सितम ईजाद क्रिकेट और मैं बेचारा
मैं क्रिकेट से इसलिए भागता हूँ कि इसमें खेलना कम पड़ता है और मेहनत ज़्यादा करना पड़ती है। सारी मेहनत पर उस वक़्त पानी फिर जाता है जब खेलने वाली एक टीम हार जाती है। ईमान की बात है कि हमने “साइंस” को हमेशा रश्क की नज़रों से देखा मगर कभी उस मज़मून से दिल न लगा सके।
हमारा बयान सफ़ाई सुनने के बाद मीर साहब जल कर बोले, “मियां, तुम्हारी बातों से काहिली की बू आती है और तुम्हारा रुजहान दरुन-ए-ख़ाना क़िस्म के खेलों की तरफ़ मालूम होता है। मगर ये बताओ कि भला क्रिकेट का साइंस से क्या ताल्लुक़ है। क्या बे सर की बात कह दी तुमने?”
अर्ज़ किया, “क्रिकेट कभी खेल भी रहा होगा मगर अब तो मीर साहब ये बाक़ायदा एक साइंस है और साइंस भी ऐसी जिसमें ईजाद-ओ-तहक़ीक़ करना आसान मगर टेस्ट प्लेयर बनना दुशवार।”
ख़ूब ख़ूब अदम वाक़फ़ियत की भी एक हद हुआ करती है। कौन सा टेस्ट प्लेयर आलिम फ़ाज़िल है। दो-चार को तालीम से दूर का ताल्लुक़ ज़रूर है मगर बस इस हद तक कि अक्सर इब्तिदाई दर्जों में पास फ़ेल की परवाह किए बग़ैर इम्तहान में शरीक हो जाते हैं। भला उसका इल्म व फ़ज़ल से क्या ताल्लुक़?”
जवाब दिया, “क्रिकेट के खिलाड़ी को अगर देखना हो तो दर्जे में नहीं मैदान में देखिए।”
चमक कर बोले, “में तो पहले ही कहता था, भले आदमियों का खेल है।”
कहा, “जी बिल्कुल नहीं इंतहाई रईसाना खेल है।”
“मगर भले आदमी भी तो रईस कहलाते हैं।”
“ऐसी भी क्या रईसियत कि चेहरा लहूलुहान हो जाए, दाँत शहीद होजाएँ। ख़ैर दाँत तो बाद में टूटेंगे पहले तो मारे सर्दी के बजने लगेंगे। मीर साहब ये मुम्किन नहीं कि इस चिल्ले के जाड़े में और खुले मैदान में मजबूरन खेलने वाले लिहाफ़ ओढ़ कर रन बनाया करें।”
बोले, “क्रिकेट की गर्मी लिहाफ़ की ताब कहाँ ला सकती है, फिर इतने मोटे दस्ताने पहनने, पैड चढ़ाने और गार्ड बाँधने के बाद सर्दी का क्या सवाल?”
कहा, “शुक्रिया, सर्दी का इलाज तो आप ने बताकर ख़ौफ़ कुछ कम कर दिया लेकिन अगर खेलने वालों के पैरों को नर्म व नाज़ुक गेंद की सहूलत भी दी जाए तो फ़र्स्ट एड की ज़हमत से बेनियाज़ हो कर बआसानी क्रिकेट खेला जा सकता है।”
मुस्कुराते हुए बोले, “आपके ख़्यालात स्पोर्टस मैन स्पिरिट के सख़्त ख़िलाफ़ हैं वर्ना खिलाड़ी तो उसको कहते हैं जो चोट खाकर मुस्कुराए और जीतने वाले से हाथ मिलाए।”
“ख़ैर ठिठुरने और मरने से नहीं डरता मगर खेल खेल में जान जाने के तसव्वुर से ज़रूर हाथ पैर ठंडे होने लगते हैं।”
मीर साहब भला मेरी बातों में क्या आते। हमने भी ग़नीमत जाना कि ये इस वक़्त महज़ क्रिकेट को खेल मनवा रहे हैं। ख़ैरियत है कि उन्हें ये नहीं सूझी कि खेल से ज़्यादा ज़रूरी नहाना होता है वर्ना कड़कड़ाते जाड़े और पाले में हमें ग़ुस्लख़ाने में ज़बरदस्ती बंद करके ऊपर से अगर ठंडे पानी के फ़व्वारे खोल दें तो पानी के पहले ही छींटे के साथ हम ग़ुस्लख़ाने में अकड़कर तख़्ता होजाएँ। क्रिकेट में ज़्यादा से ज़्यादा ज़ख़्मी हो सकते हैं और बाद में इलाज करके अच्छे हो सकते हैं। लिहाज़ा नीम रज़ामंदी के अंदाज़ में छेड़ते हुए बोले,
“मीर साहब, कालरा और प्लेग की तरह ये भी तो मुतअद्दी वबा है। फिर वबाए आम में मरना मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी पसंद न किया था, तो आख़िर इस ख़ाकसार को शहीद करवा के आपको क्या मिलेगा।”
इतराते हुए बोले, “ख़ैर, अगर ताल्लुक़ात बरक़रार रखना हैं तो कल ठीक दस बजे ग़रीबख़ाने पर कमेंट्री सुनने आ जाइए।”
सोचा, खेलने से सुनना ज़्यादा आसान होगा, लिहाज़ा फ़ौरन हामी भर ली।
दूसरे दिन वादे के मुताबिक़ ठीक दस बजे मीर साहब के यहाँ पहुँचे तो नक़्शा ही कुछ अजीब नज़र आया। मुलाक़ाती कमरे की बीच की मेज़ पर ख़ासदान के बजाय रेडियो रखा हुआ था और उसका माइक कमरे के बाहर सड़क पर लगा हुआ था। माइक के नीचे एक ब्लैक बोर्ड आवेज़ां था। मीर साहब ट्रांज़िस्टर लटकाए किसी को हाथों-हाथ कमरे में लाकर सोफ़े पर बिठाते, किसी को कमरे के बाहर फ़ुटपाथ पर खड़े रहने का हुक्म देते। इंतज़ाम के साथ साथ बातें भी करते जाते। एक साहब बोले,
“क्यों न हो भाई टेस्ट का मुआमला है। ख़ुदा के फ़ज़ल से पहला टेस्ट हम जीत चुके हैं। इस बार भी शान-ए-करीमी के सदक़े में छक्के न छुड़वा दिए तो कोई बात न हुई। अगर मुहिब्ब-ए-वतन हमारे खिलाड़ियों की कामयाबी के लिए गिड़गिड़ा कर बारगाह्-ए-रब-उल-इज्ज़त में दुआ मांगें तो फिर क्या वजह है कि मैदान हमारे हाथ न रहे। फिर इसमें शर्म की क्या बात है। दुआ तो रुस्तम भी मुक़ाबले से पहले मांगता था और ग़ालिब भी आता था।”
उनके मुख़ातिबब अपनी सफ़ेद बुर्राक़ नूरानी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए आमीन कह कर बोले, “भाई, दो रेकात शुक्राना तो मैंने भी मानी है।”
हमारे मीर साहब पर उस वक़्त बाक़ायदा “क्रिकेटरिया” के दौरे पड़ रहे थे। बंदे का ये आलम था कि उनसे जिस मौज़ू पर भी बात करता उसका जवाब वो क्रिकेट की बामुहावरा ज़बान में देते।
हज़रात इल्म और तजुर्बे के सिलसिले में एक दूसरे पर रोब जमाने के लिए अपनी अपनी उम्रें एक दूसरे से बढ़ा चढ़ा कर बता रहे थे। उनमें से एक साहब पूछ बैठे, “मीर साहब, आप तो उनके हमउम्र हैं, भला बताइए आपकी उम्र क्या होगी?”
मीर साहब ने कहा, “अगले निन्नानवे साल बाद भी ख़ाकसार निन्नानवे नॉट आउट ही रहेगा।”
जब बात बाप दादा तक पहुँची तो मीर साहब ने दख़ल दर माक़ूलात करते हुए कहा, “भाईयो, मेरे बड़ों को कुछ न कहो, क्योंकि एक न एक दिन हम सभी लो मलक-उल-मौत के हाथों कैच होना है।”
उसके बाद बेसबाती आलम पर तब्सिरा करते हुए बोले, “ये दुनिया एक टेस्ट मैच है। इसके ओपनिंग बैटस्मैन बाबा आदम और मामा हव्वा थे। इस मैच की पहली इनिंग्स चल रही है और दूसरी मैदान-ए-हश्र में होगी।”
किसी ने पूछा, “क्या क़ियामत आने के लिए रूस और अमरीका में जंग होना ज़रूरी है।”
बोले, “बिल्कुल, मगर क़ियामत से पहले दोनों में ऐटमी टेस्ट मैच ज़रूर होगा।”
इतने में फुफिटपाथ से नारे लगने लगे कि वक़्त हो गया रेडियो खोलिए।
एक साहब तरकारी का झोला लिए कमेंट्री सुन रहे थे। उनकी बातों से मालूम हुआ कि दफ़्तर से छुट्टी लिए हुए हैं और तरकारी अभी ख़रीदी नहीं है।
एक साहबज़ादे बग़ल में बस्ता दबाए अपने मास्टर के साथ खड़े कमेंट्री सुन रहे थे। मास्टर ने चलते वक़्त शागिर्द-ए-रशीद से स्कोर पूछा।
इस मैच में हमारे एक अमरीकी दोस्त मिल गए। साथ ही उनकी फ़र्म के अस्सिटेंट भी थे। मैंने पूछा, “आप उन्हें काम के वक़्त में कमेंट्री सुनने से नहीं रोकते?”
वो बेबसी के अंदाज़ में बोले, “भई किसी के मज़हबी मशाग़ल में मुख़िल होने की ज़िम्मेदारी कौन अपने सर ले।”
हम अपने किसी दोस्त के साथ चाय पीने एक होटल में पहुँचे। होटल में बड़े ज़ोर शोर से कमेंट्री सुनी जा रही थी। लिहाज़ा चाय तो जाते ही मिल गई लेकिन जगह आख़िर तक न मिल सकी। कमेंट्री समझ में नहीं आरही थी। रेडियो और होटल दोनों की कमेंट्री एक साथ चल रही थी और इस क़िस्म की आवाज़ें कानों में पड़ रही थीं, “दो चाय कार्ड ले टोरंस। एक आमलेट, चार स्लाइस एक काफ़ी टोटल गोज़ टू, बीस आने। एक अंडा लेग आउट... वग़ैरा।”
इतने में होटल वाले ने पूछा, “कार्डले अब तक खेल रहा है?”
“हाँ।”
होटल वाले ने ग़ुस्से में आपे से बाहर हो कर चीख़ते हुए कहा, “अगर कार्डले अब भी खेल रहा है तो रेडियो बंद कर दो।”
इसके बाद होटल से निकल कर अपने ग़ैर मुल्की दोस्त के साथ उनके दफ़्तर तक गया। दफ़्तर वाले बरार फ़ोन पर स्कोर पूछ रहे थे।
एक साहब ने फ़ोन किया, “हलो, हलो।”
“यस रेलवे इन्क्वायरी।”
“क्या स्कोर है।”
“यह रेलवे इन्क्वायरी है बाबा।”
“तो आपको स्कोर तक नहीं मालूम?”
“जी बिल्कुल नहीं।”
“ओफ़्फ़ोह, हुकूमत ने भी कैसे कैसे लोग रख छोड़े हैं जो स्कोर तक नहीं बता सकते। भला ये हुकूमत चल सकती है?”
मजबूरन उन साहब ने टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज से रुजू किया, “एम.सी.सी का स्कोर क्या है?”
“4 विकेट पर 190।”
“और इंग्लैंड का स्कोर?”
“इंग्लैंड एम.सी.सी की टीम का दूसरा नाम है।”
थोड़ी देर बाद फिर फ़ोन किया, “हलो स्कोर प्लीज़?”
निहायत ग़ज़बनाक आवाज़ आई, “एम.सी.सी ऑल आउट।”
“हलो, भला ये कैसे मुम्किन है। अभी अभी तो आपने बताया था कि चार विकेट गिरे हैं।”
जवाब में ख़ौफ़नाक आवाज़ गरजी, “ज़्यादा परेशान न कीजिए। आपने ग़लत नंबर मिलाया है।”
“ओह, वेरी सॉरी राँग नंबर।”
इस हादिसे पर एक साहब ने अपनी स्कोर पूछने की दास्तान-ए-ग़म सुनाते हुए कहा, “मेरे स्कोर पूछने पर जवाब आया, इस वक़्त सारे खिलाड़ी सो रहे हैं, स्कोर बताने से कहीं उनकी आँख न खुल जाए।”
“तो क्या इस वक़्त रात है?”
“जी हाँ, इस वक़्त रात के ठीक दो बजे हैं।”
झेंप मिटाने के लिए कहा, “जी शुक्रिया, दरअसल आपसे स्कोर के बहाने वक़्त पूछना था।”
साहब इसी तरह जो मैं एक दिन दफ़्तर से घर पहुँचा तो बेगम ने स्कोर पूछा।
मैंने कहा, “आज बालाई आमदनी में सिर्फ़ दस रुपये मिले हैं।”
इस पर बेगम साहिबा ने बड़े ज़ोर से डाँटा, “में आमदनी नहीं मैच का स्कोर पूछ रही हूँ।”
चुनांचे जनाब स्कोर मालूम करने के लिए उल्टे पाँव पनवाड़ी की दुकान तक जाना पड़ा।
ये बातें हो ही रही थीं कि हमारे एक दोस्त ट्रांसिस्टर लटकाए हमारे पास आकर बैठ गए। इतने में आवाज़ आई, “ये ऑल इंडिया रेडियो है। अब कमेंट्री बंद की जाती है।” और हम मीर साहब से दिन भर का स्कोर पूछे बग़ैर घर वापस आगए।
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