बिन ब्याहियों की कॉन्फ़्रेंस
अपनी नौइयत की ये पहली कान्फ़्रैंस है जो इनअ'क़ाद पज़ीर होने जा रही है। पूरा पंडाल कुंवारी लड़कियों से भरा है। नुक़रई क़हक़हे हर सिम्त गूँज रहे हैं। इत्र और सैंट के खुश्बू से फ़िज़ा मुअ'त्तर है। लिबास की रंगा रंगी अ'जीब दिलकश मंज़र पेश कर रही है। बा'ज़ लड़कियाँ इस क़दर और चुस्त लिबास में मलबूस हैं कि उनका फ़र्श पर बैठना दुशवार हो रहा है। साड़ी और ग़रारे में मलबूस लड़कियाँ उन्हें बड़ी पसंदीदा नज़र से देख रही हैं...ये टिड्डी गर्ल्स तहज़ीब-ए-नौ की नुमाइंदा जो ठहरीं...जब लड़कियों के शोर-व-ग़ुल और क़हक़हे इंतिहाई उ'रूज को पहुँच जाते हैं तो एक साहबज़ादी माइक पर तशरीफ़ ला कर यूँ लब कुशाई फ़रमाती हैं:
“बहनो! बिन ब्याहियों की कान्फ़्रैंस की कारवाई शुरू होने जा रही है अगरचे ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो बहनों को ज़हमत-ए-इंतिज़ार उठानी पड़ी है जिसके लिए मा'ज़रत ख़्वाह हूँ...मैं दीदा दिलेर बहन का नाम इस कान्फ़्रैंस की सदारत के लिए पेश करती हूँ। आप की करतूतों से कौन वाक़िफ़ नहीं भला। आप वह मशहूर-व-मारूफ़ टिड्डी गर्ल हैं जिनपर राह चलते उंगलियाँ उठती हैं। कॉलेज का कोना-कोना आपकी ख़ुश-मज़ाक़ी का गवाह है।आपकी हस्ती इस नुक़्ता-ए-निगाह से भी बाइ'स-ए-फ़ख़्र है कि आप को ब्वॉय फ़्रैण्ड बनाने में यद-ए-तूला हासिल है। मैं उम्मीद करती हूँ कि दीदा दिलेर बहन हमारी इस्तिदआ' को शर्फ़-ए-क़बूलियत बख़्श कर कान्फ़्रैंस की कारवाई जल्द शुरू करने की ज़हमत गवारा फ़रमाएँगी।
दीदा दिलेर साहिबा इश्वा-ए-अंदाज़ से कुर्सि-ए-सदारत संभालते ही फ़िज़ा में नग़मे बिखेरती हैं।
“मैं इस लायक़ तो न थी कि सदारत जैसे बार-ए-गिराँ की मुत्महल हो सकूँ। लेकिन जब अज़राह-ए-ख़ुलूस इस शर्फ़ से नवाज़ा गया है तो कोई वजह नहीं कि मैं अपने को इसका अह्ल न समझूँ...लीजिए कान्फ़्रैंस की कार्रवाई शुरू किए देती हूँ...सब से पहले बहन फ़ितना-ए-दौरां से गुज़ारिश है कि तशरीफ़ लाएँ और अपने ख़्यालात-ए-ज़र्रीं का इज़हार फ़रमा कर हमें और सामईन को शुक्रिया का मौक़ा इनायत फ़रमाएँ।”
फ़ितना-ए-दौराँ कॉलेज की होनहार तालिबा हैं। बड़ी ज़हीन-व-फ़ित्तीन और तेज़-व-तर्रार। ये साहब-ज़ादी जंपर और ग़रारा ज़ेब-ए-तन किए हुए हैं। मगर दोश-ए-मर्मरीं ओढ़नी से बे-नियाज़ हैं। दो बड़ी-बड़ी चोटियाँ दोनों शानों पर हैं जिनकी लंबाई क़द की लंबाई से शायद ही कुछ कम हो तो हो। मौसूफ़ा सामने आते ही एक फ़िल्मी गीत अलापती हैं;
तुम हमको भूल जाओ अब हम न मिल सकेंगे
जी हाँ, ये फ़िल्मी गीत महज़ तफ़रीहन पेश किया गया है। लेकिन इसके ज़ेर-ए-असर पंडाल में पिनड्रोप साइलेंस का होना इस अमर की दलील है कि बहनें कान्फ़्रैंस की कार्रवाई सुनने के लिए हमा तन गोश हैं...तो प्यारी बहनो! बिन ब्याहियों की कान्फ़्रैंस की ग़र्ज़-व-ग़ायत पर रोशनी डालने की चंदाँ ज़रूरत नहीं क्योंकि इस प्लेटफार्म पर हम सभी एक ही जज़्बे के तहत इकट्ठे हुए हैं।ये ग़ौर व ख़ौज़ करने के लिए कि हमारी हालत इस क़दर न गुफ़्ता-ब क्यों है और क्या वजह है कि हमारा मुस्तक़बिल तारीक से तारीक तर होता जा रहा है। मुझे इस से इनकार नहीं कि हमारा ये सिन-व-साल नाफ़ह्मी, नाआ'क़िबत अंदेशी और अल्हड़पन का है। हमारे ख़यालात में न पुख़्तगी है और न तजुर्बाकारी के अ'नासिर ही। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम सोचने समझने की सलाहियत नहीं रखते। या अच्छी और बुरी बातों की तमीज़ का फ़ुक़दान है। ये दूसरी बात है कि हमारी बे-ज़बानी से जो कंवार-पने का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ है, बेजा फ़ायदा उठाया जाए। सभी बहनें वाक़िफ़ हैं कि रिवाजन और रस्मन शादी ब्याह के मुआ'मले में हमारी पसंद और हमारी मर्ज़ी का कोई दख़ल नहीं। बल्कि हमारा ज़बान हिलाना ही हमारी दीदा दिलेरी और बे-बाकी तसव्वुर की जाती है। मुक़ाम-ए-हैरत है बहनो कि जिस की शादी होने जा रही हो,उसी के मुँह पर ताले लगाए जाते हैं।इशारतन भी कुछ कहने का हक़ नहीं होता। यहाँ तक कि मर्ज़ी के ख़िलाफ़ दो बोल पढ़वा कर वालदैन अपने फ़र्ज़ से सुबुक-दोश हो जाते हैं चाहे उस सुबूक-दोशी की जद्द-व-जहद में कॉलेज की फ़िज़ा में परवान चढ़ने वाली लड़कियाँ किसी ऐसे फ़र्सूदा ख़्याल के पल्ले क्यों न-पड़ जाएँ जिनकी क़ुर्बत पर जहन्नम को तर्जीह दी जा सकती हो। लेकिन हमारी इस बे-बसी और हिर्मां नसीबी पर कोई आँसू बहाने वाला नहीं। हमारे हसीन और सुनहरे ख़्वाब शाज़-व-नादिर ही शर्मिंदा-ए-ता'बीर होते हैं। इंतिहा-ए-सितम ये है बहनो कि अगर हम कॉलेज के किसी क़ुबूलसूरत लड़के को अपना बनाना चाहें तो हर चहार जानिब से हम पर उंगलियाँ उठती हैं और हम अपने इरादे में इत्तिफ़ाक़ ही से कामयाब होते हैं। मगर समाज की दो रंगी मुलाहिज़ा हो कि उन छोकरों को आ'म छूट है कि वो अपनी पसंद की लड़कियों से अह्द-व-पैमाँ बाँधते फिरें। वालदैन पर दबाव डाल कर अपनी पसंदीदा लड़की को शरीक-ए-ज़िंदगी बनाएँ। लेकिन सारे क़ाएदे और क़वानीन हैं तो हम बेबस, मजबूर और बे-ज़बान के लिये। गोया लड़कियाँ परवान चढ़ाई जाती हैं सिर्फ़ इसलिए कि जवान होकर किसी के घर की रौनक क़रार पाएँ और ता-उम्र किसी के हुक्म की बजा आवरी ही उनका हासिल-ए-ज़िंदगी हो। बहनो! हमारा लिखना-पढ़ना और आ'ला ता'लीम हासिल करना सिर्फ़ भाड़ झोंकने के लिए है। क्योंकि उधर हम सिन-ए-बुलूग़ को पहुंचे नहीं कि बावा जान पर हमारे लिए एक शौहर ख़रीदने का भूत सवार होता है तलाश-व-तजस्सुस के दौरान किसी न किसी क़ीमत पर एक उल्लू का पट्ठा मिल ही जाता है। उधर अपना घर फूँक कर इस नामा'क़ूल को उन्होंने अपनी फ़र्ज़ंदी में क़ुबूल किया नहीं कि हमारे लिखने-पढ़ने पर पानी फिरा। हमें अपनी ज़ात पर भी अपना इख़्तियार नहीं रहता। हमारी ज़िंदगी सूरत पर कार एक ही नुक़्ता के गिर्द गर्दिश करने लगती है। या'नी चूल्हा फूंकना, बच्चे खिलाना, हुक्म की ता'मील और नाज़ बर्दारियाँ...ला'नत है हमारी ज़िंदगी पर। तूफ़ है हमारे कंवारपन पर और फिटकार है हमारी रोशन ख़याली पर।
अब बेबाक बानो तशरीफ़ लाएँ।
“बहनो! अभी-अभी फ़ित्ना-ए-दौराँ ने जिन कई ख़यालात का इज़हार फ़रमाया है वो दरअस्ल हम सभी बिन ब्याहियों के हालात और ख़यालात की सही तर्जुमानी है। उन पर मज़ीद रौशनी डालने की कोशिश तज़ी-ए-औक़ात को राह देना है। वक़्त की तंगी के पेशे-नज़र न तो इसकी गुंजाइश है और न चंदाँ ज़रूरत। इसलिए मैं सिर्फ़ अपने ज़ाती इज़हार-ए-ख़याल पर इकतिफ़ा करूंगी... या'नी ये मर्द निगोड़े जो हमारी कमज़ोरी से फ़ायदा उठा कर रोज़-ए-अव्वल से हमारे सरताज बनते चले आ रहे हैं और हम उनके ता'बे फ़रमान, तो उसकी कहीं इंतिहा भी है या ये चक्कर क़यामत तक यूँ ही चलता रहेगा। ज़माना कहाँ से कहाँ निकल गया। लोग चाँद पर पहुँच रहे हैं। मशरिक़ का सिरा मग़रिब से मिलाया जा रहा है। रू-ए-ज़मीन का नक़्शा बदल रहा है। लेकिन हम हैं कि साबिक़ दस्तूर मर्दों का खिलौना। बच्चा पैदा करने की मशीन और किसी इशारे पर नाचने वाली कठपुतली हैं, सो हैं
और इस फ़र्सूदा ढकोसले से निजात की सूरत नज़र ही नहीं आती। जबकि दो बोल पढ़वा कर हमें किसी ऐसे अजनबी के हवाले किया जाता है जिससे कभी की जान पहचान नहीं। उस पर ये दबाव कि इस भड़वे को अपना सरताज और ख़ुदा-ए-मिजाज़ी समझें...बहनो! हम अपने वालदैन के ज़ुलम-व-सितम का बहुत शिकार रह चुके। हमने अपनी बे-ज़बानी का ख़मियाज़ा भुगत लिया और भुगत रहे हैं। हम अपनी राय और पसंदीदगी को वालदैन की ख़ुशनूदी पर क़ुर्बान कर चुके। अब हमारे सब्र का पैमाना लबरेज़ होकर छलकने को है। वक़्त का तक़ाज़ा ये है कि सारी कुंवारी लड़कियाँ शादी ब्याह के मुआ'मले में दाख़िल-ए-अंदाज़ हों क्योंकि ये ज़िंदगीभर का सौदा है। हम अपने वालदैन को मजबूर करें कि फ़र्सूदा ख़याली को बाला-ए-ताक़ रख कर हमें शादी के पहले “कोर्ट शिप” की इजाज़त दें। (तालियाँ और आवाज़ें: बहुत ही मा'क़ूल तजवीज़ है। सदर साहिबा इस प्वाइंट को नोट कर लें) ...और हाँ इस मुआ'मले में हमें नाकामियों से दो-चार होने का चंदाँ एहतिमाल भी नहीं क्योंकि हमारे पास जाएज़ और नाजाएज़ मुतालिबात मनवाने का बेहतरीन हर्बा “भूक हड़ताल” है (तालियाँ)...इसके अ'लावा इस राह की सारी कठिनाइयों का हम बिन ब्याहियों “ज़नाना वार” मुक़ाबला करने को तैयार हैं;
सर ब-क़फ़ जो हो उसे जान का डर क्या होगा
अब शर्मीली बीबी तशरीफ़ लाएँ। सदर साहिबा ने पुकारा;
शर्मीली बीबी कॉलेज की तालिबा होने के बावजूद शर्म-व-हया की पुतली हैं। सर पर सलीक़े से आँचल पड़ा है। चेहरे पर संजीदगी और वक़ार है। आवाज़ में बला की दिलकशी और मासूमियत है, लड़कियाँ उन्हें देख कर मुस्कुरा रही हैं। क्योंकि उनमें चुलबुलापन और बेबाकी के अंदाज़ नहीं हैं। ये शर्म-व-हया की पैकर हिचकिचाती हुई यूँ गोया होती हैं;
“बहनो! बेबाक बहन की तक़रीर में जिस कोर्टशिप की तजवीज़ पेश की गई है सुनकर सही मअ'नों में पानी-पानी हो रही हूँ।ख़ुदाया तेरी पनाह। क्या शर्म-व-हया नाम की कोई चीज़ दुनिया में न रही। अफ़सोस है बहन साहिबा की नापुख़्ता ख़याली पर और इस अमर की है कि कोर्टशिप से पैदा होने वाली बुराइयों को भी ज़ेर-ए-बहस लाया जाए। ये हमारी इंतिहाई हिमाक़त है कि हम ऐसे रास्ते पर गामज़न होने के मुतमन्नी हैं जो हमें क़अ'र-ए-मंजिलत में पहुँचा कर दम ले....लिहाज़ा...(हर तरफ़ से आवाज़: बैठ जाइए शर्मीली बीबी)। बैठ जाइए, हम ये बकवास नहीं सुन सकते। ला'नत है इसका मुख़ालिफ़त हो)।
शर्मीली बीबी घबरा कर बैठ जाती हैं और सदर साहिबा पुकारती हैं। अब मुँह फट बेगम तशरीफ़ ला कर इज़हार-ए-ख़याल फ़रमाएँ;
“बहनो! हमारी इस कान्फ़्रैंस में अगर दो चार अ'दद शर्मीली बीबी के ख़याल की निकल आएं तो हो चुकी हमारी ये कान्फ़्रैंस।लिहाज़ा आइन्दा कान्फ़्रैंस में ऐसे मौलवियाना ख़याल की लड़कियों के दाख़िले पर पाबंदी आइद की जाए। साथ ही पुरज़ोर सिफ़ारिश कर दूँगी कि कोर्टशिप के मुतअ'ल्लिक़ ज़रूर रैज़ूलेशन पास किए जाएँ ताकि शादी के बंधन में बंधने के पहले कितने पानी में हैं और ये ज़िंदगी की गाड़ी साहबज़ादे सल्लमहू...के साथ चल सकेगी या कुछ दूर जाकर उलट जाने का(derailment) ख़तरा है। बहरहाल अब मैं अपने ज़ाती ख़यालात का इज़हार करने जा रही हूँ या'नी हमें ये देखकर सख़्त सदमा होता है के नाजाइज़ मुतालिबात पूरे न किए जाएँ। आख़िर ऐसा क्यों होता है। क्या इसी दिन के लिए हम जन्म लेते हैं। ख़ुदा की क़सम इस से ज़्यादा हमारी तहक़ीर और क्या हो सकती है। लिहाज़ा अब ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए ज़रूरत है कि उल्टी गंगा बहाई जाए यानी हम सब कुंवारी लड़कियाँ ख़ुदा को हाज़िर-व-नाज़िर जान कर उस वक़्त तक शादी न करने का अ'ह्द कर लें जब तक ये कारोबारी ज़हनियत रखने वाले छोकरे अपनी हरकात-ए-नाशाइस्ता से तौबा नहीं कर लेते। ख़ुदा की क़सम बहनो। दो चार ही साल के अंदर हिर्स-व-हवा के बंदे हमारे दरवाज़े के धूल अपने सरों पर न डालें और हमारे वालदैन के आगे नाक न रगड़ें तो मेरा नाम मुँह फट नहीं। जी हाँ, इस तरीक़े को अपनाने के बाद उन ख़र दिमाग़ों का हुलिया इस क़दर टाइट हो जाएगा कि तिलक लेने के बदले तिलक देने को तैयार हो जाएँगे।(तालियाँ)
तक़रीर का सिलसिला जारी ही था कि सदर साहिबा कलाई पर बंधी हुई घड़ी देख कर घबरा कर सामईन से मुख़ातिब होकर फ़रमाती हैं;
“बहनो! कान्फ़्रैंस की कार्रवाई में ऐसा फंसी कि मुझे ये याद ही न रहा कि आज आठ बजे शब में चंद ब्वॉय फ्रैंड से मेरा appointment है। कान्फ़्रैंस की कार्रवाई दूसरे रोज़ पर मुल्तवी करने के क़ब्ल रस्मन इज़हार-ए-ख़याल अपना फ़र्ज़ समझती हूँ।...मुख़्तसरन ये अ'र्ज़ करूँगी कि ये कोर्टशिप वाली तजवीज़ बहरहाल पास होनी चाहिए। चाहे हमारे वालदैन की तरफ़ से कैसी ही मुख़ालिफ़त क्यों न हो। इसके अ'लावा उल्टी गंगा बहाने वाली तजवीज़ से भी मुझे पूरा इत्तिफ़ाक़ है। बल्कि क़ुदरत को भी शायद यही मंज़ूर है। क्योंकि मैं देख रही हूँ कि उल्टी गंगा बहने के आसार ख़ुद ब-ख़ुद पैदा हो रहे हैं या'नी ये मर्द निगोड़े क़रीब-क़रीब हमारा लिबास अपना ही चुके हैं। ख़ैर से मर्दानगी के आसार भी उनके चेहरे से आहिस्ता-आहिस्ता रुख़्सत ही हो रहे हैं तो उन्हें चूड़ी पहनते क्या देर लगेगी...और इधर हम टेड्डी गर्ल्स मर्द बनते जा रहे हैं। अगरचे फ़िलहाल हमारी हमनवा लड़कियाँ बहुत कम हैं लेकिन अब चूँकि हमें उल्टी गंगा बहानी है इसलिए इस्तिदआ' करूंगी कि सारी कुंवारी लड़कियाँ टेड्डी गर्ल बनने की कोशिश करें। इस तरह हमारे चेहरों पर मर्दानगी के आसार हुवैदा हो जाएँगे...ये साड़ी, ये ब्लाउज़ और ये ग़रारे फ़र्सूदा हो चुके हैं। कपड़े का ढीलापन हुस्न का ढीलापन है (घड़ी देख कर)...अब वो दिन क़रीब है कि हमारी कोशिशों से उल्टी गंगा बहे और ये मर्द निगोड़े अपना बे दाढ़ी मूंछ वाला चेहरा बुर्क़ों में छुपाए फिरें...(फिर घड़ी देख कर)...अब मैं इजाज़त तलब करती हूँ। ताख़ीर होने पर हमारे ब्वॉय फ्रैंड अगर हमसे नाराज़ हो गए तो ला'नत है बिन ब्याहियों की इस कानफ्रैंस पर।
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