सरफ़राज़ ख़ालिद का परिचय
आइने में कहीं गुम हो गई सूरत मेरी
मुझ से मिलती ही नहीं शक्ल-ओ-शबाहत मेरी
मिथिला तहज़ीब, ज़बान-ओ-अदब, मौसीक़ी, मुसव्विरी और मखानों की पैदावार के लिए मशहूर सूबा-ए-बिहार का मधुबनी ज़िला उर्दू का भी अहम मर्कज़ रहा है। इसी मर्कज़ के एक क़स्बे ‘भवारा’ में एक ज़ी-इल्म-ओ-ज़ी-वक़ार ख़ानदान के मुअज़्ज़िज़ फ़र्द जनाब मोहम्मद ख़ालिद अनवर शहर के मेयर की मस्नद तक पहुँचे। उन्ही के सेहन-ए-कफ़ालत मआब में 3 मार्च सन 1980 को एक होनहार फ़र्ज़ंद की पैदाइश हुई जिसका नाम मोहम्मद सरफ़राज़ अनवर रखा गया। यही मोहम्मद सरफ़राज़ अनवर अदब की दुनिया में ‘सरफ़राज़ ख़ालिद’ के क़लमी नाम से मशहूर हुए।
सरफ़राज़ ख़ालिद ने इब्तिदाई तालीम अपने आबाई वतन में हासिल की। आला तालीम के लिए उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की राह इख़्तियार की और 1999 में बी.ए. साल-ए-अव्वल में दाख़िला लिया। यहीं से एम.ए. के बाद पी.एच.डी. की सनद भी हासिल की। पी.एच.डी. की तहक़ीक़ के लिए उनका मौज़ू “बैनुल-मुतूनियत और आज़ादी के बाद उर्दू अफ़साना” था। ये मोअक़्क़र तहक़ीक़ी मक़ाला, जो अपने मौज़ू और तरीक़ा-ए-कार में मुन्फ़रिद था, किताबी सूरत में शाए हुआ तो अहल-ए-नक़्द-ओ-नज़र ने इसकी ख़ातिर-ख़्वाह पज़ीराई की।
सरफ़राज़ ख़ालिद की अमली ज़िंदगी का आग़ाज़ एक मोतबर सहाफ़ी के तौर पर हुआ। इन्होंने आठ बरसों तक अपनी लगन और सहाफ़ती सूझबूझ से एक मीडिया फ़र्म में ‘डिप्टी हेड आफ़ दि डेस्क’ के ओहदे को सर-अफ़राज़ किया। सन 2019 में उन्हें शोबा-ए-उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की उस्तादाना ज़िम्मेदारियाँ हासिल हुईं और एक ईमानदार सलाहियत अपने फ़ित्री मंसब तक पहुँच गई। वो आज भी इसी नेक ख़िदमत पर मामूर हैं।
सरफ़राज़ ख़ालिद को ज़बान-ओ-अदब के मुतअद्दिद शोबों से ब-यक-वक़्त दिलचस्पी है। वो मोहक़्क़िक़ भी हैं, नक़्क़ाद भी। उन्होंने शायरी भी की है और फ़िक्शन भी लिखा है। उनके अफ़साने और बहुत से मज़ामीन मुक़्तदिर अदबी रसाइल में शाए होते रहे हैं। एक नाॅवेल और शेरी मजमूआ भी तबाअत के मराहिल में है। उन्होंने मुतअद्दिद अदबी सेमिनारों में अपने मक़ालात पेश किए हैं, रेडियो और टेलीविज़न की नश्रियात में शामिल रहे हैं और “रेख़्ता” जैसे ज़बान के बड़े और अहम इदारे की तक़रीबात में उर्दू के मुख़्तलिफ़ मबाहिस की निज़ामत की है।
अदब की इन तमाम दिलचस्पियों के बावुजूद सर-ए-दस्त ग़ज़लगोई ही उनके तख़लीक़ी अमल का मर्कज़-ओ-मंबा है। अब ग़ज़ल चूँकि उर्दू मुआशरे की नफ़्सियात का जुज़्व-ए-ला-यंफ़क है, चुनांचे अगर अच्छा हो तो एक रिवायती सा शेर भी लुत्फ़-ओ-इंबिसात का ज़रीआ हो सकता है। ये सब तो है लेकिन वो शायर ही क्या जो गुज़श्ता से पैवस्ता के बावुजूद अपनी डगर आप न बनाए। लिहाज़ा सरफ़राज़ ख़ालिद की ग़ज़ल का इख़्तिसास ये है कि वो फ़न के ऐन सामने के वसाइल मस्लन बयान, बदी’, तराकीब या शोर-अंगेज़ी वग़ैरा को बहुत नुमायाँ नहीं करते बल्कि शेर के अस्ल जौहर यानी तजरिबे, मानी-ख़ेज़ी और कैफ़ियत को ब-रू-ए-कार लाते हैं। ये कैफ़ियत उस वुजूदियाती कश्मकश के बावुजूद क़ायम रहती है जो इन्सान का सबसे बड़ा अलमिया है। सरफ़राज़ ख़ालिद के यहाँ इस अलमिए का सबसे नुमायाँ पहलू उनके लहजे में मुज़्मिर वो अना है जो अगर कभी शिकस्त के एहसास से ज़ेरबार होती भी है तो हिफ़्ज़-मा-ए-तक़द्दुम को हाथ से जाने नहीं देती। बात आज की ग़ज़ल की हो तो उस्लूब, तजरिबे, कैफ़ियत और वुजूदियाती अना के इस इम्तिज़ाज के लिए सरफ़राज़ ख़ालिद की ग़ज़ल से बच कर गुज़र जाना ना-मुम्किन है।