला!

    पागल मालूम होता है कोई।

    हाय रक़ाबत! शायद कोई शायर बोला।

    अजी कोई इन्क़िलाबी मालूम होता है। शायद कोई क्लर्क बोला।

    कम्बख़्त इन नमक हराम इन्क़िलाबियों की वजह से ही देश को आज़ादी नहीं मिलती। शायद कोई बनिया बोला।

    पुलिस इंस्पेक्टर ग़ुस्से के रअशा से काँपती हुई आवाज़ में उसे गर्दनी देते हुए बोल रहा था,

    बदमाश! ज़लील! कमीना!

    आसिफ़ चीख़ रहा था, मार डाला है, अपनी जवानी को मार डाला है। सारा चूसा हुआ ख़ून, मिस फॉक्स को मार डाला है। सिपाही गर्दनियाँ दे दे कर उसको ऑक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट पर ढकेलते ले जाने लगे।

    हाँ अह्ले वतन...

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