मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रेस कॉन्फ़्रेंस
आलम-ए-बाला में जब नज्म-उद-दौला दबीर-उल-मुल्क असद उल्लाह खाँ निजाम जंग बहादुर अलमुखल्लिस ब ग़ालिब को फुर्सत के रात दिन मयस्सर आ गए तो वो तसव्वुर-ए-जानाँ करने बैठ गए और इस क़दर बैठ गए कि अगर बर-वक़्त न चौंकते तो बहिश्त की ज़मीन में मिर्ज़ा ग़ालिब की जड़ें फूट जातीं और वो एक हरे भरे दरख़्त में तब्दील हो कर रह जाते और बा’द में ये दरख़्त दीवान-ए-ग़ालिब के नुस्ख़ों से लद जाता। मगर ख़ुदा भला करे मीर मेहदी मजरूह का कि उनकी खाँसी ने मिर्ज़ा गालिब को चौंका दिया, और उन्होंने चौंकते ही मीर मेहदी मजरूह से पूछा, “भई क्या वक़्त है?” मीर मेहदी मजरूह ने पहले तो अपनी घड़ी को अच्छी तरह हिला कर यक़ीन कर लिया कि ये चल रही है या नहीं, फिर घड़ी की तरफ़ ग़ौर से देख कर कहा, “उस्ताद मोहतरम, आप वक़्त क्या पूछते हैं, काफ़ी बुरा वक़्त आ गया है। पूरी एक सदी बीत गई है और आप सिर्फ़ तसव्वुर-ए-जानाँ में खोए रह गए। अब ज़रा जागिए कि ज़माना क़यामत की चाल चल गया है और शाइ’र कह गया है,
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में
शे’र को सुनते ही मिर्ज़ा ग़ालिब जो पहले ही से चौंक गए थे, काफी से ज़ियादा चौंक गए और बोले, “ये क्या कह रहे हो मियाँ मीर मेहदी! ज़रा होश के नाख़ून लो, क्या हम पूरी एक सदी तक तसव्वुर-ए-जानाँ करते रहे?”
मीर महदी बोले, “और नहीं तो क्या आपने तो तसव्वुर-ए-जानाँ के सारे आलमी बल्कि कायनाती रिकॉर्ड तोड़ कर रख दिए है।” यह कह कर मीर मेहदी ने एक टूटे हुए रिकॉर्ड के चन्द टुकड़े मिर्ज़ा ग़ालिब की ख़िदमत में पेश किए और एक सर्द आह खींच कर यूँ गोया हुए, “ऐ मेरे उस्ताद-ए-मोहतरम! मुझे आप से पूरी हमदर्दी है, जो होना था वो हो चुका, क़िस्मत के लिखे को भला कौन मिटा सकता है। आप इधर तसव्वुर-ए-जानाँ में मगन रहे और इधर दुनिया वालों ने आप की सद साला तकारीब मना डालीं। बच्चे बच्चे की ज़़बान पर आप का नाम तो था ही, अब बड़ों की ज़बान पर भी आप का नाम है। दुनिया में अब ये रिवाज आम हो गया है कि अगर किसी को धमकी देना हो तो कहा जाता, “मियाँ! ज़रा होशियार रहना, नहीं तो तुम्हारी ग़ालिब सदी तकारीब मना कर रख दूँगा।” मैंने बारहा इस क़िस्म के जुमले सुने है।
“अगर कल तक मकान का किराया अदा न हुआ तो सरे बाज़ार तुम्हारी ग़ालिब सदी तक़ारीब मना दूँगा।”
“अगर ठीक से काम न करोगे तो तुम्हारा ग़ालिब सेमिनार मुनअक़िद करुँगा।” वग़ैरा वग़ैरा। नौबत यहाँ तक पहुँच गई है कि माँएँ अपने बच्चों को आप की तस्वीर बता कर डराती है, “अगर शोर करोगे तो ग़ालिब को बुलाऊँगी।”
“क़िब्ला! अब आप से क्या अर्ज़ करुँ कि आप ग़ालिब से “गालिब” बन गए हैं। और बाज़ बाज़ मुक़ामात बल्कि मुक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ पर तो आप “ग़लीब” भी बन चुके हैं. लिहाजा अब जो अब ख़्वाब-ए-गफ़लत से जागिए और दुश्मनों का मुंह तोड़ जवाब दीजिए, वरना ऐन मुम्किन है कि आप की शाइ’री सिर्फ़ फैशन बन कर रह जाए।”
मिर्ज़ा ग़ालिब मियाँ मीर मेहदी की इस तक़रीर-ए-दिल-पजीर को बड़े ग़ौर से सुनते रहे फिर बोले, “तुमने हमें पहले ही क्यों न जगाया?”
मीर महदी बोले, “हुज़ूर! आप को तो यक गूना बे-ख़ुदी दिन रात चाहिए बल्कि यही तो आप का वाहिद पसंदीदा “इंडोरगेम” है। बस इसी ख़याल से न जगाया,
वरना क्या बात कर नहीं आती
मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, “वो तो एक सदी पहले की बात थी। अब तो “हालात” और हमारी “हालत” दोनों तब्दील हो चुके हैं। मगर भई कोई सबील तो बताओ कि अब हम क्या करें?”
थोड़ी देर ख़ामोशी तारी रही। फिर अचानक मीर मेहदी ने चुटकी बजा कर कहा,
“क़िब्ला! एक तरकीब जहन में आई है। अगर उस पर अमल किया जाए तो शायद आप अपने मौक़िफ़ की वज़ाहत कर सकें।”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने पूछा, “वो क्या तरकीब है?”
मीर मेहदी बोले, “हुज़ूर इन दिनों हिन्दुस्तान में प्रेस का बोल बाला है। प्रेस की ताक़त बहुत बड़ी है। ऐसे आड़े वक़्त में प्रेस ही आप की मदद कर सकता है। क्यों न हम प्रेस वालों को तलब करें।”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने किसी क़द्र हैरानी से पूछा, “क्या मुंशी नवल किशोर का प्रेस अब तक मौजूद है?” मीर मेहदी ने मिर्ज़ा ग़ालिब की सादगी पर कफ़-ए-अफ़्सोस मलते हुए कहा, “हुज़ूर! मुंशी नवल किशोर का प्रेस तो उसी वक़्त बंद हो गया था जब उसने आप का दीवान छापा था। प्रेस वालों से मेरी मुराद अख़बार वालों से है। हम एक प्रेस कांफ्रेंस तलब करेंगे जिस में आप अपने मौक़िफ़ की वज़ाहत करें।”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने तक़्रीबन निढा़ल हो कर कहा, “मियाँ मीर मेहदी! हम तो कुछ भी नहीं जानते। हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी कुछ हमारी ख़बर नहीं आती। हमें तुम पर पूरा पूरा भरोसा है। तुम जो कुछ करोगे वो अच्छा ही करोगे। मुनासिब समझो तो प्रेस कांफ्रेंस बुला लेना मगर ख़याल रहे कि ये प्रेस कांफ्रेंस दिल्ली में मुनअ’क़िद हो, क्योंकि हमने बहुत दिनों से दिल्ली नहीं देखी। आँखें तरस गई हैं उसे देखने के लिए।”
मीर मेहदी ने फ़ौरन बात काट कर कहा, “हुजूर प्रेस कांफ्रेंस दिल्ली में नहीं होगी। क्योंकि दिल्ली ‘ड्राई एरिया’ है और प्रेस में कोई बात...”
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर
लिहाज़ा प्रेस कांफ्रेंस हैदराबाद में मुनअ’क़िद होगी क्योंकि ये अभी तक ख़ुश क़िस्मती से ‘वेट एरिया’ है।”
बिल-आख़िर प्रेस कांफ्रेंस तलब करने का फैसला कर लिया गया। मीर मेहदी ने मिर्ज़ा ग़ालिब को प्रेस कांफ्रेस के असरार-ओ-रुमूज़ से वाकिफ़ कराया। उन्हें उन सारी ज़ियादतियों का हाल सुनाया जो एक सदी के अर्से में उनकी ज़ात के साथ की गई थी। मिर्ज़ा ग़ालिब उन ज़ियादतियों को सुनते जाते और ज़ार ओ क़तार रोते जाते थे और उनकी ज़बान पर ये शेर था,
ग़म से मरता हूँ कि इतना नहीं दुनिया में कोई
कि करे ताज़ियत-ए-मेह्र-ओ-वफ़ा मेरे बा’द
मीर मेहदी बार बार उन्हें दिलासा देते और कहते,
ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद है
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यों
मीर मेहदी ने मिर्ज़ा ग़ालिब को समझाया और कहा “हुज़ूर अब रोने का वक़्त नहीं रहा। अब ज़रा संभल जाइए और एक तफ़्सील सहाफ़ती बयान तैयार कीजिए ताकि उसकी साइक्लो स्टाइल कापियाँ प्रेस कांफ्रेंस में अख़बार वालों के हवाले की जा सकें।”
प्रेस कांफ्रेंस की तैयारियाँ शुरू’ हो गईं, मिर्ज़ा ग़ालिब और मियाँ मीर मेहदी दूसरी दुनिया से इस दुनिया में आरज़ी तौर पर आ गए। ग़ालिब दिन भर प्रेस कांफ्रेंस की तैयारियों में मस्रूफ़ रहते और रातों को अपना सहाफ़ती बयान लिखने में मगन हो जाते। मिर्ज़ा ग़ालिब ने बड़े इन्हिमाक के साथ उन ग़ालिब नंबरों का मुताला शुरू’ कर दिया जो मुख़्तलिफ़ रिसालों ने उनकी सदी तक़ारीब के मौक़ों पर शाया किए थे। मिर्ज़ा ग़ालिब ने ग़ालिबियात का मुताला यूँ शुरू’ कर दिया जैसे वो ख़ुद अपने आप पर रिसर्च करने चले हों। किसी को मिर्ज़ा ग़ालिब की आमद की इत्तला नहीं दी गई और किसी को ये पता न चला कि मिर्ज़ा ग़ालिब उनके दरमियाँ यूँ मौज़ूद हैं जैसे चोर की दाढ़ी में तिनका मौज़ूद होता है।
चारों तरफ़ ग़ालिब सदी तक़ारीब का ग़लग़ला मचा हुआ था। “यौम-ए-ग़ालिब”, “जश्न-ए-ग़ालिब”, “याद-ए-ग़ालिब”, “ग़ालिब डे”, “ग़ालिब फेस्टिवल”, “ग़ालिब फंड”, “ग़ालिब मेमोरियल”, “ग़ालिब बाल रूम डांस”, “ग़ालिब समिति”, “ग़ालिब सभा”, “ग़ालिब संस्था”, “ग़ालिब मेला विभाग”, “ग़ालिब कार्यक्रम”, और “ग़ालिब प्रियदर्शिनी” का इस क़दर गलबा था कि ग़ालिब ने हैरान होकर ख़ुद से सवाल किया,
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ये ख़ुदा किया है
हद हो गई कि उन्होंने सड़कों पर ऐसे बोर्ड भी आवेज़ाँ देखे, “ग़ालिब पान शॉप”, “ग़ालिब हेयर कटिंग सैलून”, “ग़ालिब एंड संस”, “ग़ालिब इंजीनियरिंग वर्कस”, “ग़ालिब स्टोन पॉलिसिंग वर्क्स”, “ग़ालिब क्लाथ मर्चेंट”, “ग़ालिब क्रॉकरी” वग़ैरा वग़ैरा। मिर्ज़ा ग़ालिब इन सारी ज़ियादतियों बल्कि मज़ालिम का बग़ौर जायज़ा लेते रहे और दिल में कुढ़ते रहे।
जब मिर्ज़ा ग़ालिब का सहाफ़ती बयान तैयार हो गया तो मिर्ज़ा ग़ालिब ने मीर मेहदी के मशवरे से प्रेस कांफ्रेंस की तारीख़ मुक़र्रर की और एक अख़बार के एडिटर से मिलने चले गए। अख़बार के एडिटर ने पहले तो बड़े तपाक से उनका इस्तक़बाल किया मगर जब मिर्ज़ा ग़ालिब ने बताया कि वो मिर्ज़ा ग़ालिब हैं तो उसने फ़ौरन अपने नौकर को आवाज़ दी और कहा, “इन साहब को बाहर ले जाओ। मुझे ग़ालिब पर एक मक़ाला लिखना है, मेरे पास ऐसे ग़ैर ज़रूरी लोगों से मुलाक़ात के लिए वक़्त नहीं है।”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने जो मुलाज़िम की गिरफ़्त में आ चुके थे, चीख़ कर कहा,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
“साहब ये कहाँ का इन्साफ़ है कि आप मुझेपर तो मक़ाला लिख सकते हैं लेकिन मुझसे मुलाक़ात के लिए वक़्त नहीं निकाल सकते?”
एडिटर ने कहा, “साफ़-साफ़ बताइए कि आप कौन हैं?”
मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, “मैं मिर्ज़ा ग़ालिब हूँ और ये मीर मेहदी मजरूह है।”
एडिटर ने तंज़ आमेज़ मुस्कुराहट के साथ कहा, “आप का नंबर कौन सा है?”
ग़ालिब बोले, “नंबर से आप का क्या मतलब है?”
एडिटर ने कहा, “नंबर से मतलब ये है कि इससे पहले पाँच मिर्ज़ा ग़ालिब मेरे पास आ चुके हैं। आप का नंबर छठवाँ है।”
मिर्ज़ा ग़ालिब का चेहरा तमतमा गया और उन्होंने बड़ी दुरुश्तगी के साथ कहा, “मज़ाक़ बंद कीजिए। मैं मिर्ज़ा ग़ालिब हूँ और सद फ़ीसद ग़ालिब हूँ, मैं दूसरी दुनिया से इस दुनिया में बतौर-ए-ख़ास इसलिए आया हूँ कि अब तक मेरे ख़िलाफ़ जो कुछ कहा गया है उसका जवाब दूँ। अगर आप को यक़ीन नहीं आता तो आप दीवान-ए-ग़ालिब से अशआर पूछ सकते हैं, मुझे अपने सारे अशआर ज़बानी याद हैं। एडिटर बोला, “दीवान-ए-ग़ालिब के सारे अशआर तो मुझे भी याद हैं। क्या मैं महज़ इस क़ुसूर की पादाश में ग़ालिब कहलाऊँगा?”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने ज़ोर दे कर कहा, “ख़ुदा के लिए इस बात का यक़ीन कीजिए कि मैं मिर्ज़ा ग़ालिब हूँ।”
एडिटर बोला, “अगर आप मिर्ज़ा ग़ालिब हैं भी तो मुझसे क्या वास्ता?”
मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, “आप से सिर्फ़ इतना वास्ता है कि आप ग़ालिब सदी तक़ारीब के ख़िलाफ़ मेरा बयान शाया करें और मेरी प्रेस कांफ्रेस में शिरकत करें जो अगले इतवार को मुनअ’क़िद हो रही है।”
एडिटर ने कहा, “मुआ’फ़ कीजिए, मैं ग़ालिब सदी तक़ारीब के ख़िलाफ़ आप का बयान अपने अख़बार में नहीं छाप सकता। क्योंकि हमारा अख़बार अगर ऐसा कोई बयान शाया करे तो ग़ालिब सदी तक़रीब कमेटी हमें इश्तिहार देना बंद कर देगी और हम आप की ख़ातिर कोई ख़तरा नहीं मोल लेना चाहते और मेरे लिए अगले इतवार को आप की प्रेस कांफ्रेंस में शिरकत करना इस लिए नामुम्किन है कि इसी रोज़ ग़ालिब एकेडमी की जानिब से ग़ालिब तकारीब मनाई जा रही है और इन तकारीब का आप की प्रेस कांफ्रेंस से क्लैश हो गया है। लिहाज़ा मुझे मुआ’फ़ कीजिए। मैं आप के कलाम से क़रीब और आप से दूर रहना चाहता हूँ।” ये कहकर एडिटर उठ खड़ा हुआ और मिर्ज़ा ग़ालिब को छोड़ कर अपने कमरे में से बाहर चला गया।
मिर्ज़ा ग़ालिब बहुत बे-आबरू होकर उस कूचे से निकले औऱ उसके बा’द उन्होंने मियाँ मीर मेहदी से कह दिया कि वो आइंदा किसी एडिटर के पास नहीं जाएंगे। लिहाजा प्रेस कांफ्रेंस के सारे अमूर वो ख़ुद अन्जाम दे लें।
मीर मेहदी मजरूह ने काफ़ी दौड़ धूप की बल्कि धूप ज़ियादा खाई और दौड़ कम लगाई। बिल-आख़िर प्रेस कांफ्रेंस का वक़्त आ गया। मिर्ज़ा ग़ालिब प्रेस कांफ्रेंस के दिन अपना मख़्सूस चोग़ा पहनना चाहते थे लेकिन मा’लूम हुआ कि उनका चोग़ा ग़ालिब सदी तक़ारीब कमेटी के कब्ज़े में है। लिहाज़ा उन्हें अपने यूनिफॉर्म के बग़ैर ही प्रेस कांफ्रेंस में आना पड़ा।
प्रेस कांफ्रेंस के दिन काफी चहल पहल थी। अनवाअ-ओ-अक़साम के अखबारों के प्रेस रिपोटर्स जमा होने लगे। जब सारे रिपोटर्स जम्अ’ हो गए तो मियाँ मीर मेहदी मजरूह डाइस पर आए और बोले, “दोस्तो आप लोग अपनी अपनी नशिस्तों पर बैठ जाए, उर्दू के मुमताज़ शाइ’र मिर्ज़ा ग़ालिब अभी आप के सामने आएंगे, आप थोड़ी देर सब्र करें।”
इस पर अख़बार “ट्यूज़डे टाइम्स” के नुमाइंदे ने कहा, “आख़िर हम कब तक सब्र करें। प्रेस कांप्रेंस का मीनू क्या होगा। महज़ आप की प्रेस कांफ्रेंय के ख़याल से हमने दोपहर का खाना नहीं खाया है। लिहाजा हमें मिर्ज़ा ग़ालिब दिखाने से पहले ये बताइए कि आपने खाने पीने की अशया कहाँ सजा रखी हैं।”
इस पर मियाँ मीर मेहदी मजरूह ने कहा, “हजरात, आप इत्मीनान रखे कि हमने ईट होम का मुनासिब बंदोबस्त कर रखा है लेकिन ईट होम प्रेस कांफ्रेंस के बा’द ही होगा, वरना अंदेशा है कि कहीं आप लोग ईट होम के बा’द सीधे अपने घरों को रवाना न हो जाएँ। लिहाज़ा सब्र कीजिए कि सब्र का फल मीठा होता है।”
अभी मीर महदी मजरूह का बयान जारी ही था कि मिर्ज़ा ग़ालिब अचानक डाइस पर नमूदार हो गए। उन्होंने सहीफ़ानिगारों को बैठ जाने के लिए कहा और अपना सहाफती बयान पढ़ना शुरू’ कर दिया।
“साथियो! मैं मिर्ज़ा ग़ालिब हूँ, असद उल्लाह खां ग़ालिब, मैं वही ग़ालिब हूँ, जिस ने ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ लिखा और जो कर्ज़ की मय पीता था और जिस के अशआर आप यूँ इस्तेमाल करते हैं जैसे ये आप के ज़ाती अशआर हो। मेरा इंतक़ाल एक सौ साल पहले हुआ था। जब मेरा इंतक़ाल हुआ था तो मुझे ये अंदेशा नहीं था कि मेरे बा’द आप लोग मेरी ऐसी दुर्गत बनाएंगे कि मेरा जुग़राफ़िया ही बिगड़ जाएगा। मैंने एहतियातन अपनी ज़िन्दगी में ही अर्ज़ कर दिया था,
बड़े आराम से हैं अह्ल-ए-ज़फा मेरे बाद
मगर बा’द में पता चला कि अह्ल-ए-जफ़ा की अस्ल सर्गर्मियाँ तो मेरे मरने के बा’द ही शुरू’ हुई हैं। मेरे इंतक़ाल के बा’द लोगों ने ख़्वाह-मख़्वाह मेरे हालात-ए-ज़िन्दगी में दिलचस्पी लेनी शुरू’ की। यक़ीन मानिए कि अगर लोग मेरे जीते जी मेरे हालात-ए-ज़िन्दगी में दिलचस्पी लेते तो शायद मैं आज तक भी न मरता और अब तक मेरे कई दीवान शाया हो चुके होते। मगर जिन दिनों में कर्ज़ ख़्वाहों से मुंह छुपाता फिरता था, अपनी पेंशन के इजरा के लिए दर-बदर ठोकरें खाया करता था, उन दिनों किसी ने पलट कर भी ये पूछने की कोशिश नहीं की कि मेरे मुंह में कितने दाँत है। जो लोग मेरे अशआर पर नाक भौं चढ़ाया करते थे, वो आज मेरे अशआर की तारीफ करते हैं तो यूँ मा’लूम होता है कि जैसे वो पागल हो गए हों। मैंने बड़ी कस्मपुर्सी की हालत में अपनी उ’म्र का आख़िरी हिस्सा गुज़ारा। मगर आज जब जगह-जगह ‘ग़ालिब मेमोरियल फंड’ क़ायम किए जा रहे है तो मुझे ये पूछने का हक़ पहुँचता है,
हैरान हूँ फिर ‘मुशाहिरा’ है किस हिसाब में
मैं बहुत अदब के साथ ये पूछना चाहता हूँ कि आप लोग मेरे पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हुए हैं। अगर आप को किसी की ‘सदी तक़ारीब’ ही मनाना मक़्सद था तो इसके लिए मोमिन क्या बुरे थे, ज़ौक में क्या बुराई थी और फिर अगले ज़ामाने में एक मीर भी तो थे। इन सारे शाइ’रों की मौजूदगी में सदी तक़ारीब के इन्ए’क़ाद के लिए मेरे इन्तिख़ाब की क्या वज्ह है, मुझे आप लोगों की नीयत में शुबह है। आप ने मेरे छोटे से दीवान और चन्द निजी ख़तूत को इतनी अहमियत दे डाली है कि मेरे दीवान का हुलिया बिगड़ गया है। आपने मेरी इजाज़त के बग़ैर ‘ग़ालिबियात’ का एक शो’बा क़ायम कर रखा है। बा-हैसियत-ए-ग़ालिब मैंने ग़ालिबियत का गहरा मुताला किया है और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि आप लोगों ने अब तक मुझ पर इतनी रिसर्च की है कि मैं अकेला शख़्स रिसर्च के इस भारी बोझ को बर्दाश्त नहीं कर सकता। इतनी रिसर्च के लिए तो पंद्रह बीस ग़ालिबों की ज़रूरत थी। मैंने ग़ालिबियात के मुतालाा के दौरान ऐसे मज़ामीन भी पढ़े हैं जो “आलम-ए-ग़ैब” से मेरे ख़याल में भी न आ सकते थे। मिसाल के तौर पर चन्द मज़ामीन के उनवानात मुलाहिज़ा फ़रमाइए, “ग़ालिब और एटमी दौर”, “ग़ालिब और मंसूबा बंदी”, “गालिब की शाइ’री में पंचायती उ’न्सुर”, “ग़ालिब की शाइ’री पर ग़ालिब का असर”, “इक़बाल ग़ालिब के आईने में”, “ग़ालिब की शराब नोशी एक संग-ए-मील”, “फिल्मी सनअत पर ग़ालिब के अहसानात”, “ग़ालिब औक किफ़ायत-शिआरी”, “हमारी मईशत ग़ालिब के कलाम के आईने में”, “ग़ालिब और फैमिली प्लानिंग।”
हज़रात! अगर मुझे मा’लूम होता कि मेरी शाइ’री का तअ’ल्लुक़ फैमिली प्लानिंग से पैदा किया जाएगा तो सच मुच शाइ’री के मामले में भी “फैमिली प्लानिंग” पर अमल करता और दो या तीन शे’र बस के असूल पर कार बंद रहता। ग़ालिबियत के मुताले के दौरान मुझे बार बार ये एहसास हुआ कि आप जिस गालिब का ज़िक्र कर रहे हैं वो शायद मैं नहीं हूँ लेकिन जब मैंने अपना नाम अपनी वलदियत के साथ पढ़ा तो यकीन करना पड़ा कि वो ग़ालिब मैं ही हूँ जिस की मिट्टी पलीद की जा रही है। हद हो गई कि एक माहिर ग़ालिबियत ने मेरी शाइ’री के दो दीवान शाया किए है और उनके नाम अलत्तर्तीब “दीवान-ए-ग़ालिब” और “दीवान-ए-असद” रखे हैं। “दीवान ये ग़ालिब” में ग़ालिब वाले तख़ल्लुस के अशआर मौजूद हैं और “दीवान-ए-असद” में वो ग़ज़लें हैं जिनमें मेरा तख़ल्लुस असद है। आप ही बताइए कि इस तकल्लुफ़ की क्या ज़रूरत थी।
माहिरीन-ए-ग़ालिबियात का तो ज़िक्र ही छोड़िए। जब से स्कूलों के ता’लीमी नसाब में मेरे कलाम को शामिल किया गया है, उस वक़्त से मुझे ये गुमान होने लगा है,
तुम्हारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के असद
मैंने एक तालिब-ए-इल्म की जवाबी ब्याज़ देखी थी जिस में उसने मेरे “हालात-ए-ज़िन्दगी” कुछ इस तरह बयान किए गए थे,
“ग़ालिब आगरा के ताजमहल में पैदा हुए। बहुत दिनों तक ताज महल की सैर करते रहे। जब ख़ूब सैर तफरीह कर चुके तो उन्हें एक शरीफ़ आदमी की तरह फ़िक्र-ए-मआ’श लाहक हो गई। चूँकि आगरा में रह कर फिक्र-ए-मआश करना बे सूद था। इसलिए वो आगरा से निकल गए और बिला टिकट सफ़र की सऊबते झेलते हुए हैदराबाद पहुँचे। यहाँ उन्होंने उस्मानिया यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की और यहीं अंग्रेजी के उस्ताद मुक़र्रर हुए। चूँकि ग़ालिब को उर्दू शाइ’री से बहुत दिलचस्पी थी, इसलिए वो बात-बात पर शेर कहते थे। वो उर्दू के वाहिद शाइ’र है जिन्होंने इज़ारबंद की मदद से शेर कहे। हर ग़ज़ल के लिए एक नया इज़ारबंद इस्तेमाल करते थे और जैसे ही कोई शेर होता था फ़ौरन इज़ारबंद में गिरह लगा देते थे. शेरों और इज़ारबंद में गिरह लगाना उनका महबूब मशग़ला था। ग़ालिब शराब बहुत शौक़ से पीते थे और दूसरों को पीने का कोई मौक़ा हीं नहीं अता करते थे। इसलिए उनके बहुत से दुश्मन पैदा हो गए। उन्होंने ग़ालिब के ख़िलाफ साज़िश की और बिला-आख़िर ग़ालिब को देहली वापस हो जाना पड़ा।”
हज़रात! इन हालात-ए-ज़िन्दगी को पढ़ कर मेरी क्या हालत न हुई होगी, आप ख़ुद अन्दाज़ा लगा सकते हैं। अगर कोई आपकी हालत-ए-ज़िन्दगी इस तरह लिखता तो आप के दिल पर क्या न गुज़रती।
दोस्तो! मैंने “ग़ालिब तक़ारीब” का हाल तफ़सील से पढ़ा है। इन तक़ारीब में मुल्क के ऐसे सियासी लीडरों ने भी हिस्सा लिया जो मेरे नाम और काम से क़तअन वाकिफ़ न थे। किसी ने मुझे “प्रजा सोशिलिस्ट” साबित करने की कोशिश की तो किसी ने कहा कि ग़ालिब कांग्रेस के हामी थे। इससे बढ़ कर और क्या ज़िल्लत हो सकती है कि एक लीडर ने मेरा तअ’ल्लुक़ “स्वतंत्र पार्टी” से पैदा करने की कोशिश की थी। मैं इस सियासी लीडर के बारे में भी सुन चुका हूँ जो मेरी सदी तक़ारीब के इफ़्तिताह के लिए आया था और बार बार लोगों से पूछ रहा था कि “ग़ालिब साहब कहाँ है, उनके बग़ैर ये उद्घाटन क्यों कर हो सकेगा?” इन लीडरों ने लोगों को मश्वरा दिया कि वो मेरे नक्शे कदम पर चलें। उन्हें ये तक नहीं मा’लूम कि मेरे नक़्शे-क़दम पर चल कर आदमी सिर्फ़ मर्क़ूज़ ही बन सकता है। मैंने यहाँ तक सुना है कि सियासी इंतख़ाबात में लीडरों ने मेरे नाम पर वोट हासिल किए और ये कैसी बदक़िस्मती है कि मैं ख़ुद अपने नाम से कोई फायदा न उठा सका। फिल्मी सनअत ने भी मुझे न बख़्शा और मेरी ज़िन्दगी को कुछ इस तरह फ़िल्माया कि ये फ़िल्में “बॉक्स ऑफिस पर हिट” हो गई। ऐसे घटिया मुकालमे जो मैं ज़िन्दगी भर अपनी ज़बान से अदा न कर सका, वो मेरी ज़बान से कहलवाए गए। मेरी बीवी को फिल्मों में इस क़दर हसीन दिखाया गया कि अगर वो सच मुच इतनी ही हसीन होती तो मेरे हालात-ए-ज़िन्दगी मुख़्तलिफ़ होते। क़व्वालों ने मेरी ग़ज़लों का क़त्ले आम किया। मुझे गली गली रुसवा किया गया और मैं ज़ब्त करता रहा। मगर अब पानी सिर से ऊँचा हो गया है, अब तक मेरी जो रुसवाई हुई है, उसकी तलाफ़ी होनी चाहिए वरना मैं इज़ाला-ए-हैसियत-ए-उर्फी का मुक़दमा दायर कर दूँगा।”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपना सहाफ़ती बयान ख़त्म किया और निढाल होकर कुर्सी पर गिर गए। मियाँ मेहदी मजरूह ने फ़ौरन उन्हें पानी पिलाया और पंखा झलने लगे। जब मिर्ज़ा ग़ालिब को होश आया तो मीर मेहदी ने अख़बारी नुमाइदों से कहा कि वो अगर कोई सवाल करना चाहते हो तो कर सकते हैं। अखबारी नुमाइदों ने जो पहले ही से इस मौक़े की ताक में बैठे हुए थे, मिर्ज़ा ग़ालिब पर सवालात की बौछार कर दी।
एक सहाफ़ी ने पूछा, “अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है?”
दूसरे सहाफ़ी ने पूछा, “नक़्श फ़र्यादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का?”
तीसरे सहाफ़ी ने पूछा, “आह का किस ने असर देखा है?”
चौथे सहाफ़ी ने पूछा, “नींद क्यों रात भर नहीं आती?”
पाँचवें ने पूछा, “मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों?”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने अचानक इतने सारे सवालात को सुन कर कहा,
आता है अभी देखिए क्या क्या मेरे आगे
“दोस्तो! मुझसे आसान सवालात पूछिए, आप मुझसे ऐसे सवालात क्यों पूछते हैं जिन के जवाबात मैं ख़ुद अपनी ज़िन्दगी में दे न सका था। मेरे ही सवालों के ज़रिए मुझे ला जवाब करने की साजिश अच्छी नहीं।”
इस पर प्रेस कांफ्रेंस में थोड़ी देर सकता तारी रहा, फिर एक सहाफी ने उठकर पूछा, “मिस्टर ग़ालिब! जदीद शाइ’री के बारे में आपका क्या ख़याल है?”
ग़ालिब ने कहा, “जनाब-ए-आला, आप जिसे जदीद शाइ’री कहते हैं वो अस्ल में काफ़ी कदीम शाइ’री है। ये उस वक़्त की शाइ’री है जब इन्सान को लिखना पढ़ना आता था और वो अभी इल्म-अरुज़ की बारीकियों से वाकिफ़ न हुआ था। लिहाज़ा जदीद शाइ’री को जदीद शाइ’री न कहिए बल्कि कदीम शाइ’री कहें। जदीद शाइ’री तो वो है जो मैंने की है।”
इसके बा’द एक और सहाफ़ी ने पूछा, “महकमा डाक ने आप के जो यादगारी टिकट जारी किए हैं, उनके बारे में आप का क्या ख़याल है?”
मिर्ज़ा ग़ालिब बोले, “टिकट तो बहुत अच्छे हैं मगर मुझे ये शिकायत है कि डाक वाले इन टिकटों पर बहुत ज़ोर से मोहर लगाते हैं और उसके बा’द उन टिकटों में ‘यादगार’ नाम की कोई चीज़ बाक़ी नहीं रहती।”
थोड़ी देर फिर ख़ामोशी रही। इतने में अचानक एक नौजवान सहाफ़ी ने उठ कर पूछा, “मिस्टर ग़ालिब! सच सच बताइए कि इस प्रेस कांफ्रेंस के इन्ए’क़ाद का मक़्सद क्या है?”
ग़ालिब ने कुछ देर सोच कर कहा, “भई! सच बात तो ये है कि मैं इस प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिए उस रक़म का हिसाब किताब पूछना चाहता हूँ जो ग़ालिब ‘मैमोरियल फंड’ खाते में जमा हुई है। बा-हैसियत-ए-ग़ालिब इस रक़म पर मेरा हक़ है, लिहाज़ा मुझे ये रक़म मिलनी चाहिए और मैं उसे हासिल कर के ही रहूँगा।”
इस पर एक सहाफी ने दीगर सहाफियों को मुख़ातब करके कहा, “भाइयों! मुझे तो ये कोई धाँधली नज़र आ रही है। अस्ल में ये शख़्स ग़ालिब का रूप धारण कर के पैसे बटोरना चाहता है।”
अचानक किसी ने आवाज़ लगाई, “पकड़ो उसे। कोई उचक्का नज़र आता है, जाने न पाए। उसे पुलिस के हवाले कर दो।”
प्रेस कांफ्रेंस में अचानक भगदड़ मच गई और मिर्ज़ा ग़ालिब मीर मजरूह के साथ फ़रार हो गए। प्रेस कांफ्रेंस ख़ुद ब-ख़ुद ख़त्म हो गई। अलबत्ता दूसरे दिन अख़बारों में इस क़िस्म की सुर्ख़ियां छपी,
“मिर्ज़ा ग़ालिब का रूप इख़्तियार करके अवाम को धोका देने की कोशिश।”
“नकली मिर्ज़ा ग़ालिब के ख़तरनाक अज़ायम को नाकाम बना दिया गया।”
“अवाम, धोखा बाजों से ख़बरदार रहे। ग़ालिब सदी तक़ारीब कमेटी का इंतबाह।”
लोगों ने बहुत तलाश किया मगर फिर कहीं इन ग़ालिब साहब का पता न चल सका, जो मियाँ मीर महदी मजरूह के हमराह अपने दुश्मनों का मुंह तोड़ जवाब देने के लिए दूसरी दुनिया से इस दुनिया में आए थे। पता नहीं वो असली थे या नकली। वल्लाहु-आलम-बिस्सवाब।
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