एक तवील नज़्म से इक़्तिबास
आदमी महज़ उन आँतों का नाम नहीं जो अनाज हज़्म करती हैं
आदमी अपनी हिम्मत-ओ-सलाहियत से
फ़ितरत और अपनी हैवानियत पर फ़त्ह पाता है
आदमी का सफ़र जारी है
अंधेरे से रौशनी की जानिब
आदमी आज़ादी की सम्त जा रहा है
दुनिया की ताक़त रौशनी और आज़ादी है
और शायरी दुनिया का दिल है
वो एहसासात को गहराइयाँ
और जज़्बात को वुसअ'तें देती है
ख़ून में से खिले हमदर्दी के फूलों पर ललचाती है
वो नस्ख़ करती है
बुज़ुर्गों की ग़लतियों की करतूतों की ख़ामियों की
ज़वाल की फ़त्ह की और ज़ुल्म की तारीख़
मैं नज़्म लिखने के लिए बैठा हूँ
जो कभी मुझे छोड़ कर चले गए थे वो तमाम अल्फ़ाज़ भी
आज झुटपुटे के परिंदों की तरह इकट्ठे हो गए हैं
मैं तज़ब्ज़ुब में मुब्तला हूँ
तड़प रहा हूँ पसीने से तर-ब-तर हो रहा हूँ
दर्द-ए-ज़ेह महसूस कर रहा हूँ
क्या क्या लिक्खूँ
किस किस तरह से लिक्खूँ
किस नाम से लिक्खूँ
भूक के बारे में लिक्खूँ या ग़रीबी के बारे में
कँगाली के बारे में लिक्खूँ या ग़ुलामी के बारे में
ज़ुल्म के बारे में लिक्खूँ या अलम के बारे में
तहज़ीब
रस्म-ओ-रिवाज
पाएदान
देवता मज़हब और पत्थर
उन के नाम पर उन्हों ने हमें पीटा है
रौंदा है और मार डाला है
हमारी हड्डी और गोश्त को नोचा
हमारे चेहरों को मस्ख़ कर डाला है
उन्हों ने हमारे आदमियों को ज़िंदा जला दिया है
उन्हों ने हमारे पाक बदन दरूँ और पहाड़ों में सड़ा डाले हैं
उन्होंने हमें हमेशा लूटा है
हमारे नन्हे-मुन्नों को क़त्ल कराया है
हमारा ज़िंदा पाकीज़ा गर्म और तेज़ लहू
जो मिट्टी के पेट में बहाया गया
लेकिन मिट्टी ने हमें गरमाहट नहीं दी
घोंट दिए उसी ने हमारे गले
हम ने सोचा था कि वो हमें पा लेगी
हम ने सोचा था कि वो हमें ताक़त देगी
उस काली मिट्टी ने कालख का सहारा ले कर
लकीर के फ़क़ीरों की चाहत के लिए हमें हद से बाहर कर दिया
हद से बाहर कर दिया ग्रंथों की
हद से बाहर कर दिया मंदिरों की
हद से बाहर कर दिया दाख़िले के दरवाज़ों की
हद से बाहर कर दिया जीते-जागते इंसानों की
और दे दी सनद पूरे माठ मटकों को सँभालने की
लाश पर फैले कफ़न को ओढ़ने की
हमारी दौलत लाश पर से निछावर की गई ख़ैरात
हमारी पात लग जाती थी कुत्ते बिल्लियों के साथ जूठन उठाई के लिए
मजबूर किया था उन्हों ने हमें लौटने को
मरे हुए ढोर गिध की तरह
कुत्ते बिल्लियाँ गिध और हम आदमी
पलते रहे जानवरों के साथ
क्या और कैसे लिखूँ
जिस जंगल में ख़ून का पानी बहा कर
हम ने पेड़ पौदे लगाए थे
वो सब उन्हों ने नोच डाले
हम ने सोचा था
किसी ने किसी दिन इन पेड़ों की घनी ममता-भरी छाँव में बैठेंगे
पेड़ों के पत्ते पत्ते तक फैलते जाएँगे
उन की ओट में से मशरिक़ की सुर्ख़ सम्त फूटेगी
और हमारे दिलों की अंधेरी गुफाएँ
रौशनी से भर जाएँगी
हिम्मत बढ़ जाने पर हमारे सीने तन जाएँगे
गर्दन परचम की तरह ऊँची उठ जाएगी
और हम आसमान को बोना बनाते हुए
अपने पैरों पर खड़े रहेंगे
और अपने हाथों अपना मुस्तक़बिल खो देंगे
जो सती का बरत ले कर
नूर के सिंदूर से भर जाएगा
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