ये कोई इंग्लैंड या अमरीका तो है नहीं जहाँ ख़याल बिकता हो। मशवरे हासिल करने के लिए रुपया ख़र्च करना होता है। किसी से मिलने या बातें करने के लिए हफ़्तों पहले अपवाइंटमेंट करना पड़ता हो, ये जनाब हिंदोस्तान है हिंदोस्तान, जहाँ रिश्तेदारों से ज़्यादा मुलाक़ाती और मुलाक़ातियों से ज़्यादा अहबाब होते हैं, और जहाँ ये मक़ौला बुरी तरह फ़ेल हो जाता है कि,
“वाक़िफ़कार ज़्यादा से ज़्यादा बनाओ लेकिन दोस्त सिर्फ़ चन्द रक्खो।” और इन सब के मुक़ाबले में जो चीज़ हिंदोस्तान में बकसरत पाई जाती है वो है, “मुफ़्त का मशवरा” मुफ़्त बिल्कुल मुफ़्त एक दम मुफ़्त और क़तई मुफ़्त मशवरे देने वाले हर क़िस्म और हर उम्र के हज़रात और ख़वातीन से हमारा आए दिन पाला पड़ता रहता है, कोई सूरत नहीं कि हम हर एक के क़ीमती और फ़ाज़िल मशवरों से जान छुड़ा सकें।
सच पूछिए, तो मशवरा देने में ये बड़े ही फ़राख़ दिल होते हैं। आप उनसे ख़ुश हों या न हों, लेकिन ये आ'म तौर पर आप से नाख़ुश रहा करते हैं कि आप उनके फ़ालतू मशवरों से ख़ातिर ख़्वाह फ़ायदा नहीं उठाते और न उनकी सलाहियतों से मुस्तफ़ीज़ होने की कोशिश करते हैं।
मशवरे देने वाले दो क़िस्म के होते हैं, एक तो वो जो वक़्त बे-वक़्त हर जगह और हर मौक़ा पर अपनी क़ीमती राय देने को तैयार रहते हैं।दरअस्ल ये पेशावर मुशीर होते हैं, लेकिन मशवरे उनके बिल्कुल मुफ़्त होते हैं। उनके मुफ़्त मशवरे अक्सर जान लेवा साबित होते हैं जिन पर भूले से भी अ'मल करने के बाद ज़िंदगी भर क़ीमत चुकानी पड़ती है, ये भी होता है कि उनके मशवरे पर चलने की चुभन ज़िंदगी भर दिल पर कचोके लगाती रहती है। मसलन एक फ़ाज़िल मशवरा देने वाले ने फ़रमाया,
“अरे ये क्या गर्म गर्म पानी पीती रहती है। बर्फ़-वर्फ के चक्कर में पड़ना भी क्या, बस सीधे से एक रेफ्रीजरेटर ले लो।”
उनके नज़दीक तो बहुत ही सस्ता नुस्ख़ा था बता कर चले गए, उन से ये भी तो न हुआ कि इस महंगाई में रेफ्रीजरेटर ख़रीदने के माली पहलू पर ग़ौर करने के बाद ज़्यादा से ज़्यादा आईस बॉक्स ख़रीदने की राय देते।
अब ज़रा रेफ्रीजरेटर के दिलकश तसव्वुर को ज़ेह्न में लाइए। जब भी चिलचिलाती धूप और लू में पसीना-पसीना होने के बाद आप का दिल ठंडे पानी या आइसक्रीम को चाहेगा तो उनका मशवरा आपको याद आएगा और ज़िंदगी भर रेफ्रीजरेटर की याद या कमी आपको सताती रहेगी।
मशवरा देने वालों की दूसरी तकलीफ़-देह क़िस्म वो है जो वक़्ती तौर पर किसी तकलीफ़ से मुतास्सिर होने के बाद आपको किसी न किसी तकलीफ़ में मुब्तिला करने पर आमादा हो जाते हैं, मसलन आपका कोई अच्छा भला मुलाक़ाती आपके शानदार पाँच मंज़िला इमारत की सारी सीढ़ियाँ तय करके जब हाँपता-काँपता ऊपर पहुँचे तो मकान की ता'रीफ़ के बाद आपको बताए कि इतने उ'म्दा मकान में आपने बस एक कसर छोड़ दी है और जब आप सवालिया निशान बन जाएँ तो बड़ी सादगी और भोलेपन से वो मशवरा दें,
“आप इसमें लिफ़्ट क्यों नहीं लगवा लेते।”
“आ-के मेहरबान तो मशवरा दे कर चलते बनेंगे लेकिन ज़िंदगी भर ज़ीने उतरने चढ़ने के साथ हर बार उनका “लिफ़्ट” का मशवरा आपका तआ'रुफ़ करता रहेगा और हमेशा आपको रोना रहेगा कि मुफ़्लिसी के सबब एक लिफ़्ट तक न लगवा सके।”
इन मशवरा देने वालों के आए दिन के मशवरों से तो मेरे कान पक गए।
इत्तिफ़ाक़ से एक बार इम्तिहान में फ़ेल हो गई, अब जो पुरसा देने वालों का तांता बंधा तो दिल ही दिल में ख़ुदा का शुक्र बजा लाई, कि अगर ग़लती से पास हो जाती तो इतने लोगों को मिठाई खिलाने के लिए ख़ुद हलवाई बनना पड़ता। जो आता वो फ़ेल होने पर इज़हार-ए-अफ़सोस तो कम करता और पास होने के मशवरे ज़्यादा देता। जिन बुज़ुर्गों ने हमें दिन-रात मेहनत से पढ़ कर अगला इम्तिहान पास होने पर ज़ोर दिया था, उनमें से ज़्यादा तर की सात पुश्तों में भी किसी ने किताब की शक्ल नहीं देखी थी, और उनकी क़ाबिलीयत का ये आ'लम था कि ख़ुद घर के रोज़मर्रा के सौदा सुल्फ़ और धोबी के कपड़ों तक का हिसाब न देख सकते थे, बल्कि बा'ज़ अंगूठा लगाने वाले तक हमें मशवरा दे रहे थे।
एक दिन मैं अपना ग़रारा जो सीने बैठी, तो पड़ोस की बी आमिना टपक पड़ीं, पहले तो उन्होंने कपड़े का बग़ौर मुआ'इना कर के उसमें नुक़्स निकाला, हमारा जी ही तो जल गया, उसके बाद कतर-ब्योंत और सिलाई के बारे में अपनी राय देती रहीं। लुत्फ़ की बात तो ये है कि वो सिलाई के बारे में क़तई नावाक़िफ़ हैं, बस उनके ज़ेह्न में दो-चार फ़िल्मी ग़रारे थे, जिनके बल पर वो अपनी बे-पनाह क़ाबिलियत का रोब मुझ पर झाड़ रही थीं।
मगर सबसे ज़्यादा गु़स्सा तो उन पर आता है जो खाने-पीने की चीज़ों में अपना मशवरा मिला कर खाने-पीने का नास मारते हैं, मसलन हमें आलू, मटर और टमाटर पसंद हैं तो वो लौकी, तुरई और भिंडी के इफ़ादी पहलू पर ग़ौर करने का मशवरा देंगे, अगर हमें चावल भाता है तो वो इसरार करेंगे, कि रोटी खाया कीजिए। इस क़िस्म के मशवरे लाख इस कान से सुन कर उस कान से उड़ा दें, मगर इससे हमारी “जनरल नॉलेज” में जो इज़ाफ़ा होता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता, कि किस तरकारी में विटामिन “बे” है और किस में “टे”। ग़रज़ ये कि 'टे' से जीम चे हे सभी तरह के विटामिनों से पूरी-पूरी वाक़फ़ियत हो जाती है और गेहूं बशर्ते कि कंट्रोल में आने की वजह से सड़ न चुके हों, चावल से ज़्यादा ताक़तवर होते हैं। हालाँ कि गेहूँ के बारे में हम इतना इ'ल्म ज़रूर रखते हैं कि गेहूँ खाने के बाद ही हज़रत आदम अलैहिस्सलाम इस दुनिया में पहुँचने के मुर्तक़ब हुए थे, और अब उनका गेहूं खाने का मशवरा ख़ुदा जाने हमें किस जहन्नुम में ले जाए।
हमारे बा'ज़ मुलाक़ाती तो मशवरा देने में इस क़दर हातिम वाक़े हुए हैं कि हमें तरह-तरह के मशवरे देने की फ़िक्र में दिन-रात दुबले और बीमार रहते हैं और वो घर के हर मुआ'मले को अपना मुआ'मला समझते हैं, अगर गर्मियाँ गुज़ारने के लिए हम कश्मीर जाने को बिल्कुल टिकट बदस्त हों, तो वो इसरार करेंगे, कि भई कश्मीर में क्या रखा है, नैनीताल या शिमला जाओ, और मज़े की बात तो ये है कि उन्होंने पहाड़ और पहाड़ी तो क्या, कोई टीला तक नहीं देखा। लेकिन जमहूरियत में आज़ादी-ए- राय, और सेहतमंद हिज़्ब-ए-मुखालिफ़ का होना ज़रूरी है, इसलिए वो आ'दत से मजबूर हो कर इख़्तिलाफ़ बरा-ए-इख़्तिलाफ़ की ख़ातिर कश्मीर पर शिमला को तर्जीह दे रहे हैं।
कुछ भले मानुस अपनी बात ऊपर रखने या निभाने की ख़ातिर मशवरे दिया करते हैं, अगर आपने ऊषा सिलाई मशीन ख़रीदी है, तो ये फ़ौरन आप की टांग खींचेंगे, कि “मेरिट” क्यों नहीं ख़रीदी, वो तो इससे ज़्यादा अच्छी होती है, अगर आप सोनी पंखा ख़रीद लाए हैं, तो वो आपकी जान को आ जाएँगे आप इसको वापस करके “ऊषा” पंखा ले आएँ।
इस क़िस्म के मशवरे देने वालों की उस वक़्त सब से ज़्यादा बन आती है जब उनकी दुआ से उनका कोई दोस्त या अ'ज़ीज़ बीमार पड़ जाता है। इसके बाद उनके ग़ोल के ग़ोल आपके ग़रीबख़ाने पर गिरना शुरू हो जाएँगे, उन्हें इससे बहस नहीं कि आपको महज़ मौसमी बुख़ार या मा'मूली नज़ला बुख़ार हो गया है, वो किसी भी सूरत में उसे “टीबी” से कम का दर्जा न देंगे, उनकी पूरी कोशिश ये होगी कि आप ज़िंदगी से हाथ न धो सकें, तो कम-अज़-कम सेहत से तो धो ही लें। इसका तजुर्बा मुझे पिछली बरसात में उस वक़्त हुआ, जब मैं मौसमी बुख़ार में मुब्तिला हो कर बिस्तर-ए-अ'लालत पर दराज़ थी, जिसके चारों तरफ़ इ'यादत करने वालों का सुब्ह से शाम बल्कि रात गए तक मेला सा लगा रहता था।
एक बड़ी बी आईं, तो आते ही उन्होंने माथे पर हाथ रखा, नब्ज़ के धोके में कलाई पकड़ कर टिटोलती रहीं, सीना ठोंक बजा कर देखा। हमारी जुमला बदपरहेज़ियों का जाएज़ा लेने के लिए कमरे के चारों तरफ़ गहरी नज़रों से मुआइना किया, लेकिन जब कमरे में या मेरे आस-पास ऐसी कोई चीज़ तो दरकिनार “नमदा” तक न मिला, तो फिर मेरी शामत आई, बोलीं...
“आख़िर कैसे आ गया बुख़ार? क्या क्या खाया था? ठंडे में ग़ुस्ल किया था? केला खाया था, या अमरूद और सेब वग़ैरा कोई ठंडी चीज़ इस बरसात में खाई थी, या शबनम में सो गई थीं?”
उनकी जिरह जारी थी, और हम दिल ही दिल में हैरान, कि नहाना तो सेहत के लिए ज़रूरी है और फल सेहत बख़्श चीज़ होते हैं, इनका भला बीमारी से क्या तअ'ल्लुक़, फिर भी इक़बाल-ए-जुर्म के तौर पर सर हिलाना पड़ा, और उन्होंने जवाबी गोला बारी करते हुए कुनैन मिक्सचर से भी तल्ख़ लेक्चर पिलाना शुरू कर दिया।
“ग़ज़ब ख़ुदा, तुम ने भी हद कर दी। गर्मियों में नहाने के बाद ठंडे फल खाए, बुख़ार न आता तो क्या गर्मी दाने निकलते।”
दूसरे साहब की रग-ए-हिक्मत जो फड़की, तो पूछ ही तो बैठे,“किस का इलाज हो रहा है?”
“डॉक्टर अहमद का!”
“ओहो, ये भी कोई डॉक्टरों में डॉक्टर है। हकीम असदुल्लाह ख़ाँ को क्यों न दिखाया, उसे मसीहा जानो, मुर्दा ज़िंदा कर देता है।”
सुब्ह से अब तक ये मुशीर होमियोपैथिक, एलोपैथिक, आयुर्वेदिक, बायो केमिक, नेचर क्योर, माहिर-ए-तिब्ब और माहिर-ए-बरक़ियात से लेकर तकिया वाले शाह साहब तक कई सौ मुआ'लिज तजवीज़ कर चुके थे और ख़ुदा न-ख़्वास्ता अगर मैं इनमें से किसी का इलाज करना भी चाहती, तो उनके इंतिख़ाब में कम से कम एक हफ़्ता ज़रूर लग जाता, जब कि बुख़ार दो तीन दिन में रफूचक्कर हो जाता।
एक साहिबा टेमप्रेचर, नब्ज़ वग़ैरा की तफ़्सील मा'लूम करने के बाद बजाए मुतमइन होने के, कि मा'मूली बुख़ार है, शाम तक उतर जाएगा, मुझ पर बरस पड़ीं। उनका पारा एक दम चढ़ गया और मैं समझी कि मेरा बुख़ार उनके चढ़ गया, जो इस सूरत में उतरा कि—
“बस बस,यही सब बातें कच्चेपन की हैं। दुश्मन और बीमारी को कभी हक़ीर नहीं समझना चाहिए। तुम कहती हो कि बुख़ार 99 डिग्री है और मैं कहती हूँ कि निन्नानवे का फेरा बुरा होता है, इससे बचने के लिए टोटका ज़रूरी है।”
“दूसरी ने मशवरा दिया।”
“कुछ नहीं, पहले एक्सरे कराओ, एक्सरे!”
ग़रज़ ये कि रात को जब सोने की कोशिश की, तो नींद इसलिए ग़ायब नहीं हुई कि मैं बीमार थी, या ये कि, “मौत का एक दिन मुअ'य्यन” है बल्कि इसलिए कि मा'मूली बीमारी के ख़ौफ़नाक पहलुओं ने हमें अपनी लपेट में ले लिया। रात भर उठ-उठ कर कभी थूक का मुआ'इना करती, कभी टेमप्रेचर देखती, कभी बलग़म की कमी-ओ-बेशी और नौइयत पर ग़ौर करते, रात तो कट ही गई, मगर हफ़्तों हम इस कश-मकश में मुब्तिला रहे, कि हमें ज़रूर कुछ ख़तरनाक बीमारियाँ लाहक़ हो चुकी हैं और हमारा ये शक उस वक़्त तक दूर न हुआ, जब तक हम अपनी एक सहेली के पास न चले गए, और मुफ़्त के मशवरे देने वालों से महफ़ूज़ होते ही न सिर्फ़ हम अच्छे भले हो गए, बल्कि हमेशा के लिए बीमार पड़ने से तौबा कर ली।
मौसमी बुख़ार से तो हम पीछा छुड़ा चुके हैं, लेकिन बे-मौसम के मुशीरों से उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते मुफ़्त के मशवरों से निजात पाना अभी बाक़ी है।
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