इंतिसाब
अदब में बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं जिनकी नौइयत गै़र-क़ानूनी न सही, मुश्तबहा ज़रूर है। इन्हीं में से एक इंतिसाब है। इंतिसाब न तो कोई सिन्फ़-ए-अदब है न अदब की कोई शाख़(शाख़शाना ज़रूर है)उर्दू में इंतिसाब को आए हुए ज़्यादा अ'र्सा नहीं गुज़रा। ये दौर-ए-मुग़्लिया के बाद की चीज़ मा'लूम होती है। बहुत ज़्यादा क़दीम होती तो अब तक मतरूक हो जाती। मतरूक न होती तो मकरूहात में ज़रूर शुमार होने लगती। आज भी ऐसे लोग मौजूद हैं जिन्होंने अच्छे दिन देखे थे। उन दिनों इंतिसाब नहीं हुआ करता था। लोग ख़ुशी-ख़ुशी किताबें पढ़ा करते थे(उस ज़माने में किताबें थीं भी कम)इंतिसाब की तहरीक, पढ़े लिखे लोगों की इजाज़त बल्कि उनके इ'ल्म-व-इत्तिला के बगै़र अचानक शुरू हुई और जब ये शुरू हुई उस वक़्त किसी के ज़ेह्न में ये ख़याल भी नहीं आया कि आगे चलकर ये इतनी ख़तरनाक सूरत इख़्तियार करेगी कि सिर्फ़ इंतिसाब की ख़ातिर किताबें लिखी जाने लगेंगी और उनके शाए किए जाने के लिए मुतअ'ल्लिक़ा लोग जान की बाज़ी लगा देंगे। इंतिसाब को अदब में अब वही मुक़ाम हासिल है जो सत्तरहवीं सदी में शहनशाह-ए-अकबर के दरबार में बीरबल और राजा टोडरमल को हासिल था। बीरबल और टोडरमल के फ़राइज़-ए-मंसबी एक दूसरे से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ थे और मिज़ाजन भी इन दोनों में कोई चीज़ मुश्तर्क नहीं थी। इसीलिए इन दोनों का नाम एक साथ लिया गया। इंतिसाब भी अपने सिफ़ात के ए'तबार से उतने ही मुख़्तलिफ़ और मुतज़ाद होते हैं।
अदब के निसाब में इंतिसाब अगरचे इख़्तियारी मज़मून है लेकिन बे-इंतिसाब किताब उस मौसीक़ार की तरह होती है जो सुर में न हो। आज भी अक्सर किताबें यूँ ही छप जाती हैं, यूँ ही से मुराद ऐसी जिनमें सफ़्ह-ए-इंतिसाब नहीं होता। ये भी कोई बात हुई। सफ़्ह-ए-इंतिसाब मौजूद न हो तो क़ारी के ज़ेह्न में पहली बात ये आती है कि मुसन्निफ़ में क़ुव्वत-ए-फै़सला का फ़ुक़दान है। ये तो नहीं कहा जा सकता कि अपनी तस्नीफ़-ए-लतीफ़ को किसी के नाम मा'नून न करके मुसन्निफ़ ने किसी का हक़ ग़ज़ब किया है लेकिन उसे तसाहुल तो कहा ही जा सकता है। एक अदीब में क़ुव्वत-ए-फै़सला होनी ही चाहिए। बहुत से अदीब तो अपने इंतिसाबों की वजह से पहचाने जाते और तरक़्क़ी करते हैं। (इंतिसाब का कुछ न कुछ नतीजा तो निकलता ही है) मुश्किल ये भी हो गई है कि अगर किताब में सफ़्ह-ए-इंतिसाब न हो तो उसे बद अख़्लाकी बल्कि बदनियती समझा जाने लगा है(मेरी ता'मीर में मुज़म्मिर है इक सूरत ख़राबी की)।
इंतिसाब हर किसी के इस्तेमाल की चीज़ नहीं है। इसके लिए ज़रा तरक़्क़ी करनी पड़ती है मज़मून, अफ़साने, ग़ज़ल या रुबाई का इंतिसाब नहीं हुआ करता। तहनियती और ता'ज़ियती क़ितआ'त जिनके आख़िरी मिस्रे से किसी वाक़िए या सानिहे की तारीख़ निकलती हो(सही या ग़लत), इंतिसाब की ता'रीफ़ में नहीं आते। ख़ुद क़सीदा भी जो काफ़ी तवील और सिवाए ममदूह के दूसरों के लिए सब्र आज़मा होता है। इंतिसाब तो एक नाज़ुक चीज़ होती है और अहम भी। इसके लिए पूरी एक किताब लिखनी पड़ती है। इसमें ज़ख़ामत की कोई क़ैद नहीं। अगर वो किताब नहीं सिर्फ़ किताबचा है तब भी उसका इंतिसाब जाइज़ है। संदूक़ और सन्दूक़चे में क्या फ़र्क़ है कोई फ़र्क़ नहीं। बल्कि सन्दूकचा ज़्यादा क़ीमती चीज़ों के लिए इस्तेमाल होता है।
इंतिसाब और नज़्र में बड़ा फ़र्क़ है। नज़्र ब-ज़ाहिर इंतिसाब से मिलती-जुलती चीज़ मा'लूम होती है लेकिन इसे ज़्यादा से ज़्यादा इंतिसाब की तरफ़ पहला क़दम समझा जा सकता है, कुछ शायर अपनी एक मुख़्तसर सी ग़ज़ल जिसमें पूरे 7 शे'र भी नहीं होते किसी पर्चे में छपवाते वक़्त उसे अपने से एक सीनियर शायर के नाम नज़र कर देते हैं, ये निजी तौर पर तो जाइज़ है, लेकिन इसकी अदबी हैसियत सिफ़र से भी कुछ कम होती है। शायर तो मुशायरों में अपना कलाम सुनाने के दौरान भी अपने अशआ'र(ज़ाहिर है उन्हीं के होते होंगे) मुख़्तलिफ़ सामईन(जिन्हें वो अपनी दानिस्त में मोअ'ज़्ज़िज़ीन समझते हैं) की नज़्र करते रहते हैं और किसी दूसरे मुशायरे में वही नज़्र शुदा अशआ'र बानियान-ए-मुशायरा में से किसी और की ख़िदमत में पेश किए जाते हैं। उसे इंतिसाब से क्या ता'ल्लुक़ हो सकता है। उसे नज़्र कहना भी ख़ुश अख़लाक़ी है। ये सिर्फ़ एक आ'दत है जो मसालेह इंततामी की बिना पर इख़्तियार की जाती है और ये रफ़्ता-रफ़्ता इतनी जड़ पकड़ लेती है कि शायर से सिर्फ़ उसी वक़्त छूटती है जब उसका मुशायरों में आना-जाना मौक़ूफ़ हो जाता है। इसके बर-ख़िलाफ़ इंतिसाब यूँ जगह-जगह इस्तेमाल करने की चीज़ नहीं है बल्कि इसकी एक मुस्तक़िल और दाइम हैसियत है, या'नी अगर इत्तिफ़ाक़ से(जिसे हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ नहीं कहा जा सकता) किसी किताब के दूसरे एडिशन के छपने की नौबत आए तो इस एडिशन में भी, साबिक़ा इंतिसाब हस्ब-ए-हाल बरक़रार रहेगा चाहे ममदूह की वफ़ात ही क्यों न वाक़े हो चुकी हो। अपना बयान मअ' अंदाज़-ए-बयान और अपना कलाम मअ' ज़ोर-ए-कलाम किसी हद तक वापस लिया जा सकता है लेकिन एक मर्तबा के किए हुए इंतिसाब पर हाथ नहीं डाला जा सकता, ये कमान से निकले हुए तीर की तरह होता है।
इंतिसाब की कई क़िस्में होती हैं। जितनी तस्नीफ़ात उतनी ही क़िसमें लेकिन सहूलत की ख़ातिर उन्हें चंद क़िस्मों में तक़्सीम किया जा सकता है। तक़्सीम का अ'मल इन दिनों बहुत ज़रूरी है और उसे मजलिस-ए-अक़वाम-ए-मुत्तहिदा की ताईद हासिल है।
इंतिसाब की मोटी-मोटी क़िस्में ये हैं;
हुरूफ़-ए-तहज्जी के नाम: इस इंतिसाब में क़ारईन को पता नहीं चलता कि इस तस्नीफ़ का इशारा किसकी तरफ़ है। इसका फ़ैज़ मुसन्निफ़ और ममदूह की हद तक महदूद रहता है, इन दोनों के क़रीबी दोस्तों और चंद मख़सूस सहेलियों को अलबत्ता इस बात की इत्तिला होती है कि इस हुरूफ़-ए-तहज्जी के पर्दा निगारी के पीछे कौन छुपा हुआ है। ये बात आहिस्ता-आहिस्ता कोठों चढ़ती है।(अब तो लिफ़्ट की भी सहूलत मौजूद है)।
ऐसी कोई किताब जिसका इंतिसाब हर्फ़ अलिफ़ के नाम किया गया हो हमारी नज़र से नहीं गुज़री, लेकिन कहीं न कहीं कोई ज़रूर। ‘बे’का इंतिसाब हमने ज़रूर देखा है। ग़ालिबन ये कोई मजमूआ-ए-कलाम था। इसी तरह सब तो नहीं लेकिन कई हुरूफ़-ए-तहज्जी इंतिसाब में कारआमद साबित हुए हैं। मिसाल के तौर पर सलाम बिन रज़्ज़ाक़ की किताब ‘ऐन’ के नाम है।अब ये ‘ए’ ज़ाहिर है अबदुस्ससलाम या उबैदुल्लाह नहीं हो सकते इन दोनों में से कोई होते तो अलल-ए'लान सामने आते। हुरूफ़-ए-तहज्जी के इंतिसाब हमें बहरहाल पसंद हैं। हिंदोस्तान में थोड़ा बहुत पर्दा अभी बाक़ी है।
बे-नाम के इंतिसाब: इस क़िस्म के इंतिसाब भी मक़बूल हैं और इनमें मुसन्निफ़ ज़रा सी मेहनत करे तो बड़ी नज़ाकतें पैदा कर सकता है। अक्सर मुसन्निफ़ीन इसमें बहुत कामयाब हुए हैं। बशर नवाज़ ने जब अपना मजमूआ-ए-कलाम रायगाँ शाए किया तो उसका इंतिसाब इस तरह किया;
नाम पर
उस हसीन के जिसका नाम
नीलगूँ आसमान के सफ़्हे पर
रौशनी के क़लम ने लिखा है
यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि ये इंतिसाब रायगाँ नहीं गया होगा।
बे-नाम के इंतिसाब का इशारा कई लोगों की तरफ़ भी हो सकता है जिनकी शिनाख़्त एक मसला बन सकती है।शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ने जब अपनी किताब“नए अफ़साना निगारों के नाम” मा'नून की तो कई अफ़्साना निगार जो काफ़ी पुराने थे इस इंतिसाब की ख़ातिर नए बन गए (हालाँकि अदब में दल बदली होती नहीं है) एक नौजवान ने तो हर किसी से पूछना शुरू कर दिया कि क्या आपने फ़ारूक़ी साहब की वो किताब “अफ़साने की हिमायत में” पढ़ी है जिसका इंतिसाब मेरे नाम है। एक और नौजवान चार क़दम और आगे निकल गए और फ़रमाया कि अब जब कि मेरे नाम ये किताब मा'नून ही कर दी गई है तो मैं भी अफ़साने लिखने पर मजबूर हो गया हूँ। किसी दिन लिख डालूंगा क्योंकि प्लाट की ज़रूरत तो है ही नहीं।
इसी तरह बलराज कोमल ने अपनी “निज़ाद-ए-संग” बिछड़े हुए दोस्तों के नाम मा'नून की है और आजकल बिछड़े हुए दोस्तों की “ता'दाद-ए-जारिया” दोस्तों से कुछ ज़्यादा ही है। शिनाख़्त दोनों की मुश्किल है। यूँ भी अब दोस्त एक ही जगह रहते हैं लेकिन बिछड़े रहते हैं। ये ख़ामोश अदबी मअ'र्का होता है।
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ ने ज़ौक़-ए-सफ़र का इंतिसाब इस तरह किया है, “मेरे वो दोस्त जिन्हें मेरी शायरी पसंद है अब इस बोझ को संभाल लें। उन्हीं के नाम ये किताब मा'नून करता हूँ।” इस इंतिसाब में भी शिनाख़्त मुश्किल है। कोई आगे बढ़कर नहीं कहता कि ये किताब मेरे नाम है।
कर्नल मुहम्मद ख़ाँ ने “ब-जंग-ए-आमद” के इंतिसाब में न सिर्फ़ ये कि अपनी वर्दी से अपनी बे-पनाह मोहब्बत का मुज़ाहिरा किया है बल्कि अ'मला-ए-फ़ौज के भी एक मख़सूस तब्क़े से अपनी दिलचस्पी का ऐ'लान किया है। वो अपने इंतिसाब में कहते हैं, “उन तमाम लेफ़्टिनेन्टों के नाम जो कभी थे आज हैं या आइन्दा होंगे.” मुसन्निफ़ की ज़हानत और तबाई ने अपने इंतिसाबियों की ता'दाद को ला-महदूद कर दिया है, उनका तो असर हमेशा बरक़रार रहेगा। कर्नल मोहम्मद ख़ाँ जैसे ज़हीन शख़्स को फ़ौज में जाने की क्या ज़रूरत थी वो तो किसी मा'क़ूल जगह भी जा सकते थे।
तजरीदी इंतिसाब भी देखने में आते हैं। ये ख़ाल-ख़ाल हैं लेकिन हैं ज़रूर। सबसे पहला तजरीदी इंतिसाब ग़ालिबन 1968 ई. में किया गया था जब सुरेंदर प्रकाश की किताब “दूसरे आदमी का ड्राइंग रूम” शाए हुई थी। ये इंतिसाब था उन तस्वीरों के नाम जो इज़हार के ड्राइंगरूम में आवेज़ां हैं। ज़ाहिर है कि यहाँ ‘इज़हार ’किसी शख़्स का नाम नहीं है। शख़्स का नाम होता तो जली हुरूफ़ में लिखा जाता और एक फ़ुटनोट के ज़रिए वज़ाहत की जाती है कि ये कौन साहब हैं। ये भूला बिसरा इंतिसाब असल में यूँ याद आ गया कि 1980 ई. में ग़यास मतीन ने अपने मजमूआ'-ए-कलाम ज़ीना-ज़ीना राख का इंतिसाब भी जदीद इज़हार के नाम किया है। अव़्वल-उज़-ज़िक्र इंतिसाब यक़ीनन बेहतर है क्योंकि ज़्यादा पेचीदा है।
कर्रार नूरी के मजमूआ-ए-कलाम “मेरी ग़ज़ल” का इंतिसाब “इंसानी इर्तिक़ा” के नाम किया गया है, लेकिन उसे ज़्यादा से ज़्यादा नीम तजरीदी इंतिसाब का नाम दिया जा सकता है। इसमें इबहाम कम है, इस इंतिसाब से ये बात ज़रूर सामने आई है कि ग़ज़ल का इंसानी इर्तिक़ा से क़रीबी ता'ल्लुक़ है।
कृश्न चंद्र ने अपनी एक तस्नीफ़ का इंतिसाब उस कुत्ते के के नाम किया है जिसने उन्हें मथुरा में काट खाया था, ये इंतिसाब तजरीदी तो नहीं लेकिन तफ़रीही ज़रूर है और कहा नहीं जा सकता कि इस इंतिसाब से कितने लोगों की हक़ तलफ़ी हुई है। वो कुत्ता तो बहरहाल बे-हद संजीदा हो गया होगा। शौकत थानवी के भी एक इंतिसाब को तफ़रीही इंतिसाब का नाम दिया जा सकता है क्योंकि ये इंतिसाब ख़ुद मुसन्निफ़ के अपने नाम है। “अक़रबा परवरी के इस दौर में अपने नाम।” तफ़रीह का उंसूर तो इस इंतिसाब में है ही लेकिन सच बात ये है कि किताब किसी और के नाम मा'नून की भी नहीं जा सकती थी। किताब है “बेगम साहिबा।”
फ़िक्र तौंसवी के भी एक इंतिसाब पर तफ़रीही इंतिसाब का इतलाक़ हो सकता है लेकिन गुमान ग़ालिब ये है कि फ़िक्र तौंसवी ने सच कहा होगा। वो मज़ाह निगार हैं इसलिए लोग उसे तफ़रीही इंतिसाब समझे। इंतिसाब है, “ख़ुदा के नाम जो मुझे दुनिया में भेज कर शर्मिंदा है।” किताब का नाम भी उन्होंने रखा तो रखा “बदनाम किताब।” सच कहने की कोई हद है या नहीं!
बाक़ी के इंतिसाब जो ता'दाद में ज़्यादा हैं, ख़ालिस शख़्सी नौइयत के हैं। ये वालिदैन के नाम हैं या बेटे-बेटीयों, भाई-बहनों और दूसरे अ'ज़ीज़-व-अ' क़ारिब के नाम।लेकिन इनमें अक्सरियत बीवियों के नाम इंतिसाबों की है और होनी भी चाहिए। अव़्वल ख़ुवेश की बिना पर नहीं। बल्कि इसलिए के अदब की तख़्लीक़ में जो भी वक़्त सर्फ़ होता है वो चुराया हुआ वक़्त होता है और अगर इस चोरी पर बीवियाँ तहदीद आएद कर दें तो आधी से ज़्यादा किताबें छपनी बंद हो जाएँ। अंग्रेज़ी की एक किताब का इंतिसाब अलबत्ता कुछ इस तरह का था,“अपनी बीवी के नाम जो इस किताब की इशाअ'त में अगर मेरा हाथ न बटातीं तो ये किताब आज से 5 साल पहले छप जाती।”
बीवियों के नाम एक से एक ख़ूब-सूरत इंतिसाब हमने देखे हैं। इस इंतिसाब के साथ कोई ख़ूबसूरत फ़िक़्रा लिखा होता है या कोई बोलता हुआ मिस्रा जिसमें ईजाब-व-क़ुबूल की महक के अ'लावा और बहुत सी नाक़ाबिल-ए-बयान चीज़ें होती हैं। जमीलुद्दीन आ'ली ने अपने सफ़र नामे का इंतिसाब इस तरह किया है;
“अपनी घर वाली...तैयबा बानो के नाम
आ'ली तेरा भेद क्या है, हर दोहे पे बल खाए
मैं जानूँ तेरे पापी मन को घर वाली याद आए
क़यास कहता है और ब-आवाज़ बुलंद कहता है कि पापी मन, इससे पहले उर्दू में सिर्फ़ डाक्टर इक़बाल के हाँ इस्तेमाल हुआ है। जमीलुद्दीन आ'ली का ये इंतिसाब, इंतिसाब निगारी की अच्छी मिसाल है और वो इसलिए कि शायर ने ख़ास इंतिसाब के लिए एक ताज़ा शे'र कहा वर्ना अक्सर शो'रा को अपना पहले का कहा हुआ शे'र या मिस्रा नज़्र करते हुए देखा गया है। शरीक-ए-हयात (ख़वातीन) यक़ीनन ताज़ा शे'र की मुस्तहिक़ होती हैं। ये सफ़र नामा दो हिस्सों में है लेकिन इसका दूसरा निस्फ़ भी ,निस्फ़-ए-बेहतर ही के नाम है।
“फिर अपनी घर वाली के नाम। कम तनख़्वाह और पाँच छोटे-छोटे बच्चों के साथ उन्होंने वो रोज़-व-शब अकेले गुज़ारे जो मैंने सैर-व-तफ़रीह में ख़र्च किए। अगर वो ऐसी न होतीं तो मैं भी ऐसा न होता।” इस आख़िरी फ़िक़्रे का मतलब हरगिज़-हरगिज़ ये नहीं हो सकता कि अगर वो ऐसी न होतीं तो मैं कभी इतने लंबे सफ़र पर न जाता। हम सोचते हैं ऐसा ख़याल हमारे ज़ेह्न में आया कैसे।
इंतिसाब में शे'र और मिस्रे मौक़ा-व-महल की चीज़ मा'लूम होते हैं(यहाँ महल से मुराद वही है जिसके नाम किताब मा'नून की जाती है) इंतिसाब कुर्सी नशीनी है तो शे'र गुल पोशी।
क़ैसरुलजा'फ़री ने अपने मजमूआ-ए-कलाम “संग-ए-आशना” के इंतिसाब में भी ख़ुद अपना शे'र इस्तेमाल किया है। अपनी “जन्नत” के नाम
जो ख़्वाब में देखूँगा तुझको भी दिखाऊँगा
अब तेरा मुक़द्दर है सच्चे हों कि झूटे हों
इंतिसाब के लिए खासतौर पर शे'र कहने का फ़ाएदा ये होता है कि शायर के कलाम में एक शे'र का इज़ाफ़ा हो जाता है।
शरीक-ए-हयात के नाम इंतिसाब करते वक़्त बा'ज़ सूरतों में एहतिराम भी मल्हूज़ रखना पड़ता है। इस मुआ'मले में मुश्ताक़ यूसुफ़ी सबसे बाज़ी ले गए और वो यूँ कि उनकी किताब का नाम ही ख़ाकम ब-दहन है। इसलिए उनके इंतिसाब का ज़िक्र बस इसी तरह किया जा सकता है कि “ख़ाकम ब-दहन और उस फ़ातिमा के नाम...मेरे नज़रिए की तस्दीक़ कि ज़राफ़त और शराफ़त तमाम बहनें हैं, उनके एक और इंतिसाब से होती है।
फ़ज़ल हुसैन और मसर्रत अली सिद्दीक़ी के नाम।
अच्छा हूँ या बुरा हूँ पर यार हूँ तुम्हारा।(ज़र-ए-गुज़श्त)
पता नहीं ये मिस्रा किस शायर का है लेकिन शो'रा के कुछ मिस्रे और अशआ'र इंतिसाब के लिए बहुत मौज़ूँ और कारगर साबित होते हैं और इंतिसाब में कुछ इस तरह चस्पाँ होते हैं गोया इसी ग़रज़ के लिए कहे गए हों। बरस हा बरस गुज़रने पर भी उनकी चमक-दमक में कोई फ़र्क़ नहीं आता बल्कि रंग खिलता जाए है जितना कि उड़ता जाए है। बेदिल ने ख़ुद अपने दीवान का इंतिसाब किया हो या न किया हो लेकिन उनका एक मिस्रा बहर हाल इंतिसाब के लिए काफ़ी मक़बूल हुआ है। सरदार जा'फ़री ने एक ख़्वाब और के इंतिसाब में उन्ही के मिस्रे से अपने इंतिसाब को मुकम्मल किया है;
कि गुल ब-दस्त-ए-तू अज़ शाख़-ए-ताज़ा तर मांद
और ज़र्ब-ए-कलीम के इंतिसाब में डाक्टर इक़बाल ने भी यही मिस्रा बल्कि बेदिल के तीन शे'र लिखे हैं जिनमें ये शे'र भी है;
बगीर ईं हमा सरमाय-ए-बहार अज़ मन
कि गुल ब-दस्त-ए-तू अज़ शाख़ ताज़ा तर मांद
फ़ुज़ैल जाफ़री ने “रंग-ए-शिकस्ता” के इंतिसाब की मंज़िल ख़ुसरो के शे'र की मदद से तय की है। उसकी एक वजह शायद यही है कि उनका मजमूआ-ए-कलाम 1980 में छपा था। जब हिंदुस्तान में ख़ुसरो शनासी का दौर दौरा था (ख़ुसरो को इससे पहले कभी इतना नहीं समझा गया) शे'र ये है;
ब-ख़ुदा कि रशकम आएद बद-व-चशम-ए-रौशन ख़ुद
कि नज़र दरीग़ बाशद बचनाँ लतीफ़ रवे
वाक़िया ये है कि बा'ज़ शे'र ब-वक़्त-ए-इंतिसाब नागहानी तौर पर “अ'तिया-ए-ग़ैबी की शक्ल में मिल जाते हैं।ये शे'र भी उन्हीं में से एक है।(इसे अ'तिया-ए-हाज़िर भी कहा जा सकता है)
उर्दू के कुछ शे'र भी इंतिसाब के लिए मौज़ूं क़रार पाए हैं और मुसन्निफ़ का हाफ़िज़ा अगर साथ दे तो एक से एक हस्ब-ए-हाल शे'र हाथ आ सकता है। अ'ज़ीज़ कैसी ने “आईना दर आईना”का इंतिसाब “मुख़तार मन” के नाम किया है और मीर के एक शे'र का इंतिख़ाब किया है;
आँख हो तो आईना-ए-ख़ाना है दहर
मुँह नज़र आते हैं दीवारों के बीच
आईना-ए-ख़ाना के लफ़्ज़ से इंतिसाब में कोई सनअ'त शे'री भी आ गई है जिसका नाम इस वक़्त याद नहीं आ रहा है। अलबत्ता “मुख़्तार मन” के नाम से मीर का वही मिस्रा ज़ेह्न में आ रहा है जिसमें कहा गया है;
नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोह्मत है मुख़तार की
अगर कोई मुसन्निफ़ अपनी तस्नीफ़ किसी शायर के नाम मा'नून करता है तो ऐसे मौक़ों पर किसी दूसरे शायर के मिस्रों के इस्तेमाल करने से बेहतर ये होता है कि ख़ुद साहिब-ए-इंतिसाब के किसी शे'र या मिस्रे से इस्तेफ़ादा किया जाए। राजेंदर सिंह बेदी ने एक चादर मैली सी, के इंतिसाब में इस नुक़्ते को पेशे नज़र रखा है और मजरूह सुलतानपुरी के नाम किताब मा'नून करते वक़्त उन्हीं का एक मिस्रा रक़म किया है (रक़म ब-मा'नी कोट)
अपना लहू भी सुर्ख़ी-ए-शाम-व-सहर में है
इस इंतिसाब में क़ुरबत और सहूलत दोनों अ'नासिर मौजूद हैं। ग़ालिब के अलफ़ाज़ में इसे तकरार-ए-दोस्त कहा जाता है लेकिन वो तकरार नहीं जो बहस-व-तकरार की सूरत इख़्तियार कर लेती है।
‘इंतिख़ाब-ए-वज्द’ के इंतिसाब में इक़बाल का मिस्रा “दिलबरी बाक़ाहरी पैग़ंबरी अस्त” ये इंतिसाब हुसैन के नाम है और हुसैन मुसव्विर हैं। अब इंतिसाब में कोई तस्वीर तो नहीं रखी जा सकती, शायर ने अपना कोई शे'र यहाँ इसलिए नहीं लिखा कि हुसैन के नाम तो एक पूरी नज़्म इसी इंतिख़ाब में मौजूद है। उसे ताकीदी इंतिसाब कहा जा सकता है। इसे पीना ही पड़ता है।
इंतिसाब के लिए किसी ज़ी रूह फ़र्द की मौजूदगी या'नी वजूद ज़रूरी नहीं है। जैसे-जैसे दिन गुज़रते जा रहे हैं, इंतिसाब में सहूलतें पैदा होती जा रही हैं और इंतिसाब की असली ख़ूबी यही है कि इसे जिस तरह चाहे बरता जाए। अ'तीक़ सिद्दीक़ी ने अपनी किताब “यादों के साए” का इंतिसाब उन दिनों के नाम किया है जो क़ाहिरा में गुज़रे। इसलिए इंतिसाब किसी अह्ल-ए-कमाल या किसी ख़ुश ख़िसाल या अह्ल-व-अ'याल ही के नाम नहीं माह-व-साल के नाम भी हो सकता है। इसमें किसी को ए'तिराज़ या शिकायत की गुंजाइश नहीं है। बा'ज़ इंतिसाब तो वसीयत नामे मा'लूम होते हैं। ऐसे इंतिसाब में हर किसी का हिस्सा होता है।
मज़मून का इंतिसाब होता नहीं है, वर्ना इस मज़मून का इंतिसाब सिर्फ़ उसी शख़्स के नाम हो सकता था जिसने इंतिसाब निगारी का संग-ए-बुनियाद रखा। इस वक़्त चूँकि अदब में कई कार-आमद बहसें छिड़ी हुई हैं इसलिए ऐसे क्राइसेस के मौके़ पर कोई नई बहस छेड़ना मुनासिब नहीं मा'लूम होता। फ़िलहाल उस शख़्स का नाम(जो सिर्फ़ एक हर्फ़-ए-तहज्जी की शक्ल में है)अपनी ही हद तक रखना चाहिए।
पस नविश्त: कुछ किताबें ऐसी भी हैं जो ख़ातून अदीबों ने शौहरों के नाम मा'नून की हैं लेकिन उनकी ता'दाद कम है या'नी किताबों की ता'दाद न कि शौहरों की। इस तरह के इंतिसाब से एक शरीफ़-उल-तबा और अच्छा ख़ासा शौहर अफ़साने और शे'र वग़ैरा पढ़ने की आ'दत में मुब्तिला होकर चंद दिनों बाद घर से और इसके बाद उस आ'लम-ए-फ़ानी से दिल बर्दाश्ता हो जाता है और उसकी ज़बान पर बस यही मिस्रा रहता है, उकता गया हूँ यारब दुनिया की महफ़िलों से।
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