बद-गुमानी पर शेर

ज़ेहन में ऐसे ग़लत ख़याल

का आना जिस का सच्चाई से कोई वास्ता न हो, आम बात है। लेकिन यह बदगुमानी अगर रिश्तों के दर्मियान जगह बना ले तो सारी उम्र की रोशनी को स्याही में तब्दील कर देती है। आशिक और माशूक़ उस आग में सुलगते और तड़पते रहते हैं जिसका कोई वजूद होता ही नहीं। पेश है बदगुमानी शायरी के कुछ चुनिंदा अशआरः

अर्ज़-ए-अहवाल को गिला समझे

क्या कहा मैं ने आप क्या समझे

दाग़ देहलवी

बद-गुमानी को बढ़ा कर तुम ने ये क्या कर दिया

ख़ुद भी तन्हा हो गए मुझ को भी तन्हा कर दिया

नज़ीर बनारसी

इक ग़लत-फ़हमी ने दिल का आइना धुँदला दिया

इक ग़लत-फ़हमी से बरसों की शनासाई गई

शहबाज़ नदीम ज़ियाई

साज़-ए-उल्फ़त छिड़ रहा है आँसुओं के साज़ पर

मुस्कुराए हम तो उन को बद-गुमानी हो गई

जिगर मुरादाबादी

Jashn-e-Rekhta | 2-3-4 December 2022 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate, New Delhi

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