अज़हर हाश्मी सबक़त
ग़ज़ल 16
अशआर 15
मिलती है ख़ुशी सब को जैसे ही कहीं से भी
भूली हुइ बचपन की तस्वीर निकलती है
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ये जो बेहाल सा मंज़र ये जो बीमार से हम तुम
सियासत की नवाज़िश है किसी से कुछ नहीं बोलें
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ख़ुदा की रज़ा है न हासिल किसी को
ख़ुदा के लिए पर लड़ाई बहुत है
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ये तमन्ना है ख़ुदा आलम-ए-हस्ती में तिरे
मैं अयाँ देखना चाहूँ तो निहाँ तक देखूँ
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कहीं सुराग़ नहीं है किसी भी क़ातिल का
लहूलुहान मगर शहर का नज़ारा है
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