ज़िंदगी का राज़
स्टोरीलाइन
दो दोस्तों की कहानी, जिसमें नायारण एक शायर है और शिव दयाल उसके शे'रों को अमली जामा पहनाने में यक़ीन रखता है। कारख़ाने में हड़ताल होती है तो मालिक मज़दूरों और पुलिस के बीच दंगा करा देता है। इसके बाद शिव दयाल अपने साथियों के साथ मिलकर मालिक की गाड़ी पर फ़ायरिंग कर देता है। शिव दयाल को पुलिस पकड़ ले जाती है। नारायण जेल में शिव से मिलने जाता है तो वहाँ उन लोगों के बीच कुछ ऐसी बातें होती है कि नारायण भी शायरी छोड़कर हक़ीक़ी दुनिया में उतर जाता है।
(ओलुल अज़्म चेले ने गुरू से पूछा, महाराज ज़िंदगी का क्या राज़ है? गुरू ने एक-बार आँखें खोल कर कहा, मौत! और फिर आँखें बंद कर लीं।)
दरिया के किनारे बैठा शब दयाल अपने ख़यालात की दुनिया में खो गया था दौर-ए-उफ़ुक़ में लाल लाल बदलियां नीली हो गई थीं और मटियाले रंग ने आसमान पर पूरी तरह अपना तसल्लुत जमा लिया था। दरिया के किनारे, ख़मदार शीशम की टहनियां जैसे इब्तदाए आफ़रीनश से दरिया की लहरों को पकड़ने की नाकाम कोशिश में मसरूफ़ थीं और लहरें अम्वाज ज़िंदगी की तरह मुतवातिर बहे जार ही थीं।
इस वक़्त नारायण ने चुपके से आकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया।
शब दयाल की मह्वियत के तार टूट गए। उसने सर उठा कर नारायण की तरफ़ देखा।
नारायण ने कहा, उठो, रात हो रही है, चलोगे नहीं?
चलूंगा और ये कह कर थके हुए शख़्स की तरह शब दयाल उठा और नारायण के कंधे पर हाथ रखकर चुप-चाप चल पड़ा।
रास्ते में नारायण ने कहा, कल सेठ राम लाल के कारख़ाने में ज़बरदस्त हड़ताल होगी। चलोगे?
ख़्वाब की सी हालत में शब दयाल ने मुस्कुरा कर कहा, चलूंगा। क्यों नहीं? और फिर वो अपने ख़यालात की दुनिया में मह्व हो गया।
नारायण सूबे का मशहूर शायर था। इस थोड़े से अर्से ही में उसने ख़ास-ओ-आम के दिल में जगह हासिल कर ली थी। उसके शे'र हर शख़्स को अपना गिर्वीदा बना लेते थे और पढ़ने और सुनने वालों को ख़्वाबों की एक रंगीन, रूमान भरी दुनिया में ले जाते थे। जहां माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल के बंधन टूट जाते और वो सपनों की इस दुनिया में शे'रों की शराब पी कर मदहोश हो रहते।
शब दयाल उसका दोस्त था। दोनों बचपन से एक साथ खेले-कूदे, पढ़े और जवान हुए थे। दोनों के मज़ाक़ क़रीबन एक जैसे थे। दोनों ख़्वाबों की दुनिया में बसने वाले, दोनों शायर मिज़ाज! फ़र्क़ सिर्फ़ ये था कि नारायण शे'र कहता था और शब दयाल सुनता था। नारायण सिर्फ़ उस वक़्त तक उस रूमान अंगेज़ दुनिया की सैर करता जब तक उसके जज़्बात अलफ़ाज़ की शक्ल इख़्तियार न करते। शब दयाल उन्हें पढ़ पढ़ कर आठों पहर झूमा करता। मतलब ये, कि एक शे'र कहता और भूल जाता। दूसरा उन्हें पढ़ता और लौह-ए-दिल पर नक़्श कर लेता।
शहर के बाहर नई सड़क पर सेठ राम लाल के कारख़ाने थे। दूर दूर तक कारख़ानों की दीवारें चली गई थीं। एक तरफ़ कपड़े का काम होता और दूसरी तरफ़ टीन का और हज़ारों मज़दूर इन दोनों धंदों में दिन-रात लगे रहते थे।
सुनते हैं उनके दादा भीक मांगते आए थे। लेकिन क़िस्मत थी कि लाखों के मालिक बन गए। शुरू शुरू में गली-मुहल्लों से पुराने टूटे-फूटे बर्तन इकट्ठे किया करते और बाज़ार में कुछ नफ़ा पर उन्हें फ़रोख़्त कर देते। आहिस्ता-आहिस्ता उन्होंने कसेरों की दूकान खोली। मेहनत और दयानतदारी से काम करते थे, चल निकली और पहले साल ही काफ़ी मुनाफ़ा रहा। फिर आप हर साल काम बढ़ाते रहे। हत्ता कि आपने शहर के बाहर सस्ती ज़मीन मोल लेकर वहां निहायत छोटे पैमाने पर बालटियां बनाने का काम शुरू कर दिया। इसी दौरान में जंग-ए-अज़ीम शुरू हुई। उनकी क़िस्मत का सितारा चमक उठा। फ़ौज में बालटियां सप्लाई करने का ठेका उन्हें मिल गया और क़लील अर्से के अंदर अंदर एक अच्छे कारख़ाना के मालिक बन गए। लेकिन इस तरक़्क़ी से उनके दिल पर मैल तक नहीं आती। उनकी सादगी और तवाज़ो उसी तरह क़ायम रही और मेहनत और दयानत में भी मरते दम तक फ़र्क़ न आया।
सेठ राम लाल के बाप ने भी ग़रीबी के दिन देखे थे। इसलिए जब उनके वालिद कारख़ाना उनके नाम छोड़कर मरे तो उनके दिमाग़ में ख़लल नहीं आया बल्कि अपने बाप के नक़श-ए-क़दम पर चलते हुए वो तरक़्क़ी के रास्ते पुर गामज़न रहे। अपने बाप के साथ उन्होंने मज़दूरों की तरह काम किया था और उन्हें मज़दूरों के साथ हमदर्दी भी थी। इस लिए उनके अह्द में मज़दूरों को कभी तकलीफ़ नहीं हुई। बल्कि उनके दुख को उन्होंने अपना दुख जाना। काम भी उनका बढ़ा। सड़क की दूसरी तरफ़ उन्होंने कपड़े का एक कारख़ाना खोल दिया और जिस वक़्त मरे तो अपने लड़के राम लाल के लिए लाखों की जायदाद छोड़ गए थे।
राम लाल बचपन ही से सेठ पैदा हुए थे। ग़रीबी और मुफ़लिसी क्या होती है उन्होंने कभी न देखा था। बचपन ही से उन्होंने दूसरों को अपने लिए काम करते पाया और इस वक़्त जब 30 साल ही की उम्र में वो अपने बाप के फ़ौत होने पर इतनी बड़ी जायदाद के वाहिद मालिक बन गए तो उनके ग़रूर और तकब्बुर का ठिकाना न था। वो समझते थे, ख़ुदा ने उन्हें दौलतमंद पैदा किया है और उनके नीचे काम करने वालों को ग़रीब! परमात्मा की ख़ुशी इसी में है कि वो उनके लिए काम करें और वो उनसे काम लें। ग़रीब मज़दूरों से उन्हें कोई हमदर्दी न थी। लेकिन इस ग़रूर और तकब्बुर में उन्होंने रुपया बिगाड़ा नहीं। उसे उन्होंने बढ़ाया ही। हाँ धन-दौलत बढ़ाने में उन्होंने जायज़ और नाजायज़ ज़रिये का कभी ख़याल नहीं किया। 1921 की तहरीक अदम तआवुन में उन्होंने ख़ूब हाथ रंगे और अब फिर जब नौ दस साल बाद स्वदेशी की तहरीक को फ़रोग़ मिल रहा था। वो उसका पूरा पूरा फ़ायदा उठाना चाहते थे। लेकिन उसी वक़्त मज़दूरों में दस साल से आहिस्ता-आहिस्ता सुलगती हुई आग भड़क उठी थी और वो हड़ताल करने पर आमादा हो गए थे।
बात ये थी कि इक़तिसादी कसादबाज़ारी का दौर दौरा था और सेठ साहिब ने इसी बहाने मज़दूरों के गले पर छुरी फेरने का फ़ैसला कर लिया था। उनकी तनख़्वाहों में तख़्फ़ीफ़ कर दी गई थी। अगर ये तख़्फ़ीफ़ इसी तनासुब से होती, जिस निस्बत से क़ीमतें गिरी थीं तो शायद मज़दूर बर्दाश्त कर लेते लेकिन ये थी 30 फ़ीसदी। इस लिए उन्होंने शोर मचाया। मगर जब सेठ साहिब ने शोर मचाने वालों को नौकरी ही से बरतरफ़ कर दिया, तो उनके सब्र और ज़ब्त का पैमाना लबरेज़ हो गया और मज़दूर यूनीयन ने आम हड़ताल का ऐलान कर दिया।
सेठ साहिब ने पुलिस को बुला लिया था। एक तरफ़ पुलिस के सिपाही थे मुसल्लह और बावर्दी। दूसरी तरफ़ मज़दूर थे तार-तार कपड़ों में मलबूस और ग़ैर मुसल्लह! एक तरफ़ ताक़त का मुज़ाहरा था। दूसरी तरफ़ बेकसी की नुमाइश! जो मज़दूर मिल के अंदर जाने की कोशिश करता वो उसकी मिन्नत समाजत करके उसे काम पर जाने से मना करते और अगर इस पर भी वो न मानता तो उसके पांव पर सर रख देते। अहाते के अंदर खड़े खड़े सेठ राम लाल दाँत पीस पीस कर रह जाते।
कुछ देर तक पिक्टिंग पुरअमन तौर पर जारी रही। इसी दौरान में ऐसे भी मवाक़े आए जब मालूम हुआ कि उनका निज़ाम टूट जाएगा। मज़दूरों में ऐसे भी थे, जिनके पास शाम के खाने के लिए दो पाव आटा भी न था और यूनीयन अभी इतनी मज़बूत न थी मज़दूरों का एक जत्था अंदर जाने के लिए मुसिर हुआ। हड़तालियों की मिन्नत समाजत, यहां तक कि उनके पांव पड़ने का भी उन पर कोई असर न हुआ। तब हड़ताली ज़मीन पर लेट गए कि जाना चाहो तो भले ही हमारे जिस्मों को लताड़ते हुए गुज़र जाओ! अपने इन भाइयों को, जो सब के लिए लड़ रहे थे। रौंदकर गुज़रना उन्हें मंज़ूर न हुआ। भले ही बाल बच्चे फ़ाक़ों मरें, भले ही पानी पी पी कर गुज़ारा करना पड़े। लेकिन इतना ज़ुल्म तो उनसे न हो सकेगा और वो चुप-चाप वापस हो गए। हड़तालियों ने ज़ोर से नारा बुलंद किया, मज़दूर ज़िंदाबाद और पिक्टिंग बदस्तूर ज़ोर-शोर से जारी रही।
सेठ साहिब पुलिस सब इंस्पेक्टर से मिले। गुपचुप सरगोशियाँ हुईं, आख़िर वापस आकर उन्होंने अपने निजी मुलाज़िमों को इकट्ठा किया। हक़्क़-ए-नमक अदा करने का यही वक़्त है, ये बात उन्होंने उनके ज़ह्न नशीन कर दी और एक एक महीना की तनख़्वाह ज़ाइद देने का वादा किया और उन्हें कहा कि वो बाहर चले जाएं और जब वापस आने पर उन्हें रोका जाये तो लड़ पड़ें। बलवा कर दें और हो सके तो एक दो ईंटें सिपाहियों की तरफ़ भी फेंक दें।
वफ़ादार नौकरों ने ऐसा ही किया। पुलिस पर ईंटें फेंकी जाएं और वो ख़ामोशी से बर्दाश्त कर ले। तो फिर वो पुलिस कैसी? अदम तशद्दुद हो सकता है हड़तालियों का हथियार हो, लेकिन इसका तो नहीं। उसके पास तो लाठी है और इस हर्बा का इस्तिमाल करने में उसने कोताही नहीं की।
पुलिस की लाठियों की जुंबिश हुई। बहुतों के सर फटे, बहुत ज़ख़्मी हुए, बहुत भाग गए। लेकिन अक्सर लाठीयां खाते खाते, ज़ख़्मी होते होते भी वहीं लेट गए।
बहुत देर से शब दयाल और नारायण भी तमाशाइयों की भीड़ में खड़े थे। जब मज़दूरों को ज़द-ओ-कोब किया जाने लगा। तो शब दयाल के ख़्वाब जैसे मुंतशिर हो गए। वो इस नज़ारे की ताब न ला सका और उसने नारायण को कंधे से पकड़ा और भीड़ से निकल गया। अब के नारायण जैसे ख़्वाबीदा की तरह उसके सहारे चल पड़ा।
उस दिन के बाद नारायण की शायरी में एक नए दौर का आग़ाज़ हुआ, उसकी वो रूमान अंगेज़ दुनिया बिखर गई। हक़ीक़त की तल्ख़ी के अंधेरे ने, जाने कब उठकर इस सुनहरे संसार को ढक लिया। जाने किस तरह, जैसे किसी जादू के असर से वो ग़रीबों का, मुफ़लिसों ओ रम्ज़ दौरों का शायर बन गया और उसके अशआर सरमायादारों की ऐश परस्तीयों का मुरक़्क़ा खींचने लगे। तसव्वुर के मैख़ाने में ख़म के ख़म लुंढाते, किसी परी पैकर नाज़नीन के साथ अजनबी समुंदरों पर कश्ती बढ़ाने, बादलों और बिजलियों के हवाई घरों में इक़ामत-गुज़ीं होने और अपने पढ़ने वालों को तख़य्युल की नई नई दुनियाओं की सैर कराने की बजाय अब वह उन्हें मुफ़लिसों की झोंपड़ियों, मज़दूरों की कमीन गाहों, किसानों के कच्चे घरों की तरफ़ ले जाने लगा। ख़्वाब देखने वाले की बजाय वो दफ़अतन हक़ीक़त निगार बन गया।
इस वाक़िया के दूसरे ही दिन उसने जो नज़्म सरमायादार को मुख़ातिब कर के लिखी थी। वो रोज़ाना मज़दूरके पहले सफ़े पर छपी थी और फिर बीसियों दूसरे अख़बारों ने उसे नक़ल किया था। नज़्म का उनवान था शम्मा और उसका मतलब कुछ यूं था,
परवानों को अपनी ताबनाक लौमैं जलाए जा!
गुनाहों की तारीकी को अपनी रोशनी से दूर रखने की कोशिश कर!
तू आग है, कोई तेरे नज़दीक न आएगा।
ततू रोशन है, कोई तेरे गुनाह न देखेगा।
लेकिन ये मासूम परवाने
जलने के बाद तुझे बुझा देंगे, और
तेरे गुनाहों की तारीकी मौत के बाद तुझे ड्राएगी!
नारायण अपने कमरे में बैठा, न जाने किन ख़यालात में गुम था कि किसी ने उसके कंधे पर आहिस्ते से हाथ रखा। नारायण ने उसी तरह बैठे-बैठे अपना हाथ नौवारिद के हाथ पर फेरा। आने वाले ने उसकी आँखें बंद कर लीं।
नारायण क़हक़हा मार कर हंसा, शिबू तुम्हारा बचपन कभी दूर भी होगा या नहीं?
और दूसरे लम्हे शब दयाल, नारायण के सामने था। उसके होंटों पर हल्का तबस्सुम खेल रहा था। उसकी आँखों में समुंदर की गहराई थी। उसने हंसते हुए कहा, नारायण आज हमने नज़्म कही है।
तुमने नज़्म? और नारायण का क़हक़हा कमरे में गूंज उठा, लाओ, दिखाओ तो।
शब दयाल ने जेब से काग़ज़ निकाल कर नारायण के हाथ में दे दिया और वो हंसते हंसते नज़्म पढ़ने लगा लेकिन जूँ-जूँ पढ़ता गया। उसके चेहरे से मसर्रत मफ़क़ूद होती गई और जब नज़्म ख़त्म हो गई तो उसके चेहरे पर तारीक बादल सा छाया हुआ था।
नज़्म क्या थी एक मंजूम अफ़साना था। शब दयाल के दिल में उठते हुए तूफ़ान का मज़हर, प्लाट मुख़्तसर था। एक सादा-लौह जज़्बाती नौजवान सरमायादारों के मज़ालिम देखकर मज़दूरों की तंज़ीम करता है। लेकिन चूँकि सरमायादार का ज़ुल्म रोज़-बरोज़ बढ़ता जाता है। इस लिए मज़दूर उसके बस में नहीं रहते। वो ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहते हैं और एक दिन सरमायादार पर हमला कर देते हैं। पुलिस मज़दूरों के साथ उसे भी गिरफ़्तार कर लेती है। उसे फांसी का हुक्म होता है। उसके बीवी-बच्चे, उसके नाते-रिश्तेदार उसके लिए रोते हैं, लेकिन वो ख़ुशी-ख़ुशी तख़्ता-ए-दार पर चढ़ जाता है।
नारायण का दिल काँप गया। उसने शब दयाल की तरफ़ देखा। उसकी आँखें वैसे ही ख़ला में, जैसे तसव्वुर के किसी हसीन मंज़र का नज़ारा कर रही थीं। नारायण ने उनकी गहराईयों में डूबने की कोशिश की। अचानक उसे शुबहा हुआ, जैसे शब दयाल इस कहानी का हीरो है, और वो ख़ुद जुर्म का इर्तिकाब कर के आया है। लेकिन उसके चेहरे पर वही सादगी थी। वही सादा-लौही और पाकीज़गी जिसे नारायण हमेशा से देखने का आदी था। उसने आहिस्ता से पुकारा,
शिबू!
हाँ!
तुम्हें मालूम है मुझे तुमसे कितनी मुहब्बत है?
शब दयाल हंसा, भला उसके इज़हार की भी ज़रूरत है।
नारायण ने लंबी सांस ली, देखो शिबू उसने कहा, मेरा कोई भाई नहीं बहन नहीं, रिश्ता-नाता कोई भी नहीं। सब कुछ तुम ही हो। तुम मेरे बचपन के दोस्त हो, हमजमाअत हो, हम नशिस्त हो, ख़ुदा के लिए कोई ऐसा काम ना करना...
नारायण की आँखों में आँसू छलक आए।
शब दयाल क़हक़हा लगा कर हंस उठा, भला तुम्हें ये शुबहा कैसे हुआ?
नारायण ख़ामोश, उसकी तरफ़ देखता रहा।
शब दयाल ने फिर ज़बरदस्ती हंसकर कहा, ये कुछ भी नहीं। मैं कहता हूँ, इसमें असलीयत कुछ भी नहीं। और वो फिर हंसा।
अच्छा है,लेकिन...
लेकिन क्या?
मैं तुम्हारे बग़ैर शायद ज़िंदा नहीं रह सकता शिबू, उसने उदास नज़रों से शब दयाल की तरफ़ देखा।
पागल हो गए हो नारायण। और शब दयाल हंस उठा।
लेकिन नारायण पागल न था।
दूसरे दिन सुबह जूंही उसने रोज़ाना अख़बार हाथ में लिया। सन्न रह गया। पहले सफ़े पर ही बड़े बड़े अलफ़ाज़ में लिखा था।
मशहूर कारख़ानादार सेठ राम लाल के क़त्ल का इक़दाम
और कई ज़िमनी सुर्ख़ीयों के बाद ख़बर थी।
आज शाम के वक़्त जब सेठ राम लाल क्लब से वापस आ रहे थे। कंपनी बाग़ के नज़दीक उनकी मोटर पर फ़ायर किए गए। मोटर का टायर फट गया और हमला आवरों ने सेठ साहिब पर गोलियां चलाईं। लेकिन उनका ड्राईवर सेठ साहिब को बचाने के लिए कूद पड़ा और हमला आवरों की गोलियों से वहीं ढेर हो गया। मोटर के शीशे टूट गए और सेठ साहिब के कंधे पर भी ज़ख़्म आया। हमला आवर मज़दूर हैं।
नारायण का माथा ठनका। वो शब दयाल के घर की तरफ़ भागा लेकिन वो वहां मौजूद न था। शाम को उसने सुन लिया। शब दयाल चार दूसरे हमराहियों के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया है।
गर्मियों की दोपहर अपनी आग जैसे लू की लपटों से शहर को घर किये हुए थी। आग की जलन से आबला पड़ जाता है। लेकिन दोपहर की ये लू ऐसी थी कि जिस्म और जिस्म की रग-रग तक झुलस जाती लेकिन आबला दिखाई न देता।
कमरा बंद किए नारायण अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था। सुबह से वो यूंही पड़ा था। नहाने न गया था, नाशता करने न गया था। खाना खाने न गया था। जैसे उसकी तमाम क़ुव्वतें ही सल्ब हो गई थीं। तभी उसे एक ख़त मिला। दस्तख़त पहचान कर बेताबी से उसने खोला। लिखा था,
भाई नारायण।
महज़ शे'र कहने या नज़्में लिखने से मुफ़लिसों की भलाई नहीं हो सकती। इसके लिए अमली काम की ज़रूरत है। महज़ तसव्वुर की सैर करने की बजाय नारायण, हक़ीक़ी दुनिया में घूमना कहीं ज़्यादा ज़रूरी है। मैंने अपने इर्द-गिर्द के माहौल का मुताला किया है, अपना लाइह-ए-अमल भी मैंने बना लिया है। शायद तुम उसकी ताईद न करो लेकिन मैं तो उसी पर अमल करूंगा।
शिबू किसी फ़ौरी ख़ौफ़ से मुतास्सिर हो कर नारायण ने इधर उधर देखा और फिर ख़त के टुकड़े टुकड़े कर के फेंक दिए। उसकी आँखों ने देखा कि पुलिस उस की भी तलाशी ले रही है और उस ख़त को अपने क़ब्ज़ा में कर लेती है और उसे शब दयाल के ख़िलाफ़ इस्तिमाल करती है... वो उठा। उसने ख़त के पुर्ज़ों को इकट्ठा किया और उन्हें बाहर बाग़ में फेंक दिया और फिर वहीं एक चारपाई पर धँस गया और लेट गया। लेकिन लेटा रहना उसके लिए मुहाल हो गया। वो फिर उठा। आहिस्ता-आहिस्ता, दबे-पाँव नीचे बाग़ में पहुंचा और सब पुर्ज़ों को इकट्ठा करने लगा। उसका दिल धक धक कर रहा था। जैसे वो चोरी का इक़दाम कर रहा हो। सब पुर्ज़ों को जमा कर के वो वापस ले आया। ये पुर्जे़ पुलिस के किस काम के थे? लेकिन उसके लिए ये सब कुछ थे। ये शब दयाल की निशानी थे। उस शब दयाल की, जो क़त्ल के जुर्म में माख़ूज़ था और उसका दोस्त था। भाई था, रिश्तेदार था, सब कुछ था।
कमरे में पहुंच कर उसने दोनों हाथों में जमा किए हुए पुर्ज़ों को चूम लिया और उन्हें अंदर ट्रंक में एहतियात से बंद कर आया।
फिर वो इसी तरह बेजान सा बिस्तर पर लेट गया।
जिस तरह ठहरे हुए पानी में अचानक कोई चीज़ गिर जाने से हलचल पैदा हो जाती है। उसी तरह शब दयाल की गिरफ़्तारी से भी नारायण के दिल में हलचल पैदा हो गई थी। सोच और समझ की तोतें जैसे उसे जवाब दे गई थीं।
लेकिन जब इसी तरह बेदिली से पड़े पड़े उसे चंद दिन गुज़र गए और सदमा का पहला ज़ोर क़दरे कम हुआ तो उसने शब दयाल से मुलाक़ात की दरख़्वास्त की।
पुलिस तहक़ीक़ात में मसरूफ़ थी। दरख़ास्त मुख़्तलिफ़ दफ़ातिर से होती हुई सपरनटनडनट पुलिस के पास आई, और उसने उसे नामंज़ूर कर दिया।
नारायण कुछ दिन अपनी दरख़्वास्त के जवाब का इंतिज़ार करता रहा। आख़िर हार कर ख़ुद सुपरिंटेंडेंट से मिला। उन्होंने कहा, मुझे अफ़सोस है मैं अभी आपकी दरख़्वास्त पर अमल नहीं कर सकता।
नारायण अफ़्सुर्दा हो कर घर वापस आया। घर आकर उसने एक नज़्म लिखी, बेकसी और उसमें उसने अपना दिल निकाल कर रख दिया। दूसरे दिन कई अख़बारों में एक साथ ये नज़्म शाया हुई। कई दिन तक उसी नज़्म का चर्चा रहा। लोगों ने नारायण को 'मुसव्विर दर्द' का ख़िताब दे दिया। नारायण हंसा। नज़्मों से कुछ न होगा। कुछ अमल काम करना चाहिए और वो बाहर निकला। मज़दूरों के लीडरों से मिला। पब्लिक के सरकरदा सर बराहों से मिला। उसने कई जलसों में तक़रीरें कीं। कई जगह नज़्में पढ़ीं। इस तमाम मेहनत के नतीजे के तौर पर शब दयाल और उसके हमराहियों के मुक़द्दमे की पैरवी के लिए एक डिफेंस कमेटी बनाई गई। सारे सूबे से चंदा इकट्ठा किया। सूबे के मशहूर मशहूर वुकला ने मुक़द्दमे की पैरवी की। छः माह तक मुक़द्दमा चलता रहा। असेसरों ने शब दयाल को बेगुनाह और दूसरे दो मज़दूरों को मुजरिम क़रार दिया लेकिन सेशन जज ने इस रिमार्क के साथ, कि शब दयाल ही इस साज़िश का दिमाग़ है। तीनों को फांसी की सज़ा दे दी, बाक़ीयों को रिहा कर दिया गया।
लोग इस क़दर इंतिहाई सज़ा के लिए तैयार न थे। उन्हें शब दयाल की रिहाई की उम्मीद थी। नारायण तो गोया इसी उम्मीद के सहारे ज़िंदा था। जब उसने सेशन जज का फ़ैसला सुना तो कुछ लम्हे के लिए सुन्न वहीं खड़ा रहा। फिर वो चुपचाप घर की तरफ़ चल पड़ा लेकिन इस की कमर झुक गई थी और अगरचे किसी ने महसूस नहीं किया। लेकिन उसके स्याह बालों में कहीं कहीं सफ़ेद बाल नुमायां हो गए थे।
वहां भी जहां यास की तारीकी पूरी तरह मुसल्लत होती है। उम्मीद की किरन कभी कभी चमक जाया करती है। सेशन जज का फ़ैसला सुनने के बाद नारायण बिलकुल मायूस हो गया था। लेकिन फिर भी, उम्मीद थी कि उसके तारीक दिल में कभी कभी चमक जाती थी। कौन जाने हाइकोर्ट में शब दयाल बरी हो जाये? डिफेंस कमेटी ने हाइकोर्ट में अपील दायर कर दी थी और नारायण नाउम्मीदी के बावजूद अदालत की कार्रवाई को दिलचस्पी से पढ़ता था और जूँ-जूँ दिन गुज़रते जाते थे। उम्मीद की वो शुआ बढ़कर, फैल कर उसके दिल को रोशन करती जाती थी। हाइकोर्ट में तो बारहा क़त्ल के मुजरिम बरी हो जाते हैं, फिर शब दयाल से तो ये गुनाह ही नहीं हुआ। लेकिन जब हाइकोर्ट ने अपील ख़ारिज कर दी तो वो सब रोशनी जाने एक दम कहाँ मफ़क़ूद हो गई और उसके दिल में फिर अंधेरा ही अंधेर अच्छा गया और फिर उसकी ज़िंदगी उस इन्सानी ढांचा की सी हो गई जिसकी रूह क़ब्ज़ कर ली गई हो।
गोया अपना सब कुछ लुटा कर नारायण एक दिन शब दयाल से जेल में मुलाक़ात करने गया।
शब दयाल के चेहरे पर वही सादगी, वही सादा-लौही और होंटों पर वही मुस्कुराहट थी। लेकिन नारायण को देखकर उसकी आँखें भर आईं। न वो ख़ुशमिज़ाजी न बशाशत, न वो ज़िंदगी न ज़िंदादिली। न वो दर्द न ग़म जो आख़िरी अय्याम में उसने उसके चेहरे पर देखा था। कुछ भी उसे नारायण के पास नज़र न आया। उसकी जवानी जैसे रुख़्सत हो गई थी। बाल सफ़ेद हो गए थे और कमर झुक गई थी और उसका चेहरा तमाम जज़्बात से आरी था। शब दयाल न समझ सका कि नारायन क्या सोच रहा है, कौन सी दुनिया के ख़्वाब देख रहा है। चुप-चाप वो आकर खड़ा हो गया था... अचानक जैसे शब दयाल को मुस्कुराते देखकर नारायन के चेहरे पर कुछ ताज़गी आई और उसने दर्द भरे लहजे में पूछा,
शिबू तुमने क्या किया?
शिबू हंसा, उसने कहा, जो मुनासिब था नारायन।
नारायन के चेहरे पर बादल सा आकर गुज़र गया। क्या किसी के क़त्ल से अपने हाथ रंगना मुनासिब है?
मैंने क़त्ल नहीं किया!
फिर! और नारायन ने अपनी फटी फटी आँखें शब दयाल के चेहरे पर जमा दी।
शब दयाल ने कहा, मैंने सिर्फ़ मज़दूरों को मुत्तहिद और मुनज़्ज़म हो कर ज़ुल्म का मुक़ाबला करने की तलक़ीन दी थी। उन्होंने तंग आकर ज़ालिम की हस्ती ही को मिटा देना बेहतर समझा।
लेकिन तुम्हें मेरा ख़याल नहीं था शिबू?
लेकिन तुम भी तो वही कहते थे। तुम्हारी नज़्में भी तो उन्हें मुत्तहिद और मुनज़्ज़म होने की तलक़ीन करती थीं। मैंने सिर्फ़ उन्हें ही अमली जामा पहनाया है नारायण।
लेकिन मैंने क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी मचाने के लिए कब कहा?
मैंने भी नहीं कहा।
फिर ये।
शब दयाल ने बात काट कर कहा, नारायन तुम मज़लूम नहीं तुम पर ज़ुल्म नहीं होता। इस लिए तुम उन जज़्बात का अंदाज़ा नहीं कर सकते जो ज़ुल्म सह कर मज़लूम के दिल में पैदा होते हैं। अपने अपने बंगलों में बिजली के पंखों के नीचे सोने वाले, उन एहसासात को क्या समझेंगे। उन्हें तो वही समझ सकता है जो उनमें रहता है, उनके साथ महसूस करता है। मैंने उस दर्द को महसूस किया, उस ज़ुल्म को महसूस किया और उनमें रह कर उन्हें मुनज़्ज़म होने के लिए कहा।
लेकिन मुनज़्ज़म होने के मअनी तशद्दुद करने के तो नहीं।
मुनज़्ज़म गिरोह को क़ाबू में रखना मुश्किल है, ख़सूसन उस वक़्त, जब वो गिरोह नाख़्वान्दा और गँवार लोगों का हो।
फिर तुम उस रास्ते गए ही क्यों? और नारायण की आँखें भर आईं।
शब दयाल हंसा, गाड़ी के हादिसों के डर से कोई उसमें चढ़ना तो नहीं छोड़ देता नारायन। अगर बेदार होते वक़्त बरसों के ग़ुलाम ज़ब्त न रख सकें तो इसका ये मतलब तो नहीं कि उन्हें बेदार ही न किया जाये।
लेकिन शिबू ज़िंदा रह कर तुम उनके लिए कहीं ज़्यादा काम कर सकते थे?
इन्सान मर कर जीने से ज़्यादा काम कर जाता है नारायन। तुमने ही एक-बार ये लिखा था। मैं तो सिर्फ़ तुम्हारे ख़यालात को अमली जामा पहनाता रहा हूँ! और वो हंसा मुलाक़ात का वक़्त हो चुका था। नारायन ने रूमाल से अपनी आँखें पोंछीं और चुप-चाप बाहर निकल आया। लेकिन तब उसका चेहरा जज़्बात से आरी न था बल्कि उस पर आहनी इरादे के आसार झलक रहे थे।
घर आकर उसने अपनी नज्मों के तमाम मुसव्वदे इकट्ठे किए और उन्हें आग के सपुर्द कर दिया। दूसरे दिन मज़दूरों ने देखा, यूनीयन में नारायन ने शब दयाल की जगह संभाली है।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.