ज़फ़र अहमद परवाज़
ग़ज़ल 2
अशआर 1
किसी के शोख़ बदन की ज़रूरतों की तरह
तमाम रात सुलगती रही है तन्हाई
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere