ज़िन्दगी अफ़्साना नहीं
स्टोरीलाइन
यह कहानी एक धार्मिक मुस्लिम परिवार में रहने वाली औरतों की भयावह स्थिति को बयान करती है। फ़ैक्टरी की नौकरी चली जाने पर जमालुद्दीन मस्जिद में इमाम हो जाता है्। धर्म-कर्म से जुड़ने के बाद वह घर और उसकी हालत को एक तरह से भूल ही जाता है। उसकी बीवी जैसे-तैसे करके घर चलाती रहती है। माँ की मदद करने के इरादे से बड़ी बेटी जमीला भी मैट्रिक के बाद एक स्कूल में नौकरी करने लगती है। वहाँ उसकी मुलाक़ात असलम से होती है, जिससे वह चाहकर भी शादी नहीं कर पाती और घर के झमेलों में ही फँसी हुई ज़िंदगी गुज़ार देती है।
जमीला ने अपने फ़ैसले पर बहुत ग़ौर किया कि कहीं उससे कोई ग़लती तो सरज़द नहीं होने जा रही है। ऐसी ग़लती जिसकी फिर कभी तलाफ़ी ना हो सके। मगर उसे महसूस हुआ कि उसके सामने अब सिवाए इस एक रास्ते के कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अगर वो आज ज़रा भी कमज़ोर पड़ी तो फिर उ’म्र-भर यूँही घुटती और कुढ़ती रह जाएगी। वो घुटन जो बरसों से उसके गिर्द कोहरे की तरह दबीज़ से दबीज़-तर होती जा रही थी इससे नजात पाने का अब सिर्फ यही एक रास्ता था। अगरचे इस रास्ते में ख़दशात थे, बदनामी थी, अपनों की नाराज़गी थी। बिरादरी की अंगुश्तनुमाई थी। छोटे छोटे भाई बहनों से बिछड़ने का ग़म था, लेकिन इसके बावजूद वो रास्ता किस क़दर दिलफ़रेब था जैसे गर्मी की चिलचिलाती-धूप में कोई घुन्ना पेड़ नज़र आगया हो। एक दिल ख़ुशकुन तसव्वुर से उसका दिल धड़कने लगा और सारे जिस्म में एक अ’जीब मस्त कर देने वाली कपकपी सी दौड़ गई। उसने बे-ख़ुद हो कर आँखें बंद कर लीं। आँखें बंद होते ही उसके सामने असलम आकर खड़ा हो गया। मुस्कुराता हुआ, अपने चमकते स्याह बालों पर हाथ फेरता हुआ बाँहें फैलाए उसे अपनी तरफ़ बुलाता हुआ। उफ़ ! कितना दिलकश तसव्वुर था। ये सोच कर उसकी रगों में ख़ून की गर्दिश तेज़ हो गई कि चंद घंटों बाद ये तसव्वुर हक़ीक़त में बदल जाने वाला था। मगर दूसरे ही लम्हे एक मुहीब साया उनके दरमयान हाइल हो गया। उसने देखा। ये कोई और नहीं उस के वालिद, मौलवी जमाल उद्दीन थे जो ख़ुशमगीं निगाहों से उसे घूर रहे थे। उनके हाथ में बड़े दानों की तस्बीह थी, वो जल्दी-जल्दी तस्बीह फेरते हुए जे़रे लब कुछ बुद बुदा भी रहे थे। उनपर नज़र पड़ते ही असलम की फैली हुई बाँहें गिर गईं। बल्कि देखते ही देखते उसका ह्यूला फ़िज़ा में मा’दूम हो गया।
उसे लगा मौलवी जमाल उद्दीन उससे कह रहे हों, “ये तुम क्या करने जा रही हो? एक दुनिया तुम्हारे बाप से हिदायत पाती है और तुम, मौलवी जमाल उद्दीन की बेटी हो कर उन लोगों के रास्ते पर जा रही हो जो सरासर गुमराहों का रास्ता है और जिन पर अनक़रीब ख़ुदा का ग़ज़ब नाज़िल होने वाला है।”
उसने घबरा कर आँखें खोल दीं। नाइट बल्ब की सिसकती कराहती रोशनी कमरे में चारों तरफ़ फैली हुई थी और उसके दाएं बाएं उसकी तीनों बहनें अख़्तरी, अकबरी और अनवरी एक दूसरे के गले में बाँहें डाले बे-ख़बरी की नींद सो रही थीं। उसका छोटा भाई रशीद बाहर वरानडे में सोया था। माँ गड़ी मुड़ी बनी एक तरफ़ यूं पड़ी थी कि कपड़ों की एक छोटी सी गठरी मा’लूम हो रही थी। तकिया होते हुए भी उसका दायाँ हाथ उसके सिरहाने रखा था। वो इसी तरह सोती थी जैसे उसे कोई लंबा सफ़र दरपेश हो। सोती क्या थी बस ज़रा सा सुस्ता लेती थी कि दो-घड़ी बाद उठकर फिर सफ़र पर रवाना होना है। उसकी नौज़ाईदा बहन साजिदा माँ के पहलू में सोई चुसर चुसर कर रही थी। पता नहीं माँ की सूखी छातियों में दूध था भी या वो आ’दतन उन्हें चूसे जा रही थी। नन्हा शकील ख़ुद उसकी बग़ल में सोया था और नींद में किसी बात पर मंद मंद मुस्कुरा रहा था। माँ के बाज़ू में जो जगह ख़ाली थी वो उसके बाप मौलवी जमाल उद्दीन की थी। मगर वो वहां नहीं थे। वो तो तीन दिन पहले अल्लाह के रास्ते में निकल चुके थे।
वो पहले एक फ़ैक्ट्री में मशीन ऑप्रेटर थे। मा’क़ूल तनख़्वाह थी, रहने के लिए चाली में दो खोलियों का मकान था। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक फ़ैक्ट्री में हड़ताल हो गई। हड़ताल ने इतना तूल पकड़ा कि आख़िर फ़ैक्ट्री में ताले पड़ गए। तक़रीबन चार साढे़ चार-सौ मज़दूर बेकार हो गए। उनमें जमाल उद्दीन भी थे। बेकारी के अय्याम में जमाल उद्दीन ने नमाज़ पढ़ना शुरू की। नमाज़ पढ़ते-पढ़ते उनमें एक हैरत-अंगेज़ तब्दीली रूनुमा हुई। उन्होंने दाढ़ी बढ़ा ली। पैंट शर्ट पहनना छोड़ दिया और कुर्ता-पाजामा पहनने और टोपी ओढ़ने लगे। पांचों वक़्त नमाज़ पढ़ना और जमा’तों के साथ दा’वत पर जाना उनका मा’मूल बन गया। इसी दौरान उन्होंने क़ुरआन की बेशतर आयतें हिफ़्ज़ कर लीं। तब्लीग़ी दौरों के सबब उनकी दीनी मा’लूमात में भी ख़ासा इज़ाफ़ा हो गया। उन्हीं दिनों मुहल्ले के मदरसे में क़ुरआन का दर्स देने वाले बंगाली मौलवी साहब का इंतिक़ाल हो गया। मुहल्ला कमेटी ने मौलवी-साहब की जगह जमाल उद्दीन को दर्स-ओ-तदरीस के लिए रख लिया। इस तरह शेख़ जमाल उद्दीन मौलवी जमाल उद्दीन बन गए। कमेटी की जानिब से उन्हें तीन हज़ार रुपये तनख़्वाह मिलती थी। वो अपनी पूरी तनख़्वाह बीवी की हथेली पर लाकर रख देते और फिर महीना भर घर के अख़राजात की तरफ़ से बेनयाज़ होजाते। अगर बीवी घर के ना मुसाइ’द हालात की तरफ़ तवज्जो दिलाना भी चाहती तो उनके शान-ए-इस्ति़ग़ना में फ़र्क़ न आता। एक तरफ़ घर की माली हालत दिन-ब-दिन ख़स्ता होती जा रही थी और दूसरी तरफ़ हर दो तीन साल के बाद घर में एक नए मेहमान की आमद-आमद शुरू होजाती। जब चौथा बच्चा वारिद-ओ-सादिर हुआ तो बीवी ने दबी ज़बान से आइन्दा के लिए मुहतात रहने को कहा। और इशारतन ये भी कह दिया कि “जमीला बड़ी हो रही है। अब हमें उसकी फ़िक्र करनी चाहिए।”
मौलवी जमाल उद्दीन एक ख़ालिस मज़हबी शख़्स थे। पाँच वक़्त की नमाज़ पढ़ना और बे नमाज़ियों को नमाज़ की तरग़ीब देना ही उनकी ज़िंदगी का मक़सद था। उन्होंने अपने आपको सरता पा दीन के लिए वक़्फ़ कर दिया था। उनकी पेशानी पर सज्दों का इतना बड़ा गट्टा था कि उनके चेहरे पर सबसे पहले उसी पर नज़र पड़ती थी और लोग अ’क़ीदत से मग़्लूब हो जाते थे। वो कोई सनद याफ्ता मौलवी नहीं थे मगर एक अ’र्से से मुहल्ले के मदरसे में बच्चों को क़ुरआन पढ़ाते-पढ़ाते लोग उन्हें मौलवी साहब कहने लगे थे।
मौलवी-साहब कड़के, “ये क्या ख़ुराफ़ात बकती हो? क्या तुम लोगों का अल्लाह पर से यक़ीन उठ गया है? किसी की फ़िक्र करने वाले हम कौन? क़ुरआन में साफ़ लिक्खा है, ‘वल्लाह खैरुलराज़क़ीन।’ जो पैदा करता है वो खिलाता भी है। अरे जो मोर व मलख़ तक को रिज़्क़ बहम पहुँचाता हो क्या उसे हमारी तुम्हारी फ़िक्र नहीं होगी। याद रखो! बच्चे ख़ुदा की रहमत होते हैं और रहमत से मुँह मोड़ना कुफ़रान-ए-नेअ’मत है।”
मौलवी-साहब दम लेने को रुके फिर इधर उधर देखते हुए क़दरे धीमी आवाज़ में बोले, “और सुनो! शौहर बीवी का मजाज़ी ख़ुदा है। मजाज़ी ख़ुदा की ना फ़रमानी ख़ुदा की ना फ़रमानी है।”
उनकी मोटी-मोटी दलीलों के बोझ तले बेचारी बीवी का कमज़ोर सा एहतिजाज बीमार की सिसकी की मानिंद दम तोड़ गया। इस तरह बीवी के एहतिजाज और एहतराज़ के बावजूद पांचवां बच्चा रोता बिसूरता आ’लम-ए-ज़हूर में आगया।
यही वो दिन थे जब जमीला कपड़ा लेने लगी थी। वो उन दिनों आठवीं जमा’त में पढ़ती थी। पहले कपड़े पर शलवार में लगे लाल लाल ख़ून के धब्बे देखकर जमीला बहुत घबराई थी। वो स्कूल से छूट कर हाँपती काँपती घर आई और बस्ता एक तरफ़ फेंक कर माँ की गोद में सर डाले फूट फूटकर रोने लगी। उसे यूं गिर्या करते देखकर माँ भी घबरा गई थी। माँ के बार-बार पूछने पर जब उसने हिचकियों के दरमियान बताया कि उसके पेशाब के रास्ते से ख़ून आरहा है और वो अब किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रही तब माँ ने उसे छाती से लगाते हुए कहा, “अरे तौबा! तू ने तो मुझे डरा ही दिया। पगली! अब तू बड़ी हो गई है। चल उठ, मुँह हाथ धो, थोड़ा सा ठंडा दूध पी ले, सब ठीक हो जाएगा।”
रात को जब मौलवी जमाल उद्दीन खाना खा रहे थे तो जमीला की माँ ने मौक़ा’ देखकर पंखा झलते हुए दबी ज़बान में कहा, “सुनिए! जमीला बड़ी हो गई है, आज ही उसने कपड़ा लिया है।”
मौलवी-साहब ने मुँह चलाते हुए उन्हें घूर कर देखा और बोले, “इतनी जल्दी?”
“जल्दी कहाँ...? अगले महीने वो तेरह पूरे करके चौदहवीं में क़दम रखेगी।”
“ठीक है। अब उसे घर में बिठा लो। जितना पढ़ना था पढ़ चुकी।” उन्होंने ख़ुश्क लहजे में कहा।
जमीला की माँ ने सोचा था वो इस ख़बर से ख़ुश होंगे। मगर बजाय ख़ुशी का इज़हार करने के जब उन्होंने ऐसा तालिबानी हुक्म सादर किया तो उन्हें भी तैश आगया और उन्होंने उसी दो टूक लहजे में कहा,
“आप कैसी बात करते हैं। उसे पढ़ने का कितना तो शौक़ है। हर साल क्लास में अव़्वल आती है। सब उसकी ता’रीफ़ करते हैं और एक आप हैं कि उस पर इल्म के दरवाज़े बंद कर देना चाहते हैं। मैं आपकी ये बात हरगिज़ नहीं मानूँगी। मैं उसे पढ़ाऊंगी जहां तक वो पढ़ना चाहती है।”
बीवी के बिगड़े तेवर देखकर मौलवी जमाल उद्दीन क़दरे सिटपिटाए। उनकी तनी हुई भवें झुक गईं। मगर अपनी मर्दाना हेकड़ी को बरक़रार रखते हुए बोले, “ठीक है, ठीक है। पहले उसके लिए बुर्क़े का एहतिमाम करो। यूं सुबह शाम उसे गली मुहल्ले से नंगे-सर गुज़रते देखकर हमारा सर शर्म से झुक जाता है।”
माँ ने जमीला के लिए एक नया बुर्क़ा ख़रीदा और जमीला ने बुर्क़ा ओढ़ना शुरू कर दिया। इब्तिदा में बुर्क़ा पहन कर चलने में उसे बड़ी दिक़्क़त होती थी। कई बार उलझ कर गिरते गिरते बची। दो एक-बार माँ से शिकायत भी की मगर माँ ने साफ़ कह दिया, “ना बाबा, अगर बुर्क़ा नहीं ओढ़ोगी तो तुम्हारे अब्बू तुम्हारी पढ़ाई बंद करा देंगे।”
मजबूरन उसे बुर्क़े को बर्दाश्त करना पड़ा। और फिर वक़्त के साथ साथ वो बुर्क़ा की कुछ ऐसी आ’दी हो गई कि बुर्क़ा उसके लिबास का एक जुज़ बन गया।
जमीला ने मैट्रिक फ़र्स्ट क्लास में पास किया। स्कूल कमेटी ने उसे स्कालरशिप देकर आगे पढ़ाना चाहा मगर मौलवी साहब ने जमीला को कॉलेज भेजने से साफ़ इनकार कर दिया। कमेटी के कुछ मेंबरों ने उन्हें समझाना चाहा मगर बेसूद।
जमीला जब तक स्कूल जाती थी उसे घर की ज़्यादा फ़िक्र नहीं थी। वो इतना तो जानती थी कि उसकी माँ घर का ख़र्च बड़ी मुश्किल से पूरा करती है मगर उसके लिए ख़ुद उसे कभी फ़िक्रमंद नहीं होना पड़ा था क्योंकि सारी फ़िक्रें उसकी माँ झेल लेती थी। उसे अपनी माँ को देखकर ऊंची इ’मारतों पर लगी बर्क़ मूसिल की वो फ़ौलादी छड़ी याद आजाती थी जो कड़कती बिजलियों का सारा ज़ोर अपने अंदर जज़्ब करके इमारत को तबाह होने से महफ़ूज़ रखती है। मगर जब स्कूल से फ़ारिग़ हो कर वो घर में बैठ गई तो अब वो सारी छोटी छोटी परेशानियाँ एक एक करके जोंकों की तरह उससे चिमटने लगीं। घर की ख़स्ता हालत और माँ की रोज़ बरोज़ ढलती सेहत देखकर जमीला को बेहद फ़िक्र लाहक़ हो गई। तिस पर जब माँ छटी दफ़ा उम्मीद से हुई तो उसने दिल ही दिल में अपने बाप मौलवी जमाल उद्दीन को बहुत कोसा।
इसी दौरान उसने चुपके चुपके एक प्राइवेट इदारे से नर्सरी का एक साल का मुरासलाती कोर्स कर लिया। आगे चल कर उसी कोर्स के सबब उसे बड़ी राहत मिली। मुहल्ले में एक नया स्कूल खुल रहा था। पड़ोस की आसो ख़ाला के शौहर कमेटी के मेंबर थे। उनकी सिफ़ारिश पर वहां प्राइमरी सेक्शन में जमीला को टीचर की नौकरी मिल गई। जमीला ने जब अपनी पहली तनख़्वाह साढे़ चार हज़ार रुपये लाकर अपनी माँ की हथेली पर रखे तो एक हैरतनाक ख़ुशी से उसके हाथ काँपने लगे। उसने जमीला को गले लगा लिया और बे-इख़्तियार उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। मौलवी साहब ने यहां भी नौकरी की मुख़ालिफ़त की मगर जमीला की माँ ने समझाया। “साढे़ चार हज़ार रुपये हर माह घर में आया करेंगे, क्या बुरा है? कुछ आपका ही बोझ हल्का होगा। और फिर नौकरी करने के लिए उसे कहाँ काले कोसों दूर जाना है। यहीं मुहल्ले के मुहल्ले में दस क़दम पर तो स्कूल है।”
जमीला को नौकरी करते हुए दो साल हो गए थे। मौलवी साहब ने तो अब घर आना ही छोड़ दिया था। घर की फ़िक्र उन्हें पहले भी नहीं थी मगर अब वो ज़्यादा आज़ादी और बेफ़िकरी के साथ ‘दा’वत’ के कामों में जुट गए। सारा सारा दिन मदर्सा और मस्जिद में गुज़ार देते। नमाज़ियों को हदीसें सुनाते और दीन की बातें समझाते। सिर्फ हफ़्ते अ’शरे में कभी कभी रात को घर आते। वो भी वज़ीफ़ा-ए-ज़ौजियत अदा करने के लिए। वर्ना अब उनकी अक्सर रातें भी मस्जिद ही की नज़र होने लगी थीं। घर की ज़िम्मेदारी अब जमीला पर आ पड़ी थी। बेचारी माँ तो इतनी थक गई थी कि बातें करने में भी हांपने लगती थी मगर इस हाल में भी डेढ़ साल पहले सातवाँ बच्चा पैदा हो गया था। तब पड़ोस की आसो ख़ाला के समझाने बुझाने और हिम्मत दिलाने पर जमीला की माँ ने सातवीं ज़च्चगी के दौरान ही ऑप्रेशन करा लिया था। शुरू में तो माँ ने ये बात मौलवी साहब से छुपाई मगर आख़िर एक दिन उन्हें मा’लूम हो गया। बहुत ख़फ़ा हुए। कई रोज़ तक घर नहीं आए। बोल-चाल बंद कर दी। जमीला की माँ ने भी परवाह नहीं की। इसी बहाने उन्हें आए दिन की नोचा खोची से नजात मिल गई थी, यही क्या कम था। मगर कब तक? एक रात मौलवी साहब ये कहते हुए उनके लिहाफ़ में घुस गए कि “क्या तुम नहीं जानतीं अपने नफ़स को मारना रहबानियत है और रहबानियत इस्लाम में हराम है।”
जमीला देख रही थी कि उसकी माँ में अब कुछ बचा नहीं था। ढीले ढाले कपड़ों के नीचे बस मुट्ठी भर हड्डीयों पर सूखी रूखी चमड़ी मढ़ी हुई थी। आँखें अंदर को धँस गई थीं और गाल पिचक गए थे। माँ पूरी तरह निचुड़ गई थी फिर भी उसका बाप उसे बराबर निचोड़े जा रहा था। वो सोचती क्या वो माँ को आख़िरी क़तरे तक निचोड़ कर ही दम लेंगे। कभी कभी उसके जी में आता कि बुजु़र्गी का लिहाज़ किए बग़ैर वो बाप को ऐसी खरी खरी सुनाए कि ज़ाहिर परस्ती का वो लबादा जो उन्होंने ओढ़ रखा है तार-तार हो जाएगी। मगर वो सिर्फ़ ख़ून के घूँट पी कर रह जाती। ये सब सोच सोच कर जब उसका दम घुटने लगता तो वो आँखें बंद करके असलम के तसव्वुर में खो जाती। असलम का तसव्वुर उसके लिए एक ऐसा जादू का डिब्बा था जिसमें उसके कई रंगीन ख़्वाब बंद थे। असलम उसी की स्कूल में स्काउट टीचर था। लंबा क़द, साँवला रंग, मा’मूली नाक नक़्शा मगर होंटों पर हमेशा एक दिल आवेज़ मुस्कुराहट। उसके साथ बातें करते हुए एक अ’जीब सी तमानियत का एहसास होता था। पिछले साल यौमे वालिदैन के जलसे में जमीला ने नन्ही-नन्ही बच्चियों का एक कोरस गीत तैयार किया था। ‘लब पे आती है दुआ’ बन के तमन्ना मेरी... ज़िंदगी शम्मा’ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी’ जब छोटी छोटी बच्चियां सफ़ेद फ़्राक और गुलाबी स्कार्फ़ बाँधे, हाथों में जलती मोमबत्तियां थामे अंधेरे में डूबे स्टेज पर नज़्म के इस शे’र पर पहुंचीं कि ‘दूर दुनिया का मिरे दम से अंधेरा हो जाए, हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए’ तो स्टेज यकलख़्त रोशनी में नहा गया। ये मंज़र नाज़रीन को इतना भाया कि देर तक हाल तालियों से गूँजता रहा। हेड मिस्ट्रेस ने जमीला की मुँह भरकर ता’रीफ़ की और स्टाफ़ ने भी ख़ूब सराहा। दूसरे दिन वो अपने आफ़ पीरियड में टीचर्स रुम में बैठी कोई चार्ट तैयार कर रही थी कि असलम अंदर आया। उसने सबसे पहले उसे कल के कामयाब कोरस गीत पर मुबारकबाद देते हुए कहा, “आपका कोरस गीत तो जलसे की जान था।”
उसने एक शर्मीली मुस्कुराहट के साथ उसका शुक्रिया अदा किया और गर्दन झुका कर अपने काम में मुनहमिक हो गई। मगर उसका ध्यान असलम की तरफ़ ही था। वो रूमाल से अपनी पेशानी का पसीना पोंछ रहा था। चंद लम्हों तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा फिर असलम की आवाज़ कमरे में उभरी। “जमीला साहिबा! मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ।” जमीला ने चौंक कर गर्दन उठाई। उसके दिल की धड़कन बढ़ गई थी। असलम दीवार पर लगे कैलेंडर की तरफ़ मुँह किए खड़ा था। उसने जमीला की तरफ़ मुड़े बग़ैर कहा,
“अगर मेरी माँ या बहन होती तो मैं उन्हीं के ज़रिए ये बात कहलवाता...”
वो लम्हे भर को रुका फिर बोला... “क्या आप मेरी शरीक-ए-ज़िंदगी बनना पसंद करेंगी?”असलम की मुस्कुराती आँखों में एक ग़मआलूद मतानत तैर रही थी। उस वक़्त जमीला को असलम पर बहुत प्यार आया था। उसका जी चाहा । वो उठे, कुछ बोले नहीं बस उसके गाल पर चट से एक बोसा सब्त कर दे। मगर वो ऐसा कुछ नहीं कर सकी। नज़रें झुकाए धड़कते दिल के साथ चुप-चाप बैठी रही। क़दरे तवक़्क़ुफ़ के बाद असलम ने फिर कहा, “मैं आपके जवाब का मुंतज़िर हूँ।”
जमीला ने आहिस्ता-आहिस्ता अपनी झुकी हुई पलकें ऊपर उठाईं। असलम सरापा इल्तिमास बना उसी की तरफ़ देख रहा था। जमीला सिर्फ इतना कह सकी, “आप हमारे घर आईए ना...” और फ़ौरन पलकें झुका लीं।
“सुना है आपके वालिद साहिब बहुत सख़्त हैं।”
“मेरी माँ बहुत अच्छी हैं।” जमीला ने बेसाख़्ता कहा और दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपा लिया।
जमीला की इस अदा ने असलम के रग-ओ-पै में बिजली सी दौड़ा दी। उसका रुवां रुवां खिल उठा। उसने झुक कर सिर्फ इतना कहा, “शुक्रिया।” और किसी शराबी की तरह मस्ती से झूमता हुआ स्टाफ़ रुम से बाहर निकल गया। इस तरह चंद लम्हों में मुहब्बत की वो सारी मंज़िलें तै हो गईं जो बा’ज़-औक़ात बरसों की मुसाफ़त में भी सर नहीं होतीं। पिछली ईद पर असलम उनके घर ईद मिलने के बहाने आया। जमीला ने माँ से इशारतन असलम के बारे में बता दिया था। असलम को देखकर माँ तो निहाल हो गई मगर मौलवी जमाल उद्दीन टाल गए। शायद अब हर माह साढे़ चार हज़ार रुपये की रक़म से दस्त-बरदार हो जाना उनके लिए आसान नहीं था।
चंद रोज़ बाद जब असलम ने जमीला से उसके वालिद का इं’दीया मा’लूम करना चाहा तो जमीला ने सर झुका लिया। उसकी आँखों में आँसू आगए। असलम अब जमीला की ख़ामोशी की ज़बान भी समझने लगा था और ये तो उसके आँसू थे जो उसका कलेजा चीर कर निकले थे। उसने आहिस्ता से उसका हाथ पकड़ लिया। उंगली से उसकी ठोढ़ी ऊपर उठाई और उसकी आँखों में झाँकता हुआ प्यार से बोला,
“जमी! तुम एक बहादुर लड़की हो, आँसू बहा कर कमज़ोर मत बनो। कोई न कोई सबील निकल ही आएगी। मैं हूँ न तुम्हारे साथ...”
असलम ने ‘मैं हूँ ना तुम्हारे साथ’ वाला फ़िक़रा आँखें झपका कर एक दिल आवेज़ मुस्कुराहट के साथ कुछ इस ए’तिमाद से कहा कि उसके दिल का सारा ग़ुबार काई की तरह छट गया और वो रोते-रोते मुस्कुरा कर बे-इख़्तियार उसके गले लग गई।
‘आह! कितना सुकून था उस की बाँहों में।’ जब उसने उसकी चौड़ी छाती पर अपना सर टिकाया तो उसे लगा ये दुनिया एक मामूली गेंद है जिसे वो जब चाहे ठोकर से उड़ा सकती है। असलम उसके कान में फुसफुसा रहा था।
“तुम फ़िक्र मत करो। पुने में मेरे रिश्ते के एक चचा रहते हैं। एक-आध महीने और इंतिज़ार करके देखते हैं। अगर तुम्हारे अब्बा के दिमाग़ की बर्फ़ नहीं पिघली तो अगले महीने मैं ख़ुद अपने चचा को लेकर तुम्हारे घर आ धमकूंगा तुम्हारा हाथ मांगने...”
“अगर वो तब भी न माने तो...?”
“तो क्या... फिर मैं भी उनके साथ वही सुलूक करूँगा जो पृथ्वी राज चौहान ने जय चंद के साथ किया था।”
असलम ने आख़िरी जुमला बिलकुल किसी फ़िल्मी स्टाइल में अदा किया और जमीला रोते-रोते अचानक हंस पड़ी।
“तुम वरमाला लिए दरवाज़े पर मेरा इंतिज़ार करोगी ना...?”
“ये भी कोई पूछने की बात है युवराज!” जमीला ने शर्मा कर उसके सीने पर सर रख दिया।
अभी इस बात को हफ़्ता भर भी नहीं गुज़रा था कि एक दिन मौलवी साहब ने इत्तिला दी वो चार महीने के लिए तब्लीग़ी दौरे पर जा रहे हैं। तीन चिल्ले पूरे कर के लौटेंगे।
माँ ने एहतिजाज किया, “चार महीने तक उनका और बच्चों का क्या होगा?”
मौलवी साहब ने दलील दी, “तुम दुनिया के लिए इतनी फ़िक्रमंद हो, आ’क़िबत की फ़िक्र नहीं करतीं जहां इस दुनिया के आ’माल का हिसाब किताब होना है। दीन के काम में थोड़ी बहुत क़ुर्बानी तो देनी पड़ती है। मदरसे वाले हर महीना कुछ रुपये लाकर देंगे। फिर जमीला बिटिया भी तो है। जो दीन की फ़िक्र करते हैं ख़ुद अल्लाह उनकी फ़िक्र करता है।”
जब जमीला ने असलम को ये ख़बर दी तो वो भी सन्नाटे में आगया। उसे पहले तो मौलवी साहब पर शदीद ग़ुस्सा आया मगर जमीला के जज़्बात का लिहाज़ करते हुए ग़ुस्से को पी गया और एक फीकी हंसी हँसता हुआ बोला, “अब तो पृथ्वी राज चौहान का किरदार अदा करना ही पड़ेगा।”
जमीला मुतरद्दिद लहजे में बोली, “असलम आपको मज़ाक़ सूझ रहा है। मैं रात-भर सो नहीं सकी हूँ।”
असलम ने जमीला के दोनों हाथ अपने हाथ में लिये और निहायत प्यार से बोला,
“मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा हूँ जमी! हमारे पास अब बस एक ही रास्ता रह गया है। पृथ्वी राज चौहान वाला।”
“पता नहीं आप पर ये पृथ्वी राज चौहान का भूत क्यों सवार हो गया है।” जमीला मुँह बना कर बोली।
“देखो जमी! मुझे लगता है तुम्हारे वालिद दीन के रास्ते पर इतना आगे निकल गए हैं कि घर का रास्ता ही भूल गए हैं। इसलिए अपना रास्ता अब हमें ख़ुद तलाश करना होगा।”
जमीला कुछ नहीं बोली। उसका चेहरा सरापा सवाल बना हुआ था।
“मेरे ज़हन में एक तजवीज़ है। सुनकर घबरा तो नहीं जाओगी?” असलम ने पूछा।
“आप हैं न मेरे साथ...”
“तुम्हें मुझ पर भरोसा है ना...?”
“अपने से ज़्यादा...”
“तो फिर सुनो! हम कल ही सुबह एशियाड बस से पुने चलते हैं। मैं चचा को इत्तिला दे दूँगा। वो सब इंतिज़ाम कर देंगे। वहां पहुंच कर हम निकाह करलेंगे।”
“ये क्या कह रहे हैं आप?” जमीला के मुँह से हैरत और ख़ौफ़ से हल्की से चीख़ निकल गई।
“मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ। इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।”
“अम्मी ये बर्दाश्त नहीं कर सकेंगी।” जमीला ने लरज़ती आवाज़ में कहा।
“पहले पूरी बात तो सुनो! निकाह के बाद हम शाम तक लौट आएँगे। फ़िलहाल अम्मी को कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं। धीरे धीरे उन्हें ए’तिमाद में लेकर सब कुछ बता देना। वैसे भी वो हमारी शादी के ख़िलाफ़ तो हैं नहीं।”
“नहीं असलम! ये सब मुझे कुछ अ’जीब सा लग रहा है।”
“देखो जमी! ये सब पेशबंदी के तौर पर है। तुम जानती हो तुम्हारे वालिद हमें शादी की इजाज़त नहीं देंगे मगर जब उन्हें मा’लूम होगा कि हमारा निकाह हो चुका है तो इस निकाह को तस्लीम करने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं होगा। क्योंकि तुम क़ानूनन बालिग़ हो।” असलम बोलते बोलते पल-भर को रुका, जमीला को ग़ौर से देखा। फिर गोया हुआ, “जमी! मैं तुम्हारे तज़बज़ुब को समझ सकता हूँ। तुम अपनी अम्मी और भाई बहनों के लिए फ़िक्रमंद हो ना? होना भी चाहिए, मगर एक बात याद रखो, आज जो ज़िम्मेदारी तुम्हारी है, शादी के बाद वो ज़िम्मेदारी हम दोनों की होगी।”
“असलम!...” कुछ कहने के लिए जमीला के होंट वा हुए, मगर हैरत और ख़ुशी से उसकी आवाज़ रुँध गई। उसने असलम की तरफ़ नज़र भर कर देखा। उसकी आँखों में तशक्कुर के आँसू छलक रहे थे। असलम ने उसके चेहरे को अपने हाथों में लिया और आहिस्ता से उसकी पेशानी चूम ली।
सुबह सात बजे एशियाड बस अड्डे पर मिलना तय पाया। उसने माँ से कह दिया कि वो चंद सहेलियों के साथ पिकनिक पर जा रही है। शाम तक लौट आएगी। माँ ने ख़ुशी ख़ुशी इजाज़त दे दी। वो रात-भर बिस्तर पर करवटें बदलती रही। थोड़ी देर के लिए आँख लग भी जाती तो कोई डरावना ख़्वाब उसे झिंझोड़ कर जगा देता। कभी उसे लगता वो एक अंधी सुरंग में चल रही है, चल रही है और सुरंग ख़त्म होने का नाम नहीं लेती। या अल्लाह! इस सुरंग से निकलने का कोई रास्ता है भी या नहीं? तभी उसे अपने से आगे कोई शख़्स मशाल लिए हुए चलता नज़र आता। वो अंधेरे में भी उसे पहचान लेती। वो असलम के सिवा कौन हो सकता है। वो उसे आवाज़ देती है। असलम... असलम... असलम उसकी तरफ़ मुड़ता है। मगर ये क्या? हैबत से उसके पांव ज़मीन में गड़ जाते हैं क्योंकि वो असलम नहीं उसके बाप मौलवी जमाल उद्दीन थे जिनकी आँखों से चिनगारियां निकल रही थीं।
कभी वो सोचती। ये शादी अगर शादी की तरह हो रही होती तो कैसा हंगामा रहता। घर मेहमानों से भर जाता। हल्दी, उबटन और मेहंदी की रस्में अदा होतीं। ढोलक की थाप पर गीत गाये जाते, रत जगे होते, इत्र और फूलों की ख़ुशबू से फ़िज़ा महक रही होती, बहनें चहक रही होतीं और माँ वारी वारी जाती। और अब्बू... बाप का ख़्याल आते ही वो एक-बार फिर काँप कर रह गई। वो दहाड़ रहे थे।
“बंद करो ये ख़ुराफ़ात...”
वो रात-भर इसी तरह ख़्वाब और बेदारी के दरमियान डूबती उभरती रही।
“अल्लाहु-अकबर, अल्लाहु-अकबर।” अचानक अज़ान की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वो हड़बड़ा कर उठ बैठी।
यक़ीनन ये फ़ज्र की अज़ान थी। जल्दी जल्दी मुँह धोया। वुज़ू किया। और मुसल्ला बिछा कर नमाज़ के लिए खड़ी हो गई। उसकी बहनें, भाई और माँ उसी तरह बे-ख़बर सो रहे थे।
उसने नमाज़ ख़त्म करके दुआ’ के लिए हाथ उठाए। मा’मूल के मुताबिक़ वो जे़रे लब दुआ’ मांगने लगी। “रब्बे इग़्फ़र वअरहम व अन त ख़ैर उलराहे मीन ए मेरे परवरदिगार! हमारे क़सूर मा’फ़ कर और हमारे हाल पर रहम फ़र्मा और तू सब रहम करने वालों से बेहतर है।”
दुआ’ मांगते मांगते अचानक उसपर कपकपी सी तारी हो गई और उसकी आँखों से आँसू रवां हो गए। सीने में एक तेज़ बगूला सा उठा। हलक़ में एक ज़ख़्मी परिंदा फड़-फड़ाया। क़रीब था कि वो हिचकियाँ लेकर रोने लगती, उसने अपने दुपट्टे का पल्लू पूरी क़ुव्वत से अपने मुँह में ठूँस लिया। दो तीन हिचकियाँ पल्लू में जज़्ब हो गईं। फरत-ए-जज़्बात से उसका सांस फूल रहा था। वो जल्दी से उठी, मटके से पानी लिया और गट गट पूरा गिलास हलक़ से उतार गई। धीरे धीरे साँसें मा’मूल पर आगईं। इतने में उसकी माँ की निंदासी आवाज़ आई, “जमीला, चाय बना दूं? एक कप चाय पीती जा...”
उसने जल्दी से कहा, “नहीं माँ! में कैंटीन में पी लूँगी। देर हो रही है, तुम आराम करो।”
“सँभाल कर जाना बेटा...”
“तुम फ़िक्र मत करो माँ... अल्लाह हाफ...”
जमीला ने बुर्क़ा ओढ़ा और अपना शोल्डर बैग लेकर बाहर निकल गई। चंद क़दम पर ही उसे आटो मिल गया। उसने आटो में बैठते हुए कलाई की घड़ी देखी। पौने सात हो रहे थे। सवा सात बजे की बस थी। वो पंद्रह बीस मिनट में बस अड्डे पर पहुंच जाएगी, वो आम तौर पर मुहल्ले से बाहर निकलने के बाद अपना नक़ाब उठा दिया करती थी मगर अब की एहतियातन उसने नक़ाब नहीं उठाया। आटो जूं ही डिपो में दाख़िल हुआ उसकी नज़र असलम पर पड़ गई। वो कांधे से एक झोला लटकाए, हाथ में अख़बार लिये उसी का इंतिज़ार कर रहा था। उसने आटो वाले को पैसे दिये और आटो से उतर गई। उसने अपना नक़ाब उलट दिया। असलम लपक कर उसके पास आया। “जमी! तुमने आज का अख़बार देखा?”
वो कुछ घबराया हुआ सा था।
“नहीं... क्यों?”
“आओ मेरे साथ...” वो कैंटीन की तरफ़ बढ़ गया। जमीला ने दुबारा चेहरे पर नक़ाब डाल लिया और उस के पीछे चलने लगी। असलम को परेशान देखकर वो ख़ुद भी परेशान हो गई । उसके दिल में सैंकड़ों वस्वसे कुलबुलाने लगे। कैंटीन में पहुंच कर उन्होंने कोने की एक मेज़ मुंतख़ब की। और जब आमने सामने बैठ गए तब असलम ने इधर उधर देखते हुए धीरे से कहा,
“जमी! हमें अपना प्रोग्राम मुल्तवी करना पड़ेगा।”
“क्यों...?” जमीला का वस्वसा ख़ौफ़ की शक्ल इख़्तियार करता जा रहा था।
“सरहद पर, मौलवी साहब और उनके साथियों को गिरफ़्तार कर लिया गया है।”
“या अल्लाह...” जमीला पर जैसे बिजली गिर पड़ी।
“हिम्मत से काम लो।” असलम ने उसके हाथ पर हाथ रखते हुए कहा।
“आपसे किस ने कहा?” बुर्क़े में जमीला की आवाज़ काँप रही थी।
“अख़बार में छपा है, वो जमा’त के साथ सरहद के पास से गुज़र रहे थे कि सिक्यूरिटी वालों ने सरहद पार करने के शुबहे में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। बाज़पुर्स के लिए उन्हें क़रीब की चौकी में ले गए हैं।”
जमीला रोने लगी।
“जमी! सँभालो अपने आपको, वो अकेले नहीं हैं पूरी जमा’त उनके साथ है। शुबहे में गिरफ़्तार किया है... कल परसों तक ख़बर आजाएगी कि छोड़ दिए गए।”
जमीला कुछ नहीं बोली। मगर बुर्क़े के अंदर उसका बदन लरज़ रहा था। रह-रह कर एक-आध सिसकी भी निकल जाती थी।
“जमीला! इस तरह हिम्मत हारोगी तो घर वालों का क्या होगा। चलो मैं तुम्हें आटो में बिठा देता हूँ। तुम घर पहुँचो। एक-आध घंटे के बाद मैं भी पहुंचता हूँ। मैं स्कूल कमेटी के चेयरमन अंसारी साहिब से भी बात करूँगा। कुछ न कुछ रास्ता निकल आएगा। ये अकेले मौलवी साहब का नहीं पूरी जमा’त का मसला है। लो, थोड़ी चाय पी लो। फिर चलते हैं।”
क़ारईन-ए-किराम! यहां तक पहुंचने के बाद अफ़साना निगार, अफ़साने को एक पुरउम्मीद नोट पर ख़त्म करना चाहता था कि जमीला घर आगई। असलम ने उससे वादा किया कि हालात मा’मूल पर आते ही दोनों शादी करलेंगे। जमीला को असलम पर पूरा यक़ीन है कि वो अपना वादा ज़रूर पूरा करेगा।
मगर क़ारईन-ए-किराम! ज़िंदगी अफ़साना नहीं है। अफ़साना निगार को ये इख़्तियार होता है कि वो अफ़साने को जहां चाहे ख़त्म कर दे या जिस तरफ़ चाहे मोड़ दे, मगर ज़िंदगी के तेज़ व तुंद धारे पर किसी का इख़्तियार नहीं होता। अफ़साना निगार का भी नहीं। बा’ज़ औक़ात ज़िंदगी का बहाव इस क़दर तेज़ होता है कि उसका क़लम भी एक हक़ीर तिनके की तरह बह जाता है। यहां भी ऐसा ही हुआ।
डेढ़ महीने तक हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने मौलवी जमाल उद्दीन को रिहा कर दिया क्योंकि पुलिस उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत मुहय्या नहीं करसकी। रिहाई के बाद वो एक लुटे पिटे मुसाफ़िर की तरह परेशान हाल, शिकस्ता ख़ातिर घर लौट आए मगर गिरफ़्तारी की ज़िल्लत और रुस्वाई ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। आते ही ऐसे बीमार हुए कि पंद्रह दिन में ही अल्लाह को प्यारे हो गए। सदमे से जमीला की माँ को फ़ालिज हो गया और वो बिस्तर से लग गई। छोटा भाई रशीद एस एससी में फ़ेल हो गया। फिर पता नहीं कैसे वो जेबकतरों की एक टोली के हत्थे चढ़ गया और ट्रेनों और बसों में लोगों के पाकेट मारने लगा। एक दिन पकड़ा गया और चिल्ड्रंस होम भेज दिया गया। असलम जमीला का कब तक इंतिज़ार करता? उसने पुने में अपने चचा की लड़की से शादी करली और वहीं किसी स्कूल में मुलाज़िम हो गया। जमीला की एक बहन अख़्तरी जो कॉलेज में पढ़ रही थी, एक दिन कॉलेज गई और फिर वापस ही नहीं आई। पता चला कि वो गली के एक आवारा छोकरे के साथ भाग गई है। बाक़ी दोनों बहनें भी अपनी अपनी जमा’तों में फ़ेल हो कर घर बैठ गईं।
तीन साल हो गए, फ़ालिजज़दा माँ चारपाई पर पड़ी मौत का इंतिज़ार कर रही है मगर मौत है कि दहलीज़ पर खड़ी उसे घूरती रहती है मगर अंदर नहीं आती। पहले माँ जमीला को देख देखकर रोती रहती थी मगर अब उसकी आँखें ख़ुश्क झीलों की मानिंद वीरान हो गई हैं। बस ख़ाली ख़ाली नज़रों से जमीला को आते-जाते टुकुर टुकुर देखती रहती है। जमीला के बालों में चांदी के तारों का इज़ाफ़ा हो रहा है। साल भर पहले सुबह बाल बनाते बनाते जब बालों में उसे पहला चांदी का तार नज़र आया था तो उसका दिल धक से रह गया था। वो उस रात बहुत रोई थी। दूसरे दिन उसने बड़ी एहतियात से चांदी के तार को नोच डाला। मगर अब तो उसके बालों में कई तार निकल आए हैं। उसने उन्हें नोचना छोड़ दिया है। पहले जब उसे असलम की याद आती थी तो रातों को तकिए में मुँह खूबो कर चुपके चुपके रोती थी मगर रफ़्ता-रफ़्ता उसके दिल में असलम की तस्वीर के नुक़ूश धुँदले पड़ने लगे। और अब तो माज़ी का हर नक़्श उस के दिल से मिट चुका है। क्या आप जमीला से वाक़िफ़ हैं? आपके घर से दो तीन घर छोड़कर ही तो रहती है वो। आपने उसे ज़रूर देखा होगा मगर पहचान नहीं पाए होंगे क्योंकि वो आज भी बुर्क़ा ओढ़ती है और उसके चेहरे पर नक़ाब पड़ा रहता है।
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