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ग़ालिब के साथ आराफ़ में

हिज़्ब-उल-अल्लाह

ग़ालिब के साथ आराफ़ में

हिज़्ब-उल-अल्लाह

MORE BYहिज़्ब-उल-अल्लाह

     

    अलिफ़: आदाब अर्ज़ करता हूँ क़िबला। 

    ग़ालिब: जीते रहो, जीते रहो... आलम-ए-ख़ाकी से आरहे शायद... कैसे आना हुआ? 

    अलिफ़: बस शौक़-ए-ज़ियारत खींच लाया, फ़रमाईए, इस आलम-ए-लाहूत में कैसे बसर ‎हो रही है? 

    ग़ालिब: अजी, यहां धरा क्या है? 

    अलिफ़: अच्छा, तो फिर वही कुछ सुनाइए जो आप पर आलम-ए-ख़ाकी में बीती। 

    ग़ालिब: अरे मियां! क्यों भरे ज़ख़्म कुरेदते हो... अच्छा हुआ क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म ‎से रिहाई पाई। दुख है तो ये कि फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़ पकड़ा गया हूँ। दम-ए-‎तहरीर कोई आदमी तो था नहीं कि बुरे-भले पर निगाह रखता... बहर कैफ़ नाकर्दा ‎गुनाहों की सज़ा भुगत रहा हूँ। 

    अलिफ़: बहरहाल, कुछ तो कहिए कि इस ख़ाक-दाँ में दिन कैसे कटे? 

    ग़ालिब: सुनना चाहते हो? अच्छा तो कान धरो... मगर बीच में बोलना मत। 

    अलिफ़: इरशाद। 

    ग़ालिब: आलम दो हैं, एक आलम-ए-अर्वाह और एक आलम-ए-आब-ओ-गिल। क़ायदा ये ‎है कि आलम-ए-आब-ओ-गिल के मुजरिम आलम-ए-अर्वाह में सज़ा पाते हैं लेकिन यूं भी ‎हुआ है कि आलम-ए-अर्वाह के गुनहगार को दुनिया में भेज कर सज़ा देते हैं। चुनांचे मैं ‎आठवीं रजब 1212 हि. मुताबिक़ 1717 ई. में रू-बकारी के वास्ते आलम-ए-आब-ओ-गिल ‎में भेजा गया। 
    ‎ 
    मैं क़ौम का तुर्क सलजूक़ी हूँ। दादा मेरा मावराउन्नहर से शाह आलम के वक़्त में ‎हिंदुस्तान आया... बाप मेरा अबदुल्लाह बेग ख़ां बहादुर लखनऊ जाकर आसिफ़ उद्दौला ‎का नौकर हुआ, फिर हैदराबाद में नवाब निज़ाम अली ख़ां का मुलाज़िम हुआ। वो नौकरी ‎एक ख़ाना-जंगी के बखेड़े में जाती रही। अलवर का क़सद किया... महाराजा बख़्तियार ‎सिंह की रिफ़ाक़त में मारा गया। मेरा चचा हक़ीक़ी मरहटों की तरफ़ से अकबराबाद का ‎सूबेदार था। उसने मुझे पाला, मेरा हक़ीक़ी भाई बस एक था, वो तीस बरस दीवाना रह ‎कर मर गया। 
    ‎ 
    मैंने अय्याम दबिस्ताँ नशीनी में शरह मातह आमिल तक पढ़ा, बाद उसके लहू व लोब ‎और आगे बढ़कर फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर और ऐश-ओ-इशरत में मुनहमिक हो गया। फ़ारसी ‎ज़बान से लगाव और शे’र-ओ-सुख़न का जौक़ फ़ित्री-ओ-तब्ई था। नागाह एक शख़्स कि ‎सासान पंजुम की नस्ल में माहज़ा मंतिक़-ओ-फ़लसफ़ा में मौलवी फ़ज़ल हक़ मरहूम का ‎नज़ीर और मोमिन मुवह्हिद-ओ-सूफ़ी साफ़ी था, मेरे शहर में वारिद हुआ... उस्ताद बे ‎मुबालग़ा जामा सिप अह्द-ओ-बज़र जमहर अस्र था। 
    ‎ 
    मेरा क़द दराज़ी में अंगुश्तनुमा है। जब मैं जीता था तो मेरा रंग चम्पई था और दीदावर ‎लोग उसकी सताइश किया करते थे। अब जब कभी मुझको वो अपना रंग याद आता है ‎तो छाती पर साँप सा लोट जाता है, जब दाढ़ी मूंछ में बाल सफ़ेद आगए, तीसरे दिन ‎चियूंटी के अंडे गालों पर नज़र आने लगे। इससे बढ़कर ये हुआ कि आगे के दो दाँत टूट ‎गए। नाचार मिस्सी भी छोड़ दी और दाढ़ी भी, मगर ये भी याद रखिए कि इस शहर में ‎एक वर्दी आम है। मुल्ला, हाफ़िज़, बिसाती नेचा बंद, धोबी, सक्क़े, भटियारा, जोलाहा, ‎कुंजड़ा मुँह पर दाढ़ी रखता है सर पर बाल। फ़क़ीर ने जिस दिन दाढ़ी रखी उसी दिन ‎सर मुंडाया। 
    ‎ 
    मुग़ल बच्चे ग़ज़ब होते हैं जिस पर मरते हैं उसको मार रखते हैं। मैं भी मुग़ल बच्चा ‎हूँ। उम्र भर में एक बड़ी सितम पेशा डोमनी को मैंने भी मार रखा था। मैं जब बहिश्त ‎का तसव्वुर करता हूँ और सोचता हूँ कि अगर मग़फ़िरत होगी और एक हूर और क़स्र ‎मिलेगा। उसी में इक़ामत जाविदानी और उसी एक नेक-बख़्त के साथ ज़िंदगानी होगी तो ‎इस तसव्वुर से जी घबराता है, कलेजा मुँह को आता है। वो हूर अजीरन हो जाएगी। ‎तबीयत क्यों न घबराएगी वो ज़मुर्रदीं काख़ और तूबी की एक शाख़ चशम-ए-बद्दूर वही ‎एक हूर... 
    ‎ 
    तेरह बरस हवालात में रहा, 7 रजब 1228 हि. को मेरे वास्ते हुक्म दवाम हब्स सादर ‎हुआ, एक बेड़ी मेरे पांव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िंदाँ मुक़र्रर किया... मगर ‎नज़्म-ओ-नस्र को मशक़्क़त ठहराया। बरसों के बाद उस जेलख़ाने से भागा। तीन बरस ‎बिलाद-ए-शिरकिया में फिरता रहा। पायानेकार मुझे कलकत्ते से पकड़ लाए और फिर ‎उसी मजलिस में बिठा दिया। जब देखा कि क़ैदी गुरेज़पा है दो हथकड़ीयां और बढ़ा दीं। ‎

    न जज़ा न सज़ा, न नफ़रीं न आफ़रीं, न अदल न ज़ुल्म, न लुत्फ़ न क़हर, एक ज़माने ‎में दिन को रोटी रात को शराब मिलती थी। फिर सिर्फ़ रोटी मिले जाती थी शराब नहीं। ‎कपड़ा अय्याम तनाम का बना हुआ था। उसकी कुछ फ़िक्र नहीं की, नादारी के ज़माने ‎में जिस क़दर ओढ़ना बिछौना घर में था सब बेच बेच कर ख़ा लिया, गोया और लोग ‎रोटी खाते थे और मैं कपड़ा खाता था। बे रिज़्क़ जीने का ढब मुझको इसीलिए आगया ‎है। रमज़ान का महीना रोज़ा खा खाकर काटा करता था। आइन्दा ख़ुदा राज़िक़ है, कुछ ‎और खाने को न मिलता तो ग़म तो था। बस एक चीज़ खाने को हो चाहे ग़म ही हो तो ‎क्या ग़म है? 
    ‎ 
    एक-बार में बीमार हो गया था। बीमार क्या हुआ तवक़्क़ो ज़ीस्त की न रही। क़ूलिंज ‎और फिर क्या शदीद कि पाँच पहर मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह तड़पा किया। आख़िर ‎एस्सार-ए-रियो नद और अरंडी का तेल पिया। उस वक़्त तो पच गया मगर क़िस्सा ‎क़ता न हुआ। दस दिन में दोबार आधी आधी ग़िज़ा खाई, गोया दस दिन में एक-बार ‎ग़िज़ा तनावुल फ़रमाई। गुलाब और इमली का पन्ना और आलूबुख़ारे का अफ़्शुर्दा उस ‎पर मदार रहा। 
    ‎ 
    एक बरस तक अवारिज़ फ़साद-ए-ख़ून में मुबतला रहा। बदन फोड़ों की कसरत से सरो ‎चराग़ाँ हो गया। ताक़त ने जवाब दे दिया। दिन रात लेटा रहता था... सर से पांव तक ‎बारह फोड़े, हर फोड़े पर एक ज़ख़्म, हर ज़ख़्म पर एक ग़ार। हर-रोज़ बिला मुबालग़ा ‎बारह तेरह फाए और पाव भर मरहम दरकार... और शब-ओ-रोज़ बेताब। अगर कभी ‎आँख लग गई दो-घड़ी ग़ाफ़िल रहा हूँगा कि एक-आध फोड़े में टीस उठी। जाग उठा, ‎तड़पा किया फिर सो गया फिर होशयार हो गया। 1277 हि. में मेरा न मरना सिर्फ़ मेरी ‎तक़ज़ीब के वास्ते था, मगर इन तीन बरस में हर रोज़ मर्ग-ए-नौ का मज़ा चखता था... ‎किताब से नफ़रत, शे’र से नफ़रत, जिस्म से नफ़रत, रूह से नफ़रत... जितना ख़ून ‎बदन में था बे मुबालग़ा आधा उसमें से पीप बन कर निकल गया। सन कहाँ थी जो ‎फिर तौलीद सालिह होती। बहरहाल ज़िंदा था,मियां 1277 हि. की बात ग़लत न थी मगर ‎मैंने वबाए आम में मरना अपने लायक़ न समझा। वाक़ई उसमें मेरी कसर-ए-शान थी। 
    ‎ 
    सतरा बहतरा उर्दू में तर्जुमा पैर-ए-ख़ज़फ़ मेरी तिहत्तर बरस की उम्र हुई, पस मैं ‎अख़रफ़ हुआ। हाफ़िज़ा गोया कभी था ही नहीं, सामिआ बातिल बहुत दिन से था। रफ़्ता-‎रफ़्ता वो भी हाफ़िज़ा के मानिंद मादूम हो गया। फिर ये हाल था कि जो दोस्त आते ‎रस्मी पुर्सिश-ए-मिज़ाज से बढ़कर जो बात होती वो काग़ज़ पर लिख देते। ग़िज़ा ‎मफ़क़ूद थी, सुबह को क़ंद और शीरा बादाम मुक़श्शर। दोपहर को गोश्त का पानी, सर-‎ए-शाम तले हुए चार कबाब, सोते वक़्त पाँच रुपये भर शराब, उसी क़दर गुलाब... ‎अख़रफ़ हूँ, पोच हूँ, आसी हूँ, फ़ासिक़ हूँ, रू सियाह हूँ। ये शे’र मीर तक़ी मीर का मेरे ‎हस्ब-ए-हाल है; 

    मशहूर हैं आलम में मगर हों भी कहीं हम 
    अल-क़िस्सा न दरपे हो हमारे कि नहीं हम 
    ‎ 
    मैं इंतिहाए उम्र नापायदार को पहुंच कर आफ़ताब लब-ए-बाम और हुजूम-ए-अमराज़ ‎जिस्मानी और आलाम रुहानी से ज़िंदा दरगोर था। कुछ याद-ए-ख़ुदा भी चाहिए थी। ‎नज़्म-ओ-नस्र की क़लमरू का इंतज़ाम एज़द दाना-ओ-तवाना की इनायत-ओ-इआनत से ‎ख़ूब हो चुका, अगर उसने चाहा तो क़ियामत तक मेरा नाम-ओ-निशान बाक़ी और ‎क़ायम रहेगा;

    ग़ालिब बक़ौल हज़रत-ए-हाफ़िज़ ज़ फैज़-ए-इश्क़ 
    सब्त अस्त बर जरीद-ए-आलम दवाम मा 
    ‎(ठंडी सांस) 

    और ये था मेरा मरना जीना 

    अलिफ़: हक़ मग़फ़िरत करे। 

    ग़ालिब: कुछ और भी पूछना चाहते हो? 

    अलिफ़: इजाज़त हो तो... 

    ग़ालिब: अच्छा तो पूछ लो, मगर जल्दी करना, क्योंकि अभी तक यक-जान बे नवाए ‎असद को हज़ारों आफ़तें झेलनी हैं... मैं दश्त-ए-ग़म में आहूए सय्याद दीदा हूँ। 
    ‎ 
    अलिफ़: हाँ, तो ये बताइए अगर ज़हमत न हो कि ये क़ैद वैद का क्या क़िस्सा था। 

    ग़ालिब: कोतवाल दुश्मन था और मजिस्ट्रेट नावाक़िफ़, फ़ित्ना घात में था और सितारा ‎गर्दिश में, बावजूद ये कि मजिस्ट्रेट कोतवाल का हाकिम है, मेरे बाब में वो कोतवाल का ‎मह्कूम बन गया और मेरी क़ैद का हुक्म सादर कर दिया। सेशन जज बावजूद ये कि ‎मेरा दोस्त था, उसने भी इग़्माज़ और तग़ाफ़ुल इख़्तियार किया। सदर में अपील किया ‎गया मगर किसी ने न सुना और वही हुक्म बहाल रहा। फिर मालूम नहीं क्या बाइस ‎हुआ कि जब आधी मीयाद गुज़र गई तो मजिस्ट्रेट को रहम आया और सदर में मेरी ‎रिपोर्ट और वहां से हुक्म रिहाई का आ गया। और हुक्काम सदर ने ऐसी रिपोर्ट भेजने ‎पर उसकी बहुत तारीफ़ की... सुना था कि रहम दिल हाकिमों ने मजिस्ट्रेट को बहुत ‎नफ़रीन की थी और मेरी ख़ाकसारी और आज़ादा रवी से उसको मुत्तला किया था, यहां ‎तक कि उसने मेरी रिहाई की रिपोर्ट भेज दी, अगरचे मैं हर काम को ख़ुदा की तरफ़ से ‎समझता हूँ और ख़ुदा से लड़ा नहीं जा सकता। 
    ‎ 
    अलिफ़: (ठंडी आह भर कर) हुंह कैसे दुख की बात है... आप ऐसा शायर और क़ैदख़ाने ‎की ज़िल्लत। 

    ग़ालिब: भला दुख कैसे न होता, सरकार अंग्रेज़ी में बड़ा पाया रखता था, रईस ज़ादों में ‎गिना जाता था। पूरा ख़िलअत पाता था, फिर बदनाम हो गया और एक बड़ा धब्बा लग ‎गया। किसी रियासत में दख़ल कर नहीं सकता था, मगर हाँ, उस्ताद या पीरर मद्दाह ‎बन कर रस्म-ओ-राह पैदा करता... मेरी ये आरज़ू थी कि दुनिया में न रहूं। रोम है, ‎मिस्र है, ईरान है, बग़दाद है। ये भी जाने दो काअबा आज़ादों की जाएपनाह है और ‎आस्ताना-ए-रहमत-उल-लिलआलमीन दिलदादों की तकियागाह है... ये है जो कुछ कि ‎मुझ पर गुज़रा है... और ये है जिसका मैं आरज़ूमंद हूँ; 

    राज़ दाना ग़म रुस्वाई जावेद बलासत 
    बहर-ए-आज़ार ग़म अज़ क़ैद फ़िरंगम न बूद 
    ‎ 
    जू राअदा-ए-दो अज़दल् ब रिहाई लेकिन 
    तान-ए-अहबाब कम अज़ ज़ख़्म ख़दंगम न बूद 
    ‎ 
    अलिफ़: आपने ग़दर के मुताल्लिक़ कुछ न कहा... हंगामा तो ऐसा न था कि आप उसे ‎भूल गए हों। 

    ग़ालिब: ग़दर की बातें क्या पूछते हो, लो सुनो, मई 1857 ई.में मुल्क ने ये फ़ित्ना ‎उठाया। 11 मई को पहर दिन चढ़े वो बाग़ी फ़ौज मेरठ से दिल्ली आई थी या ख़ुद क़हर-‎ए-इलाही का पै दर पै नुज़ूल हुआ था। बक़दर-ए-ख़ुसूसियत दिल्ली मुमताज़ थी वर्ना ‎सरता सर क़लमरू हिंद फ़ित्ना-ओ-बला का दरवाज़ा बाज़ था (लेकिन दिल्ली कब तक ‎महफ़ूज़ रहती) फिर जो अहकाम दिल्ली में सादर हुए वो अहकाम क़ज़ा-ओ-क़दर थे, ‎उनका मुराफ़ा कहीं नहीं, अब यूं समझ लो कि न हम कभी कहीं के रईस थे न जाह-‎ओ-हशम रखते थे न पेंशन रखते थे। 
    ‎ 
    अलिफ़: ग़दर में आपका भी कुछ लुटा? 

    ग़ालिब: ग़दर में मेरा घर नहीं लुटा मगर मेरा कलाम मेरे पास कब था कि न लुटा। ‎भाई ज़िया उद्दीन अहमद साहिब और नाज़िर हुसैन मिर्ज़ा साहिब हिन्दी-ओ-फ़ारसी ‎नज़्म-ओ-नस्र के मुसव्विदात मुझसे लेकर अपने पास जमा कर लिया करते थे सो उन ‎दोनों घरों पर झाड़ू फिर गई। न किताब रही न अस्बाब रहा, फिर मैं अपना कलाम ‎कहाँ से लाता। इस हंगामे में कुछ गोरे मेरे मकान में भी घुस आए थे। मगर उन्होंने ‎अपनी नेक खूई से घर के अस्बाब को बिल्कुल नहीं छेड़ा। मगर मुझे और मेरे दोनों ‎बच्चों को और दो तीन नौकरों को मा चंद हमसायों के कर्नल ब्राउन के रूबरू जो मेरे ‎मकान के क़रीब हाजी क़ुतुब उद्दीन सौदागर के घर में मुक़ीम थे, ले गए। कर्नल ब्राउन ‎ने बहुत नरमी और इन्सानियत से सारा हाल पूछा और रुख़सत कर दिया। 
    ‎ 
    ‎1858 ई. में अमन हुआ... हुक्म हुआ कि अय्याम-ए-ग़दर में तुम बाग़ीयों से इख़लास ‎रखते थे,अब गर्वनमेंट से क्यों मिलना चाहते हो... दूसरे दिन मैंने अंग्रेज़ी ख़त उनके ‎नाम लिखवाकर उनको भेजा। मज़मून ये कि बाग़ीयों से मेरा इख़लास मज़िन्न-ए-महज़ ‎है... तहक़ीक़ात फ़रमाई जाये ताकि मेरी सफ़ाई और बेगुनाही साबित हो। फरवरी 1860 ‎ई. में पंजाब के मुल्क से जवाब आया कि लार्ड साहिब फ़रमाते हैं हम तहक़ीक़ात न ‎करेंगे, बस ये मुक़द्दमा तै हुआ और बार और ख़िलअत मौक़ूफ़, पेंशन मस्दूद... वजह ‎ला मालूम... दो शंबा 2 मार्च 1863 ई. को सवाद-ए-शहर मख़ेम ख़य्याम-ए-गवर्नरी हुआ। ‎आख़िर रोज़ मैं अपने शफ़ीक़-ए-क़दीम जनाब मौलवी इज़हार हुसैन ख़ां बहादुर के पास ‎गया। असनाए गुफ़्तगु में फ़रमाया कि तुम्हारा दरबार और ख़िलअत बदस्तूर बहाल और ‎बरक़रार है। 

    कारसाज़ मा बफ़िक्र-ए-कार मा 
    फ़िक्र-ए-मादर कार्मा आज़ार मा 

    शंबा 3 मार्च को 12 बजे नवाब लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर ने मुझको बुलाया। ख़िलअत ‎अता किया और फ़रमाया कि लार्ड साहिब बहादुर के यहां का दरबार और ख़िलअत भी ‎बहाल है। 
    ‎ 
    अलिफ़: अल्हम्दुलिल्लाह! लेकिन ग़दर के बाद दिल्ली का क्या नक़्शा था? 

    ग़ालिब: भाई क्या पूछते हो... दिल्ली की हस्ती मुनहसिर कई हंगामों पर है। क़िला, ‎चाँदनी चौक, हर रोज़ मजमा जामा मस्जिद का, हर हफ़्ते सैर जमुना पुल की, हर साल ‎मेला फूल वालों का... ये पांचों बातें नहीं रहीं थीं, फिर कहो दिल्ली कहाँ। एक दिन में ‎सवार हो कर कुंओं का हाल दरयाफ़्त करने गया था, मस्जिद जामे से राजघाट दरवाज़े ‎तक बिला मोमबालग़ा एक सहरा लक़-ओ-दक़ था। ईंटों के ढेर जो पड़े थे वो अगर उठ ‎जाते तो हू का मकान हो जाता। याद करो मिर्ज़ा गौहर के बाग़ीचे के उस जानिब को ‎कई बाँस नशेब था, फिर वो बाग़ीचा सेहन के बराबर हो गया यहाँ तक कि राजघाट का ‎दरवाज़ा बंद हो गया, फ़सील के कंगूरे खिले हुए थे बाक़ी सब अट गया...पंजाबी कटरा, ‎धोबी वाड़ा, राम जी गंज, सआदत ख़ां का कटरा, जरनैल की बीबी की हवेली, राम जी ‎दास गोदाम वाले के मकानात, साहिब राम का बाग़-ओ-हवेली उनमें से किसी का पता ‎नहीं मिलता। ‎

    ज़िन्हार कभी ये गुमान न कीजिएगा कि दिल्ली की अमलदारी मेरठ और आगरा और ‎बिलाद-ए-शिरकिया की मिसल है। ये पंजाब अहाता में शामिल है न क़ानून न आईन, ‎जिस हाकिम की जो राय में आए वो वैसा करे। 
    ‎ 
    ‎7 नवंबर 14 जमादी उल अव्वल, साल हाल जुमा के दिन अबुल ज़फ़र सिराज उद्दीन ‎बहादुर शाह क़ैद-ए-फिरंग-ओ-क़ैद जिस्म से रिहा हो गए... इन्ना लिल्लाह-ए-व इन्ना ‎इलैहे राजेऊन... फिर कहो दिल्ली कहाँ... क़िस्सा मुख़्तसर शहर सहरा हो गया और अब ‎जो कुँवें जाते रहे और पानी गौहर-ए-नायाब हो गया तो ये सहरा सहराए कर्बला हो ‎जाएगा। अल्लाह अल्लाह दिल्ली वाले वहाँ की ज़बान को अच्छा कहते थे। वाह-रे हुस्न-‎ए-एतिक़ाद बंदा-ए-ख़ुदा, उर्दू बाज़ार न रहा उर्दू कहाँ? दिल्ली कहाँ? वल्लाह शहर नहीं ‎कैंप रह गया था छावनी थी, न क़िला न शहर न बाज़ार न नहर...  
    ‎ 
    अलिफ़: अदालती कार्यवाहियां उस ज़माने में कैसी रहीं? 

    ग़ालिब: कह तो दिया न क़ानून न आईन, जिस हाकिम की जो राय में आए वो वैसा ‎करे। सुनो हाफ़िज़ मम्मू बेगुनाह साबित हुए। रिहाई पाई, हाकिम के सामने हाज़िर हुआ ‎करते थे, इमलाक अपनी मांगते थे। क़ब्ज़-ओ-तसर्रुफ़ उनका साबित हो चुका था सिर्फ़ ‎हुक्म की देर थी। एक दिन जो हाज़िर हुए मिसल पेश हुई, हाकिम ने पूछा, “हाफ़िज़ ‎मुहम्मद बख़्श कौन?” अर्ज़ किया कि “में!” फिर पूछा कि “हाफ़िज़ मम्मू कौन?” अर्ज़ ‎किया, “मैं... असल नाम मोहम्मद बख़्श है, मम्मू करके मशहूर हूँ।” फ़रमाया, “ये कुछ ‎बात नहीं हाफ़िज़ मुहम्मद बख़्श भी तुम, हाफ़िज़ मम्मू भी तुम, सारा जहान भी तुम, ‎जो दुनिया में है वो भी तुम, हम मकान किस को दें।” मिसल दाख़िल दफ़्तर हुई। मियां ‎मम्मू अपने घर चले आए... फिर कहो दिल्ली कहाँ... दिल्ली कहाँ... दुख-दर्द की बरसात ‎थी। 
    ‎ 
    बरसात का नाम आ गया... लो पहले तो मुजमिलन सुनो एक ग़दर कालों का, एक ‎हंगामा गोरों का। एक फ़ित्ना इन्हिदाम मकानात का, एक आफ़त वबा की। एक मुसीबत ‎काल की, फिर बरसात जमी हालात की जामा है, इक्कीसवां दिन था आफ़ताब इस तरह ‎गाह गाह नज़र आजाता था जिस तरह बिजली चमक जाती है। रात को कभी कभी तारे ‎अगर दिखाई देते तो लोग जुगनू समझ लेते। अँधेरी रातों में चोरों की बन आई, कोई ‎दिन नहीं होता कि दो-चार जगह किसी चोरी का हाल न सुना जाता। मुबालग़ा न ‎समझना हज़ारहा मकान गिर गए, सैकड़ों आदमी जाबजा दब कर मर गए, गली गली ‎नदी बह रही थी, क़िस्सा मुख़्तसर वो अनकाल था कि मेंह न बरसा, अनाज न पैदा ‎हुआ। ये पन काल था कि पानी ऐसा बरसा कि बोए दाने बह गए, जिन्होंने नहीं बोया ‎था वो बोने से रह गए सुन लिया दिल्ली का हाल? 
    ‎ 
    अलिफ़: अच्छा जाने दीजिए इन बातों को, जब दिल्ली वाले न रहे तो दिल्ली कहाँ ‎रहती, सुनकर कलेजा कटता है... हाँ, ये तो फ़रमाईए कि आपके मज़हबी अक़ाइद क्या ‎थे क्योंकि उसके मुताल्लिक़ लोगों में गूना-गूं चे मिगोइयाँ हो रही हैं। आपको आलम-ए-‎आब-ओ-गिल के कुछ लोग मुशरिक कहते हैं। 
    ‎ 
    ग़ालिब: मेरा क्या बिगड़ा... मुशरिक वो हैं जो वुजूद को वाजिब-ओ-मुम्किन में मुश्तर्क ‎जानते हैं। मुशरिक वो हैं जो मुस्लिमा को नबुव्वत में ख़ातिम-उल-मुरसलीन का शरीक ‎गरदानते हैं, मुशरिक वो हैं जो नौ मुस्लिमों को अबू लाइमा का हमसर मानते हैं। ‎दोज़ख़ उन लोगों के वास्ते है... मैं मुवह्हिद ख़ालिस और मोमिन कामिल हूँ। ज़बान से ‎ला-इलाहा इल-लल्लाह कहता हूँ और दिल में लामौजूद इल-लल्लाह लामुवस्सर फ़ी वुजूद ‎अल्लाह समझे हुए हूँ। अंबिया सब वाजिब-उल-ताज़ीम और अपने वक़्त में सब ‎मुफ़्तरिज़-उल-अताअत थे। मुहम्मद सल्ल अल्लाह अलैहि वसल्लम पर नबुव्वत ख़त्म ‎हुई। ये ख़ातिम-उल-मुरसलीन और रहमतुल लिल आलमीन हैं। मक़ता नबुव्वत का ‎मतला, इमामत न इजमाई बल्कि मिन अल्लाह है और इमाम मिन अल्लाह अली ‎अलैहिस्सलाम हैं सुम्मा हसन सुम्मा हुसैन इसी तरह ता मेहदी अलैहिस्सलाम।

    बरीं ज़ीस्तम हम बरीं बगुज़रम 
    ‎ 
    हाँ इतनी बात और है कि अबायत और ज़ंदिक़ा को मर्दूद, शराब को हराम और अपने ‎को आसी समझता हूँ। अगर मुझको दोज़ख़ में डालेंगे तो मुझको जलाना मक़सूद न ‎होगा बल्कि दोज़ख़ का ईंधन हूँगा और दोज़ख़ की आँच को तेज़ करूँगा ताकि मुशरिकीन ‎और मुनकरीन नबुव्वत ए मुस्तफ़वी और इमामत ए मुर्तज़वी उसमें जलें।
     ‎
    मुझमें कोई बात मुसलमानी की नहीं है फिर मैं नहीं जानता कि मुसलमानों की ज़िल्लत ‎पर मुझको क्यों इस क़दर रंज और तास्सुफ़ होता है... सूफ़ी साफ़ी हूँ और हज़रात ‎सूफ़िया हिफ़्ज़-ए-मरातिब मलहूज़ रखते हैं।

    गर हिफ़्ज़-ए-मरातिब न कनी ज़िंदीक़ी

    शाह मुहम्मद आज़म ख़लीफ़ा थे मौलाना फ़ख़्र उद्दीन साहिब के और मैं मुरीद हूँ उस ‎ख़ानदान का... 
    ‎ 
    बंदा परवर! मैं तो बनी आदम को, मुसलमान हो या हिंदू या नसरानी, अज़ीज़ रखता हूँ। ‎और अपना भाई गिनता हूँ, दूसरा माने या न माने। बाक़ी रही अज़ीज़दारी जिसको ‎अहल-ए-दुनिया क़राबत कहते हैं, उसको क़ौम और ज़ात और मज़हब और तरीक़ शर्त है ‎और उसके मुरातिब-ओ-मदारिज हैं... मियां किस क़िस्से में फंसा है... ख़ुदा के बाद नबी ‎और नबी के बाद इमाम यही है मज़हब-ए-हक़ और अस्सलाम-ओ-वलइकराम, अली ‎अली किया कर और फ़ारिगुलबाल रहा कर।

    ग़ालिब नदीम-ए-दोस्त से आती है बू-ए-दोस्त 
    ‎ 
    अलिफ़: ख़ूब! सुनते हैं कि आप मय-ए-नाब के बड़े रसिया थे? 

    ग़ालिब: आसूदा बाद ख़ातिर ग़ालिब... क्या ज़िक्र छेड़ा वल्लाह।

    इक तीर मेरे सीने पर मारा कि हाय हाय ‎

    जब दो जुरए पी लिए फ़ौरन रग-ओ-पै में दौड़ गई। दिल तवाना, दिमाग़ रोशन हो गया। ‎चार बोतल शराब तीन शीशे गुलाब के तोशा ख़ाने में मौजूद हैं, लेकिन अपना तो ये ‎ख़्याल है कि; 

    मय से ग़रज़ निशात है किस रू सियाह को 
    इक-गो न बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए 
    ‎ 
    अलिफ़: वाह वाह... मज़ा आ गया... ख़ैर... और ये आम वाम की बात क्या थी, आपकी ‎दो बातें तो आम से चिपक कर रह गईं कि मीठा हो और बहुत हो।

    ग़ालिब: मुझसे पूछो तुम्हें ख़बर क्या है 

    आम के आगे नीशकर क्या है 
    ‎ 
    न गुल इसमें न शाख़-ओ-बर्ग न बार 
    जब ख़िज़ां आए तब हो इसकी बिहार 
    ‎ 
    और दौड़ाइए क़ियास कहाँ 
    जान-ए-शीरीं में ये मिठास कहाँ 
    ‎ 
    नज़र आता है यूं मुझे ये समर 
    कि दवाख़ान-ए-अज़ल में मगर 
    ‎ 
    आतिश-ए-गुल पे क़ंद का है क़िवाम 
    शीरा के तार का है रेशा नाम 
    ‎ 
    साहिब-ए-शाख़-ओ-बर्ग-ओ-बार है आम 
    नाज़ पर्वर्द-ए-बहार है आम 
    ‎ 
    एक दिन मैं पलंग पर लेटा हूँ कि नागाह चराग़ दूदमान इल्म-ओ-यक़ीन सय्यद ‎नसीरउद्दीन आया तो एक कोड़ा हाथ में और एक आदमी साथ उसके, सर पर टोकरा ‎धरा, उस पर घास हरी बिछी। मैंने कहा अहा, सुलतान उल उलमा मौलाना सरफ़राज़ ‎हुसैन देहलवी दुबारा रसद... बारे मालूम हुआ कि वो नहीं हैं, ये कुछ और है, फ़ैज़-ए-‎ख़ास नहीं लुत्फ़-ए-आम है, यानी शराब नहीं आम है। ख़ैर, ये अतीया भी बे ख़लल है ‎बल्कि नेम-उल-बदल है, एक एक को सरबमुहर गिलास समझा। लकोर से भरा मगर ‎वाह, कैसी हिक्मत से भरा हुआ है कि 65 गिलास में से एक क़तरा नहीं गिरा है।

    अच्छा अब चलता हूँ, देर हो गई। कहीं गैरहाज़िरी न लिख दें और भगोड़ों में शामिल न ‎कर दें। आख़िर फ़रिश्ते हैं, उन्होंने पहले क्या किया कि अब ख़ैर की तवक़्क़ो करूँ। 
    ‎ 
    अलिफ़: बस एक आख़िरी सवाल?  

    ग़ालिब: कहो कहो... जल्दी से कह डालो... 

    अलिफ़: आपने अपनी शायरी और तस्नीफ़ के मुताल्लिक़ कुछ इरशाद नहीं फ़रमाया। 

    ग़ालिब: हुंह, अच्छा ये भी सन लो... ख़ाकसार ने इब्तदाए सन तमीज़ में उर्दू ज़बान में ‎सुख़न सराई की थी फिर औसत उम्र में बादशाह दिल्ली का नौकर हो कर चंद रोज़ इसी ‎रविश पर ख़ामाफ़रसाई की... नज़्म-ओ-नस्र का आशिक़-ओ-माइल हूँ। हिन्दोस्तान में ‎रहता था मगर तेग़ इस्फ़हानी का घायल था। जहां तक ज़ोर चल सका फ़ारसी ज़बान में ‎बहुत बका। एक उर्दू का दीवान हज़ार बारह सौ बैत का,एक फ़ारसी का दीवान दस ‎हज़ार कई सौ बैत का, तीन रिसाले नस्र के, ये पाँच नुस्खे़ मुरत्तिब हो गए फिर सोचा ‎अब और क्या कहूँगा। मदह का सिला न मिला। ग़ज़ल की दाद न पाई। हर्ज़ागोई में ‎सारी उम्र गँवाई। ग्यारहवीं मई 1855 ई. से 31 जुलाई 1857 ई. तक की रूदाद नस्र में ‎ब इबारत फ़ारसी ना आमेख़्ता ब अरबी लिखी और वो 15 सतर के मेस्तर से चार जुज़ ‎की किताब आगरा के मतबा मुफ़ीद-ए-ख़लायक में छपी। दस्तंबू उसका नाम रखा और ‎उसमें सिर्फ़ अपनी सरगुज़श्त और अपने मुशाहिदे के बयान से काम रखा।

    ज़बान फ़ारसी में ख़तों का लिखना पहले ही मतरूक कर दिया था। पीराना साली और ‎ज़ोफ़ के सदमों से मेहनत पर वही और जिगर कावी की क़ुव्वत मुझमें न रही। हरारत-‎ए-ग़रीज़ी का ज़वाल था और ये हालत; 

    मुज़्महिल हो गए क़ुवा ग़ालिब 
    अब अनासिर में एतिदाल कहाँ 
    ‎(एक आवाज़ दूर से सुनाई देती है) 

    आवाज़: मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां देहलवी हाज़िर होवे। 

    ग़ालिब: अच्छा ख़ुदाहाफ़िज़... आलम-ए-आब-ओ-गिल के रहने वालों को सलाम पहुंचा ‎देना। 

    अलिफ़: ज़रूर ज़रूर... इंशाअल्लाह... मगर ज़हमत हुई आपको। 

    आवाज़: मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ग़ालिब हाज़िर होवे। 

    ग़ालिब: हाज़िर... हाज़िर (चलते चलते) ख़ुदा-हाफ़िज़... ख़ुदा-हाफ़िज़... 

    अब कहाँ वो लोग... चाट गई ये ज़मीन 

    मक़दूर हो तो ख़ाक से पूछूँ कि ऐ लईम 
    तूने वो गंज हाए गिरांमाया क्या किए 

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