मैं एक शायर हूँ
साहब में एक शायर हूँ छपा हुआ दीवान तो ख़ैर कोई नहीं है। मगर कलाम ख़ुदा के फ़ज़ल से इतना मौजूद है कि अगर मैं मुरत्तब करने बैठूँ तो एक छोड़ चार-पाँच दीवान मुरत्तब कर ही सकता हूँ। अपनी शायरी के मुताल्लिक़ अब मैं ख़ुद क्या अर्ज़ करूँ अलबत्ता मुशायरों में जानेवाले हज़रात अगर किसी मुशायरे में मेरा कलाम सुनन चुके हैं तो वो बताएँगे कि मेरे मुताल्लिक़ आम राय क्या है। अलबत्ता इतना मैं भी जानता हूँ कि जब मुशायरे में मेरे नाम का ऐलान होता है, सामईन बेक़ाबू हो कर उस वक़्त तक तालियाँ बजाते हैं जब तक मैं पढ़ने के लिए स्टेज पर न आजाऊँ। और जब तक मैं पढ़ता हूँ दाद के शोर से मुशायरा गूँजता ही रहता है। मुझको अच्छी तरह याद है कि एक मर्तबा मेरा एक शे’र आठ मर्तबा मुझसे पढ़वाया गया था और फिर भी सामईन ने यही कहा था कि सेरी नहीं हुई। ये सब कुछ मैं ख़ुद-सताई के तौर पर अर्ज़ नहीं कर रहा हूँ। मेरा क़ौल ये है कि मन आनम कि मन आनम। मैं तो ये सब कुछ इसलिए अर्ज़ कर रहा हूँ कि अपने मुताल्लिक़ थोड़ा बहुत अंदाज़ा क़रादूं कि मैं उन शायरों में से नहीं हूँ जो महज़ एक तख़ल्लुस पाल कर बैठ रहते हैं और ज़िंदगीभर में बस एक-आध ग़ज़ल कहने के गुनाहगार होते हैं। हज़्ज़त, यहाँ तो बक़ौल शख़्से,
उम्र गुज़री है इसी दश्त की सय्याही में
अभी होश सँभाला ही था कि घर में शे’र-ओ-शायरी के चर्चे सुने। मुशायरों के खेल खेले और आख़िर पंद्रह बरस की उम्र हो गई कि पहली ग़ज़ल इस शान से मुशायरे में पढ़ी है कि घर पर बड़ी बूढ़ियों ने नज़र उतारी और बाहर इस फ़न के बड़े बड़े मश्शाकों ने एतराफ़ किया कि साहबज़ादे ने पालने ही में पैर दिखाए हैं। मतलब ये कि शायरी की इब्तिदा उसी उम्र में हुई जिसके मुताल्लिक़ शायर कह गया है, कि
बरस पंद्रह या कि सोला का सिन
जवानी की रातें उमंगों के दिन
दाद जो मिली तो हौसले और बढ़ गए। अब दिन रात बस एक ही मशग़ला है ग़ज़लगोई और ग़ज़लसराई। जिस मुशायरे में पहुँच गए बस झंडे गाड़ आए। अपने सामने किसी का चराग़ न जलने दिया। जिस तरह, में ग़ज़ल कह दी उसको अपना लिया। ख़ास शोहरत हासिल की गिरह लगाने में। क़िस्सा कोताह कुछ ही दिनों में मुक़ामी मुशायरों के अलावा दूर दूर से बुलावे आने लगे। आज यहाँ मुशायरा है तो कल वहाँ, आज इस शहर में कल उस शहर में। ये सच है कि इस तरह तालीम ज़रूर नाक़िस रह गई मगर शायर होना मुसल्लम हो गया। आवाज़ में क़ियामत का सोज़ था और धुन बनाने का सलीक़ा ख़ुदादाद था, फिर कलाम की लताफ़तें।
मुख़्तसर ये कि सब कुछ मिल-जुल कर मुशायरा लूटने में मदद देता था। एक नुमाइश के मुशायरे में तो तमग़ा तक दिया गया था। अख़बारों में तस्वीरें छापी गईं। रिसालों के एडिटरों ने बड़ी मिन्नत के ख़ुतूत लिखे कि मैं अपना ताज़ा कलाम भेजूँ। बेशुमार रिसाले और अख़बार मुफ़्त आने लगे और उनमें मेरा कलाम बड़े इम्तियाज़ के साथ छपने लगा। बड़े बड़े सालाना नंबरों में सिर्फ़ मेरी ग़ज़ल को जली हुरूफ़ में और ख़ुशनुमा हाशिया के अंदर एक पूरे सफ़े में छापा गया। मुख़्तसर ये कि आपकी दुआ से शोहरत और मक़बूलियत की कोई कमी न रही। यहाँ तक कि कुछ ही दिनों के बाद मश्क़ इस क़दर बढ़ गई और कलाम में कुछ ख़ुदा के फ़ज़ल से ऐसी पुख़्तगी पैदा हो गई कि बहुत से नौजवान अपनी अपनी ग़ज़लें इस्लाह के लिए लाने लगे और अब ज़रूरत इसकी पेश आई कि ज़रा इस फ़न का मुताला भी कर लिया जाये कि ये फ़ाएलातुन फ़ाइलात आख़िर क्या बला होती है।
ये सच है कि पैदाइशी और फ़ित्री शायरों के लिए इन चीज़ों की ज़रूरत नहीं हुआ करती। मगर शागिर्दों के समझाने और उस्ताद बनने के लिए मालूमात हासिल होना ज़रूरी होता है। बहरहाल इस सिलसिले में जितनी किताबें देखीं उतनी ही तबीयत उलझी कि ये है क्या ख़ुराफ़ात। आख़िर एक किताबों का सेट मिल गया। शायरी की पहली किताब, दूसरी किताब, तीसरी किताब। इन किताबों को सिलसिलेवार पढ़ने से ख़ुद तो कुछ समझ में न आया। मगर दूसरों को समझाने का मवाद ज़रूर मिल गया और अब शागिर्दों की ग़ज़लों पर इस्लाह का सिलसिला शुरू हो गया। उन शागिर्दों का मुशायरों में चमकना था कि शागिर्दों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी तरक़्क़ी करने लगी। यहाँ तक कि आलम ये हो गया कि हर मुशायरे के दिन दर्जनों शागिर्द हलक़ा बाँधे बैठे हैं। और मैं उनकी ग़ज़ल लिखवा रहा हूँ कि ये मतला तुम लिख लो और ये शे’र तुम लिख लो। शागिर्दों से और कोई फ़ायदा हो या न हो, मगर इतना ज़रूर होता है कि ख़ुद अपने को अव़्वल तो असातिज़ा की सफ़ में जगह मिलती है। दूसरे उस्ताद की ग़ज़ल पर ये शागिर्द दाद का वो शोर मचाते हैं कि मुशायरा ही सर पर उठा लेते हैं और अगर कभी कोई बदख़्वाह एतराज़ कर बैठे तो यही शागिर्द मरने मारने पर तैयार होजाते हैं। गोया उस्ताद की अच्छी ख़ासी ताक़त होते हैं ये शागिर्द।
घर में अल्लाह के फ़ज़ल-ओ-करम से खाने पीने की कोई कमी न थी। वसीक़ा बंधा हुआ था और बाप दादा भी इतना छोड़ गए थे कि चार को खिला कर ख़ा सकें। लिहाज़ा फ़िक्र-ए-मआश का तो कोई ज़िक्र ही नहीं। ले दे के बस फ़िक्र-ए-सुख़न ही थी, शागिर्दों को भी कभी किसी ख़िदमत का कोई मौक़ा न दिया, बल्कि उन ही की जो ख़िदमत हो सकी वो की। यानी मुफ़्त की ग़ज़लों के अलावा अक्सर मुफ़्त की रोटियाँ भी मिल जाती थीं। अगर कभी कोई शागिर्द रसावल या आचार या अपने गाँव से गुड़ वग़ैरा भी ले आया तो यही फ़िक्र रहती थी कि उसका बदला क्योंकर उतारा जाये। एक मर्तबा एक तंबोली शागिर्द ने पानों की ढोली की क़ीमत लेने से इनकार कर दिया। नतीजा ये कि अगले मुशायरे में न सिर्फ़ ये कि निहायत ज़ोरदार ग़ज़ल कह कर उनको दी बल्कि उनका रेल टिकट भी ख़ुद ही ख़रीदा, अर्ज़ तो किया कि इस शायरी को तिजारत या रोज़गार की सूरत को कभी दी ही नहीं और न इसकी ज़रूरत पेश आई कभी।
इन ही हालात में ज़िंदगी बड़े मज़े में बसर हो रही थी कि एक दम से वो इन्क़लाब आगया जिसने सारी दुनिया ज़ेर-ओ-ज़बर करके रख दी। अपना सब कुछ छोड़कर इस तरफ़ आजाना पड़ा। घर गया, गृहस्ती गई, वसीक़ा गया। मुख़्तसर ये कि आप “वाहिद हाज़िर” रह गए और बाक़ी सब कुछ “जमा ग़ायब” और तो और खाने पीने के लाले पड़ गए। दो दो रोटियों का सहारा तक न रहा। दिल में कहा, जान है तो जहान है।
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या
मगर आख़िर कब तक न घबराते। परदेस में न कोई जान न पहचान। एक नफ़सा-नफ़सी का आलम। सबको अपनी अपनी पड़ी है। मुहाजिरीन में कुछ जानी-पहचानी शक्लें भी नज़र आईं मगर सबको अपनी अपनी फ़िक्र, और यहाँ ये आलम कि रोज़ बरोज़ हालत पतली होती जा रही है। सर छुपाने को तो ख़ैर एक आग लगी हुई इमारत के दो पसमांदा कमरे मिल गए। मगर पेट की आग बुझाने की सबील नज़र न आती थी। आख़िर ख़ानदानी वज़ा के ख़िलाफ़ रोज़गार की तलाश में निकलना पड़ा। याद आया कि इसी शहर से एक रिसाला बड़े आब-ओ-ताब से निकला करता था, जिसके एक सालनामे में अंगूर की एक ख़ुशनुमा बेल के हाशिया के अंदर अपनी एक ग़ज़ल छपी थी और एडिटर साहब ने उस पर एक नोट भी दिया था कि ये हमारी ख़ुशक़िस्मती है कि लिसान उलज़मन हज़रत क़ैस सोंडवी ने अपने रशहात से हमारे सालनामा को नवाज़ा है, उम्मीद है कि हज़रत क़ैस आइन्दा भी हमको इस फ़ख़्र का मौक़ा अता फ़रमाते रहेंगे। चुनांचे उसी रिसाले के दफ़्तर का रुख़ किया और पूछते गछते आख़िर उस रिसाले के दफ़्तर पहुँच ही गए। एडिटर साहब से अपना तआरुफ़ कराया और वो हस्ब-ए-तवक़्क़ो दौड़े लेमोनेड की बोतल लेकर सिगरेट की डिबिया खोल कर रख दी। दीयासलाई ख़ुद जलाई और देर तक हमारी हिज्रत पर मुसर्रत का इज़हार करते रहे कि साहब बहुत अच्छा हुआ जो आप तशरीफ़ ले आए। थोड़ी देर के बाद मौक़ा देखकर और उनको बेहद ख़लीक़ पाकर अर्ज़ किया,
“भाई जान आ तो गया हूँ मगर वाज़ेह रहे कि सब कुछ छोड़कर आया हूँ और ख़ानदानी वज़ा के ख़िलाफ़ अब इस पर भी आमादा हूँ कि कहीं मुलाज़मत इख़्तियार करूँ।”
वो निहायत इत्मीनान से बोले, “मुलाज़मत बहरहाल अब तो आप आए हैं कुछ न कुछ हो ही जाएगा। आपके ऐसे क़ाबिल आदमियों के लिए मुलाज़मत की कहाँ कमी हो सकती है। बहरहाल आपने ये फ़ैसला तो कर ही लिया होगा कि आप किस शोबा में मुलाज़मत इख़्तियार करना पसंद करेंगे।”
अर्ज़ किया, “भाई, अपना शोबा तो ज़ाहिर है कि ज़िंदगीभर सिवाए अदबी ख़िदमत के और कोई काम ही नहीं किया। फ़र्क़ सिर्फ़ ये है कि अब तक अदबी ख़िदमत को ज़रिया आमदनी बनाने का ख़्याल भी न आया था मगर अब हालात ने मजबूर कर दिया है।”
वो बोले, “ये तो दुरुस्त है मगर अदबी सिलसिले में मुलाज़मत का क्या सवाल हो सकता है। आपके ख़्याल में कौन सा महकमा है ऐसा जो आपके ऐसे अदीबों के लिए जगह निकाल सकेगा। कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आरहा है।”
अर्ज़ किया, “आप महकमों पर न डालिए। मेरे लिए तो इतना ही काफ़ी है कि मसलन आपका इदारा है। इसी में कोई ख़िदमत मेरे सपुर्द कर दी जाये।”
एडिटर साहब ने दम बख़ुद हो जाने के बाद फ़रमाया, “क़िबला, बात असल में ये है कि ज़रूरत तो मुझको भी है, अपने यहाँ चंद लोगों की, मगर माफ़ कीजिएगा। मैंने आज तक सिवाए ग़ज़लों के और कोई चीज़ आपकी नहीं देखी है।”
अर्ज़ किया, “और क्या चीज़ आप देखना चाहते हैं। शजरा मौजूद है, वो मैं दिखा सकता हूँ। ख़ुद मुझको आप देख ही रहे हैं और कोई चीज़ से मतलब क्या है। जनाब ज़रा वज़ाहत फ़रमाएं तो कुछ अर्ज़ करूँ।”
वो बोले, “मेरा मतलब ये है कि नस्र ग़ालिबन आपने कभी नहीं लिखी, न आपका कभी कोई अफ़साना पढ़ा है। न कोई तन्क़ीदी मज़मून देखा है, न कोई तहक़ीक़ी मक़ाला।”
अर्ज़ किया, जनाब-ए-वाला, ये आपने दुरुस्त फ़रमाया और ये वाक़िया भी है अब तक इस क़िस्म की कोई चीज़ लिखने का इत्तफ़ाक़ नहीं हुआ है।”
उनको बहाना मिल गया। आँखें घुमाकर बोले, “अब आप ख़ुद ग़ौर फ़रमाइए कि किसी अदबी रिसाले के इदारा-ए-तहरीर में आपको क्योंकर शामिल किया जा सकता है। आपकी शायराना सलाहियत मुसल्लम है मगर उसकी हमको ज़रूरत नहीं।”
ऐसे कोर जौक़ से कुछ और कहना ही बेकार था। इधर उधर की गुफ़्तगू करके चले आए और तै कर लिया कि अब उधर का रुख़ भी न करेंगे। मगर उधर का न सही किसी और तरफ़ का रुख़ तो करना ही था वर्ना यहाँ तो फ़ाक़ों की नौबत भी दूर न थी। काफ़ी दिमाग़ सोज़ी के बाद एक तरकीब ज़ेहन में आई कि अगर कोई पब्लिशर दीवान छापने पर तैयार हो जाए तो क्या मुज़ाइक़ा है। कुछ न कुछ हक़-ए-तस्नीफ़ भी मिल जाएगा। दूसरे इस परदेस में अपने तआरुफ़ का एक ज़रिया इस दीवान की सूरत में निकल आएगा। बिल्कुल इल्हामी तौर पर दीवान का नाम ज़ेहन पर नाज़िल हुआ। “लैला-ए-सुख़न” क़ैस की मुनासबत से इससे बेहतर नाम और क्या हो सकता था। दूसरे ही दिन यहाँ के एक-आध पब्लिशर्ज़ से मिलने के लिए रवाना हो गए। शहर के सबसे बड़े पब्लिशर का नाम और पता पहले ही पूछ रखा था। उनकी दुकान पर पहुँच कर उनसे शरफ़-ए-नियाज़ हासिल किया और आख़िर अपना तआरुफ़ ख़ुद कराया।
“नाम से तो आप वाक़िफ़ ही होंगे। इस ख़ाकसार को क़ैस सोंडवी कहते हैं।”
वो हज़रत भी अजीब चीज़ निकले। कहने लगे, “फिर।”
ग़ुस्सा तो बहुत आया इस “फिर” पर मगर क्या करते वक़्त आ पड़ा था। लिहाज़ा अपने आपको सँभाल कर कहा, “मैंने आपके हाँ की मतबूआ अक्सर किताबें देखी हैं और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि तबाअत का जो सलीक़ा आपको हासिल है वो किसी और पब्लिशर के हिस्से में नहीं आया है और मैंने तै कर लिया है कि मैं अपना दीवान अगर किसी को दे सकता हूँ तो वो सिर्फ़ आपको। क्या नाम है उस किताब का जो अभी आपने शाया की है।”
वो डकारते हुए बोले, “कलीद-ए-मुर्ग़ीख़ाना।”
अर्ज़ किया, “जी हाँ, कलीद-ए-मुर्ग़ीख़ाना। क्या कहना है उस किताब का। किताबत है तो सुब्हान-अल्लाह। तबाअत है तो माशा अल्लाह। फिर तर्तीब और सजावट। दुल्हन बनाकर रख दिया है आपने किताब को। मैंने अपने दीवान का नाम तजवीज़ किया है, लैला-ए-सुख़न, जिसका तख़ल्लुस क़ैस हुआ उसके दीवान का कितना मुनासिब नाम है ये।”
उन्होंने बराह-ए-रास्त सवाल किया, “तो आप छपवाना चाहते हैं अपना दीवान।”
अर्ज़ किया, “जी हाँ इरादा तो कुछ ऐसा ही है। मैंने अपने चार दवावीन में से इंतख़ाब करके एक दीवान मुरत्तब किया है। गोया अपनी कायनात शे’री का जौहर निचोड़ लिया है और ये तै हुआ है कि छपवाऊँगा आप ही के ज़रिए।”
उन्होंने कहा, “अच्छा तो हम छाप देंगे। बेहतर से बेहतर लिखाई छपाई होगी। काग़ज़ वही होगा जो कलीद-ए-मुर्ग़ीख़ाना का है। हम आपको अभी हिसाब लगाकर बताए देते हैं कि आपको क्या ख़र्च करना पड़ेगा।”
हमने चौंक कर कहा, “हमको क्या ख़र्च करना पड़ेगा। ग़ालिबन आप मेरा मतलब नहीं समझे।”
वो हमसे ज़्यादा मुतहय्यर हो कर बोले, “तो क्या मतलब है आपका?”
साफ़ साफ़ अर्ज़ किया, “मतलब ये है कि आप ले लीजिए दीवान और छापिए, हक़-ए-तस्नीफ़ तै हो जाए। जो मुनासिब समझिए दे दीजिए।”
उन्होंने एक क़हक़हा लगाया, गोया ये कोई बहुत दिलचस्प लतीफ़ा सुना था और अजीब तमस्खुर से बोले, “आप गोया ये चाहते हैं कि हम आपका दीवान आपसे ख़रीद कर ख़ुद बेचने के लिए छापें। आजकल भला कौन किसी का दीवान छापता है। किसके पैसे फ़ालतू हैं कि वो दीमक की ज़ियाफ़त के लिए दीवान छाप कर अपने यहाँ ढेर करले। पैसा भी ज़ाए करे वक़्त भी बर्बाद करे। मेहनत भी ख़्वाह-मख़ाह की और जगह भी घेरी जाये।”
एक-आध शायर के कलाम के मजमूओं का हवाला दिया जो हाल ही में शाया हुए थे और अर्ज़ किया, “आख़िर ये मजमुए और ये दीवान भी तो छपे हैं।”
ज़ानू पर हाथ मार कर बोले, “ओहो, आप समझे नहीं। जिन शायरों का आपने नाम लिया है, उनकी तो इस वक़्त मांग है। उनके मजमुए तो अगर इस वक़्त हमको भी मिल जाएं तो हम भी सब कुछ छोड़ छाड़ कर छाप दें मगर यहाँ ज़िक्र है आपका।”
अब तो क़ाबू में रहना मुश्किल था। ज़रा तल्ख़ी से अर्ज़ किया, “क्या मतलब आपका? अगर आप मेरे नाम से वाक़िफ़ नहीं हैं और मेरे शायराना मर्तबा को नहीं जानते तो इसमें मेरा तो कोई क़सूर नहीं। ये तो आप ही की कोताही है। वर्ना आपको मालूम होना चाहिए कि मैं एक ख़ास मुक़ाम रखता हूँ, इस दौर के शोअरा में।”
वो साहब अजीब बेहूदगी से मुस्कुराकर बोले, “अजी ये तो सब ही शायर कहते हैं। ख़ैर, इससे क्या मतलब हम माफ़ी चाहते हैं कि हम आपका दीवान नहीं छाप सकते।”
हमने उठते हुए कहा, “कलाम तो ख़ैर मैं ख़ुद आपको छापने के लिए अब नहीं दे सकता मगर किताबों की तिजारत करने आप बैठे हैं तो ज़रा अह्ले इल्म से बात करने का सलीक़ा भी पैदा कीजिए।”
वो हज़रत भी पहलू बदल कर बोले, “अह्ले इल्म जब कोई आता है तो हमारी गुफ़्तगू भी दूसरी क़िस्म की होती है।”
और हमने उस बदतमीज़ी का जवाब देना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझा। दिल ही दिल में खौलते हुए उस दुकान से बाहर आगए, मगर अभी चंद ही क़दम आगे बढ़े होंगे कि चौधरी साहब से मुलाक़ात हो गई। ये चौधरी साहब बड़े असर-ओ-रसूख़ के लोगों में से हैं और मेरे कलाम के दिलदादा हैं, बल्कि नुमाइश के मुशायरे में सदर यही थे और उन ही की तरफ़ से मेरे लिए तमगे का ऐलान हुआ था। हमेशा झूम-झूम कर मेरी ग़ज़लें सुना करते थे और उछल उछल कर दाद दिया करते थे। आज भी दूर ही से देखकर पहचान गए और एक नारा बुलंद किया।
“आख़ाह क़ैस साहब हैं। अरे भई आप कहाँ, भई ख़ूब मुलाक़ात हुई, कब आए?”
अर्ज़ किया, “आए हुए तो दो महीना से ज़्यादा हो चुके हैं।”
हैरत से बोले, “दो महीना से ज़्यादा हो गए और कहीं नज़र भी न आए। मैं तो अक्सर मुशायरों में गया मगर आपको न देखा।”
अर्ज़ किया, “जनाब-ए-वाला, अब शे’र की फ़िक्र से ज़्यादा पेट की फ़िक्र है। वो फ़ारिगुलबाली के ज़माने गए। अब तो सबसे मुक़द्दम है रोज़ी का मिलना। मगर अब आप मिल गए हैं तो सब ही कुछ हो जाएगा।”
और ये कह कर अपनी तमाम दास्तान सुना दी कि किस बेसरो सामानी की हालत में यहाँ तक पहुँचे हैं और अगर जल्द ही मुलाज़मत का कोई सिलसिला न हुआ तो क्या वक़्त आने वाला है हम पर। बड़ी हमदर्दी और ग़ौर से तमाम हालात सुनते रहे और सब कुछ सुनने के बाद फ़रमाया, “अरे भई घबराने की क्या बात है। मुलाज़मत आप को नहीं तो और किस को मिलेगी। मैं ज़िम्मा लेता हूँ इस बात का।”
मुँह-माँगी मुराद मिल गई। जी चाहा कि उस शरीफ़ इंसान के क़दमों पर गिर कर जान देदें। मगर वफ़ूर-ए-जज़्बात में क़दमों के बजाय उनके हाथ अपने हाथ में लेकर दबाते हुए अर्ज़ किया, “मेरा दिल ख़ुद गवाही दे रहा है कि आप मिल गए हैं तो अब मेरी मुश्किलात का ख़ातमा ही समझना चाहिए।”
कहने लगे, “ख़ैर ये तो आपकी बंदा नवाज़ी है। अच्छा क़िबला ये तो फ़रमाइए कि अंग्रेज़ी तालीम कहाँ तक है?”
ऐसे ज़हीन आदमी से इस मुहमल सवाल की उम्मीद न हो सकती थी। ज़ाहिर है कि उन हज़रत ने हमारा अंग्रेज़ी नहीं बल्कि उर्दू का कलाम सुना था। कभी अंग्रेज़ी में बात करते भी न सुना होगा। अलबत्ता कभी कभी सूट पहने ज़रूर देखा होगा और मुम्किन है कि ये ग़लतफ़हमी इसी वजह से पैदा हो गई हो। लिहाज़ा हमने इस ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए अर्ज़ किया, “भाई जान, अंग्रेज़ी से क्या वास्ता, आप तो जानते होंगे ज़िंदगी गुज़री है उर्दू की ख़िदमत में।”
वो बोले, “ताहम कम से कम आप मैट्रिक तो होंगे।”
अर्ज़ किया, “अजी न मैट्रिक न इलेक्ट्रिक। बचपन ही से इस शायरी का ऐसा शौक़ हुआ कि लिखना पढ़ना छोड़ छाड़ बस इसी के हो रहे।”
वो कुछ समझ से गए, “ओह, तो गोया आप अंग्रेज़ी जानते ही नहीं। ये तो बड़ी मुश्किल पैदा कर दी आपने। अब ज़ाहिर है कि आपको कोई बाक़ायदा मुलाज़मत तो मिल ही नहीं सकती। मगर ख़ैर, आप ये कीजिए कि फ़िलहाल तो मेरी एक छोटी सी दुकान है उसके हिसाब किताब की निगरानी फ़रमाइए बैठ कर। इस अरसे में अगर कोई बेहतर जगह मिल गई तो चले जाइएगा। वर्ना मैं ही कुछ न कुछ पेश करता रहूँगा।”
ख़ुदा का हज़ार हज़ार शुक्र-ओ-एहसान है कि उसने कोई सबील बहर सूरत पैदा ही कर दी। सच कहा है किसी ने वो भूका उठाता है मगर भूका सुलाता नहीं है। लीजिए अब हम एक बारौनक बाज़ार में मोज़े, बनियाइन, रूमाल, तेल, कंघा, आईना बेचने एक दुकान पर बैठ गए। सुबह आठ बजे जाकर दुकान खोलना, झाड़ू देना। दिन भर ग्राहकों का ख़ौरमक़दम करना, रूमाल बेचना और रात के नौ बजे दुकान बंद कर देना। एक काम तो ये था और दूसरा काम ये कि दिन भर की बिक्री रजिस्टर पर लिख कर शाम को मीज़ान निकाल लिया करते थे मगर ये दूसरा काम इस क़दर नामाक़ूल साबित हुआ कि कभी कभी तो ज़िंदगी से आजिज़ आजाते थे, कभी तो कैश बुक में हैं दो सौ बासठ रुपये तेरह आने नौ पाई और खाता में मीज़ान कुल है दो सौ तीस रुपये तेराह आने नौ पाई और कुछ समझ में न आता था कि ये कौन साहब बत्तीस रुपये चुपके से कैश बक्स में डाल गए हैं। दूकान के दूसरे मुलाज़िम से पूछ रहे हैं कि भाई तुम ही कुछ याद करो। आख़िर वो इसी राय पर अड़ जाता कि “जब आप अपने दोस्त को ग़ज़ल सुना रहे थे उस वक़्त जितने गाहक आए सबसे दाम लेकर कैश बक्स में तो आपने डाल लिए मगर खाता पर चढ़ाए नहीं।” लीजिए अब खाते के फ़र्ज़ी इंदराज हो रहे हैं। मगर जिस दिन ये होता कि कैश बक्स में से निकलते हैं तीन सौ चौदह रुपये और खाता दिखा रहा है तीन सौ चौवन रुपये तो उस रोज़ तो हाथों के तोते ही उड़ कर रह जाते कि अब ये चालीस रुपये की कमी कहाँ से पूरी हो। दुकान के दूसरे मुलाज़िम ने याद करते हुए कहा,
“मैं समझ गया क़ैस साहब। चालीस रुपये का वो थर्मोस बेचा था और थर्मोस लेकर वो साहब बैठ गए थे आपकी ग़ज़ल सुनने। दूसरों के साथ बड़ी देर तक वाह-वाह करते रहे और फिर एक दम ग़ायब हो गए। देखिए थर्मोस के दाम लिखे हैं।”
खाते में थर्मोस के दाम चालीस रुपये मौजूद और अब हमको भी याद आगया कि हमने दाम तो लिख लिए थे मगर वो बैठ गए थे कलाम सुनने और बड़े सुख़न-फ़हम मालूम हो रहे थे। लिहाज़ा यही ख़्याल था कि जाते वक़्त दे देंगे दाम मगर वो चुपके से निकल गए। बमुश्किल तमाम दूसरे मुलाज़िम से मिल मिलाकर और उसको भी इसी का एक मौक़ा देने का वादा करके खाते के उस इंदराज को मिटाया गया और जान बची। कान पकड़ कर तौबा की कि आइन्दा दुकान पर शे’र-ओ-शायरी का शुग़ल हरगिज़ न होगा और सिवाए दुकानदारी के दूकान पर बैठ कर और कुछ न करेंगे, मगर जिसने भी कहा है सच कहा है कि,
वही होता जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है
देखते क्या हैं कि कैफ़, सैफ़, हैफ़, नूर, तूर, नुशूर सब के सब टोली बनाए हुए चले आरहे हैं और एक दम से आकर हमला आवर हो गए। अब कैसे न बिठाते उनको और जब बैठ कर उनसे ये मालूम हुआ कि मुशायरे से उठ कर वो लोग आरहे हैं तो कैसे न उनसे फ़रमाइश हो मुशायरे की ग़ज़लें सुनाने की। और जब वो ग़ज़लें सुना दें तो कहाँ का है ये अख़लाक़ कि ख़ुद अपनी इसी तरह की ग़ज़ल न सुनाई जाये उनको। बस इतनी सी बात से मुशायरे की सी कैफ़ियत पैदा हो कर रह जाती है। आप जानते हैं कि राहगीर भी अक्सर सुख़न-फ़हम होते हैं। अगर वो कलाम सुनने को ठहर जाएं तो कौन उनसे कह सकता है कि आप चलते फिरते नज़र आएं। रह गए गाहक उनकी बला से मुशायरा हो या कुछ वो तो सनलाइट सोप लेने उस वक़्त भी आएंगे। उनको तो अपने नौज़ाइदा बच्चे के लिए चौसट्टी और बेबी पाउडर उस वक़्त भी दरकार होगा। चुनांचे ये बिल्कुल इत्तफ़ाक़ की बात है कि जिस वक़्त का हम ज़िक्र कर रहे हैं। शोराए कराम के अलावा सामईन भी कुछ ज़्यादा ही जमा हो गए थे। इसलिए कि बर्क़ अपनी ग़ज़ल पढ़ रहे थे और उनकी आवाज़ को सुनकर राहगीर क्या मअनी परिंदे तक हवा में मुअल्लक़ हो के रह जाते हैं। दरिया अपनी रवानी छोड़ देता है और कुछ अजीब बात है कि उसी वक़्त गाहक भी कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगए थे। मुख़्तसर ये कि मिला-जुला मजमा ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही था और सड़क थोड़ी बहुत रुक गई थी। यानी इधर और उधर दोनों तरफ़ मोटर खड़े हॉर्न दे रहे थे कि नागाह चौधरी साहब भी उसी वक़्त आ मौजूद हुए।
कुछ परेशान, कुछ बदहवास, चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। ग़ालिबन वो समझे होंगे इस इजतमा को देखकर कि कोई बलवा हो गया है या दुकान में आग लग गई है। मगर यहाँ पर कुछ ऑल पाकिस्तान मुशायरे का रंग देखकर उनकी जान में जान आई। सर पकड़ कर एक तरफ़ ख़ामोश बैठ गए। यहाँ तक कि जब हमने ग़ज़ल पढ़ी तो भी हमारे कलाम पर उछल उछल पड़ने वाले चौधरी साहब सर पकड़े ही बैठे रहे। यहाँ तक कि आने वालेर रुख़सत हो गए, मजमा छट गया। सड़क खुल गई और दुकान पर कोई न रहा तो चौधरी साहब ने निहायत ख़ामोशी से उठकर कहा, “क़ैस साहब आज कौन सी तारीख़ है।”
अर्ज़ किया, “पंद्रह।”
उन्होंने कहा, “मैं बसद अदब आधे महीना की ये तनख़्वाह पेश कर रहा हूँ और आधे महीना की मज़ीद तनख़्वाह अपनी तरफ़ से हदिया के तौर पर पेश कर रहा हूँ। उम्मीद है आप मुझको माफ़ फ़रमाएँगे।”
अर्ज़ किया, “बात क्या है आख़िर?”
कहने लगे, “मैं शर्मिंदा हूँगा इस सिलसिले में बात करते हुए। सिर्फ़ इसी क़दर अर्ज़ है कि मेरी दुकानदारी तो ख़त्म हो कर ही रह जाएगी। अगर आप कुछ और दिन यहाँ रहे, इस अरसा में जो नुक़्सानात हो चुके हैं उन से मैं बेख़बर नहीं हूँ।”
लाख उनसे तफ़सीली गुफ़्तगु करना चाही मगर वो बस हाथ ही जोड़ते रहे और अपनी दुकान से रुख़सत कर दिया। मगर अब अपने शायर अहबाब के मशवरे से हमने एक साइनबोर्ड अपने मकान पर ही टांग लिया है,
“इदारा इस्लाह-ए-सुख़न”
यहाँ कलाम में इस्लाह भी दी जाती है।
और दूसरे के लिए बेहतर से बेहतर कलाम भी हस्ब-ए-फ़रमाइश तैयार किया जाता है।
सुबह से शाम इस साइनबोर्ड के ज़ेर-ए-साया बैठे रहते हैं। आज पंद्रह रोज़ हो चुके हैं मगर अब तक सिर्फ़ दो गाहक आए हैं। एक साहब की बीवी रूठ कर मैके चली गई हैं और वो चाहते हैं कि ऐसे फड़कते हुए शे’र उनको लिखे जाएं कि बीवी तड़प कर वापस आजाए। शे’र उनको कह कर दे दिए हैं। आठ आने वो दे गए हैं और आठ आने बीवी के आ जाने पर देंगे।
दूसरे साहब इसलिए तशरीफ़ लाए थे कि वो वाक़े हुए हैं क़व्वाल। उनके एक हरीफ़ क़व्वाल ने किसी पिछली महफ़िल में एक चीज़ गा कर महफ़िल को लूट लिया है। अब वो चाहते हैं कि उसी क़िस्म की उससे ज़बर चीज़ कह दी जाये। वादा हुआ एक रुपया का और अगर वो चल गई तो जैसी आमदनी महफ़िल में होगी वैसी ही वो हमारी ख़िदमत भी करेंगे। ये चीज़ हम तैयार कर रहे हैं।
इन दो ग्राहकों के अलावा अब तक और कोई नहीं आया। हाँ, मैं भूला, एक साहबज़ादे भी शागिर्दी करने आए थे और पूछ रहे थे कि वो जो हमको उस्ताद कह देंगे तो हम उनको इस कस्र-ए-नफ़सी का क्या मुआवज़ा देंगे। ये है इस दौर में आपकी शायरी का हाल और इस हाल में हैं आपके वो शायर जो आपके अदब को माला माल कर रहे हैं।
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