उनका मूड
दिन में कई बार हमारे घर का मन्ज़र क़ाबिल-ए-दीद होता है। हमारे “वो” कभी अपने चश्मे के केस की तलाश में घर भर में चक्कर काटते नज़र आते हैं। कभी-कभी ये तलाश किसी ख़तरनाक मुहिम की शक्ल इख़्तियार कर जाती है, क्यों कि चश्मा कहीं मिलता ही नहीं। (वो ऑफ़िस या किसी मिलने-जुलने वाले की मेज़ की ज़ीनत जो बना होता है) उस वक़्त उनके साथ हमारी अम्माँ, उनकी एक अदद साली साहिबा और चहेते साले, घर का नौकर और ख़ुद मैं भी चश्मे की खोज में घर के सामान को उलटते-पलटते, सिंघार मेज़ टटोलते, अलमारियाँ देखते, चारपाइयों के नीचे झाँकते हुए आपको नज़र आ जाएँगे। तक़्रीबन आधे घंटे तक सिलसिला चलता है। सब थक कर बैठ जाते हैं। चश्मा कहीं से बरामद नहीं होता मगर हमारे मियाँ जी की एक ही रट रहती है। “अभी रात को ही तो मैंने यहाँ मेज़ पर रखा था।“ अब उसे मेज़ से चोर, डाकू उठा ले गए या जिन्नात, समझ में नहीं आता। उनके माथे पर सिलवटें उभर आती हैं। मूड ख़राब होना शुरू होता है कि अचानक दरवाज़े की घंटी बजती है और पड़ोस का नौकर अपने हाथों में हमारे मियाँ का चश्मा थामे नज़र आता है और इत्तिला देता है साहब रात फ़ोन करने गए थे। वहीं भूल आए थे।
पूरा घर चैन की साँस लेता है। मैं अपने दूसरे कामों में मस्रूफ़ हो जाती हूँ। इस आध घंटे में ज़ेह्न में जो उथल-पुथल और खलबली मच जाती है, उसका अन्दाज़ा कोई दूसरा लगा नहीं सकता। आहिस्ता-आहिस्ता बड़बड़ाने और ग़ुस्सा करने का हक़ मुझे भी है। अभी बावर्ची-ख़ाने में मेरी बड़बड़ाहट जारी है कि आवाज़ आती है, “मेरा बनियान कहाँ है? मैं दौड़ी-दौड़ी बेडरूम में आती हूँ। कल शाम ही तो तह करके अलमारी में बनियान रखे थे। मसहरी पर अलमारी में से निकाले हुए कपड़ों का ढेर है। मियाँ जी तौलिया लपेटे खड़े हैं। मैं जल्दी-जल्दी कपड़े उलटती हूँ। बनियान नहीं मिलता। झेंप कर दूसरी अलमारी खोलती हूँ। सलीक़े से तह किए हुए बनियान सामने रखे हैं। एक ग़ुस्से भरी नज़र उन पर डालती हूँ और बनियान हाथ में थमा देती हूँ। दर-अस्ल बनियान और रूमाल उनकी बहुत बड़ी कमज़ोरी थी। चाहे उन्होंने चार साल पहले चार नए बनियान ख़रीदे हों, लेकिन वो जब भी बनियान पहनने के लिए निकालें, बिल्कुल वैसे ही नए-नवेले “सफ़ेदी की चुम्कार” लिए होने ज़रूरी हैं। भला उन्हें कैसे समझाऊँ कि ये उनके अपने बनियान हैं जिन्हें बहुत सँभाल-सँभाल कर मैंने ख़ुद धोया है। न थपका है, न पटख़ा है और न पीटा है। हाँ, धुलते-धुलते बेचारे अपनी अस्ल रंगत ज़रूर खो चुके हैं। और अगर कहीं ख़ुदा-न-ख़्वास्ता एक-आध छेद भी बनियान में नज़र आ जाए तो फ़ौरन तेवरी चढ़ाकर कहेंगे, ये बनियान मेरा नहीं है। अभी थोड़े दिन पहले भी तो ख़रीद कर लाया हूँ। (ख़्वाह वो “थोड़े दिन” पूरे चार सौ पचास दिन ही क्यों न हों।) मैं बौखला जाती हूँ। क्या ग़लती से किसी दूसरे का बनियान उठा लाई हूँ? देवर, जेठ, सब ही तो साथ रहते हैं। लेकिन नहीं, ये तो मियाँ साहब का ही बनियान है। हर बनियान पर फ़ैरिक पेंट से उनका नाम जो लिख देती हूँ। मेरे लाख समझाने पर भी वो ख़फ़ा से हो जाते हैं। उनका ख़याल है कि उनके नए-नए बनियान कोई उड़ा ले जाता है और अपने फटे पुराने छोड़ जाता है।
अपने मियाँ की मुहब्बत ने मुझे भी ख़ासा सनकी बना दिया है। कहीं दो-चार रोज़ के लिए मेहमानदारी में शादी-ब्याह में जाना मुझे बड़ा दुश्वार लगने लगा है। कहीं जा कर कपड़ों की निगरानी एक बहुत बड़ा बोझ बन जाती है। अभी चन्द रोज़ पहले अपनी ननद के यहाँ उनकी बच्ची की शादी में जाना पड़ा। शादी का भरा-पुरा घर। मेरे दिल में बस एक ही ख़ौफ़ था कि उनके बनियान, रूमाल और दूसरे कपड़ों की हिफ़ाज़त कैसे कर पाऊँगी, क्योंकि शादियों में अक्सर चीज़ें खो ज़रूर जाती हैं। मेज़ा मोहतरमा तो यही है। ख़ास तौर पर कुर्ते, बनियान और पाजामे, क्योंकि ये मर्दाने कपड़े ब-ज़ाहिर एक से ही होते हैं। लेकिन मैंने भी सोच लिया था कि इस बार अपने यहाँ का एक भी कपड़ा इधर से उधर न होने दूँगी। सुब्ह को फ़ज्र की नमाज़ पढ़ने के बाद मेरा सबसे पहला काम ये होता कि अपने मियाँ और बच्चों के कपड़े, ख़ास तौर पर बनियान, रूमाल और कुर्ते-पाजामे धोकर फैला देती, ताकि लोगों के सो कर उठने तक मेरे कपड़े सूख जाएँ और मैं उन्हें तह करके अपनी अटैचियों में पहुँचा दूँ। तार पर कपड़े फैलाने के बाद उनके सूखने तक मैं बार-बार जाकर उन्हें देखती, उलटती-पलटती, लोगों पर नज़र रखती कि कोई अपने कपड़े मेरे कपड़ों के पास धोकर तो नहीं डाल रहा है। शादी-ब्याह में लोग, ख़ास तौर पर औरतें इस बात पर नज़र रखती हैं कि कौन कितनी सज-धज में है? किस के पास कितना ज़ेवर है? किस की साड़ी सबसे क़ीमती और ख़ूबसूरत है। लेकिन यक़ीन जानिए, मुझे इन तमाम बातों से कोई सरोकार न था। मेरी नज़रें अगर कहीं भटकतीं तो सिर्फ़ उनके धोकर फैलाए हुए कपड़ों पर। सच, इतनी गहरी नज़र तो मैंने कभी अपने शौहर पर भी न रखी होगी। एक-एक कपड़ा सूखता जाता और मैं तह कर करके रखती जाती।
एक रोज़ आस्मान पर गहरे बादल थे। मैं दुल्हन के कमरे में उनके बनियान और रूमाल धोकर फैला आई कि पंखे की हवा में सूख जाएँगे, शाम तक मैंने कपड़ों की ख़बर-गीरी की। रात तक कपड़े सूखे नहीं थे, इसलिए मैंने वहीं कमरे में टँगे छोड़ दिए और दुल्हन को ताकीद कर दी कि देखो बन्नो, कोई इन कपड़ों को हाथ न लगाने पाए। लेकिन सच मानिए, सुब्ह-सवेरे जब दुल्हन के कमरे में गई तो धक से लगाए रह गई। दुल्हन और उसकी सखियाँ हाथों में मेहंदी लगाए बे-ख़बर सो रही थीं और हमारे मियाँ के कपड़े, यानी बनियान और रूमाल ग़ायब थे। किसी ने मौक़े से ख़ूब फ़ायदा उठाया था। इस बरसात के मौसम में भला ऐसे धुले-धुलाए सूखे बनियान और रूमाल कहाँ मिलते। हम तो भैया सर पकड़ कर बैठ गए कि बस अब हमारे मियाँ का पारा सातवें आस्मान पर जा चढ़ेगा। चुप-चाप बाज़ार से उसी तरह के बनियान मँगाए। पहले उन्हें ख़ूब मिट्टी में लत-पत किया, फिर धोया, ताकि पुराने ही नज़र आएँ और तब मियाँ के सामने पेश किया। शुक्र है कि वो ख़ासे मस्रूफ़ थे। भांजी की शादी थी, वर्ना बनियानों की खाल उधेड़ते ही नज़र आते।
एक और बहुत बुरी कमज़ोरी है उनकी। “हवाई चप्पलें”। नीले रंग की हवाई चप्पलें आम तौर पर हर घर में पाई जाती हैं। वैसे मेरी पूरी कोशिश यही होती है कि उनकी चप्पलों का रंग अलग हो, लेकिन शामत की मारी मैं एक रोज़ क़रीब के बाज़ार गई तो उन के लिए नीले रंग की चप्पलें ही ख़रीद लाई। ये ध्यान ही न रहा कि घर में कई लोगों के पास नीले रंग की चप्पलें हैं। अब रोज़ एक नया तमाशा होने लगा। घर के सब लोग एक साथ बैठ कर टीवी और वी.सी.आर. देखते। रात को नींद के नशे में चूर झूमते-झामते लोग उठते तो जो चप्पल समाती, उसे पहन कर अपने अपने कमरों की राह लेते। हमारे मियाँ सबसे आख़िर में उठते तो अपनी चप्पलें या तो नदारद पाते या किसी और की बदरंग चप्पलें उनके पैरों के हिस्से में आतीं। वो बुरी तरह झुँझलाते। “मेरी चप्पलें” का शोर मचता और उनके मूड का पारा फिर चढ़ने लगता। दफ़्तर से घर आते ही जब उन्हें अपनी चप्पलें कहीं नज़र न आतीं तो नौकरों को हर कमरे में दौड़ा देते कि मेरी चप्पलें ले कर आओ। नौकर किसी दूसरे की चाहे बिल्कुल नई चप्पलें लाकर रख देता, लेकिन उन्हें अपनी ही चप्पलें चाहिएँ। वो ज़िद पकड़ लेते। अब लाख समझाओ कि भई सब की एक सी चप्पलें हैं। अगर अदल-बदल कर पहन ली गईं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है। लेकिन नहीं। इस मुआमले में वो क़तई बच्चों की तरह मचल उठते हैं। हालाँकि दो बार जुमा की नमाज़ पढ़ने के बाद मस्जिद से अपनी नई चप्पलें छोड़कर दो रंग की चप्पलें बदल लाए हैं, लेकिन दिमाग़ में उन्ही नई चप्पलों की तस्वीर बसी है। वो ये बिल्कुल भूल गए हैं कि नई चप्पलें गँवा चुके हैं। अब छोटे देवर की चप्पलें उन्हें अपनी नज़र आती हैं। वो बेचारा बार-बार कह कर थक चुका है कि “भाई मियाँ, मैं दस दिन पहले ही तो ये चप्पलें ख़रीद कर लाया हूँ। लखानी की हैं।” आख़िर एक दिन जब उनका मूड चप्पल न मिलने पर बहुत ख़राब हो गया तो मैं देवर अदील के पास पहुँची। नई चप्पलों के लिए उसे रुपये दिए। और उस मज़्लूम के पैरों में से चप्पलें निकाल कर ले आई। एक नुकीली कील से उन पर अपने मियाँ के नाम के दो हर्फ़ गोद दिए।
यक़ीन मानिए, मैं उनसे डरती बिल्कुल नहीं हूँ। लेकिन अपनी कोई चीज़ न मिल पाने पर उनका मूड जब ख़राब होता है तो मुझे बहुत बुरा लगता है। ख़ुद अपने आपको लानत-मलामत करती हूँ कि उनकी इतनी सी चीज़ की हिफ़ाज़त नहीं कर पाई। अब मेरा ये हाल है कि मियाँ के ऑफ़िस जाते ही उनकी चप्पलें हाथ में उठाकर अलमारी में रख देती हूँ या अलमारी वग़ैरह के नीचे छिपा देती हूँ। अब वो बहुत ख़ुश रहते हैं, क्योंकि उनके दफ़्तर से आते ही हाथों में एक जोड़ी चप्पल लिए मैं उनका दरवाज़े पर ही ख़ैर-मक़्दम करती हूँ। लेकिन हाँ, बनियान के लिए उनका मूड गाहे-ब-गाहे ख़राब भी रहता है।
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