शाैकत वास्ती के शेर
बड़े वसूक़ से दुनिया फ़रेब देती रही
बड़े ख़ुलूस से हम ए'तिबार करते रहे
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अजीब बात है दिन भर के एहतिमाम के बा'द
चराग़ एक भी रौशन हुआ न शाम के बा'द
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'शौकत' हमारे साथ बड़ा हादिसा हुआ
हम रह गए हमारा ज़माना चला गया
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रविश रविश पे चमन के बुझे बुझे मंज़र
ये कह रहे हैं यहाँ से बहार गुज़री है
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मुझे तो रंज क़बा-हा-ए-तार-तार का है
ख़िज़ाँ से बढ़ के गुलों पर सितम बहार का है
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