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शादी हिमाक़त है

शौकत थानवी

शादी हिमाक़त है

शौकत थानवी

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    शादी के बाद से इस बात पर ग़ौर करने की कुछ आदत सी हो गई है कि शादी करना कोई दानिशमंदाना फे़’ल है या हिमाक़त, यानी अगर ये दानिशमंदी है तो फिर बा’ज़ औक़ात अपने बेवक़ूफ़ होने का बेसाख़्ता एहसास क्यों होने लगता है और अगर ये हिमाक़त है तो इस हिमाक़त में दुनिया क्यों मुब्तला नज़र आती है। आप कह सकते हैं कि अगर ये कोई ग़ौर करने की बात थी तो शादी से पहले ग़ौर किया होता। मगर मेरा ख़्याल ये है कि ग़ौर करने का शऊर आम तौर पर शादी के बाद ही पैदा होता है। वर्ना इस दुनिया से शादी की रस्म कब फ़ना हो चुकी होती। यहाँ तक पहुँचने के बाद एक सवाल और पैदा होता है। वो ये है कि शादी हो चुकने के बाद इस पर ग़ौर करने से फ़ायदा ही क्या है। इसका जवाब ये है कि इसका फ़ायदा एक शादीशुदा इंसान को तो ख़ैर नहीं पहुँच सकता। लेकिन ख़लक़-उल-ल्लाह को फ़ायआ पहुँचने का क़वी इमकान मौजूद है। जिस तरह दुनिया के तमाम तजुर्बे हासिल करने वाले बनी नौअ इंसान के मोहसिन हैं। उसी तरह हम शादीशुदा लोग भी आइन्दा नस्लों के मोहसिन हो सकते हैं, बशर्ते कि वो नस्लें,

    देखें हमें जो दीदा-ए-इबरत निगाह हो

    यक़ीनन वो अज़ीम-उल-मर्तबत शख़्स हम सबका मोहसिन था जिसने सबसे पहले ज़हर खाकर मरने का तजुर्बा किया और दुनिया को ज़हर के मुताल्लिक़ ये शऊर अता किया कि उसके खाने से आदमी मर जाता है। चुनांचे हमने भी शादी इसलिए की है कि ग़ैर शादीशुदा हमको देखें कि शादी करने के बाद इंसान वो होजाता है जो हम हो गए हैं।

    शादी तो ख़ैर एक मुस्तक़िल मबहस बल्कि एक फ़न मुकम्मल है। इस सहरा का सिर्फ़ एक ज़र्रा और इस क़ुलज़ुम का सिर्फ़ क़तरा इस वक़्त मौज़ू-ए-बहस है। यानी बीवी भी नहीं बल्कि बीवी के रिश्तेदार, अब अगर आप उस ज़र्रे की वुसअतों और उसी क़तरे की गहराइयों पर ग़ौर करें तो चीख़ उठेंगे।

    उसी क़तरे में दरिया है, उसी ज़र्रे में सहरा है। बीवी के रिश्तेदार एक शादीशुदा इंसान के लिए आम तौर पर साँप के मुँह वाली छछुंदर साबित होते हैं जिनको उगला जाये निगला जा सकता कि वो बीवी के रिश्तेदार हैं। और निगला इसलिए नहीं जा सकता कि अपने रिश्तेदार नहीं हैं। अपने रिश्तेदारों के मुताल्लिक़ एक आदमी को हर वक़्त उगलने या निगलने का इख़्तियार हासिल रहता है। उनसे दिल ख़ुश है, तबीयत मेल खा रही है। दिल क़बूल कर रहा है तो ताल्लुक़ात क़ायम हैं, वर्ना बहाना ढूंढ कर लड़ लिये। वो अपने घर ख़ुश हम अपने घर ख़ुश, लेकिन बीवी के रिश्तेदारों के मुताल्लिक़ तो ये गोया एक तय शुदा बात है कि उनसे हर हाल में ताल्लुक़ात रखना हैं। उनसे ख़ुलूस का इज़हार करना है, उनकी मुदारात में दिल, जिगर और आँखों के फ़र्श बिछाकर उन पर जज़्बात के गाव तकिए लगाना हैं। अगर वो बड़े हैं तो सआदतमंदी के उनको वो जौहर दिखाना हैं जो ख़ुद उन की ज़ाती औलाद से मुम्किन हों। अगर बराबर के हैं तो मुहब्बत का वो इज़हार करना है कि वो भी मुनाफ़क़त के क़ाइल होजाएं। अगर छोटे हैं तो इस क़िस्म की शफ़क़त करना है जिसमें गुस्ताख़ी का कोई इमकान हो।

    अलबत्ता अगर अदब का पहलू नुमायां हो जाए तो चंदाँ मुज़ाइक़ा नहीं है। आपको मालूम है कि इस क़िस्म की ज़बरदस्ती और नफ़सकुशी से एक इंसान किस हद तक जराइमपेशा होजाता है। यानी उस की अख़लाक़ी जुर्रत फ़ौत होजाती है, ज़मीर की ज़बान पर फ़ालिज गिर जाता है। सच्चाई के आलम में आजाती है, ईमानदारी इख़्तिलाज में मुब्तला हो जाती है और बहैसियत मजमूई वो इंसान अगर कुछ बाक़ी रह जाता है तो सिर्फ़ मुनाफ़िक़, दरोग़ बाफ़, और एक हद तक डरपोक भी। लेकिन कुछ भी हो अगर उसको बीवी प्यारी है तो बीवी के रिश्तेदारों से अच्छे ताल्लुक़ात रखना ही पड़ते हैं। ख़्वाह दिल ही दिल में वो ख़ुदकुशी या फ़रार के इमकानात पर कितना ही ग़ौर क्यों करे।

    बीवी के रिश्तेदारों की भी अजीब अजीब क़िस्मों से एक बीवी वाले को दो-चार होना पड़ता है। उनमें से मौत का दर्जा तो कमोबेश सब ही को हासिल होता है। लेकिन बा’ज़ होते हैं महज़ मौत, बा’ज़ नागहानी मौत, बा’ज़ ग़रीब-उल-वतनी की मौत और बा’ज़ हर हाल में मलिक-उल-मौत, महज़ मौत तो ख़ास ख़ास लोग होते हैं जिनका एक इंसान तक़रीबन आदी होजाता है, मसलन बीवी के वालिद, भाई, माँ, ख़ाला, चचा, चची, मामूं और ममानी वग़ैरा। नागहानी मौत वो रिश्तेदार होते हैं जिनका कोई इल्म ही नहीं होता। बस दफ़्तर से आकर ये मालूम होता है कि बावर्चीख़ाने में मुर्ग़ मुसल्लम पक रहा है। नेअमतख़ाने में फ़िरीनी के प्याले चुने हुए हैं। और घर के तमाम नौकर पुलाव से कुश्ती लड़ रहे हैं। दरयाफ़्त करने पर पता चलता है कि ख़ुसर साहब के कोई फूफीज़ाद भाई जुनूबी अफ़्रीक़ा से तशरीफ़ लाए हैं, चुनांचे सेहन में क़ालीन बिछे हुए, तख़्त पर गाव तकिया से लगे हुए हुक़्क़ा पीते और पान चबाते एक सिंदबाद जहाज़ी नज़र आते हैं। जिनके सामने बीवी साहिबा पान पर पान और इलायचियों पर इलायचियां रखती नज़र आती हैं। मजबूरन निहायत अदब से आदाब अर्ज़ करना पड़ता है। जिसके जवाब में ये फ़िरऔन-ए-मिस्र फ़रमाते हैं,

    “सलामत रहो मियां, आओ बैठो, बड़ी तबीयत ख़ुश हुई तुम्हें देखकर। बरखु़र्दार मन, ये अजीब तरीक़ है तुम्हारे यहाँ का कि सुबह से ग़ायब अब आए हो शाम को।”

    अर्ज़ किया कि “दफ़्तर के औक़ात कुछ ऐसे ही हैं।”

    निहायत रऊनत से फ़रमाया, “दरअसल मुलाज़मत गु़लामी का दूसरा नाम है। हमारे ख़ानदान में सब तिजारत पेशा हैं। अब ये उन लड़कियों की क़िस्मत थी कि उनको मुलाज़मत पेशा बर मिले और दरअसल तिजारत का कहना ही क्या। इंसान बादशाही की हद तक तरक़्क़ी कर सकता है। जुनूबी अफ़्रीक़ा में तुम्हारी दुआ से पहले एक चाय स्टाल था मेरा, अब दो होटल हैं और ख़ूब चल रहे हैं। भाई साहब को देखो, यानी अपने ख़ुसर को लैस बेल फ़ीता वग़ैरा बेचते थे मगर अब ख़ुदा के फ़ज़ल से महज़ दूकान का किराया देते हैं। आठ रुपया माहवार तो मतलब ये कि तिजारत कुछ और ही चीज़ है। बहरहाल क्या तनख्वाह मिलती है?”

    अर्ज़ किया, “पचासी रुपये।”

    निहायत हक़ारत से उन बिसाती के भाई होटल वाले साहब ने फ़रमाया, “इस क़दर आमदनी तो एक ताँगा रखकर और किराया पर चलाकर भी हो सकती है।” अब बीवी को जो रहम तलब नज़रों से देखा तो वो गोया अपने अफ़्रीक़न चचा जान की ताईद में थीं, नतीजा ये हुआ कि ज़हरा घूँट पी कर और उनके साथ मुर्ग़ पुलाव और फ़िरीनी खाकर रह गए।

    एक तो आए दिन की मुसीबत ये है कि सोसाइटी में हर वक़्त के ताने हैं कि सुनिए जनाब आपके ख़ुसर तो बड़े गिरां फ़रोश हो गए हैं। सीप के बटन तमाम दुनिया में चार आने दर्जन मिल रहे हैं, और वो देते हैं पाँच आना दर्जन, अब कौन उन पढ़े लिखे दोस्तों को समझाए कि भाई उनको घुमा फिराकर बिसाती कहो। मलिक-उत-तिजार कहो, बहरहाल इस क़िस्म की बातों की तो ख़ैर आदत पड़ जाती है। मगर ये भांत भांत के नागहानी रिश्तेदार जो टपकते रहते हैं उनका आख़िर क्या इलाज और उनसे भी ज़्यादा लाइलाज वो क़िस्म है जिसको ग़रीब-उल-वतनी की मौत अर्ज़ किया है। बीवी के ये रिश्तेदार ग़ुर्बत में बहुत सताते हैं। फ़र्ज़ कर लीजिए कि आप बसिलसिला-ए-मुलाज़मत या बसिलसिला-ए-शामत कहीं बाहर गए हुए हैं। बड़े लिए दिए बैठे हैं। दिल मुतमइन है कि यहाँ किसी को ये ख़बर नहीं कि हम बिसाती के दामाद हैं कि यकायक एक साहब दाढ़ी चढ़ाए लठ हाथ में कुछ चोरों की सी वज़ा क़ता तशरीफ़ ले आएँगे और इतनी ज़ोर से अस्सलामु अलैकुम करेंगे कि आप उछल पड़ें। अब वो गुल अफ़्शानी शुरू कर देंगे कि “अरे भाई यहाँ आए और ख़बर तक की। हम लाख ग़रीब हैं मगर फिर भी तुम हमारे दिल जिगर हो, मैं तुम्हारे ख़ुसर साहब की हक़ीक़ी ख़ाला का दामाद हूँ। इस क़दर क़रीब के अज़ीज़ और ये बेगानगी और जो ये कहो कि मेरा पता था तो मियां ये बात मैं मानने का नहीं, स्टेशन पर जिस ताँगे वाले से पूछ लेते कि भाई तुम्हारे चौधरी कहाँ रहते हैं वो पता बता देता।” अब बताइए कि उन चौधरी साहब के परदेसी दामाद का सारा वक़ार उस ग़रीब-उल-वतनी में किस की बग़लें झाँकता फिरे और जो सिक्का यहाँ जमाना चाहते थे उसकी खोट मालूम हो जाने के बाद अपनी क़ीमत क्यों कर क़ायम रखी जाये।

    ख़ैर, ये सूरतें तो ऐसी हालत में पैदा होती हैं कि आदमी ज़ोफ़-ए-बसर के मातहत या तो अपने से पस्त दर्जा के लोगों से ससुराली ताल्लुक़ात पैदा करने या दिमाग़ की ख़राबी के मातहत बिला वजह ख़ुद अपनी असलियत छुपा रहा हो और वो इस तरह बेनक़ाब होती है। लेकिन ऐसी सूरतें अगर भी हों तो ससुराली रिश्तेदार कुछ अजीब ख़ुदाई फ़ौजदार क़िस्म के लोग तो ज़रूर ही साबित होते हैं।

    हमदर्दी वो इसलिए नहीं कर सकते कि अपने नहीं होते और नुक्ताचीनी इसलिए अपना फ़र्ज़ समझते हैं कि हम उनकी एक अज़ीज़ा के निहायत ख़ास क़िस्म के रिश्तेदार होते हैं। यानी वो अच्छी तरह ठोंक बजा कर इस क़ाबिल तो समझ लेते हैं कि अपनी अज़ीज़ा की शौहरी के एज़ाज़ से हमको सरफ़राज़ कर दें। मगर ये अंदेशा उनको क़दम क़दम पर रहता है कि मुम्किन है उनकी नज़र-ए- इंतख़ाब ने धोका खाया हो। बहरहाल पहले तो वो रस्मी तौर पर अपनी अज़ीज़ा का शौहर बना देते हैं। इसके बाद अमली तौर पर गोया शौहर बनने की ट्रेनिंग देते रहते हैं। शौहर ग़रीब, निस्बत से लेकर शादी तक और शादी से लेकर मौत तक यही समझता रहता है कि उसने अपने को सिर्फ़ एक हस्ती से वाबस्ता किया है। लेकिन उसकी ये ग़लतफ़हमी तरह तरह से दूर की जाती है और उसको बताया जाता है कि निकाह तो सिर्फ़ एक से हुआ, मगर निबाह इन सबसे करना है जो किसी किसी हैसियत से बीवी के रिश्तेदार हैं या हो सकते हैं या समझे जा सकते हैं, या समझे जाने का कोई भी इमकान मौजूद है। उन रिश्तेदारों से निबाह भी मर खप कर गवारा कर लिया जाये। मगर होता आम तौर पर ये है कि निबाह अख़लाक़ी, तमद्दुनी, मुआशरती, इक़तिसादी और मआशी हर हैसियत से अव्वल तो नामुमकिन होता है और अगर मुम्किन बना भी लिया जाये तो बहुत गिरां रहता है। मसलन अख़लाक़ी हैसियत से यूँ गिरां साबित होता है कि उनकी हर बदअख़्लाकी को सराहना आख़िर क्यूँ कर मुम्किन है।

    तमद्दुनी और मुआशरती हैसियत से ये निबाह इसलिए गिरां बैठता है कि अपना तमद्दुन और अपनी मुआशरत छोड़कर उनके रंग में रंग जाना अव्वल तो एक क़िस्म की ज़न मुरीदी है। दूसरे ये भी कोई ज़रूरी बात नहीं कि वो तमद्दुन और वो मुआशरत क़ाबिल-ए-क़बूल भी हो।

    फ़र्ज़ कर लीजिए कि वो लोग पहलवान हैं। अब बताइए कि हम अपनी मुआशरत में डंटर और मुगदर क्यूँ कर शामिल कर सकते हैं। इक़तिसादी हैसियत का पूछना ही क्या जितनी तक़रीबें, शादियां, कन छेदन, दूध बढ़ाई, मूँछों में, कूँडे, मंगनियां और हद ये है कि मौतें उन ससुराली रिश्तेदारों में होती हैं। इतनी अपने रिश्तेदारों में कभी नहीं होतीं, इसलिए कि अपने रिश्तेदार तो गिने गिनाए महदूद होते हैं। मगर इन ससुराली रिश्तेदारों का तो कोई शुमार नहीं होता। फिर ये कि हर तक़रीब में बीवी का जाना और शौहर का इस सिलसिले में मक़रूज़ होना बरहक़ होता है ताकि ससुराल में बात बनी रहे। ख़्वाह महाजन बात का बतंगड़ बना ले। मआशी हैसियत का ज़िक्र मैंने इसलिए किया है कि बहुत से दामाद क़िस्म के यतीम लोग या तो ससुराली पेशा इख़्तियार करने पर मजबूर कर दिए जाते हैं या कम से कम ससुराली बुज़ुर्गों के मशवरे से किसी मुलाज़मत से मुस्तफ़ी होने या किसी मुलाज़मत की उम्मीद-वारी करने का फ़ैसला ज़रूर करते हैं। इन तमाम उमूर के अलावा एक सबसे बड़ी बात ये भी होती है कि ससुराली रिश्तेदारों की तब्लीग़ से अपने रिश्तेदारों से आदमी दूर होजाता है। ख़ैरियत उसी को समझिए कि अमन सकून से ताल्लुक़ ख़त्म और वो उस्तवार होता रहे। वर्ना इस सिलसिला में फ़ौजदारियाँ तक देखी और सुनी हैं और क्या अजब है कि कभी उन ही फ़ौजदारियों की ज़ाती तौर पर नौबत आजाए, इसलिए कि लाख समझदार सही मगर फिर भी आख़िर शादीशुदा तो हम हैं ही।

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