इक़बाल हैदर
ग़ज़ल 6
नज़्म 2
अशआर 3
क़यामत से बहुत पहले क़यामत क्यूँ न हो बरपा
झुका है आदमी के सामने सर आदमियों का
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ये ख़ुश्क लब ये पाँव के छाले ये सर की धूल
हम शहर की फ़ज़ा में भी सहरा-नवर्द हैं
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वही कैफ़िय्यत-ए-चश्म-ओ-दिल-ओ-जाँ है 'इक़बाल'
न कोई रब्त बना और न रिश्ता टूटा
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