क्रिकेट मैच
बा’ज़ दोस्तों ने स्यालकोट चलने को कहा तो हम फ़ौरन तैयार हो गए मगर जब ये मालूम हुआ कि इस सफ़र का मक़सद क्रिकेट मैच है तो यकायक साँप सूंघ गया। सफ़र का तमाम वलवला एक बीती हुई याद की नज़र हो कर रह गया। अब लाख लाख सब पूछते हैं कि चक्कर आगया है। फ़ालिज गिरा है। क़ल्ब की हरकत बंद हो रही है। आख़िर वाक़िया किया है मगर किसी को कुछ न बता सकते इसलिए कि कोई मामूली बात न थी कि सरसरी तौर पर बता दी जाती। इसलिए कि जिस तफ़सील की ज़रूरत है वो उस वक़्त मयस्सर न थी। अब मयस्सर होने का इमकान है तो अर्ज़ किए देते हैं।
आप घबराइएगा नहीं और न उसको बदहवासी समझिएगा, ये क्रिकेट का क़िस्सा है और हाकी से शुरू हो रहा है। हम आपको यक़ीन दिलाते हैं कि हमको हाकी और क्रिकेट की फ़र्क़ मालूम है। मसलन हाकी का गेंद सफ़ेद होता है और क्रिकेट का काला और मसलन... मसलन... ये। मतलब ये कि मिसाल के तौर पर सैंकड़ों फ़र्क़ अर्ज़ किए जा सकते हैं। ख़ूब याद आया मसलन क्रिकेट में रन बनाए जाते हैं और हाकी में गोल। हाकी में गोलकीपर होता है और क्रिकेट में विकेट कीपर। मतलब अर्ज़ करने का ये है कि ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है इन दोनों खेलों में। और हम क्रिकेट की दास्तान जो हाकी से शुरू कर रहे हैं इसका बख़ुदा ये मतलब नहीं है कि अब हम इतने ही गोया गावदी हैं कि हाकी को क्रिकेट या क्रिकेट को हाकी समझते हैं। बल्कि क्रिकेट की दास्तान हाकी से शुरू करने की वजह ये है कि हमारा क़िस्सा असल में हाकी ही से शुरू होता है।
स्कूल के ज़माने में हम हाकी खेला करते थे और कुछ अच्छा ही खेलते थे कि हमको स्कूल की उस टीम में ले लिया गया था जो टूर्नामेंट खेलने वाली थी। चुनांचे हम टूर्नामेंट के मैचों में खेले और ख़ुशक़िस्मती से हमारी टीम फाइनल में भी पहुँच गई। पहुँच क्या गई, बल्कि जीत ही जाती अगर हमारी नज़रें ऐन उस वक़्त जब कि हम आसानी से गोल बचा सकते थे तमाशाइयों में वालिद साहब पर न पड़ जातीं जो आए तो थे मैच देखने मगर आँखें बंद किए कुछ बड़बड़ा रहे थे और कुछ अजीब रिक़्क़त अंगेज़ चेहरा बना हुआ था उनका। हमने उनको दिल ही दिल में कहा कि आज कहाँ आगए और वहाँ शोर हुआ गोल होजाने का। इस शोर से हम भी चौंके और वालिद साहब ने भी आँखें खोल दीं और कुछ ऐसी क़हर आलूद निगाहों से देखा कि हमको हाकी से तबीयत उचाट करके रख दी। अब हमारी टीम लाख लाख ज़ोर लगाती है गोल उतारने के लिए मगर मालूम होता है कि उस तरफ़ की टीम के किसी खिलाड़ी के वालिद साहब तमाशाइयों में थे ही नहीं। नतीजा ये खेल ख़त्म हो गया और हमारी टीम हार गई। अब जिसको देखिए वो हम ही को इस का ज़िम्मेदार ठहरा रहा है।
“भई ये हुआ क्या था, सो गए थे क्या?”
“कमाल कर दी तुमने, गेंद टहलाता हुआ तुम्हारे सामने से गोल में चला गया और तुम मुँह उठाए खड़े रहे। हद कर दी तुमने भी।”
“हारने का अफ़सोस नहीं है, मगर ये तो मुफ़्त की हार हुई।”
तमाशाइयों में से एक साहब कहते हुए निकल गए, “रिश्वत में अफ़ीम मिली थी खाने को, गोली खाकर गोल करा लिया।”
अब किसी को हम क्या बताते कि हम पर क्या क़ियामत गुज़र रही थी उस वक़्त। लानतें बरसती रहें हम पर और हम सर झुकाए सब कुछ सुना किए इसलिए कि वाक़ई क़सूर अपना ही था। दूसरी इस लानत मलामत की परवाह किस को थी। दिल तो उस वक़्त के तसव्वुर से धड़क रहा था जब घर पहुँच कर वालिद साहब के सामने पेशी होगी। बमुश्किल तमाम उस मजमे से जान बचा कर थके-हारे घर जो पहुँचे तो डेयुढ़ी में क़दम रखते ही वालिद साहब की गरजदार आवाज़ सुनाई दी।
“मगर मैं पूछता हूँ कि मुझे आज तक क्यों न मालूम हुआ कि साहबज़ादे को ख़ुदकुशी का ये शौक़ भी है, तुम तो ये कह कर छुट्टी पागईं कि यही होता है खेल कूद का ज़माना।”
वालिदा साहिबा ने फ़रमाया, “तो क्या ग़लत कहा मैंने, किस के बच्चे नहीं खेलते।”
वालिद साहब ने मेज़ पर घूंसा मारते हुए फ़रमाया, “फिर वही खेल, ऐ जनाब ये मौत का खेल होता है मौत का। गोलियों की बौछाड़ होती है हर तरफ़ और ख़ुदा ही खेलने वालों को बचाता है। मीर असग़र अली का नौजवान लड़का, हाय क्या तंदुरुस्ती थी उसकी। इस खेल की नज़र हो गया। कलेजा पर पत्थर का पत्थर गेंद लगा सांस भी न ली और जान दे दी। बाप ने बढ़कर पेशानी को बोसा दिया और आज तक कलेजा पकड़े फिरते हैं। अगर कुछ हो जाए उसके दुश्मनों को तो तुम्हारा क्या जाएगा। मैं तो हाय करके रह जाऊँगा दोनों हाथ मलकर।”
वालिदा साहिबा ने कहा, “अल्लाह न करे ऐसे कलमे ज़बान से भी न निकालो, आएगा तो समझा दूं गी कि ये जान जोखूं का खेल न खेला करे।”
वालिद साहब ने कहा, “बख़ुदा जितनी देर खड़ा मैच देखता रहा गिड़गिड़ा कर दुआएं मांगता रहा कि परवरदिगार तू ही इसका हाफ़िज़-ओ-नासिर है। इख़्तिलाज के दौरे पर दौरे पड़ रहे थे कि देखिए क़िस्मत क्या दिखाती है आज। अरे भई खेलने को मैं मना नहीं करता। शतरंज खेले, पचीसी खेले, परों के गेंद से एक खेल खेला जाता है, भला सा नाम है उसका वो खेले, टेनिस तक ग़नीमत है। मगर ये तो ऐसा नामुराद खेल है कि मीर असग़र अली कलेजा पकड़ कर रह गए थे।”
वालिदा साहिबा ने वहम में मुब्तला हो कर कहा, “दूर पार मुद्दई। अब बार-बार मीर असग़र अली मुए का ज़िक्र क्यूँ कर रहे हो, कह तो चुकी हूँ कि समझा दूँगी।”
वालिद साहब ने फ़ैसला कुन अंदाज़ से कहा, “मैं तै कर रहा था कि अलीगढ़ भेज दूँगा उसको। मगर अब तो जब तक मुझे पूरी तरह यक़ीन न हो जाये कि साहबज़ादे का उन ख़तरनाक मशाग़ल से कोई ताल्लुक़ नहीं है उस वक़्त तक नामुमकिन है मेरे लिए उनको अलीगढ़ भेज देना।”
हमने दिल ही दिल में कहा ये तो ग़ज़ब हो गया। यहाँ इसी उम्मीद पर जी रहे हैं कि अब अलीगढ़ जाएंगे, होस्टल में रहेंगे, कॉलेज में पढ़ेंगे और सही तालिब इल्माना ज़िंदगी का लुत्फ़ तो अब आएगा। और वहाँ इस हाकी से ख़ुदा समझे, इस नामुराद ने इस उम्मीद पर पानी फेर कर रख दिया। अब डेयुढ़ी में खड़ा रहना नामुमकिन बन गया। हिम्मत करके क़दम उठाया और इस तरह वालिद साहब के सामने आगए गोया कोई बात ही नहीं है। वालिद साहब तो इंतज़ार में बैठे ही थे, देखते ही मुख़ातिब किया,
“मियां, ज़रा बात तो सुनो। ये हाकी कब से शुरू की है।”
अर्ज़ किया, “जी हाकी? हाकी से तो दिल खट्टा हो गया आज। अब कभी जो खेलूं मैं ये ख़तरनाक खेल। अम्मी जान मुझे भला क्या मालूम था कि ऐसा ख़तरनाक होता है ये खेल। मैंने तो आज से कान पकड़ लिए बल्कि आज तो यहाँ तक हुआ कि एक मर्तबा गेंद ख़ुद बख़ुद मेरे क़रीब आगया कि तुम मेरे पास नहीं आते तो मैं तुम्हारे पास आरहा हूँ मगर मैंने उसको डर के मारे छुआ तक नहीं कि न जाने क्या वारदात हो।”
वालिद साहब ने इत्मीनान का सांस लेते हुए कहा, “मैं तो ख़ुद हैरान था कि ये तुमको हाकी खेलने की क्या सूझी।”
अर्ज़ किया, “बेवक़ूफ़ी थी मेरी। खेल की वर्दी पहनने और टीम के साथ जाने का शौक़ था। मगर अल्लाह बचाए मेरा तो ख़ून ख़ुश्क हो कर रह गया।”
अम्मी जान ने कहा, “तुमसे ज़्यादा तुम्हारे अब्बा जान अपना ख़ून ख़ुश्क करके आए हैं। ये भी गए थे देखने।”
हमने बड़ी मासूमियत से कहा, “अच्छा, आप भी गए थे। मैंने नहीं देखा। मगर मैं तो बाज़ आया ऐसे खेल से जिनको जान देना हो अपनी वो खेले ये खेल।”
वालिद साहब को सोलह आने यक़ीन हो गया कि बरखु़र्दार ज़ाती तौर पर वैसे ही बुज़दिल वाक़ा हुए हैं जैसा वो चाहते हैं और हस्ब-ए-मामूल अलीगढ़ जाने का प्रोग्राम बनता रहा। जहाँ तक हाकी से ताइब होने का क़िस्सा है वो भी झूट न था। एक तो रिआयती हैसियत से इस स्कूल की पहली टीम में लिए गए थे। दूसरे फाइनल मैच में मुख़ालिफ़ सिम्त से आने वाले गेंद के साथ जो अख़लाक़ बरत चुके थे। उसके बाद ये सवाल ही न पैदा होता था कि फिर भी हमको टीम में रहने दिया जाएगा। लिहाज़ा ये ताइब होने वाली बात भी मिनजानिब अल्लाह कुछ सचमुच ही साबित हुई और हाकी से वाक़ई नजात मिल गई। स्कूल में कुछ दिन फाइनल हारने का ये क़िस्सा लतीफ़ा और हम इस लतीफ़े के हीरो बने रहे मगर उसके बाद बात आई गई हो गई और इम्तहान में कामयाब होने के बाद तो हाकी से क्या स्कूल ही से कोई वास्ता न रहा।
अलीगढ़ में दाख़िला लेने के बाद इस क़िस्म के जान जोखम खेलों के अलावा और भी बेशुमार तफ़रीही मशाग़ल कि कॉलेज के बाहर की ज़िंदगी बेरौनक़ सी महसूस होने लगी। और कुछ ऐसा दिल लगा कि हिसाब जो लगाया तो ये सिर्फ़ चार साल की बहार थी। हालाँकि दिल ये चाहता था कि ये जन्नत इतनी बेसबात तो साबित न हो। चुनांचे उसका ख़ुद ही इंतज़ाम करना पड़ा कि अब ऐसी भी क्या जल्दी कि हर साल पास ही होते चले जाएं। अगर हर जमात में सिर्फ़ एक एक साल फ़ेल होते रहें तो आसानी से यह नेअमत दोगुनी हो सकती। और आठ साल तक इन दिलचस्पियों के मज़े लूट सकते। उसी प्रोग्राम के मातहत ज़रा इत्मीनान से पढ़ते रहे। बा’ज़ सफ़र ऐसे दिलचस्प होते हैं और रास्ते की फ़िज़ाएँ मुसाफ़िर को ऐसा मोह लेती हैं कि वो मेल ट्रेन के सफ़र के बजाय पसेंजर में सफ़र करना चाहता है। कुछ इस क़िस्म की पसेंजर ट्रेन से हमने कॉलेज, कॉलेज का सफ़र तै करना शुरू किया कि हर स्टेशन पर ठहर ठहर कर सफ़र कर रहे हैं। इसके मुतअद्दिद फ़ायदे बीच पहुँचे। एक तो ये कि वो जो ख़ामकारी मुसलसल और मुतवातिर पास होने में आम तौर पर पाई जाती है और जिसकी बदौलत हुसूल-ए-तालीम का मक़सद रफ़्ता-रफ़्ता फ़ौत हो जाता है। अलहमदु लिल्लाह कि वो ख़ामकारी पैदा न हुए और पुख़्तगी के अलावा एक अजीब ठोस क़िस्म की तजुर्बाकारी ख़ुद बख़ुद पैदा होती रही। इसके अलावा कॉलेज की ज़िंदगी के वो गोशे भी दरयाफ़्त होते रहे जो पास होनेवाले तालिब इल्मों को पास होने की ख़ुद ग़रज़ाना जल्दबाज़ी के बदौलत नज़र ही नहीं आते। फिर सबसे बड़ी बात ये कि जो पास होने वाले तालिब इल्म होते हैं उन का काम सिवाए पढ़ने के और कुछ नहीं होता।
यही वजह है कि अमली ज़िंदगी में जब क़दम रखते हैं तो निहायत नामाक़ूल साबित होते हैं। मुलाज़मत तो ख़ैर मिल जाती है, मगर इजलास के कटहरे में इस तरह बैठते हैं जैसे तोता अपने पिंजरे में चने की दाल की कुलिया पर बैठा खा रहा हो, न उनमें इख़्तिरा और हिद्दत की सलाहियत होती है, न किसी क़िस्म की अपच। बस लकीर के फ़क़ीर होते हैं और सूरत से यतीमी बरसती है।
बरअक्स उनके वो तालिब इल्म जो कॉलेज में सिर्फ़ पढ़ते ही नहीं और भी बहुत कुछ करते हैं। ख़्वाह पढ़े लिखे साबित न हों लेकिन बहुत कुछ ज़रूर साबित होते हैं। अजीब मसरूफ़ ज़िंदगी होती है। उन मरनजान-ए-मरन्ज तालिब इल्मों की। कहीं टीम जा रही है और वो भी साथ हैं। रास्ते में शरारतें हो रही हैं। जिस शहर में टीम गई है। वहाँ की सैर, दावतें, फिर मैच का मार्का, कॉलेज में हैं तो आज यूनीयन के इंतख़ाबात की सियासत के लीडर बने हुए हैं। कल भी मुशायरे की मजलिस-ए-इंतज़ामिया के रुक्न हैं। परसों यूनीवर्सिटी पार्लीमेंट की हिज़्ब-ए-मुखालिफ़ के रुक्न-ए-रकीन हैं। अगर काफ़ी फ़ेल हुए तो तालिब इल्मों के अलावा प्रोफ़ेसरों के भी दोस्त हैं। जूनियर क़िस्म के तालिब इल्मों के वालिदैन बने हुए हैं। मुख़्तसर ये कि अजीब हंगामाख़ेज़ मस्रूफ़ियत होती है और ज़िंदगी तजुर्बों से माला माल होती रहती है।
कुछ इसी क़िस्म की ज़िंदगी कॉलेज में इख़्तियार कर रखी थी और ये तै था कि जल्दी का काम शैतान का। हम तो इत्मीनान से ज़रा सैर करते हुए कॉलेज से निकलेंगे और तालिब इल्म जो निसाब साल भर में घास काटने की तरह ख़त्म कर दिया करते थे। उसको हम दिल लगा कर दो साल में ख़त्म कर रहे थे कि पहाड़ सर पे ये टूटा कि वालिद साहब की उम्र दग़ा दे गई और हमको कॉलेज छोड़ना ही पड़ा। मगर इतने दिनों तक कॉलेज में रहने का नतीजा ये हुआ कि अपने शहर में एक क़िस्म की धाक सी बैठ गई। अहबाब-ओ-अइज़्जा को जब कॉलेज के क़िस्से सुनाने बैठ जाते तो बड़ा असर होता सब पर। उन ही क़िस्सों में एक क़िस्सा क्रिकेट के मुताल्लिक़ भी था कि कॉलेज छोड़ने से हमको सिर्फ़ ये नुक़्सान पहुँचा है कि तालीम अधूरी रह गई मगर ख़ुद कॉलेज को ये नुक़्सान पहुँचा है कि अब मुद्दत तक उसको क्रिकेट का कप्तान न मिलेगा। इत्तफ़ाक़ से ये क़िस्सा मुक़ामी क्रिकेट टीम के कप्तान साहब को सुना रहे थे जिनको ये ख़बर न थी कि क्रिकेट टीम के साथ ख़ुद अपने ख़र्च से इधर उधर जाने का इत्तफ़ाक़ तो ज़रूर हुआ था मगर आज तक क्रिकेट का बल्ला छूने की नौबत न आई थी। मगर सवाल तो ये था कि वो ठहरे मुक़ामी क्रिकेट टीम के कप्तान, उनसे आख़िर हम बात करते तो क्या करते। और इतने दिनों तक अलीगढ़ में रहने का रोब जमाते तो कैसे जमाते। उनके नज़दीक अलीगढ़ कॉलेज में सिवाए क्रिकेट खिलाने के और कुछ गोया सिखाया ही न जाता था। धूम थी अलीगढ़ क्रिकेट टीम की। लिहाज़ा अगर वो हमारे क़ाइल हो सकते थे तो सिर्फ़ इस तरह कि हम अपने को उसी मशहूर-ओ-मारूफ़ टीम का कप्तान साबित करें।
मुक़ामी टीम के कप्तान साहब ने कहा, “क्या बात है साहब अलीगढ़ की टीम की। तो गोया आप कप्तान थे उसके।”
अर्ज़ किया, “ज़िंदगी अज़ाब थी साहब, आज बंबई जा रही है टीम तो कल दिल्ली और परसों कलकत्ते। दो मर्तबा तो विलाएत जाने के लिए भी इसरार हुआ बमुश्किल जान छुड़ाई। अपनी बात ये भी कि एक मर्तबा बंबई में एक मार्का का मैच हुआ इत्तफ़ाक़ से सबसे पहले मैं ही खेलने गया। अब जनाब हुआ ये कि मेरे अलावा दस के दस खिलाड़ी आउट हो गए और मैं सात सौ रन बनाकर नाट आउट वापस आया।”
कप्तान साहब ने गोया आउट होते हुए कहा, “जी क्या कहा, सात सौ रन नाट आउट।”
निहायत इन्किसार से अर्ज़ किया, “नाट आउट तो ख़ैर अक्सर रहा हूँ, अलबत्ता रन सबसे ज़्यादा मिलें, यही सात सौ बनाए। उसके बाद कलकत्ता में बनाए थे पाँच सौ छियासी रन।”
वो और भी हैरत से बोले, “पाँच सौ छियासी हैरत है साहब।”
और वो इसी हैरत में ग़र्क़ चले गए। हमको क्या मालूम था कि ये मासूम क़िस्म का वक़्ती झूट रंग लाकर रहेगा, चुनांचे एक हफ़्ते के बाद वो चार पाँच क्रिकेट के खिलाड़ियों का एक वफ़द लेकर तशरीफ़ ले आए। सब से इस ख़ाकसार का तआरुफ़ कराया गया। गोया महज़ हमारे भरोसे पर टीम टूर्नामेंट में दाख़िल कर दी है और तै ये किया है कि कप्तान आप ही रहेंगे। लाख इनकार किया, बहुत कुछ समझाया कि क्रिकेट छोड़े मुद्दत हो चुकी है, मगर तौबा कीजिए यक़ीन कौन करता था। वहाँ हिसाब लगाए बैठे थे कि हाथी लाख लुटेगा, फिर भी सवा लाख का। सात सौ और पाँच सौ छियासी रन ना सही, दो ढाई सौ तो मश्क़ छूटने पर भी बना ही लेंगे। मुख़्तसर ये कि कोई उज़्र मसमू न हुआ और आख़िर सर-ए-तस्लीम ख़म करना ही पड़ा।
शामत-ए-आमाल पहला ही मैच उन अंग्रेज़ों से पड़ा जो सच पूछिए तो इस खेल के मूजिद हैं और उनके बोलर ऐसे ज़ालिम कि गेंद क्या फेंकते थे गोया तोप का गोला फेंक रहे हैं। टॉस में हम लोग जीत चुके थे और हमारी टीम खेल रही थी। खेल क्या रही थी चांद मारी बनी हुई थी। चार खिलाड़ी आउट हो चुके थे और रन कुल आठ बने थे। यहाँ ये हाल कि एक तो इख़्तिलाज का मर्ज़ यूँही है दूसरे न भी होता तो ज़ाहिर है कि अलावा इज़्ज़त-ओ-आबरू के ये तो कुछ मौत और ज़िंदगी का सवाल बनता जा रहा था। अगर उन ज़ालिमों का गेंद ज़रा भी इधर उधर हो गया तो वालिद साहब की रूह से जब आलम-ए-बाला में मुलाक़ात होगी तो वो क्या कहेंगे कि क्यों बेटा यही वादा था तुम्हारा। मगर सवाल तो ये था कि अब कर ही क्या सकते थे।
छटे खिलाड़ी के आउट होते ही अब हमको जाना था। कलमा-ए-शहादत पढ़ कर लेग गार्ड बंधाए जिस तरह दूसरों ने बैट सँभाला था हमने भी बैट सँभाला और अब जो अपने खिलाड़ी के साथ रवाना हुए तो मजमे ने “कैप्टन इन” का नारा बुलंद किया और तालियों से फ़िज़ा गूंज उठी। उन तालियों से ताएर-ए-रूह और भी माइल-ए-परवाज़ हो गया। बिल्कुल ये मालूम हो रहा था कि जैसे किसी क़त्ल के मुजरिम को फांसी के तख़्ते की तरफ़ ले जा रहे हैं। दिल में तरह तरह के ख़्याल आरहे थे कि जद्द-ए-आला एक जिहाद में घोड़े की पीठ पर लड़ते हुए शहीद हुए थे। एक बुज़ुर्ग मुहब्बत में नाकाम रह कर दरिया में डूबे थे। बाक़ी तमाम अफ़राद-ए-ख़ानदान बिस्तर-ए-मर्ग पर मौत की करवट लेकर इस जहान से, उस जहान को सिधारे थे। मगर हमारी क़िस्मत में क्रिकेट की मौत लिखी थी। बहरहाल दिल को ये इत्मीनान ज़रूर था कि मौत बरहक़ तो है ही अगर क्रिकेट की राह में फ़ना हो गए तो इतने तमाशाई नमाज़-ए-जनाज़ा के लिए मिल जाएंगे। लोग तालियाँ बजा बजा कर आसमान सर पर उठाए हुए थे और कप्तान साहब का क़ल्ब बाउंड्रीयाँ मार रहा था। बमुश्किल तमाम विकेट तक पहुँचे और जिस तरह दूसरों ने सेंटर लिया था हमने भी उस रस्म को पूरा किया, हालाँकि हमारे ऐसे खिलाड़ी के लिए उसकी चंदाँ ज़रूरत न थी। सेंटर ले चुकने के बाद इस दिलचस्प दुनिया को एक मर्तबा फिर हसरत भरी नज़र से देखा। दिल ने कहा,
चर्चे यही रहेंगे अफ़ोस हम न होंगे।
अब जो उस गेंद फेंकने वाले मलिक-उल-मौत को देखते हैं तो जी चाहा कि चकरा कर गिर पड़ें। मालूम होता था कि एक अज़ीमुश्शान चुक़ंदर सामने खड़ा है। वो उस वक़्त कोह-ए-आतिशफ़िशाँ नज़र आ रहा था। दिल ने कहा कि अगर उसके गेंद से वासिल बहक हो गए तो जन्नत तक रन बनाते चले जाएंगे। हिम्मत करके बैट पर झुके, उधर वो गेंद लेकर बढ़ा ही था कि हम फिर खड़े हो गए और मौत कुछ देर के लिए इल्तिवा में पड़ गई। मगर बकरे की माँ आख़िर कब तक ख़ैर मनाएगी। खेलने के लिए तैयार होना ही पड़ा और बैट पर झुक कर आँखें बंद करलीं, दूसरे ही लम्हे महसूस ये हुआ कि जैसे इन हाथों में जिनसे बैट थामे हुए थे एक बर्क़ी लहर सी दौड़ गई और मजमा ने तहसीन-ओ-आफ़रीन का शोर बुलंद किया। मालूम हुआ कि गेंद आया और बैट से छूकर कुछ ऐसे ज़ाविये से निकल गया कि लोगों को ग़लतफ़हमी पैदा हुई कि ये कट हमारी उस्तादी का नतीजा है। दो रन ख़्वाह मख़ाह बन गए। काश एक ही रन बना होता और हम इस ख़ौफ़नाक बोलर की ज़द से बच गए होते।
नतीजा ये कि फिर खेलने के लिए तैयार होना पड़ा और जी कड़ा करके अब की मर्तबा तै कर लिया कि ऐसी भी क्या बुज़दिली, मरना ही है तो नाम करके मरेंगे। अब की मर्तबा हिट लगाएंगे। चुनांचे बजाय जमा के बैट रखने के बैट तान कर खड़े हो गए। मजमा ने शोर मचाया। साथियों ने परेशान होना शुरू कर दिया। ख़ुद मुख़ालिफ़ खेलने वालों को हैरत हुई मगर हम अपने इरादे से बाज़ न आए। चुनांचे अब जो गेंद आता है और हम हिट लगाते हैं तो सारा मजमा फ़ील्ड में टोपियां उछालता हुआ चला आया। क़हक़हों से फ़िज़ा गूंज उठी और होश में आने के बाद पता चला कि कैच करने वाले ने बजाय गेंद के बल्ले का कैच किया था और गेंद ख़ुद हमारे लेग गार्ड में महफ़ूज़ था। मुख़ालिफ़ टीम उसको अपनी तज़लील समझ रही थी कि ये खेल नहीं हो रहा है बल्कि उसका मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है। बमुश्किल तमाम उन लोगों को समझाया गया कि मश्क़ छूटी हुई है वर्ना अलीगढ़ की टीम के वो कप्तान हैं जो सात सौ रन बनाया करते थे। एम्पायर ने तास्सुब से काम लेकर हमको आउट क़रार दिया और हम उसी हालत में उसी वक़्त घर पहुँचा दिए गए। इसलिए अब तक क्रिकेट का नाम सुनकर ग़श आ जाता है।
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