आसिमा ताहिर
ग़ज़ल 13
नज़्म 9
अशआर 12
ख़ुश्बू जैसी रात ने मेरा
अपने जैसा हाल किया था
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मिरे वजूद के अंदर है इक क़दीम मकान
जहाँ से मैं ये उदासी उधार लेती हूँ
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ख़्वाब का इंतिज़ार ख़त्म हुआ
आँख को नींद से जगाते हैं
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हम ने जब हाल-ए-दिल उन से अपना कहा
वो भी क़िस्सा किसी का सुनाने लगे
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नहीं वो इतना भी पागल नहीं था
जो मर जाता मिरी वाबस्तगी में
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