ज़रा मुस्कुराइये
चाहे वो जलसा हो या मुशायरा, क़व्वाली की महफ़िल हो या कोई सरकारी तक़रीब, खेल का मैदान हो या सियासत का ऐवान, ऐसी तमाम जगहों पर दावत और टिकट के बग़ैर दाख़िल हो जाने की आसान तरकीब ये है कि गले में एक नाकारा कैमरा लटका लिया जाये। कैमरा लटका रहे तो गर्दन भी सीधी रहती है और रास्ता भी सीधा मिलता है। किसी की हिम्मत नहीं होती कि कैमरा मैन से ये दरयाफ़्त करले कि आप यहां किस ख़ुशी में तशरीफ़ लाए हैं।
फ़ोटोग्राफ़र ही वो वाहिद शख़्स है जो दिन के वक़्त सूरज की और रात के वक़्त बिजली की रोशनी में पुलिस की नज़रों के ऐन सामने, जलसा गाह में नक़ब लगाता है और पुलिस अक़ब मैं चुपचाप खड़ी रहती है। फ़ोटोग्राफ़र से ये भी नहीं पूछा जा सकता कि उसके इस ख़ूबसूरत कैमरे में फ़िल्म भी है या नहीं। ये फ़ोटोग्राफ़र का अपना राज़ होता है जो अवामुन्नास पर ज़ाहिर नहीं किया जा सकता।
फ़ोटोग्राफ़र न तो मज़ाहगो होता है न तंज़निगार लेकिन इसके बावजूद वो सबको मुस्कुराने पर मजबूर कर सकता है। उसके एक लफ़्ज़ मुस्कुराइए में अजीबोगरीब तासीर है। उससे ये लफ़्ज़ सुनकर वो लोग भी मुस्कुरा देते हैं जो न मुस्कुराएँ तो तस्वीर ज़्यादा अच्छी आए। उनकी अपनी तस्वीर तो बिगड़ती ही है दूसरे मुफ़्त में मारे जाते हैं। जिस तरह किसी मिल्ट्री ऑफीसर की ज़बान से अटेंशन का लफ़्ज़ सुनकर पूरी की पूरी बटालियन बे-ज़रूरत सीना तान देती है, उसी तरह फ़ोटोग्राफ़र की एक मामूली और रस्मी फ़र्माइश पर जिसमें कोई ख़ुलूस, कोई दर्द नहीं होता सभी की बांछें खिल जाती हैं। जोश मलीहाबादी ने इसी तरह किसी फ़ोटोग्राफ़र के कहने पर एक हसीना को मुस्कुराते देख लिया था तो बरजस्ता फ़रमाया था;
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है
(बाद में उन्होंने इस मिसरे को एक रुबाई में जमा करके उसका हुलिया बदल दिया)
फ़ोटो खिंचवाते वक़्त हर शख़्स का मुस्कुराना अब ख़ुद फोटोग्राफरों को भी पसंद नहीं। फ़ोटोग्राफ़र अब इतने बाइख़्तियार हो गए हैं गोया दस्तूर की 42 वीं तर्मीम पार्लीमान में उन्ही के लिए उतरी थी। ग्रुप फ़ोटो खींचते वक़्त पहले तो ये लोगों को शक्ल व सूरत, क़द-ओ-क़ामत और लिबास व पोशिश के मेयार पर जांच कर दो तीन हिस्सों में तक़सीम करते हैं, जिनका क़द बहुत ज़्यादा लंबा होता है या जो सूरत से मिस्कीन और दूसरे दर्जे के शहरी नज़र आते हैं उन्हें ज़मीन पर बिठा देते हैं, किसी के हालात कितने ही ना-मुवाफ़िक़ क्यों न हों उसे उकड़ूं बैठने पर मजबूर करते हैं।
कुर्सियों पर बैठने वालों के दस्त-ओ-बाज़ू पर इतनी कड़ी नज़र रखते हैं कि ये डर होने लगता है कि उन्हें नज़र न लग जाये और कुर्सियों के पीछे खड़े रहने वालों को इस तरह खड़ा करते हैं कि वो खड़े रहने के अंदाज़ ही से वज़ीफ़ायाब दिखाई देने लगते हैं। फ़ोटोग्राफ़र अपने तमाम “सामईन” को इस तरह तरग़ीब देते हैं जैसे इक्का बाना सिस्टम के मुताबिक़ गुलदान में फूल सजाये जाते हैं। यहां तक तो ख़ैर सब ठीक था और लोग इस बंदोबस्त के आदी भी हैं लेकिन फ़ोटोग्राफरों ने अपने इख़्तियारात में अब इस इख़्तियार का इज़ाफ़ा कर लिया है कि वो शरकाए तस्वीर में से किसी से भी कह देते हैं कि फ़ुलां साहिब न मुस्कुराएँ और किसी को अपनी मुस्कुराहट का वाल्यूम कम करने की हिदायत भी दे सकते हैं। कोई फ़ोटोग्राफ़र ये गवारा नहीं करसकता कि दस्तूर की 42वीं तर्मीम यूं ही ज़ाए हो जाए।
फ़ोटोग्राफ़र हमेशा एक फ़ोटो दो मर्तबा खींचा करते हैं। बा’ज़ लोग ये समझते हैं कि फ़ोटोग्राफ़र एक ही तस्वीर दो क़िस्तों में मुकम्मल करते हैं लेकिन ये ग़लत है। पहली तस्वीर सिर्फ़ मुसव्वदा होती है। फोटोग्राफरों ने असल में दोहराने का ये तरीक़ा शायरों से सीखा है। शायर अपने हर शे’र का पहला मिसरा दो मर्तबा पढ़ा करते हैं (ये और बात है कि फ़ायदा कुछ नहीं होता।)
एक शायर और एक फ़ोटोग्राफ़र में यूं तो कई बातें मुख़्तलिफ़ होती हैं लेकिन इन दोनों हज़रात में दो फ़र्क़ अहम हैं। एक तो ये कि फ़ोटोग्राफ़र को अपने मुताल्लिक़ कोई ग़लतफ़हमी नहीं होती और दूसरे ये कि फ़ोटोग्राफ़र पर हूटिंग का रिवाज नहीं बल्कि अब तो ये हाल हो गया है कि शायर की बजाय फ़ोटोग्राफ़र “दीदा बीनाए क़ौम” हो गया है। कैमरे की आँख चश्मपोशी की आदी नहीं होती। आज इज्तिमाई और इन्फ़िरादी ज़िंदगी में फ़ोटोग्राफ़र का वही दर्जा है जो ग़ज़ल में रदीफ़ और क़ाफ़िए का होता है, वर्ना अमलन वो हर ख़ानदान का रुक्न है।
पहले की बात और थी, आदमी अपनी शक्ल सिर्फ़ आईने में देखकर ख़ुश हो लेता था, अब इससे तशफ्फ़ी नहीं होती। अपनी तस्वीरों का एक पूरा एलबम रखना पड़ता है जिसका दिन में एक मर्तबा मुताला ज़रूरी है। जिस ख़ानदान का फ़ैमिली एलबम नहीं होगा लोग उस ख़ानदान के अफ़राद के बारे में शक-ओ-शुबहा में मुब्तला होजाते हैं और सोचने लगते हैं कि ये लोग ख़ानदानी हैं भी या नहीं। बा’ज़ लोग तो ये भी समझने लगते हैं कि ये लोग मुम्किन है ख़ानदानी मंसूबाबंदी की ख़िलाफ़वर्ज़ी करके पैदा हो गए हैं। इस लिए हर शख़्स एहतियातन एक एलबम रखता ही है।
यूं भी जब से आमाल-ओ-अफ़आल की नौईयत बदल गई है तस्वीरों की अहमियत बढ़ गई है। अब हर क़दम पर आदमी को अपनी तस्वीर पेश करनी पड़ती है ख्व़ाह उसका चेहरा तस्वीर के लायक़ हो या न हो वो तस्वीर के बग़ैर ज़िंदगी के किसी भी शोबे में दख़ल नहीं दे सकता। इम्तिहान देना हो तो हाल टिकट पर अपनी तस्वीर लगानी ही पड़ेगी। ये और बात है कि तालिब-इल्म की जगह उसका कोई ख़ैरख़्वाह इम्तिहान गाह में दाख़िल हो जाये और जवाबी पर्चा लिख आए। लेकिन अब असली तालिब-इल्म ख़ुद ही इम्तिहान देने में हर्ज नहीं समझते। इम्तिहानी पर्चे पहले ही से छप कर बिकने लगे हैं जो किराया लेकर इम्तिहान देने वालों के मुक़ाबले में सस्ते पड़ते हैं। इसके अलावा ज़िंदगी के और बहुत से अश्ग़ाल हैं जिनसे फ़ारिग़ होने के लिए शनाख़्ती कार्ड भी बनवाना पड़ता है जिस पर अपनी तस्वीर लगानी ज़रूरी है। बा’ज़ लोग भूले से शनाख़्ती कार्ड पर अपनी दो तस्वीर लगवा देते हैं जो उन्होंने शादी से पहले खिंचवाई थी, पहचानना मुश्किल हो जाता है।
नज़्म-ओ-निस्क़ की किसी ख़राबी की वजह से मुलाज़मत मिल जाने का ख़दशा भी रहता है इसलिए इस सिलसिले में भी दो तीन दर्जन तस्वीरें दरकार होती हैं वर्ना पासपोर्ट के लिए तो चंद तस्वीरें होनी ही चाहिऐं।
ये तो ख़ैर जबरिया तस्वीरें हुईं लेकिन शौक़िया तस्वीरें भी हैं जिनके बग़ैर ऐसी कहानी नज़र आती है जिस पर बाक़ी आइन्दा लिखा हो जो तस्वीर मुलाज़मत की दरख़्वास्त के लिए होती है वो शादी की मुहिम के लिए नामौज़ूं समझी जाती है हालाँकि होती दोनों ही मुलाज़मतें हैं लेकिन बहरहाल शादी के बाब में जो तस्वीरें खिंचवाई जाती हैं उनका अंदाज़ “उस्लूब” और लहजा अलग होता है। ये नुक्ता आपको फ़ोटोग्राफ़र ही तफ़सील से समझा जा सकता है। फिर शायरों और अदीबों की मख़सूस स्टाइल की तस्वीरें होती हैं।
अदबी रसाइल में पहले सिर्फ़ कलाम या मज़मून की इशाअत काफ़ी समझी जाती थी। क़ारईन भी मुतमइन हो जाते थे लेकिन अब तस्वीर के बग़ैर किसी तहरीर की इशाअत इसलिए मुम्किन नहीं कि कम से कम एक चीज़ तो ग़नीमत होनी चाहिए। शायर और अदीब अब अपने नतीज-ए-फ़िक्र और इसके इंतिख़ाब पर इतना वक़्त नहीं सर्फ़ करते जितना वो अपनी तस्वीर के इंतिख़ाब पर फ़रमाते हैं। एडिटर भी फ़ोटोग्राफ़र के नतीज-ए-फ़िक्र को ज़्यादा अहमियत देते हैं और फ़ोटोग्राफ़र भी ऐसी तस्वीरों पर कम मेहनत नहीं करते। अपना ख़ून पसीना एक कर देते हैं तब कहीं जाकर शायर और अदीब आदमी नज़र आते हैं। बा’ज़ लोगों का ख़्याल है कि चंद दिन बाद एडिटर हर तस्वीर के नीचे ये जुमला भी छापना शुरू कर देंगे कि एडिटर का फ़ोटोग्राफ़र से मुत्तफ़िक़ होना ज़रूरी नहीं है।
तस्वीरों की समाजी अहमियत की वजह से अब समझदार लोग अपना फ़ोटोग्राफ़र हमेशा साथ रखते हैं और अगर ये मुम्किन न हो तो उस फ़ोटोग्राफ़र से तिजारती मुआहिदा कर लेते हैं जो तक़रीब में पहले ही से मौजूद हो, ये जब भी किसी बड़े आदमी के क़रीब पहुंचते हैं खट से एक तस्वीर खिंच जाती है। चंद ही महीनों में एक एलबम तैयार हो जाता है।
किसी बड़े आदमी या बड़ी ख़ातून को आम जलसे में हार पहनाने का एज़ाज़ हासिल करने के लिए बा’ज़ लोग मुँह-माँगे दाम अदा करते हैं। उस मौक़े की जो तस्वीर खिंचती है वो उनके ड्राइंगरूम में हर वक़्त लटकी रहती है, जब ज़रा गर्दन उठा ली देख ली और यही क़ीमती तस्वीर बा’ज़ वक़्त ऐसी मालूम होने लगी है जैसे सर पर तलवार लटकी हुई हो। ये सिर्फ़ इसलिए होता है कि पूरे माहौल की तस्वीर बदल जाती है और आदमी ख़ुद तस्वीर-ए-हैरत बन जाता है। इन तमाम हालात को पेश-ए-नज़र रखते हुए क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उर्यां रहा उसे मालूम था, पर्दा कभी न कभी तो उठना ही है। हाँ उन लोगों के लिए कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता जो शुरू ही से किसी बात का पर्दा न रखें।
अब तो ज़रूरत की कोई चीज़ ख़रीदिए उसकी बोतल या डिब्बे पर या तो मूजिद की तस्वीर मौजूद होगी या फिर कोई मॉडल अपनी ज़ुल्फ़ों, दाँतों, हाथों और इस क़िस्म की दूसरी अशिया की नुमाइश में मसरूफ़ नज़र आएगा।
पैकिंग पर अगर तस्वीरें न हों तो बहुतों को तो ख़बर भी न हो कि दुनिया में क्या-क्या चीज़ें ईजाद हो गई हैं। उन डिब्बों और बोतलों को आप क़रीने से घर में सजा दें तो एक आर्ट गैलरी बन जाये।
इलेक्शन के उम्मीदवारों पर भी अब लाज़िम है कि वो अपने अपने पोस्टरों पर अपनी तस्वीर ज़रूर छपवायें। कहते हैं अमरीका में जिमीकार्टर सिर्फ़ अपनी तस्वीर की वजह से इलेक्शन जीत गया। अगर कोई उम्मीदवार पोस्टर पर सिर्फ़ अपना निशान-ए-इंतिख़ाब छापे और ये निशान-ए-इंतिख़ाब कोई जानवर हो तो ग़लतफ़हमी का इमकान रहता है।
सुना है फ़ोटोग्राफ़र भी अब अपने स्टूडियो के शो केस में सिर्फ़ उन्ही लोगों की तस्वीरें नुमाइश के लिए रखते हैं जो पाबंदी से हर माह उसका किराया अदा करते हों। बा’ज़ तस्वीरें अलबत्ता होती ही नुमाइश के लिए हैं। ये उन मह रुख़ों की तस्वीरें होती हैं जिनसे मिलने के लिए ग़ालिब ने मुसव्विरी सीखने की कोशिश की थी।
यूं तो फ़ोटोग्राफ़र हर जगह आ और जा सकता है लेकिन वो सिर्फ़ उस जगह नहीं जा सकता जहां मकानों को ढाने के लिए बुलडोज़र काम कर रहा हो या किसी मजिस्ट्रेट के हुक्म पर अवाम पर गोली चलाई जा रही हो। ये पाबंदी भी सिर्फ़ इसलिए है कि फ़ोटोग्राफ़र अगर वहां गया भी तो किससे कहेगा “ज़रा मुस्कुराइए।”
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.