आख़िर कब तक अदीब एक नाकारा आदमी समझा जाएगा। कब तक शायर को एक गप्पें हाँकने वाला मुतसव्वर किया जाएगा, कब तक हमारे लिट्रेचर पर चंद ख़ुद-ग़रज़ और हवस-परस्त लोगों की हुक्मुरानी रहेगी। कब तक?
ग़ालिब दुनिया में वाहिद शायर है जो समझ में न आए तो दुगना मज़ा देता है।
-
टैग्ज़ : मिर्ज़ा ग़ालिबऔर 2 अन्य
आज़ाद शायरी की मिसाल ऐसी है जैसे बग़ैर नेट टेनिस खेलना।
शेर कितना ही फुजूल और कमज़ोर क्यों ना हो उसे ख़ुद काटना और हज़्फ़ करना इतना ही मुश्किल है जितना अपनी औलाद को बदसूरत कहना या ज़ंबूर से अपना हिलता हुआ दाँत ख़ुद उखाड़ना।