रिसाला दर मारिफ़त-ए-इस्तिआरा
इन्सानों को हैवानों से मुमताज़ करने के लिए फ़लसफ़ियों ने उसे मुख़्तलिफ़ नामों से याद किया है। कहीं किसी ने उसे समाजी हैवान का नाम दिया है तो कहीं किसी ने उसे सियासी हैवान का नाम दिया है। (अरस्तू) नौ’ई ए’तिबार से उसे HOMO SAPIEN या’नी हैवान-ए-नातिक़ ‘आक़िल कहा गया है। इन्सान की ये तजनीस बग़ैर किसी तारीख़ी मुशाहिदे के नहीं है। हम इन्सान का तसव्वुर न तो इसकी ‘अक़्ल से जुदा करके अपने ज़ेह्न में ला सकते हैं और न उसकी नुत्क़ से और न ‘अक़्ल और नुत्क़ को एक दूसरे से जुदा किया जा सकता है। क्योंकि ज़बान तमाम-तर तजरीदी तरीक़-ए-कार (ABSTRACTION) का नतीजा है।
फिर ऐसा क्यों है कि जब हमारे हुक्मा-ए-इन्सान के हवास को गिनवाते तो बिल-‘उमूम वो हवास-ए-ज़ाहिरी या हवास-ए-ख़मसा का नाम लेते और उसके हवास-ए-बातिनी या’नी उसकी ‘अक़्ल, क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा और क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यिला वग़ैरह का ज़िक्र कम करते। इसका सबब ये है कि “मु’अल्लिम-ए-अव्वल” अफ़लातून हवास-ए-ख़मसा को अर्ज़ी और ‘अक़्ल या क़ुवा-ए-ज़ेह्नी को समावाती तसव्वुर करते। उनका ख़याल था, जो दुनिया में अब भी राइज है कि जो कुछ हम अपने हवास-ए-ख़मसा से मा’लूम करते हैं। इसका त’अल्लुक़ मज़ाहिर या’नी हक़ीक़त के ज़ाहिरी रूप से होता है न कि अस्ल हक़ीक़त से और इसकी दलील इस मक्तबा-ए-फ़िक्र के लोग ये देते हैं कि हक़ीक़त क़ायम-बिज़्ज़ात होती है। वो तग़य्युर-पज़ीर नहीं होती है। तग़य्युर-पज़ीर उसके मज़ाहिर होते हैं। ऐसी सूरत में हक़ीक़त का त’अय्युन हवास के ज़री’ए किया जा सकता है। क्योंकि हवास का ऐ’लान हर लम्हा ब-सबब-ए-तग़य्युर मज़हर-ए-बातिल होता रहता है। ज़ियादा से ज़ियादा ऐ’लानात को आरा की हैसियत दी जा सकती है न कि ‘इल्म की।
चुनाँचे इसी मंतिक़ की बुनियाद पर अगर उन लोगों ने PARMENIDES के हम-ख़याल हो कर तग़य्युर-पज़ीर अश्या के वजूद को हक़ीक़ी मानने से इनकार किया कि वुजूद-ए-हक़ीक़ी उनकी नज़र में क़ायम-बिज़्ज़ात और ना-क़ाबिल-ए-तग़य्युर है तो दूसरी तरफ़ वुजूद हक़ीक़ी या हक़ीक़त-ए-मुतलक़ के इदराक का ज़री’आ ‘अक़्ल (REASON) को ठहराया जो हवास-ए-ख़मसा या हवास-ए-ज़ाहिरी से ‘अलैहिदा अपना एक आज़ाद वजूद रखती है और जिसके इस्तिदराक में माद्दी तजरबात या हवास-ए-ख़मसा के तजरबात को दख़्ल नहीं होता है। ये उसी मंतिक़ का नतीजा है कि उनके फ़लसफ़े में मुनफ़रिद और महसूस अश्या के मुजर्रद और यूनीवर्सल तसव्वुरात उनसे ख़ारिज में अपना आज़ाद वुजूद रखते हैं। ये फ़लसफ़ा अदब के हक़ में किसी हद तक मोहलिक रहा है, इस पर आगे रौशनी डाली जाएगी।
फ़िलहाल तो ये कहना है कि हवास-ए-ख़मसा और ‘अक़्ल की ये दुई या ख़ुसूस और ‘उमूम की ये दुई या तजरबात और ता’मीमात की ये दुई एशिया और यूरोप के आईडियलिस्ट फ़लसफ़ों में मुख़्तलिफ़ राहों से जगह बनाती रही। हाँ ये ज़रूर हुआ कि जब यूरोप ने सत्रहवीं सदी में इस्तिंबाती तरीक़-ए-इस्तिदलाल (INDUCTIVE METHOD) और रियाज़ियाती ‘उलूम में काफ़ी तरक़्क़ी की (जहाँ इस्तिख़राजी तरीक़ा DEDUCTIIVE HETHOD) इख़्तियार किया जाता है तो ‘अक़्ल बिल-ख़ुसूस ‘अमली ‘अक़्ल, इल्हामी क़ुव्वत न रह गई जो अफ़लातून के यहाँ थी बल्कि वो एक इस्तिदलाली ताक़त में तब्दील हो गई, फिर भी जहाँ कहीं ये आइडियलिस्ट फ़लसफ़ा रहा है वहाँ किसी न किसी पैराए में ‘अक़्ल को हवास से जुदा करने की कोशिश ज़रूर की गई है।
चुनाँचे डेकार्ट्स (DESCARTES) जो सत्रहवीं सदी में यूरोप का सबसे बड़ा माहिर-ए-रियाज़ियात और ‘अक़्ल-परस्त फ़लसफ़ी समझा जाता है, उसका भी यही ख़याल है कि ‘अक़्ल हवास की इत्तिला’आत से आज़ाद हो कर अस्ल हक़ीक़त तक पहुँचती है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह कि उक़्लीदस के मफ़रूज़ात को साबित करते वक़्त हमारी ‘अक़्ल को हवास की इत्तिला’आत का सहारा लेना नहीं पड़ता है। इस नज़रिए के बर-ख़िलाफ़ लियोनार्डो डी विन्ची, लार्ड बेकन और लॉक का ये नज़रिया था कि हमारा कोई भी ‘इल्म ऐसा नहीं है जिसमें हमारे तअस्सुरात-ए-हिस्सी (SENSE PERSEPTION) या हवास की इत्तिला’आत को दख़्ल न हो। डी विन्ची का कहना है कि हमारे तमाम ही हवास अर्ज़ी हैं और इस ज़ुमरे में वो ‘अक़्ल को भी शामिल करता है। ‘अक़्ल उनसे सिर्फ़ उस वक़्त ‘अलैहिदा मा’लूम होती है जबकि वो उनकी इत्तिला’आत पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करती है लेकिन डेकार्ट्स ने इटली और इंग्लिस्तान के तज्रिबी (EMPERICAL) फ़लसफ़े के इस उसूल को तस्लीम नहीं किया।
इसके बर-’अक्स वो अपनी रियाज़ियात ही में डूबा रहा, और इसी ‘इल्म के उसूल को सामने रखकर जो इस्तिख़राजी है, उसने न सिर्फ़ हवास ही की इत्तिला’आत पर ‘अदम-ए’तिबार का इज़हार किया बल्कि दुनिया-ए-रंग-ओ-बू, लज़्ज़त-ए-काम-ओ-दहन, नग़्मा-ओ-आहंग ग़रज़ कि ‘आलम-ए-कैफ़ और ‘आलम-ए-तख़य्युल की हर शय को हक़ीक़त का दर्जा देने से इन्कार किया। इसलिए नहीं कि वो हक़ीक़त के मज़ाहिर हैं और ख़ुद हक़ीक़ी नहीं हैं जैसा कि अफ़लातून का ख़याल था, बल्कि इसलिए कि उनके बारे में जो इत्तिला’आत कि हमारे हवास4 बहम पहुँचाते हैं वो इन इत्तिला’आत को मुबहम, ग़ैर-मुत’अय्यन और ना-साफ़ बताता है।
डेकार्ट्स की “अक़्ल-ए-महज़” जो हवास से ख़ारिज में अपना आज़ाद वुजूद रखती है और जो सिर्फ़ दुनिया-ए-कम-ओ-बेश की पैमाइश करती है और ‘आलम-ए-कैफ़ को नज़र-अंदाज करती है, कांट की “तन्क़ीद” का ख़ास तौर से निशाना बनी। कांट ने अपनी इस किताब में लॉक और डेकार्ट्स के ख़यालात या’नी इस्तिंबाती और इस्तिख़राजी तरीक़-ए-कार को हम-आहंग7 करने की कोशिश की है। कांट की “अमली ‘अक़्ल” में वो हम-आहंगी मिलती है, गो ये सही है कि वो ‘अमली ‘अक़्ल से मावरा इल्हामी ‘अक़्ल या विज्दान (INTUTION) का भी क़ाइल था। बात ये है कि अगर एक तरफ़ हमारा त’अक़्क़ुल तअस्सुरात-ए-हिस्सी पर मबनी होता है तो दूसरी तरफ़ तअस्सुरात-ए-हिस्सी की तंज़ीम में ‘अक़्ल का हाथ भी सरगर्म-ए-‘अमल रहता है। चुनाँचे अगर हम मा’क़ूलात को मा’नी क़रार दें तो महसूसात को उसकी सूरत क़रार देना होगा। अश्या की हक़ीक़त को जो मुजर्रद होती है, इन्सान ने अपने हवास ही की अंजुमन में दरियाफ़्त किया है न कि उससे बेनियाज़ हो कर। ‘अक़्ल-ओ-हवास मिलकर ही किसी शय के ‘इल्म को बा-मा’नी बनाते हैं न कि उनमें से कोई एक। ठोस ‘इल्म जिसे भरपूर और मुकम्मल ‘इल्म कहना चाहिए, गुल-गूनी महसूसात से ममलू होता है न कि उससे ‘आरी।
गर ‘ऐन-ओ-गर इक़तिबास दरियाफ़्ता
दर अंजुमन हवास दरियाफ़्ता
बुर्दा मन जिस्म-ए-पाक तहक़ीर मदोज़
हक़ रा बा हमीं लिबास दरियाफ़्ता
लेकिन ‘अक़्ल हवास से उस वक़्त जुदा भी नज़र आती है जबकि वो हवास की इत्तिला’ पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करती है, उनकी इस्लाह करती है। इस्तिख़राजी ‘इल्म इसीलिए उस वक़्त तक क़ाबिल-ए-ए’तिना नहीं हो पाता जब तक कि हवास उसकी सच्चाई का हलफ़ न उठाएँ। इसके मा’नी ये हुए कि इंज़िबात ‘इल्म में इस्तिंबाती और इस्तिख़राजी दोनों ही तरीक़-ए-कार सरगर्म-ए-‘अमल रहते हैं। अगर एक तरफ़ ये सही है कि तबी’आत के बहुत से मुसावात हवास की कसौटी पर सही उतरने से पहले वज़’ किए गए हैं और उनके वज़’ करने में यक़ीनन इस्तिख़राजी तरीक़-ए-कार को दख़्ल रहा है तो दूसरी तरफ़ ये भी सही है कि जब तक कि तजरबात ने इस्तिंबाती तरीक़-ए-कार से उन्हें सही साबित नहीं किया है, उन पर कोई ईमान भी नहीं लाया है। इसके ये मा’नी हुए कि ‘अक़्ल-ओ-हवास एक दूसरे के मददगार हैं। वो दोनों मिलकर ही तकमील-ए-मा’नवियत करते हैं न कि एक दूसरे से जुदा रह कर या बाहम तख़ालुफ़ में, जैसा कि बा’ज़-बा’ज़ मेटाफ़िज़िकल मुफ़क्किरीन सोचते हैं।
‘अक़्ल-ओ-हवास के दरमियान ये झूटा तज़ाद या दुई, ख़्वाह वो अफ़लातूनी हो या कार्टीज़ियन, इस वज्ह से पैदा हुई कि अफ़्क़ार की दुनिया पर हुक्मरानी इस्तिहसाली तब्क़ों की आइडियोलॉजी की रही है। अगर हवास या नुत्क़ एहसासात-ए-बनी-आदम की तब्क़ाती तक़्सीम को झुटलाती तो इस्तिहसाली तब्क़े की मस्लहत-अंदेश ‘अक़्ल उन्हें आक़ा और ग़ुलाम, ज़मींदार और किसान, मज़दूर और सरमाया-दार में तक़्सीम करते रहने ही को ‘ऐन हक़ ठहराती। जिस वक़्त अरस्तू ने ये बात कही कि गु़लामी फ़ित्री है तो उसने ये बात अपने वक़्त के आक़ा के तब्क़े के नुक़्ता-ए-नज़र से कही, जिससे उसका अपना त’अल्लुक़ भी था वर्ना फ़ित्रत में न तो गु़लामी है और आक़ाई। इससे पता चलता है कि वो अपनी जिस ‘अक़्ल-ए-सलीम के ज़री’ए इस नतीजे तक पहुँचा, वो हुक्मराँ तब्क़े की ‘अक़्ल-ए-मुश्तरक थी जो एहसासात-ए-ख़ल्क़ से बेगाना थी। जब भी महसूसात को ‘अक़्ल के साथ नहीं रखा गया है और ऐसा तब्क़ाती समाज में बिल-‘उमूम होता रहा है तो ‘अक़्ल मुशीर-ए-सल्तनत रही है न कि मुशीर-ए-आदम... वो बहाना-जू और बदीहा-साज़ रही है न कि शहीद-ए-जुस्तजू-ए-हक़।
इस सिलसिले में डी विन्ची ने ये बात किस क़दर पते की कही है कि हमारे तजरबात नहीं बल्कि हमारे फ़ैसले झूटे हुआ करते हैं। ज़ाहिर है कि फ़ैसला उसी वक़्त झूटा होगा जबकि हम महसूसात को शरीक-ए-‘अक़्ल न करेंगे। डी विन्ची की ये बात हमारे अदीबों को हमेशा याद रखनी चाहिए कि “आर्ट की बुनियाद तजरबात और महसूसात पर है न कि मनक़ूलात और मा’क़ूलात पर।” लेकिन अगर शो’रा को सत्हियत से बचना है और बुनियाद से ऊपर उठना है तो वो त’अक़्क़ुल के उसूल को नज़र-अंदाज़ भी नहीं कर सकते हैं, उन्हें महसूस को मा’क़ूल बनाना और कसरत में वहदत को ढूँढना होगा। अश्या को अजनास-ओ-अन्वा’ में तक़्सीम करना और हादिसात के अस्बाब-ओ-‘अलल दरियाफ़्त करने ही पड़ेंगे। वर्ना वो अपने महसूसात को नुत्क़ क्योंकर बख़्श सकते हैं। तब्क़ाती समाज में आर्ट की गुत्थी जो सुलझाई न जा सकती है, उसका सबब ये है कि वो नाख़ुन-ए-‘अक़्ल जो हयात-ओ-मौत, हुस्न-ओ-सदाक़त की गुत्थियों को सुलझाने के लिए है, उसे इन्सान ने दूसरों को ग़ुलाम बनाने में तेज़ किया और वो हाथ जो दोशीज़ा-ए-फ़ित्रत की नक़ाब-कुशाई के लिए है, उसे उसने अपने भाईयों पर उठाया।
हवास गवाही देते रहे कि वो ख़ून जो इस तरह बहा है वो तेरा ही ख़ून है। लेकिन उसकी ‘अक़्ल यही कहती रही कि अगर ऐसा है तो हुआ करे, मुझे तो दूसरों की लाशों पर ही बढ़ना है। मुल्क-गीरी की हवस हो या इक़्तिदार की सियासत, मुजाहिदा-ए-कुफ़्र-ओ-ईमान हो या तहफ़्फ़ुज़-ए-अस्नाद की जंग, ताजिर की मशिय्यत हो या किसी क़ाइद का फ़रमान। इन तमाम मा’रकों में नज़रियाती और ‘अमली दोनों ही ए’तिबार से इन्सान की ‘अक़्ल उसके हवास से बर-सर-ए-पैकार रही है। अगर मा’रूज़ी नुक़्ता-ए-नज़र से देखा जाए तो निगार-ए-ज़ीस्त का हुस्न उसके पंजा-ए-ख़ूनी से निखरा नज़र आएगा। जंग-ओ-जदाल की बरबरियत से उसका पैराहन तार-तार भी है। कहीं मा’क़ूल महसूस से बरसर-ए-पैकार है तो कहीं महसूस मा’क़ूल से, कहीं ख़िरद का हाथ जुनूँ के गिरेबान में तो कहीं जुनूँ का हाथ ख़िरद के दामन पर है, उस पर हर मुफ़क्किर का ये दा’वा कि उसके अफ़्क़ार ना-क़ाबिल-ए-तरदीद और आफ़ाक़-गीर हैं
लेकिन ऐसा सोचने में वो बे-तक़्सीर भी है, क्योंकि आइडियोलॉजी की तशकील के मौक़े’ पर वो अपने सही मक़ासिद और इरादों से बे-ख़बर रहता है और अगर उसके ख़यालात ने किसी तब्क़ाती इस्तिहसाल की हिमायत की है तो उसमें उसके शु’ऊर और इरादे को दख़्ल नहीं रहा है क्योंकि आइडियोलॉजी की तख़्लीक़ झूटे (FALSE) शु’ऊर के तहत होती रही है। ख़याल को ख़याल-ए-महज़ से निकाला जाता रहा है। इसके मा’नी ये हुए कि ‘अक़्ल ता’मीमात या तशकील-ए-ख़याल के मौक़े’ पर तब्क़ाती जानिब-दारी के असरात से उसी वक़्त आज़ाद हो सकती है जबकि समाज में तब्क़ात न हों। दूसरे अल्फ़ाज़ में ‘अक़्ल और हवास का तज़ाद (जो त’अक़्क़ुल और तख़य्युल के झूटे तज़ाद में भी ज़ाहिर होता है।) या मा’क़ूल और महसूस का तज़ाद या आइडियोलॉजी और तजरबे का तज़ाद उस वक़्त तक ख़त्म नहीं हो सकता है जब तक कि तब्क़ाती समाजी के सारे तज़ादों की मुकम्मल नफ़ी किसी ऐसे एक ग़ैर-तब्क़ाती समाज से न की जाए जो स्टेट और सियासत दोनों ही की ज़रूरत को ख़त्म कर चुका हो। जब तक कोई ऐसी सोसाइटी कुल्ली हैसियत से सारे ‘आलम में क़ाइम नहीं होती है और जब तक तब्क़ाती निज़ाम के सारे तज़ादों की नफ़ी नहीं होती है, आइडियोलॉजी और तजरबे का तज़ाद मौजूद रहेगा जो एक झूटा तज़ाद है न कि सच्चा।
ये तज़ाद इसलिए पैदा हो गया है कि इन्सान इन्सान का मुख़ालिफ़ और उसकी ‘अक़्ल उसके हवास के मुख़ालिफ़ रही है। आज ख़ून-ए-आदम जंग के ख़िलाफ़ फ़रियाद कर रहा है लेकिन दुनिया है कि एटम-बम के धमाके का तजरबा किए जा रही है। हमने सरमाया-दाराना निज़ाम में फ़ातिह-ए-फ़ित्रत या मुसख़्ख़र-ए-फ़ित्रत का जो लक़ब पाया है वो इसी नफ़सियाती तिही-माइगी की क़ीमत पर हासिल किया है जो ना-शनास-ए-एहसासात है।
बहर-हाल क़िस्सा-ए-मुख़्तसर ये कि इस निज़ाम ने हमारे तमाम हवास को एहसास-ए-मिल्कियत का मुती’ कर लिया है और हमारी ‘अक़्ल को दाम-ओ-दिरम, तबादला-ए-ज़र, कमोडिटी प्रोडक्शन की मंतिक़ में ऐसा असीर कर रखा है कि हम अपनी नाक से आगे देखने के लिए तय्यार ही नहीं हैं। नफ़स-ए-ग़ैर या तो हमारी नफ़स-परवरी का ज़री’आ है या फिर वो हमारे लिए बे-मा’नी है। ताजिर की इस दुकान में न तो आदमी अपनी ज़ात से मक़्सद है और न दूसरे आदमियों के साथ किसी इन्सानी रिश्ते में मुंसलिक है। वहाँ तो सिर्फ़ एक ही रिश्ता है और वो रिश्ता-ए-ज़र है। ताजिर के इस निज़ाम-ए-ज़ीस्त से सिर्फ़ यही नुक़्सान नहीं पहुँचा है कि अब अक्सरियत के हक़ में लुत्फ़-ए-ख़िराम-ए-साक़ी और ज़ौक़-ए-सदा-ए-चंग के लिए चश्म-ओ-गोश न रहा बल्कि ये भी पहुँचा है कि हमारे तजरबात ने जो अपनी हेयत में समाजी हैं, यक-तरफ़ी, तंग-नज़री और ख़ुद-ग़रज़ी का रूप धार लिया है।
तुझको पराई क्या पड़ी अपनी नबेड़ तू
इस माहौल में ज़ेह्नी तख़्लीक़ या फ़ुनून-ए-लतीफ़ा का तहसीन-ए-ख़ल्क़ के नसब-उल-‘ऐन और मे’यार से गिर कर बाज़ार की शय में तब्दील हो जाना लाज़िमी था जहाँ उसका हुस्न के क़वानीन का पाबंद रहना इतना ज़रूरी न रहा जितना कि बाज़ार के भाव और ज़र-अंदोज़ी के क़वानीन का। ये तिही-माइगी चश्म-ओ-गोश, ये अफ़्लास-ए-दीदा-ओ-दिल और ये रुस्वाई-ए-हुस्न, सर-ए-बाज़ार, जहाँ वो तहसीन-ओ-आफ़रीन की कोई शय नहीं बल्कि इस्ति’माल की एक शय है। इस वज्ह से नहीं कि साइंस की तरक़्क़ी ने ये गुल खिलाए हैं क्योंकि साइंस की तरक़्क़ी ने तो चश्म-ए-आदम को और ज़ियादा से ज़ियादा वा किया है। उसके हवास को बिजलियों की ताक़त ‘अता की है। और न ये इस वज्ह से है कि सन’अती तरक़्क़ी ब-ज़ात-ए-ख़ुद एहसासात-ए-हुस्न और लज़्ज़त-ए-होश-ओ-गोश की क़ातिल है। क्योंकि ये सन’अती तरक़्क़ी ही का नतीजा है कि आज हमारे कान लतीफ़ से लतीफ़-तर साज़ की आवाज़ से आश्ना हुए हैं और हमारी निगाहें रंगों के गूना-गूँ इम्तिज़ाजात और लतीफ़-तरीन ‘अक्स-हा-ए-गुल से मानूस हुई हैं। जिस क़दर ज़ियादा से ज़ियादा साज़-ओ-सामान तशबीह-ओ-इस्ति’आरे के लिए आज मौजूद हैं, इतने पहले कभी थे।
आज हमको क़ुव्वत-ए-इज़हार पर भी पहले के मुक़ाबले में ज़ियादा मुक़द्दरत है। आज ही तो तख़य्युल के लिए ज़ियादा से ज़ियादा दा’वत-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र है। फिर ऐसा क्योंकि है कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश की एक फ़ज़ा-ए-ख़ामोश है। इसका सबब वही सरमाया-दाराना निज़ाम और उसके हुसूल नफ़ा’ और तक़्सीम-ए-उजरत का ग़ैर-इन्सानी दस्तूर है। वो जो रिश्ता-ए-ज़र है वहीं दुश्मन-ए-जान-ओ-दिल, वही दुश्मन शे’र-ओ-नग़्मा है। ये फ़िराक़-ए-जिस्म-ओ-जाँ कि जिस्म-ए-हलाक-ए-मशक़्क़त और जाँ-फ़िशुर्दा रंग-ओ-बू, महरूम-ए-आरज़ू है। ये फ़िराक़-ए-‘अक़्ल-ओ-जज़्बा कि ‘अक़्ल पासबान-ए-कीसा ज़र और जज़्बा क़तील-शेवा सौदागरी है।
इनका विसाल पुर-मा’नी उसी वक़्त होगा जबकि हमारी मेहनत का क़त्रा-क़त्रा जो आज जाम-ए-इस्तिहसाल में है, हमारे अपने जाम में भी होगा। या’नी हमारी अपनी तहसील-ए-ज़ात या आराइश-ए-ज़ात में भी सर्फ़ होगा। उस वक़्त इन्सान अपनी ज़ात से एक-मक़्सद और एक मुकम्मल फ़र्द होगा। उस वक़्त हर फ़र्द की तकमील शख़्सियत-ए-ज़ामिन बनेगी, सारे अफ़राद की तकमील शख़्सियत की। उस वक़्त आर्ट तमाम ख़ारिजी दबाव से आज़ाद हो कर सिर्फ़ क़ानून-ए-हुस्न का पाबंद होगा। सिर्फ़ इन्किशाफ़-ए-हक़ीक़त का ज़री’आ बनेगा। हुस्न-ओ-सदाक़त का इत्तिहाद सिर्फ़ उसी वक़्त पैदा होता है जबकि ‘अक़्ल तख़य्युल को मा’नी और तख़य्युल ‘अक़्ल को सूरत ‘अता करता है।
हमारा आर्ट इसी मंज़िल की तरफ़ बढ़ रहा है। इसमें शुबह नहीं कि देर होती जा रही है जीने में लेकिन इतनी बे-सब्री भी क्या, अगर आज एक दस्त माने’ एटम-बम के इस्ति’माल पर है तो वो कल बाज़ू-ए-इस्तिहसाल पर होगा और अगर आज आर्ट ‘अहद-ए-‘अतीक़ की उस्तूरी फ़िज़ा और क़ुरून-ए-वुस्ता तमसीली (ALLEGORICAL) फ़ज़ा से आज़ाद है तो कल वो बाक़ियात-ए-क़ुरून-ए-वुस्ता के असरात और तब्क़ाती निज़ाम की सियासियात से भी आज़ाद होगा। ये एक ‘अ‘जीब कश्मकश है लेकिन इसी कश्मकश से वो सेहर-अंगेज़ आर्ट पैदा होगा, जिसका ख़्वाब यूरोप के रूमानवी शो’रा ने अपनी तहरीक के ‘उरूज के ज़माने में देखा था। रूमानवी शो’रा ने सरमाया-दाराना रिश्तों की मुख़ालिफ़त ही में शा’इरी की है, उन्होंने अपने एहसासात और निदा-ए-तख़य्युल से इस बात की तस्दीक़ की कि इन्सान एक है, वो ना-क़ाबिल-ए-तक़्सीम है, वो इन्सान है, न कि आक़ा और ग़ुलाम, ज़मींदार और किसान, कामगार और सरमाया-दार, मुंशी और कोतवाल।
इस में शुबह नहीं कि उन्होंने इस बग़ावत को ब-क़ुव्वत-ए-जज़्बा परवान चढ़ाया और ‘अक़्ल की मुख़ालिफ़त की, लेकिन जो चीज़ समझने की है वो ये कि उन्होंने सरमाया-दाराना तब्क़े की ‘अक़्ल के ख़िलाफ़ बग़ावत की, न कि इन्सानी ‘अक़्ल के ख़िलाफ़। वर्ना वर्ड्सवर्थ अपने तख़य्युल को ‘अक़्ल-ए-मुरतफ़ा’ का नाम क्यों देता। उन्होंने उस ‘अक़्ल के ख़िलाफ़ बग़ावत की जो असीर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ थी, जो इन्फ़िरादी तग-ओ-दौ या (LESSEZ FAIRE) की बहीमाना क़द्र को ‘आम किए हुए थी और जो एहसासात और जज़्बात की इत्तिला’आत से इसलिए किनारा-कश थी कि उनका फ़ैसला ताजिर के इस्तिहसाल के ख़िलाफ़ था। रूमानवी तहरीक जज़्बाती होने के बा-वस्फ़ इसी वज्ह से एक जम्हूरी तहरीक थी। रूसो जिसके बारे में कांट का ख़याल है कि वो अख़्लाक़ियात का न्यूटन था, उसका फ़ित्री या तख़य्युली इन्सान एहसास-ए-मिल्कियत से ना-आश्ना था।
यूरोप के शो’रा ने इसी शा’इरी को विरसे में पाया है जिसकी तरफ़ वो झुकते भी हैं और जिससे वो बिदकते भी हैं। बिदकते वो हैं जो सरमाया-दाराना निज़ाम के तज़ादों की नफ़ी किसी ग़ैर-तब्क़ाती निज़ाम में चाहते हैं। यक़ीनन आज आवाज़-ए-नोशा-नोश मद्धम और चश्म-ए-शा’इर पुर-नम है, लेकिन ऐसा तो हर उस जगह है, जहाँ कहीं भी सरमाए का जाल है। उसकी इंतिज़ामी चौकियाँ बैठी हुई हैं। इससे ये नतीजा निकालना कि शा’इरी ख़त्म हो गई या ख़त्म हो जाएगी, सरमाए के हाथ में खेलना हुआ। हाँ ये ज़रूर है कि इस ‘अज़ीम नफ़्सियाती क़हत से उभरने के लिए अब शा’इरी ख़ून-ए-दिल की कशीद ही से परवान चढ़ेगी। वो जो इक नहर ख़ून-ए-शा’इर की सदा है उसी जू-ए-ख़ून से अब इसकी किश्त-ज़ार सैराब होगी, पहले जो बरजस्ता और बर-उफ़्तादा थी अब काव-काव-ए-जूया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है। रुहानी अफ़्लास का मुदावा इसी तरह तारीख़-ए-‘आलम में होता रहता है। हर नफ़सियाती क़हत के बा’द ज़ेह्नी तख़्लीक़ इसी तरह वुजूद में आई है।
अगर यूरोप के शो’रा अपनी रवायात में तिही-माया नहीं तो हम भी अपनी रवायात में उनसे कम-माया नहीं, अगर उन्होंने यूनानी ‘इल्म-ओ-फ़न से इस्तिफ़ादा किया तो हमारे शो’रा भी किसी वक़्त उसी चश्मे से फ़ैज़याब हुए हैं। अगर उन्होंने पा-कोबी, क़बा-ए-सुरैत (MYSTICISM) में की है तो हमारे शो’रा ने ख़िरक़ा-ए-तसव्वुफ़ में की है। अगर उन्होंने सरमाया-दार के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बग़ावत की है तो हमारे शो’रा ने मुनइम के ज़ुल्म के ख़िलाफ़, अगर उन्होंने सरमाए की बहाना-जू ‘अक़्ल की मुख़ालिफ़त की है और क़ुरून-ए-वुस्ता के अस्नाद को ठुकराया है तो हमारे शो’रा ने भी शेख़-ओ-बिरहमन की ‘अक़्ल को ठुकराया है और उनके अस्नाद से मुँह मोड़ा है।
जब से मग़रिब की सरमाया-दारी ने एशिया को ग़ुलाम बनाया और हम नए हक़ाइक़ से रू-शनास हुए तो हमारे क़दम दोनों ही तरफ़ डगमगाए हैं। कभी हमने आज़ादी की लगन में मग़रिब की साइंस और माद्दियत को रद्द किया तो कभी एहसास-ए-कमतरी में अपने तमाम-तर माज़ी को या तो तह-ए-तेग़ किया है या उन्हें लपेट कर ताक़-ए-निस्यान में रखा है लेकिन अब जबकि मशरिक़ एक नए अन्दाज़ से उभर रहा है और अपनी खोई हुई किबरियाई मज़ीद इस्तिफ़ादे से हासिल कर रहा है तो कोई वज्ह नहीं मा’लूम होती है कि हम इस अफ़रा-तफ़री के अब भी शिकार रहें। मार्कसिज़्म हो या कोई और ‘इल्म, तारीख़ी मुतालिआ’ का बदल नहीं हुआ करता। यूरोप की तारीख़ से मुत’अल्लिक़ जितना लिखा जा चुका है अभी एशिया की तारीख़ से मुत’अल्लिक़ इतना नहीं लिखा गया है। अगर एशिया को बहुत कुछ यूरोप से सीखना है तो यूरोप को आज भी बहुत कुछ एशिया से सीखना है। और ये मुरासला बैन-उल-अक़वामी हमेशा रहेगा।
एशिया सिर्फ़ अपनी मुतलक़-उल-‘इनान हुकूमत ही के लिए मशहूर नहीं, यहाँ से किसी वक़्त कल्चर का सैलाब भी मग़रिब की जानिब बहा है। हमारी शा’इरी ने मग़रिब की शा’इरी को मुत’अस्सिर किया है। हमारी हिकायतों ने उनकी नाॅविल-निगारी को मुत’अस्सिर किया है। हमारे अफ़्क़ार और आर्ट ने उनके अफ़्क़ार और आर्ट को मुत’अस्सिर किया है। आज नए अफ़्क़ार की रौशनी में हमारे पुराने अफ़्क़ार की इफ़ादियत जो ज़ाए’ हो चुकी है, तो उसके ये मा’नी नहीं कि जो कल्चर के उस ज़माने में ख़ल्क़ हुआ वो भी सब का सब बेकार है। शा’इरी और आर्ट की बुनियाद तजरबात और महसूसात पर है न कि मनक़ूलात या मा’क़ूलात पर। हक़ाइक़ से मुत’अल्लिक़ हमारा फ़ैसला ग़लत हो सकता है लेकिन हमारा तजरबा ग़लत नहीं हुआ करता है।
देखना ये है कि हमारे शो’रा ने अपने तजरबात को क्योंकर हुस्न का जिस्म बख़्शा है, क्योंकर अपने ज़माने में शैख़, मुल्ला, वा’इज़-ओ-सूफ़ी और ज़ाहिद के भरम को बे-नक़ाब किया है। क्योंकर तफ़रीक़-ए-इन्सानियत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है। मनक़ूलात और डॉग्मा से नजात हासिल की है। क्योंकर हुक्मराँ तब्क़े के क़ानून की मुख़ालिफ़त की है। क्योंकर इन्सानी फ़िक्र को लचक बख़्शी है। हुस्न-कारी और इन्सान-दोस्ती की ये रिवायात हमने सूफ़ी शो’रा से सीखी हैं। ‘अल्लामा इक़बाल का ऐसा शा’इर जो तसव्वुफ़ में ‘अजमी लय का मुख़ालिफ़ था और हिजाज़ी लय को पसन्द करता, वो शे’र-ओ-शा’इरी की दुनिया में उन्हीं के कलाम से इस्तिफ़ादा करने पर मजबूर हो जाता है, जिनके तसव्वुफ़ की लय ‘अजमी थी, न कि हिजाज़ी।
‘अल्लामा इक़बाल से सिर्फ़ यही नहीं सीखना है उन्होंने सरमाया-दाराना निज़ाम की तन्क़ीद अपनी शा’इरी में उस तरह नहीं की जिस तरह कोई सहाफ़ी करता है। उनकी तन्क़ीद जमालियाती जज़्बे के साथ है। शा’इर किसी भी निज़ाम को इन्सानी रिश्तों के पैटर्न और तकमील-ए-शख़्सियत के इम्कानात के नुक़्ता-ए-नज़र से देखता है न कि इस नुक़्ता-ए-निगाह से कि उस निज़ाम के तहत कितने कारख़ाने खुले हैं और कितने अभी खुलने बाक़ी हैं, उसकी तन्क़ीद फ़लसफ़ियाना गहराई और पुर-माइगी जज़्बे की हामिल होती है न कि किसी वक़ाए’ निगार की सत्हियत की। आर्ट की दुनिया में इदराक-ए-हक़ीक़त जमालियाती जज़्बे के साथ हम-आमेज़ होता है। यहाँ सिर्फ़ त’अक़्क़ुल नहीं बल्कि तख़य्युल और जज़्बा भी उसके साथ मिलकर काम करते हैं। आर्ट के मैदान में त’अक़्क़ुल और तख़य्युल के मिलने के ये मा’नी नहीं कि साइंस और आर्ट का फ़र्क़ ख़त्म हो जाएगा या ये कि वो एक दूसरे के मुतबादिल बन जाएँगे। वो एक दूसरे के मददगार रहते हुए मुत्तहिद होते हैं न कि अपनी इन्फ़िरादियत को ज़ाए’ करते हैं।
अगर आर्ट वहदत का जल्वा कसरत में देखता है तो साइंस कसरत का जल्वा वहदत में देखती है, अगर फ़नकार की ता’मीम महसूस और शख़्सी होती है (वो मख़्सूस ही में ‘उमूम देखता है।) तो साइंस-दाँ की ता’मीम मुजर्रिद और ग़ैर-शख़्सी होती है। शा’इर हक़ीक़त को देखने और महसूस करने पर बच्चों के ऐसा इसरार करता है लेकिन साइंस-दाँ बग़ैर देखे हुए भी हक़ीक़त पर ईमान लाता है, वो ऐटम को भी अभी देख नहीं पाया है, फिर भी वो अपने फार्मूले से सही नतीजा निकालता है।
दूसरा बड़ा फ़र्क़ उनके दरमियान ये है कि साईंसदाँ की नज़र मौजूदात की तिब्बी साख़्त पर होती है। इसके बर-’अक्स शा’इर की नज़र उनकी जमालियाती साख़्त पर होती है। शा’इर के लिए फूल एक हामिल-ए-क़द्र शय है जो साइंस-दाँ के लिए नहीं है। ये इख़्तिलाफ़, अंदाज़-ए-नज़र और तरीक़-ए-तफ़हीम दोनों ही का है न कि इस बात का कि दोनों एक ही बात कहते हैं बस उनके अंदाज़-ए-बयाँ में फ़र्क़ है। एक इस्तिदलाली तरीक़ा इख़्तियार करता है तो दूसरा मुसव्विराना। शा’इर के कलाम में जो जज़्बाती वज़्न होता है वो साइंस-दाँ के यहाँ नहीं मिलता है। फूल की हेयत दरियाफ़्त करने से फूल की शा’इरी नहीं होती है। दोनों एक ही शय से मुत’अल्लिक़ दो मुख़्तलिफ़ रंग की सच्चाईयाँ उभारते हैं। एक उसकी तिब्बी साख़्त और ख़ुसूसियत को उजागर करता है तो दूसरा उसकी जमालियाती साख़्त और अक़्दार को। ये दो मुख़्तलिफ़ रंग की सच्चाईयाँ जो एक ही शय से मुत’अल्लिक़ हैं, एक दूसरे की ज़िद नहीं हैं। लेकिन इस चीज़ का इतलाक़ मेकानिकी तौर से हर मौज़ू’ पर नहीं किया जा सकता है क्योंकि तारीख़ में सोशियाेलॉजी और ‘इल्म-उल-नफ़स आर्ट से अक्सर नक़ात पर बग़ल-गीर होते हैं लेकिन इस बाहमी लिपट-छपट के बावुजूद दोनों का मवाद मुख़्तलिफ़ अक़्दार का हामिल होता है। क्योंकि दोनों न सिर्फ़ दो मुख़्तलिफ़ तरीक़े से एक ही शय को बयान करते हैं। बल्कि एक ही शय को दो मुख़्तलिफ़ अंदाज़-ए-नज़र से देखने और समझने की कोशिश करते हैं।
शा’इर हो या फ़नकार उसके लिए सबसे बड़ा मसअला अपने तजरबात की बिला-वास्तगी को बर-क़रार रखने का है। तजरबात को उसी हिस्सी सूरत में पेश करने का है जिस सूरत में कि उसका ‘इरफ़ान हुआ था। ज़ाहिर है कि दाम-ए-सुख़न में आते आते वो तजरबात ज़बान का वास्ता तो क़ुबूल ही कर लेंगे लेकिन वो वास्ता ऐसा तो हो कि आईने का काम दे सके, ये मस्अला मुअर्रिख़ और मुहद्दिस को तो ख़ैर सताता ही नहीं, ये मसाला ऐसे शा’इरों को भी नहीं सताता जो मुजर्रद ख़याल को बा-तस्वीर करने के ‘आदी होते हैं न कि इमेजिज़ के ज़री’ए सोचने के ‘आदी होते हैं। ये काव-काव-ए-ज़ख़्म-ए-कारी सिर्फ़ सफ़-ए-अव्वल के शो’रा-ए-के लिए मख़्सूस होती है... शा’इर की हिस्सियत एक ख़ालिक़, एक मूजिद की है न कि शारेह, मुफ़स्सिर और मुदर्रिस की। अगर शा’इर के यहाँ औरिजेनैलिटी और ताज़गी नहीं तो वो किसी तवज्जोह का मुस्तहिक़ नहीं है। शा’इराना ज़ेह्न इन्हीं मा’नों में दिमाग़ (PICTORIL MIND) से मुख़्तलिफ़ होता है।
शा’इराना ज़ेह्न क़ल्ब-ए-हक़ीक़त में उतरता है। हक़ीक़त को महसूस सूरत में देखता है क्योंकि उसे हक़ीक़त का बराह-ए-रास्त तजरबा होता है। इसके बर-’अक्स मुसव्विराना ज़ेह्न दूसरों के ख़यालात को सिर्फ़ महसूस लिबास पहनाना जानता है, उसे कोई भी मौज़ू’ दे दीजिए वो नज़्म कर देगा। वो जो कुछ कहता है वो बराह-ए-रास्त उसके अपने तजरबे और अपने उगत और ज्ञान का नतीजा नहीं होता है, इससे बड़ा फ़र्क़ पैदा हो जाता है। शा’इराना ज़ेह्न की तख़्लीक़ में सूरत-ओ-मा’नी का रिश्ता जिस्म-ओ-जान का होता है। शा’इराना ज़ेह्न जिस वक़्त हुस्न-ए-मा’नी को जिस्म-ए-ग़ैर के पस-ए-मंज़र में रौशन करता है या’नी जब वो किसी मुशब्बा के लिए मुशब्बिह ढूँढता है तो वो पहले उन दोनों की मुमासिलत-ए-मा’नवी को देखता है न कि उनकी ज़ाहिरी या सूरी मुमासिलत को जो एक सानवी शय है। तशबीह और इस्ति’आरे का यही बुनियादी फ़र्क़ है वर्ना हर इस्ति’आरा ब-ज़ात-ए-ख़ुद एक तशबीह है।
इसके बर-’अक्स मुसव्विराना ज़ेह्न हुस्न-ए-मा’नी से ना-आश्ना होने के बा’इस मुशब्बा और मुशब्बिह की सिर्फ़ ज़ाहिरी या सूरी मुमासिलत पर जाता है। इसके लिए हिलाल, नाख़ुन का मुशब्बिह बह बन जाता है लेकिन शा’इराना ज़ेह्न इस तशबीह को रद्द कर देगा। क्योंकि इन दोनों के दरमियान मुमासिलत सूरी है न कि मुमासिलत-ए-मा’नवी। नाख़ुन नूर से आरी है जो हिलाल की मा’नवी ख़ुसूसियत है। मुसव्विराना ज़ेहन इसी तरह तमसील (ALLEGORY) के मौक़े’ पर किसी भी मिसाल से अपना काम निकाल लेता है ख़्वाह वो मिसाल गधे की हो या मेंढक की। तमसीलात में ज़ेह्नी तस्वीरें ता’मीम याफ़्ता होती हैं न कि ठोस और मुनफ़रिद। तमसीलात ने नाविलों के ज़िन्दा किरदार के लिए जो जगह ख़ाली की है तो उसका सबब यही है कि नाॅविल में किरदार जिन ज़ेह्नी तस्वीरों के ज़री’ए पेश किए जाते हैं वो ब-यक-वक़्त मुनफ़रिद, महसूस और यूनीवर्सल या टिपीकल (TYPICAL) दोनों ही होते हैं।
नाॅविल का किरदार अपने टाइप के बे-शुमार किरदारों का सिर्फ़ नुमाइंदा ही नहीं होता बल्कि उनमें से एक ब-ज़ात-ए-ख़ुद भी होता है। वो ये ख़ुसूसियात-ए-मा’नवी मुमासिलत की बुनियाद पर हासिल करता है। न कि सूरत और शक्ल की मुमासिलत की बुनियाद पर। और जहाँ कहीं ऐसा नहीं है उसे हम कामयाब किरदार तस्लीम नहीं करते हैं। इसी तरह वो शा’इरी भी ना-कामयाब तसव्वुर की जाती है जहाँ तशबीहात का अंबार सिर्फ़ ज़ाहिरी या सूरी मुमासिलत की बुनियाद पर लगा दिया जाता है और मुशब्बा और मुशब्बिह के दरमियान वहदत-ए-मा’नवियत या तिमसाल-ए-मा’नवियत पर ज़ोर नहीं दिया जाता है। अगर आप मिसाल को सिर्फ़ मिसाल ही की हैसियत से देखें तो मैं एक मिसाल दूँ,
जिस तरह डूबती है कश्ती-ए-सीमीन-ए-क़मर
नूर-ए-ख़ुर्शीद के तूफ़ान में हंगाम-ए-सहर
जैसे हो जाता है ग़म नूर का आँचल ले कर
चाँदनी-रात में महताब का हम-रंग-ए-कँवल
जल्वा-ए-तूर में जैसे यद-ए-बैज़ा-ए-कलीम
मौजा-ए-निकहत-ए-गुलज़ार में ग़ुंचे की शमीम
है तिरे सैल-ए-मुहब्बत में यूँही दिल मेरा
ये है वो चीज़ जिसे ‘उर्फ़-ए-आम में शा’इरी कहते हैं लेकिन हल्क़ा-ए-ख़वास में इसे मुसव्विराना ज़ेह्न की तख़्लीक़ कहेंगे (अ) है तिरे सैल-ए-मोहब्बत में यूँही दिल मेरा। इस ख़याल को मुसव्विर करने के लिए क्या-क्या जतन शा’इर ने नहीं किए हैं लेकिन मुशब्बा लोहे की सलाख़ की तरह अपनी जगह अकड़ा ही रह गया। सैल-ए-मोहब्बत में जो दिल डूबता उछलता है तो वो एक दाख़िली कैफ़ियत की तस्वीर है न कि फ़िल-वाक़े’ वैसा होता है। कोशिश ये करनी चाहिए थी कि इस दाख़िली कैफ़ियत को उभारा जाता किसी ऐसी तशबीह से जो इस कैफ़ियत की मा’नवी ख़ुसूसियात की हामिल होती, ज़ाहिर है कि इसके लिए बस एक इस्ति’आरा काफ़ी था। लेकिन जब कलाम को मुज़य्यन करना हो, एक रंग के मज़मून को सौ रंग से बाँधने का इरादा हो तो फिर जज़्बे की अस्ल कैफ़ियत तक पहुँचने का क्या सवाल है। ये अंदाज़-ए-सुख़न हमारी शा’इरी का मुरव्वजा अंदाज़-ए-सुख़न रहा है, जहाँ जज़्बे की गहराई मफ़क़ूद और तख़य्युल की अटखेलियाँ ही नज़र आती हैं। अब ये देखिए कि एक मुसव्विर ज़ेह्न के मुक़ाबले में एक शा’इराना ज़ेह्न बज़्म-ए-सुख़न में क्योंकर जल्वागर होता है,
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
इक शम’ है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है
यहाँ शा’इर ने किसी तशबीह से काम नहीं लिया है। वो ये नहीं कहता है कि मेरे दिल में जोश-ए-ग़म इस तरह है जैसे ये हो जैसे वो हो। बल्कि इसके बर-’अक्स वो बराह-ए-रास्त ऐसी तस्वीर पेश करता है जो उसके ग़म से मा’नवी इत्तिहाद रखती है न कि सूरी, क्योंकि दाख़िली कैफ़ियत किसी सूरी मुमासिलत की हामिल नहीं हुआ करती। शा’इर अपने जोश-ए-ग़म को तारीकी-ए-शब के तूफ़ान की तस्वीर में इस तरह देखता है कि उसमें दोनों की मा’नवी ख़ुसूसियात मुत्तहिद नज़र आती हैं। चुनाँचे जब वो उसकी तस्वीर को आगे बढ़ाता है तो वो मुस्त’आर-लहु के औसाफ़ का ज़िक्र नहीं करता है बल्कि सिर्फ़ मुस्त’आर-मिनहु के औसाफ़ का।
यहाँ मुस्त’आर-मिनहु, मुस्त’आर-लहु की कोई तिमसाली या नुमाइन्दा (REPRESENTATIVE) तस्वीर नहीं है जैसा कि तमसील में होता है, बल्कि मुस्त’आर-लहु, का एक ऐसा आईना है जिसमें उसकी हक़ीक़त मुन’अकिस हो रही है। मुस्त’आर-लहु या हक़ीक़त, पस-ए-पर्दा है लेकिन मुस्त’आर-मिनहु का इशारा और क़राइन ये बताते हैं कि हक़ीक़त अगर बिल्कुल यही नहीं तो इसी के लगभग ज़रूर होगी। यहाँ जज़्बा-ए-ग़म को मुसव्विर नहीं बल्कि मुनकशिफ़ किया गया है, उसके अपने ‘ऐन और इक़्तिबास (ESSENCE) में। चुनाँचे यही सबब है कि यहाँ मुस्त’आर-मिनहु अपने ज़िद की नफ़ी भी करता है क्योंकि किसी भी शय की हक़ीक़त या ‘ऐन को वाज़ेह करने के लिए उसके ज़िद को भी उभारना ज़रूरी है।
वो जो शम’-ए-ख़ामोश, दलील-ए-सहर है लेकिन तूफ़ान-ए-शब या ग़म इतना शदीद है कि वो शम’ के सर से भी गुज़र चुका है या’नी ग़म का वो ‘आलम है कि शम’-ए-उम्मीद की लौ भी बुझ चुकी है। इस शे’र में जज़्बे का मुकम्मल इज़हार पहले मिसरे’ से नहीं होता है। ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है। पहला मिसरा’ तो सिर्फ़ एक बयान या हक़ीक़त का सिर्फ़ एक पहलू है। इसकी तकमील दूसरे मिसरे’ से होती है जबकि ज़ुल्मत-कदा अपनी ज़िद की नफ़ी करता है। इक शम’ है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है। यहाँ ख़याल तस्वीर की सूरत में नुमूदार हुआ है न कि वो पहले से मुजर्रद सूरत में मौजूद था कि उसे लिबास पहनाने की ज़रूरत दरपेश होती।
शा’इराना ज़ेह्न तख़्लीक़ी होता है न कि सन्ना’आना। शा’इराना ज़ेह्न क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला का हामिल होता है। इसके बर-’अक्स मुसव्विराना या सन्ना’आना ज़ेह्न ‘आम तौर से फैन्सी या क़ुव्वत-ए-वाहिमा का हामिल होता है। क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला और फ़ैन्सी का फ़र्क़ ये है कि क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला अगर एक तरफ़ मुतग़ाइर अश्या की मुमासिलत बातिनी या ‘ऐन ज़ात को दरियाफ़्त करती है तो दूसरी तरफ़ मुमासिल अश्या की मुग़ाइरत-ए-बातिनी को भी उभारती है। इसके बर-’अक्स फ़ैन्सी मुमासिलत-ए-ज़ाहिरी पर जाती है और मुमासिलत-ए-बातिनी को नज़र-अंदाज़ करती है। क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला का ‘अमल तख़्लीक़ी है क्योंकि क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला, अपने मवाद को बिखेर कर, गला पिघला कर अज़-सर-ए-नौ तख़्लीक़ करती है, इसके बर-’अक्स फ़ैन्सी की तख़्लीक़ नक़्क़ाली या तज़ईनी होती है। तख़्लीक़ी शा’इरी में ब-क़ौल-ए-मीर शु’ऊर जुनूँ की मंज़िल से गुज़रता है,
ख़ुश हैं दीवानगी-ए-‘मीर’ से सब
क्या जुनूँ कर गया शु’ऊर से वो
बग़ैर इस जुनून के हाफ़िज़े की देवी जो यूनानी असातीर में शे’र-ओ-शा’इरी के देवताओं की माँ है, अपना ख़ज़ाना जुनून के हवाले नहीं करती है। यही जुनून शा’इर को ‘आलम-ए-बे-ख़ुदी या ला-शु’ऊर की दुनिया में ले जाता है ताकि वो अपनी क़ुव्वत-ए-हाफ़िज़ा और दूसरे क़ुवा के इंतिहाई इर्तिकाज़ के ज़री’ए हक़ीक़त की तह तक पहुँच सके।
बाहर कमाल अंद के आशुफ़्तगी ख़ुश अस्त
हर-चंद ‘अक़्ल-ए-कुल शुदा, ई बे-जुनूँ मबाश
ग़ालिबन ये उसी शु’ऊर-परवर जुनूँ या एक बेदार ‘आलम-ए-ख़्वाब का नतीजा है कि शा’इरी में मौसीक़ी एक डूबती हुई सी आहंग या लोरी का असर रखती है। शा’इरी में मूसीक़ी बैन-उल-सुतूर, ज़ेर-ए-लब, तह-ए-हर्फ़ और गुनगुनाहट के साथ होती है न कि इस क़दर बुलंद आहंग और पेश-पेश कि वो नज़ारगी-ए-मा’नी का हिजाब बन जाए। मसलन मुंदरजा-ज़ैल अश’आर में मूसीक़ी की बुलंद आहंगी और उसका शु’ऊरी इल्तिज़ाम इदराक-ए-मा’नी के हुस्न पर ग़ालिब आ गया है।
मिरा ‘ऐश-ए-ग़म, मिरा शहद-ए-सम, मिरी बूद हम-नफ़स-ए-‘अदम
तिरा दिल हरम, गरव-ए-‘अजम, तिरा दीं, ख़रीदा-ए-काफ़िरी
दम-ए-ज़िन्दगी, रम-ए-ज़िंदगी, ग़म-ए-ज़िंदगी, सम-ए-ज़िन्दगी
ग़म-ए-रम न कर, सम-ए-ग़म न खा कि यही है शान-ए-क़लंदरी
शे’र का मक़्सद जज़्बात को उभारना और सच्चाई को मुनकशिफ़ करना है न कि बाजे-गाजे के साथ किसी मुर्दा ख़याल की मय्यत का जलूस निकालना है। ख़ैर ये तो एक ज़िम्नी बात हुई। वर्ना अस्ल बात तो वही है जिसकी तरफ़ मैं आपकी तवज्जोह मबज़ूल कराए हुए था कि शा’इराना ज़ेह्न न सिर्फ़ साइंटिफ़िक ज़ेह्न से मुख़्तलिफ़ होता है बल्कि मुसव्विराना ज़ेह्न से भी, और ये इसका एक नतीजा-ए-सरीह है कि शा’इरी का मवाद और उसका इज़हार-ओ-बयान साइंस के मवाद और उसके इज़हार-ओ-बयान से मुख़्तलिफ़ होता है। इसी मौक़े’ पर इस नुक्ते को उभारना भी ज़रूरी सा मा’लूम होता है कि एक तख़्लीक़ी नज़्म-ख़्वाह ता’मीरी ए’तिबार से वो कितनी ही ख़ूबसूरत क्यों न हो, उस वक़्त तक किसी समाजी अहमियत की हामिल नहीं होती जब तक कि उसकी स्पिरिट ख़ारिजी हक़ाइक़ की आईना न हो।
मैंने स्पिरिट का लफ़्ज़ इसलिए इस्ति’माल किया है कि फ़ुनून-ए-लतीफ़ा बुनियादी हैसियत से ज़िन्दगी की अक़्दार को आईना दिखाते हैं न कि उसकी कमियाती कैफ़ियत को, लेकिन चूँकि कल्चर मुश्तमिल होता है ज़िन्दगी के ख़ारिजी और दाख़िली दोनों ही पहलुओं पर, या’नी उसका त’अल्लुक़ कैफ़-ओ-कम दोनों ही से होता है इसलिए ऐसा सोचना कि आर्ट तन-ए-तन्हा पूरे कल्चर की तर्जुमानी कर सकता है, सही नहीं है। पूरे कल्चर की तर्जुमानी साइंस और आर्ट दोनों ही मिलकर करते हैं। अगर आर्ट अंदर से बाहर और अक़्दार से मिक़्दार की तरफ़ झुकता है तो साईंस बाहर से अंदर की जानिब और मिक़दार से अक़्दार की तरफ़ भी झुकती है। लेकिन इनमें से दोनों अपना अपना मर्कज़-ए-सक़्ल नहीं छोड़ते हैं।
इस अंदर-बाहर और अक़्दार-मिक़्दार के फ़लसफ़े की वज़ाहत ये है कि ज़िन्दगी ‘इबारत है इन्सान के दो-गूना तर्ज़-ए-‘अमल से। अगर एक तरफ़ वो ख़ुद-आगाह-ओ-जूद होने के बा’इस अपनी ख़ुद-आगही में इज़ाफ़ा करता रहता है तो दूसरी तरफ़ वो अपने तर्ज़-ए-‘अमल से न सिर्फ़ ख़ारिज की दुनिया बल्कि अपनी फ़ित्रत को भी बदलता रहता है और उसका ये दोगाना तर्ज़-ए-‘अमल एक दूसरे से पैवंद है, एक दूसरे पर-असर अंदाज़ होता है और एक दूसरे से मुरासला रखता है। इन्सान की ज़िन्दगी में आर्ट ने बिल-‘उमूम और शे’र-ओ-अदब ने बिल-ख़ुसूस अपनी जगह कुछ इस तरह मुत’अय्यन की है या उसकी जगह मुत’अय्यन होती गई है कि वो उसके दुख-दर्द (Suffering) के ‘अमल के मुहर्रिकात और उसकी आरज़ूओं को पेश करता आया है। अदब हमेशा से ही इन्सान मुर्तकिज़ रहा है। जैसा कि (HUMANISM) का लफ़्ज़ वज़ाहत करता है जिसका सही मफ़हूम इन्सान-परस्ती से न कि इन्सान दोस्ती से अदा किया जा सकता है।
आदमी बिल-‘उमूम ख़ारिजी फ़ित्रत को भी अपनी ही नफ़्सियात के आईने में देखता रहा है। अदब की ये दाख़िलियत पिछली सदी से कम होती गई है क्योंकि इन्सान अब निस्बतन ज़ियादा अस्बाब-ए-ज़िन्दगी पर क़ाबू पाता जा रहा है। हाँ ये सही है कि जब तक कि इन्सान का दस्तरस सारे ही अस्बाब-ए-ज़ीस्त पर न हो, उसके ‘अमल का नतीजा लाज़िमी तौर पर वैसा नहीं हो सकता है जैसा कि वो सोचता है लेकिन ये ज़रूरी नहीं कि हम उसकी मुख़्तारी को हमेशा सौ फ़ीसद इख़्तियार ही के तसव्वुर में सोचें। अगर हम नव्वे या निनानवे फ़ीसदी भी अस्बाब पर क़ाबू पा सकते हैं तो कोई वज्ह नहीं कि हम में वो ए’तिमाद न पैदा हो सके जिसकी बुनियाद पर हम अपने ही को अपनी तारीख़ का ख़ालिक़ कहें। ये ए’तिमाद-ए-किबरियाई हमारी ज़ीस्त का एक नया महवर है जो रोज़-ब-रोज़ क़वी-तर होता जा रहा है और जो क़दीम ज़माने में निस्बतन कमज़ोर था, क्योंकि उस वक़्त इन्सान इस क़दर साहब-ए-मुक़द्दरत न था। ये उसी ए’तिमाद के बा’इस है कि आज अदब में इन्सान अपने ख़ोल से बाहर भी निकला हुआ नज़र आता है क्योंकि उसके दुख-दर्द में निस्बतन कमी वाक़े’ हुई है और उसे अपने ‘अमल के नताइज का क़वी-तर यक़ीन पैदा हुआ है।
ये तरीक़-ए-ख़ुद-शनासी ब-तख़ालुफ़ मौजूदात-ए-ख़ारिज कि दलील-ए-‘इल्म-ए-आदम है, ये सुपुर्दगी-ब-फ़ित्रत, ये रामीदगी-ए-फ़ितरत, ये शोख़ी तआ’क़ुब-ए-फ़ित्रत कि दलील-ए-‘अज़्म-ए-आदम है ये इत्तिसाल पैहम-ब-फ़ित्रत, ये इफ़्तिराक़ क़ायम-ए-फ़ितरत कि दलील-ए-नब्ज़-ए-आदम है, एक न ख़त्म होने वाला सिलसिला-ए-‘अमल है। क्योंकि ज़िन्दगी इ’बारत है फ़ित्रत से पैहम उलझते और सुलझते रहने से, फ़ित्रत की हार फ़ित्रत की जीत है लेकिन चूँकि इन्सान का अपना एक ईगो भी है जो ख़ुद-आगाह वजूद की निशानी है और जो मा-सिवा इन्सान किसी दूसरे में नज़र नहीं आता है, इसलिए वो अपने को फ़ातेह और फ़ित्रत को मफ़्तूह समझता है और ऐसा कहने में वो इसलिए भी हक़-ब-जानिब है कि उसने अपने हवास पर जो एक ‘अतिया-ए-फ़ित्रत है, नए से नए ऐसे शीशे चढ़ाए हैं जो फ़ित्रत के पास मौजूद न थे यही सब उसकी किबरियाई की निशानी है।
वो जूँ-जूँ अपनी तारीख़ का शु’ऊरी ख़ालिक़ बनता जाएगा, उसका अदब भी दुख-दर्द के बयान से उसके ‘अज़ीम कारनामों के बयान की तरफ़ बढ़ता और फैलता जाएगा। लेकिन वो अपना मर्कज़-ए-सक़्ल नहीं छोड़ सकता है। बग़ैर दुख-दर्द और कर्ब के कोई अदब तख़्लीक़ नहीं होता है। क्योंकि अदब कश्मकश से पैदा होता और कश्मकश में कर्ब और तक्लीफ़ का पाया जाना लाज़िमी है। वो कश्मकश नए से नए रूप इख़्तियार कर सकती है जिसकी हेयत सोसाइटी के तज़ादात की नौ’इयत से मुत’अय्यन होती रहेगी लेकिन ये ना-मुम्किन है कि इन्सान का कोई भी ‘अमल या उसके ‘अमल का कोई भी तहय्या बग़ैर कश्मकश के पैदा हो। आर्ट की ख़ूबी किसी भी तहय्या-ए-‘अमल को उसके इसी कश्मकश या तनाव के साथ पेश करने में है, जो उसमें मौजूद होता है,
जवाँ लहू की पुर-असरार शाह-राहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें बदन बुलाते रहे
बहुत ‘अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक-सुबुक थी तमन्ना दबी-दबी थी थकन
ये है हक़ीक़त-निगारी का एक अदना नमूना। यहाँ शा’इर इन्क़िलाबी ‘अमल को अंदरूनी कश्मकश के साथ पेश कर रहा है। ये ख़ूबी बात को इस्ति’आरे में कहने से पैदा हुई है। इस बंद या पूरी नज़्म को रूमानवी7 कहना हक़ीक़त-निगारी को न समझने के बराबर है।
तजरबात का ये जदल्लियाती तर्ज़-ए-‘अमल जब ब-ज़री’आ-ए-ज़बान, अदब में मुन’अकिस होता है तो वो अपने ‘अक्स में तजरबे की जदल्लियाती तर्ज़-ए-‘अमल को भी पेश करता है। क्योंकि बग़ैर उसके अस्ल तजरबे को मुन्तक़िल करना मुम्किन नहीं और अस्ल तजरबा हमेशा ज़ेह्नी तस्वीरों ही की सूरत में मुन्तक़िल किया जा सकता है। आर्ट में ज़ेह्नी तस्वीरों को इसी वज्ह से बुनियादी जगह दी गई है। लेकिन मुन्दरजा-बाला हक़ीक़त की रौशनी में सिर्फ़ ऐसी ही ज़ेह्नी तस्वीरें हक़ीक़त को आईना दिखा सकती हैं जो क़ानून-ए-इत्तिहाद (Law Of Identity) और क़ानून-ए-तख़ालुफ़ (Law of Opposition) या जदल्लियात के उसूलों पर मबनी हों। इस्ति’आरा इसी ज़ेह्नी तस्वीर का नाम है जिसमें ये दोनों ही उसूल कार-फ़रमा होते हैं। अब इसकी वज़ाहत सुनिए,
इस्ति’आरा जैसा कि ‘इल्म-ए-बयान में बताया गया है, मजाज़ की एक क़िस्म है। इस्ति’आरा हमेशा मजाज़ी मा’नी में मुस्त’अमिल होता है न कि हक़ीक़ी या लुग़वी मा’नी में और मजाज़ के मा’नी हैं तजावुज़ करना। इसके ये मा’नी हुए कि जब कोई ज़ेह्नी तस्वीर लुग़वी मा’नी से तजावुज़ करती है तो उसको इस्ति’आरा कहते हैं। अंग्रेज़ी ज़बान में इस्ति’आरे के लिए जो लफ़्ज़ (METAPHOR) इस्ति’माल होता है तो उस लफ़्ज़ का मफ़हूम भी यूनानी ज़बान में तक़रीबन वही है जो मजाज़ का है या’नी आगे बढ़ाना। अब ये देखिए कि इस्ति’आरा क्या है और क्या नहीं। जिस वक़्त आप ये कहते हैं कि उनका ग़ुस्सा भड़क उठा तो आप इस्ति’आरे की ज़बान इस्ति’माल करते हैं। क्योंकि भड़कना बुनियादी हैसियत से आग की ख़ुसूसियत है न कि ग़ुस्से की, फिर भी ऐसा ही कहने में हम हक़ीक़त से क़रीब-तर रहते हैं, क्योंकि ग़ुस्से की मा’नवी ख़ुसूसियत आग की मा’नवी ख़ुसूसियत के मुमासिल है।
उनका ग़ुस्सा भड़क उठा, ये एक ज़ेह्नी तस्वीर है। इसके बर-’अक्स अगर ये कहें कि उनको ग़ुस्सा आ गया तो एक बयान होगा न कि कोई तस्वीर, जिसमें जज़्बे की शिद्दत और गहराई का तसव्वुर नहीं मिलता है। यहाँ ग़ुस्से और आग के दरमियान ‘इलाक़ा-ए-तशबीही मा’नवी है न कि सूरी। इस्ति’आरे की ज़रूरत पड़ती ही है इसीलिए कि मुस्त’आर-लहु कभी अपनी लताफ़त-ओ-नज़ाकत के बा’इस, तो कभी तजर्रुद के बा’इस मा’रिज़-ए-इज़्हार में आने के लिए किसी एक महसूस वजूद-ए-ग़ैर के इशारे, किनाए का मोहताज रहता है। ज़ाहिर है कि इस मौक़े’ पर वही वुजूद-ए-ग़ैर इस ख़िदमत को अंजाम दे सकता है जो मुस्त’आर-लहु से इत्तिहाद-ए-मा’नवी रखे वर्ना नक़्श-ए-हक़ीक़ी का उभरना मुहाल है। जहाँ कहीं किसी मुस्त’आर-लहु को कोई ऐसा मुस्त’आर-मिनहु मिला जो उससे इम्तिसाल-ए-मा’नवियत या इत्तिहाद-ए-मा’नवियत रखता हो तो फिर मुस्त’आर-लहु अपने उस आईने से ऐसा नुमू करता है कि मुस्त’आर-मिनहु महजूब हो जाता है और सिर्फ़ नक़्श-ए-हक़ीक़त जल्वागर रहता है।
नक़्श पैदा-ओ-आईना महजूब
ब-ख़फ़ा गश्त अज़ ईं सबब मंसूब
ग़ुस्से का भड़कना, जो मुहावरा बना, उसका सबब यही है कि इब्तिदाअन वो एक इस्ति’आरा था। मुहावरा बनता ही है इसी बुनियाद पर कि वो अस्लन इस्ति’आरा था, जो इस्ति’आरा नहीं वो मुहावरा नहीं, वो रोज़मर्रा हो तो हो। इस्ति’आरे और मुहावरे में फ़र्क़ ये है कि इस्ति’आरे कसरत-ए-इस्ति’माल से कजला जाते हैं तो हम उन्हें रोज़मर्रा में इस तरह इस्ति’माल करने लगते हैं जिस तरह कि ‘आम लफ़्ज़ हमारी ज़बान पर आते हैं।
इसके ये मा’नी हुए कि इस्ति’आरा सिर्फ़ शो’रा ही इस्ति’माल नहीं करते बल्कि हर शख़्स अपनी गुफ़्तगू में इस्ति’माल करता है ख़्वाह शहरी हो या देहाती। मैंने आज़मा कर देखा है बग़ैर इस्ति’आरे के (यक़ीनन इस में मुहावरा शामिल है) दो मिनट भी गुफ़्तगू करना मुहाल है। ऐसा क्यों है? बात ये है कि दुनिया में वही ज़बान तरक़्क़ी-याफ़्ता तसव्वुर की जाती है जिसमें ये सलाहियते ज़ियादा से ज़ियादा हों कि अगर वो एक तरफ़ मुजर्रद से मुजर्रद ख़याल के तज्ज़िये पर क़ादिर हो तो दूसरी तरफ़ वो मुजर्रद से मुजर्रद ख़याल को ठोस और महसूस सूरत में भी पेश करने की सलाहियत रखती हो। ये दोनों उसूल या’नी तजरीद-ओ-तज्सीम या ता’मीम-ओ-तख़्सीस The Law of Generalization And The Law of Particularizatin ब-दर्जा-ए-अतम इस्ति’आरे में मुदग़म रहते हैं।
इस्ति’आरा ब-यक-वक़्त मुजर्रद और ठोस दोनों ही होता है। जिस वक़्त वो एक से ज़ियादा अश्या की क़द्र-ए-मुश्तरक को समेटता है तो उसका ‘अमल तजरीद का होता है और जब इस क़द्र-ए-मुश्तरक को एक महसूस और ठोस जिस्म देता है तो उसका ‘अमल मुजर्रद ख़याल को महसूस कराने का या तज्सीम का होता है और वही ज़बान क़वी और मुअस्सिर तसव्वुर की जाती है जो मुजर्रद ख़यालात का इज़हार ठोस ज़बान में कर सके। इस ज़रूरत को जैसा इस्ति’आरा पूरा करता है कोई और उस्लूब-ए-बयान पूरा नहीं कर पाता है। मार्सल प्रोस्ट का तो ये कहना है कि स्टाइल को जो चीज़ अदबियत बख़्शती है वो सिर्फ़ इस्ति’आरा है। चुनाँचे वो फ़्लॉबेयर के उस्लूब को सिर्फ़ इसलिए पसन्द नहीं करता है कि वो ‘अज़ीम इस्ति’आरे से ‘आरी है। बहर-हाल ख़्वाह आप उसके ख़याल से मुत्तफ़िक़ हों या न हों, ये हक़ीक़त है कि इस्ति’आरे से ज़ियादा ठोस, क़वी और मुअस्सिर बयान किसी और उस्लूब का नहीं हुआ करता क्योंकि इस्ति’आरे में हक़ीक़त को ब-ए’तिबार-ए-मुनासिबत-ए-मा’नी जिस्म मिलता है न कि ब-ए’तिबार-ए- मुनासिबत-ए-सूर जैसा कि अक्सर तशबीह में होता है।
जमालियात की दुनिया में सूरत-ओ-मा’नी का इत्तिहाद उसी वक़्त पैदा होता है जबकि ज़बान ख़याल का आईना बन जाती है और अदब में यही शय हुस्न से ‘इबारत है जैसा कि बेदिल कहते हैं। कि हुस्न, मिरात-ए-‘आलम-ओ-मा’लूम है। इस्ति’आरे की दुनिया में जो ये ‘अमल है कि मुस्त’आर-मिनहु के औसाफ़ को मुस्त’आर-लहु के औसाफ़ में जमा’ कर दिया जाता है और मुस्त’आर-लहु का ज़िक्र छोड़ दिया है तो इसका सबब यही कि मुस्त’आर-लहु मुस्त’आर-मिनहु से औसाफ़-ए-हक़ीक़ी या अपनी मा’नवियत में मुत्तहिद (IDENTICAL) हो जाता है लेकिन इस्ति’आरा मुस्त’आर जो ठहरा, उसमें ये इत्तिहाद (IDENTITY) जुज़्वी होता है न कि कुल्ली क्योंकि मुस्त’आर-मिनहु मुस्त’आर-लहु से मुमासिल होते हुए भी मुतग़ाइर होता है। इसलिए इस इत्तिहाद के बा-वस्फ़ उनमें तख़ालुफ़ भी मौजूद रहता है। मुस्त’आर-मिनहु के हक़ीक़ी (Literal) मा’नी तरदीद-ए-मुस्त’आर-लहु का हक़ीक़ी मा’नी करता है और ये उनके इसी इत्तिहाद और तख़ालुफ़ का नतीजा है कि अस्ल मा’नी मुस्त’आर-मिनहु से तजावुज़ करता है या जस्त करता है जो एक (Synthetic) मा’नी होता है।
ये मा’नी जो हक़ीक़त और मजाज़ के इत्तिहाद और तख़ालुफ़ से पैदा होता है, अस्ल हक़ीक़त को लौ देता है न कि इसी क़तईयत के साथ महदूद कर देता है। हक़ीक़त ख़्वाह वो किसी ज़र्रे की हो या इन्सान की, अपने हिजाबात में ला-महदूद है क्योंकि वो काइनात की हक़ीक़त से बे-शुमार रिश्तों में मरबूत है। हक़ीक़त वो अथाह सागर है जिसमें शुर्ब-ए-मुदाम लगा हुआ है लेकिन उसका ख़ज़ाना न तो ख़त्म हो चुकता है और न ख़त्म हो पाएगा। गो ये भी सही है कि हम हक़ीक़त से रोज़-ब-रोज़ क़रीब से क़रीब-तर होते जाएँगे ब-शर्त कि हम हक़ीक़त को क़ाबिल-ए-इदराक समझें।
कुदाम क़त्रा कि सद बहर दर-रिकाब नदारद
कुदाम ज़र्रा कि तूफ़ान--ए-आफ़्ताब नदारद
इसके ये मा’नी हुए कि किसी भी हक़ीक़ी तजरबे की सच्चाई को इस्ति’आरे ही के ज़री’ए पेश किया जा सकता है जो उसको क़तईयत के साथ महदूद नहीं करता है बल्कि उसकी ला-महदूदियत की तरफ़ भी इशारा करता रहे। इस्ति’आरा, मुस्त’आर-मिनहु से आगे गुज़र जाता है। ये हक़ीक़ी तजरबे को लौ देता है न कि उसे घेरता और मुत’अय्यन करता है जो एक मुजर्रद तसव्वुर का काम है। इस्ति’आरे का मफ़हूम कसीर-सम्ती और मुतहर्रिक होता है। इस्ति’आरा सर्फ़-ए-ख़याल ही को नहीं छूता है बल्कि ख़याल के साथ जो जज़्बात और एहसासात वाबस्ता होते हैं उनकी शिद्दत और गहराई को भी उभारता है। वो मुतहर्रिक इस मा’नी में है कि इस्ति’आरे का मफ़हूम अपनी इशारियत की वज्ह से तख़य्युल के लिए मा’नी की राहें खौलता है न कि उसकी राहें रोक कर बैठ जाता है। क्योंकि वो तो ‘आलम-ए-वुजूद में इसीलिए आया था कि अस्ल हक़ीक़त के सिर्फ़ महदूद ही नहीं बल्कि ला-महदूद पहलुओं की तरफ़ इशारा करे।
इशारे को यक़ीनन ताब-नाक होना चाहिए लेकिन उसमें वो इबहाम ब-क़ौल-ए-ग़ालिब तो रहे हीगा, जिस पर तशरीह क़ुर्बान होती है क्योंकि हक़ीक़त का ला-महदूद पहलू हमेशा मुबहम होता है। यहाँ मसअला हुस्न-ए-मा’नी के इम्कानात पर मर मिटने का ज़िक्र है न कि मुत’अय्यन तसव्वुरात में घिर कर रह जाने का। इस्ति’आरा हक़ीक़त का आईना होता है न कि उसको छुपा देने वाला पर्दा। उसकी रम्ज़ियत हक़ीक़त की तरफ़ एक जुंबिश-ए-निगाह करने में है न कि उसके लिए पर्दा-ए-ख़फ़ा बन जाने में (रम्ज़ के लुग़वी मा’नी भी जुंबिश-ए-निगाह ही के हैं।) हक़ीक़त के चेहरे से पर्दा उठाने ही का नाम इस्ति’आरा है। जहान-ए-मा’नी को बराह-ए-रास्त मुनकशिफ़ करने के लिए ज़ेह्न-ए-आदम ने अगर अस्बाब-ए-त’अल्लुक़ से कोई आला-ए-कार वज़’ किया है तो वो इस्ति’आरा है।
इस आला-ए-कार पर सिर्फ़ शो’रा ही का इजारा नहीं रहा है। इस्ति’आरे को दुनिया के तमाम बड़े-बड़े नस्सार, मुफ़क्किरीन, मुबल्लिग़ीन और फ़लसफ़ियों ने भी इस्ति’माल किया है। हाँ ये ज़रूर है कि उस क़िस्म की तस्नीफ़ात में जहाँ तज्ज़िया-ए-ख़याल को ज़ियादा दख़्ल होता है, वहाँ इस्ति’आरा कम इस्ति’माल किया जाता है। लेकिन हर उस तसनीफ़ में जिसमें जज़्बे और ख़याल की आमेज़िश है, जहाँ ख़याल को जज़्बात की गहराई और शिद्दत के साथ पेश किया गया है, वहाँ इस्ति’आरे की ज़बान ना-गुज़ीर तौर पर इस्ति’माल की हुई मिलती है। अफ़लातून और नीत्शे की तस्नीफ़ात को छोड़िए, कार्ल मार्क्स के ऐसे माहिर इक़्तिसादियात और सियासियात की तसनीफ़ात भी इस्ति’आरों के महर-ओ-माह से आबाद हैं। आईए क्यों न अब हम बराह-ए-रास्त इस्ति’आरे ही को लें और उसके हुस्न समझने की कोशिश करें।
रात बाक़ी थी अभी जब सर-ए-बालीं आ कर
चाँद ने मुझसे कहा जाग सहर आई है
जाग इमशब जो मय-ए-ख़्वाब तिरा हिस्सा थी
जाम के लब से तह-ए-जाम उतर आई है
‘अक्स-ए-जानाँ को विदा’ करके उठी मेरी नज़र
शब के टखरे हुए पानी की सियह चादर पर
जा-ब-जा रक़्स में आने लगे चाँदी के भँवर
चाँद के हाथ से तारों के कँवल गिर-गिर कर
डूबते तैरते मुरझाते रहे खिलते रहे
जाग इस शब जो मय-ए-ख़्वाब तिरा हिस्सा थी
जाम के लब से तह-ए-जाम उतर आई है
यहाँ मय और ख़्वाब के दरमियान जो वज्ह-ए-शिबा3 या वज्ह-ए-जामे’ है वो मा’नवी ख़ुसूसियात की है न कि उनकी शक्ल-ओ-सूरत की। वो वज्ह-ए-जामे’ इसके लिए और भी ज़ियादा क़वी है कि शा’इर जिस ख़्वाब की तरफ़ इशारा कर रहा है उसमें अक्स-ए-जानाँ का ख़ुमार भी है। मय और ख़्वाब का एक दूसरे के साथ मुत्तहिद या एक हो जाने का यही सबब है और जब ये इत्तिहाद क़ाइम हो गया तो फिर इसकी ज़रूरत नहीं रह जाती कि मुस्त’आर-लहु जो ख़्वाब है, उसके औसाफ़ का ज़िक्र किया जाए। इसके बर-’अक्स इस्ति’आरे में सिर्फ़ मुस्त’आर-मिनहु के औसाफ़ का ज़िक्र किया जाता है क्योंकि वो मुस्त’आर-लहु से अपने औसाफ़ मुश्तरक8 रखता है। इस्ति’आरे की ख़ूबी यही है कि ज़िक्र मुस्त’आर-लहु का होता है लेकिन हर्फ़-ओ-हिकायत मुस्त’आर-मिनहु की होती है।
ख़ुश-तर आँ बाशद कि सिर्र-ए-दिलबराँ
गुफ़्ता आयद दर-हदीस-ए-दीगराँ
अ’त्तार
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर
ग़ालिब
दहर का हो गिला कि शिकवा-ए-चर्ख़
उस सितम-गिर ही से किनायत है
जान जाएँगे जानने वाले
‘फ़ैज़’ फ़रहाद-ओ-जम की बात करो
मुस्त’आर-मिनहु की ये गुफ़्तगू सिर्फ़ ख़ुश-तर नहीं बल्कि हक़ीक़त से क़रीब-तर होती है क्योंकि इस गुफ़्तगू में ख़याल को जज़्बात की शिद्दत और गहराई के साथ भी पेश किया जाता है। ‘जाम के लब से तह-ए-जाम उतर आई है।’ इस इज़हार में लज़्ज़त-ए-ख़्वाब, फिर उसकी दर्द-कशी की तरफ़ जो बलीग़ इशारा है, वो ग़ैर इस्ति’आराती ज़बान में मुम्किन नहीं। अब आप इसी बंद के एक दूसरे इस्ति’आरे को लीजिए। तारों के कँवल गिर-गिर कर डूबे तैरते मुरझाते रहे खिलते रहे।
‘अक्स-ए-जानाँ को विदा’ करते ही जो शा’इर की नज़र उठी तो पहली ही निगाह में उसकी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला ने सितारों की बुनियादी ख़ुसूसियत को पा लिया।
शब के ठहरे हुए पानी की सियह चादर पर,
जा-ब-जा रक़्स में आने लगे चाँदी के भँवर।
“चाँदी के भँवर” में जो एक मुरक्कब इस्ति’आरा है, शा’इर ने सितारों की दो बुनियादी ख़ुसूसियात या’नी नूर-ओ-हरकत की सिफ़ात को इकट्ठा कर दिया है। लेकिन चूँकि ये मुस्त’आर-मिनहु मुरक्कब था जिसका ब-ज़ात-ए-ख़ुद कहीं कोई वुजूद नहीं है, इसलिए उसने उसको तर्क करके एक ऐसे मुस्त’आर-मिनहु को तलाश किया जिसका अपना एक हक़ीक़ी वजूद भी है और जो नूर-ओ-हरकत की कैफ़ियात में सितारों से मुमासिल भी है। कँवल का इस्ति’आरा इसी ला-शु’ऊरी तलाश का नतीजा है। अब पूरी तस्वीर को इस तरह देखिए,
शब के ठहरे हुए पानी की सियह चादर पर
चाँद के हाथ से तारों के कँवल गिर-गिर कर
डूबे, तैरते, मुरझाते रहे, खिलते रहे
रह गया ये मिसरा’, जा-ब-जा रक़्स में आने लगे चाँदी के भँवर, मुंदरजा-बाला तफ़्सीली तस्वीर का एक उचटता हुआ तअस्सुर है जो पहली निगाह का ‘अतिया है। बहर-हाल उस तस्वीर का लुत्फ़ जो कँवल के इस्ति’आरे से पैदा हुआ, ये है कि वो किसी साकित लम्हे की नहीं बल्कि मुतहर्रिक लम्हे की तस्वीर है, सितारों की आँख-मिचौली में जो नूर और तारीकी की झपकियाँ होती रहती हैं, उसकी तस्वीर भी कँवल के खिलने और डूबने, तैरने और मुरझाने के वक़्फ़ों में खिंच आई है। वो जो दो मिसालें मैंने इस्ति’आरे की दी हैं, एक दाख़िली कैफ़ियत के इज़हार की और दूसरी ख़ारिजी कैफ़ियत के इज़हार की, ज़िन्दा इस्ति’आरों की मिसालें थीं। अब मैं इसके मुक़ाबले में एक मुर्दा इस्ति’आरे की मिसाल दूँगा जो लुत्फ़ से यकसर है।
नहीं छोड़ता है अश्क मिरा दामन-ओ-कनार
ये तिफ़्ल-ए-बद-सरिशत न गहवारे से पला
यहाँ शो’रा अश्क को तिफ़्ल से मुस्त’आर इसलिए करते आए हैं कि मचलने की ख़ुसूसियात दोनों में मुश्तरक है। चुनाँचे अश्कों का मचलना मुहावरा भी इसी इस्ति’आरा ही से बना है। अव्वल तो ये कि मुझे इन दोनों की वज्ह-ए-जामा की मा’क़ूलियत पर शुबह है लेकिन मैं फ़िलहाल इस पर ज़ोर देना नहीं चाहता बल्कि ये मान कर आगे बढ़ना चाहता हूँ कि अच्छा साहब चलिए यूँही सही, आप अश्क का ज़िक्र करने के लिए तिफ़्ल की ख़ुसूसियात को मुस्त’आर ले सकते हैं। लेकिन ऐसा तो न कीजिए कि वो जो पस-ए-पर्दा है या’नी अश्क वो फ़रामोश हो जाए। शा’इर की बुनियादी गुमरही इस शे’र में यही है कि उसने अश्क को फ़रामोश कर दिया है। उसके आमाजगाह या’नी दामन-ओ-कनार को पकड़ लिया है। चुनाँचे दूसरे मिसरे’ में जो तौजीह या हुस्न की ता’लील है वो अश्कों के आने की नहीं बल्कि उनके “दामन” और “कनार” के न छोड़ने की है। ये शे’र तमाम-तर लफ़्ज़ी सन’अत-गरी का तमाशा है जिसमें जज़्बे की परछाईं तक भी नहीं है। इसके बर-’अक्स अश्क-बारी7 की तौजीह हमारे मीर साहब ने इस तरह की है कि उसमें तख़य्युल और जज़्बे दोनों ही को दख़्ल है।
दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश
गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता
मीर तक़ी मीर
अव्वल-उल-ज़िक्र शे’र में मुर्दा इस्ति’आरे की जो मैंने सिर्फ़ एक मिसाल दी और उसकी मज़ीद मिसालें देना नहीं चाहता तो ये नहीं समझिए कि इसकी हमारे यहाँ कमी है बल्कि यूँ समझिए कि मैं बड़े-बड़े नामों का भरम खोलना नहीं चाहता, लेकिन जब मैं ये सोचता हूँ कि इस तरह तो हमारे अदब के बहुत से दीवान डूब जाएँगे तो मैं एक बात का इज़ाफ़ा करना भी ज़रूरी समझता हूँ।
आज शा’इरी के मैदान में झूटे नगीने जड़ने वाली सन्ना’ई ‘ऐब है लेकिन नासिख़ के ज़माने में इसे भी रवा रखा जाता, और शो’रा-ए-मुतअख़्ख़िरीन के कलाम से इसकी मुत’अद्दिद मिसालें दी जा सकती हैं लेकिन मीर तक़ी मीर की शा’इरी जो इस्ति’आरे की शा’इरी है, इस क़िस्म की सन्नाई से 99 फ़ीसद पाक है। मीर का कलाम छः दीवानों पर मुश्तमिल है। इसमें अच्छे अश’आर भी हैं और भर्ती के भी। ऐसे भी अश’आर हैं जिनमें कोई इस्ति’आरा, कनारिया नहीं है लेकिन जब आप उनका कोई ऐसा शे’र ढूँडेंगे जिसमें तख़य्युल और जज़्बा दोनों ही हों तो उसमें इस्ति’आरा और अगर इस्ति’आरा नहीं तो किनाया ज़रूर नज़र आएगा। अब हम उनकी एक ऐसी सादा ग़ज़ल के चंद अश’आर पेश करेंगे जिनमें कोई इस्ति’आरा ब-ज़ाहिर नहीं है। सिर्फ़ सन’अंत-ए-तज़ाद की पुरकारी है। फिर उस ग़ज़ल का मुक़ाबला उनकी एक ऐसी ग़ज़ल से करेंगे जिसकी ज़बान इस्ति’आरे की है। उस अव्वल-उल-ज़िक्र क़िस्म की सादा-ओ-पुरकार ग़ज़ल के चंद अश’आर हैं,
कहते हो इत्तिहाद है हमको
हाँ कहो ए’तिमाद है हमको
आह किस ढब से रोइए कम-कम
शौक़ हद से ज़ियादा है हमको
दोस्ती एक भी नहीं तुझको
और सबसे ‘इनाद है हमको
ना-मुरादाना ज़ीस्त करता था
‘मीर’ की वज़’ याद है हमको
ये उनकी मुंतख़ब ग़ज़लों में से है। अब इन अश’आर का मुक़ाबला उनकी आख़िर-उज़-ज़िक्र क़िस्म की ग़ज़ल के अश’आर से कीजिए,
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया
उसकी दीवार का सर से मिरे साया न गया
काव-कावे-ए-मिज़ा-ए-यार-ओ-दिल-ए-ज़ार-ओ-नज़ार
गुथ गए ऐसे शिताबी कि छुड़ाया न गया
ज़ेर-ए-शमशीर-ए-सितम ‘मीर’ तड़पना कैसा
सर भी तस्लीम-ए-मुहब्बत में हिलाया न गया
जी में आता है कि कुछ और भी मौज़ूँ कीजे
दर्द-ए-दिल एक ग़ज़ल में तो सुनाया न गया
दिल के तईं आतिश-ए-हिज्राँ से बचाया न गया
घर जला सामने पर हमसे बुझाया न गया
क्या तुनुक-हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने आह
एक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया
दिल जो दीदार का क़ातिल कि बहुत भूका था
उस सितम-कुश्ता से इक ज़ख़्म भी खाया न गया
ये दोनों ग़ज़लें मीर की हैं और उनकी मुंतख़ब ग़ज़लें हैं इसलिए ये तो नहीं कहा जा सकता है कि पहली ग़ज़ल में जज़्बा नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर कहा जाएगा कि पहली ग़ज़ल में सन’अत-ए-तज़ाद की काविश और पुरकारी की वज्ह से जो सन्ना’इयत पैदा हो गई है, उससे जज़्बात की शिद्दत और गहराई में भी कमी पैदा हो गई है। इसके बर-’अक्स दूसरी ग़ज़ल में न सिर्फ़ तख़य्युल की गुल-कारी है बल्कि जज़्बात का भी पूरा-पूरा इज़हार है। पहली ग़ज़ल सादा पुरकारी की हामिल है जो अपना हुस्न-ए-कारीगरी रखती है। दूसरी ग़ज़ल तशबीह-ओ-इस्ति’आरे की हामिल है जिसके अश’आर से मफ़हूम जस्त करते हुए नज़र आते हैं। शे’र की ख़ूबी ये नहीं है कि वो नस्र-ए-‘आरी के दर्जे पर पहुँच जाए, जैसा कि कुछ लोगों का ख़याल है बल्कि ये है कि इसमें तजरबे की बिला-वास्तगी या ख़याल से वाबस्ता जज़्बा क़त्ल न होने पाए। चुनाँचे यही सबब है कि सादगी-ओ-पुरकारी के मैदान में मीर से मुट्ठी भर ग़ज़लें और ग़ालिब से सिर्फ़ दो ग़ज़लें बन पाईं। ग़ालिब की वो दो ग़ज़लें इन मतलों’ से शुरू’ होती हैं,
(1)
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
(2)
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
और ये हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ है कि उनके यहाँ भी सिर्फ़ सन’अत-ए-तज़ाद ही की पुरकारी है। इस्ति’आरे की इस ता’रीफ़ के साथ-साथ ये बताना भी ज़रूरी है कि इस्ति’आरे का इस्ति’माल ब-ज़ात-ए-ख़ुद कोई मक़्सद नहीं है। इस्ति’आरा तो ज़ेह्नी तस्वीर का सिर्फ़ एक फ़ार्म है, मक़्सद अस्ल हक़ीक़त तक पहुँचना है न कि इस्ति’आरे को रिवायती हैसियत से बरतना। रिवायती इस्ति’आरे को बरतते रहने की धुन तो रिवायती ख़याल को दुहराते रहने की धुन बन जाती है। हमारी शा’इरी आख़िर-आख़िर जो गुल-ओ-बुलबुल के तसव्वुरात में असीर हो कर रह गई, उसका एक सबब ये भी था कि हमारे शो’रा ने या तो फ़ारसी ज़बान के रिवायती इस्ति’आरों से काम लिया या फिर उन इस्ति’आरों के कलीदी अल्फ़ाज़ मसलन गुल-ओ-बुलबुल, दाम-ओ-क़फ़स, मुर्ग़-ए-चमन, बाद-ए-नसीम वग़ैरह को लुग़वी मा’नों में इस तरह बरतने लगे जिस तरह कि सनाइ’-ए-लफ़्ज़ी में अल्फ़ाज़ को अल्फ़ाज़ की निस्बत से बरता जाता है, इसका नतीजा ये हुआ कि वो अल्फ़ाज़ अपनी इसतिआराती क़ुव्वत खोने लगे।
लेकिन जब से रिवायत-परस्ती का ये ज़ोर कम हुआ और लफ़्ज़ नेचुरल हमारी तन्क़ीद में दाख़िल हुआ तो नए इस्ति’आरों के ’अलावा पुराने कलीदी अल्फ़ाज़ की मदद से नए इस्ति’आरे भी वजूद में आने लगे। चुनाँचे अब इन अल्फ़ाज़ के वो पुराने तलाज़िमात ज़ेह्नी और अंजुमनी नए माहौल और नए ख़यालात से मुताबक़त पैदा करने के ‘अमल में बदलते जा रहे हैं। इसमें ‘अल्लामा इक़बाल और दौर-ए-हाज़िर के चंद ग़ज़ल-गो शो’रा का बिल-ख़ुसूस बहुत बड़ा हाथ है, ताहम ये कहना पड़ेगा कि इस क़िस्म के तसर्रुफ़ात के इम्कानात महदूद हैं। ज़रूरत इस बात की है कि नई से नई ज़ेह्नी तस्वीरें और नए-नए इस्ति’आरे वज़’ किए जाएँ जिनकी तख़्लीक़ के लिए आज सामान-ए-मजलिसी पिछले ज़माने के मुक़ाबले में ज़ियादा मौजूद हैं। ख़ैर ये तो इस्लाही बातें हैं, हमें अभी अपनी तवज्जोह इस्ति’आरे पर ही रखनी चाहिए।
‘इल्म-ए-बयान की किताबों में इस्ति’आरे की मुख़्तलिफ़ क़िस्में दर्ज हैं, जिनमें इस्ति’आरा-ए-अस्लिया, इस्ति’आरा-ए-तबी’आ, इस्ति’आरा-ए-मुत्लक़ा, इस्ति’आरा-ए-बित्तसरीह, इस्ति’आरा-ए-बिलकिनाया हत्ता कि इस्ति’आरा-ए-तख़य्युलिया (ईं चे बुल-‘अजमी) तक दर्ज है लेकिन किस क़दर हैरत की बात है कि इनमें एक इस्ति’आरे का ज़िक्र नहीं जो इन सब पर भारी है। उसे इस्ति’आरा-ए-इन्क़िलाबी कहते हैं, जो इस्ति’आरे के तमाम अक़्साम के हुदूद को तोड़ कर इस तरह नुमूदार होता है कि ‘इल्म-ए-बयान वाले मुँह तकते रह जाते हैं। बड़ा शा’इर अपने इन्हीं इन्क़िलाबी इस्ति’आरों से पहचाना जाता है। मीर का शे’र है,
कहाँ आते मयस्सर तुझसे मुझको ख़ुद-नुमा इतने
ये हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़! आईना तेरे रू-ब-रू टूटा
ये है वो इन्क़िलाबी इस्ति’आरा है जो ‘इल्म-ए-बयान के मु’अल्लिमों की ता’रीफ़ से आज़ाद है, ये इस्ति’आरा मीर ने उर्दू ज़बान में फ़ारसी ज़बान से दाख़िल किया है, लेकिन इसका इस्ति’माल ऐसा किया है कि उनका अपना बन गया है। इसकी मा’नवियत ला-महदूद वुस’अत-ए-ख़याल की हामिल है। ये अपनी ज़ात से एक किताब है। इसमें इन्सान की उसकी अपनी ख़ुद-नुमाई ही पर नहीं बल्कि उसकी किबरियाई पर भी ज़ोर है।
बात क्या आदमी की बन आई
आसमाँ से ज़मीन नपवाई
हैरत आती है उसकी बातें देख
ख़ुद-सरी, ख़ुद-सताई, ख़ुद-राई
शुक्र के सज्दों में ये वाजिब था
ये भी करता सदा जबीं-साई
सो तू उसकी तबी’अत-ए-सरकश
सर न लाए फ़रो, कि टुक लाई
‘मीर’ ना-चीज़ मुश्त-ए-ख़ाक अल्लाह
उसने ये किबरिया कहाँ पाई
ये ख़ुद-नुमाई ये किबरियाई इन्सान को उस आईने के टूटने से मिली जो “आदम-ए-ख़ाकी” का था।
आदम-ए-ख़ाकी से जला है वर्ना
आईना था तो वले क़ाबिल-ए-दीदार न था
इस “क़ाबिल-ए-दीदार” आईने के टूटने की तलमीह ये है कि जब ख़ुदा ने हज़रत इन्सान को ब-क़ौल सूफ़िया-ए-किराम अपनी सूरत पर ख़ल्क़ किया, जैसा कि इंजील में भी कहा गया है और उसमें तमाम-तर अपना ही जल्वा देखा तो वो अपने इस कमाल-ए-फ़न पर इस क़दर हैरान-ओ-शश्दर हुआ कि वो आईना उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ा और वो रेज़ा-रेज़ा हो गया। चुनाँचे अब हर रेज़े में उस माह-ए-तमाम का ‘अक्स मौजूद है। मीर ने मुहव्वला-बाला शे’र में वहदत से कसरत की तरफ़ किस ख़ूबी से इशारा किया है और किस ख़ूबी से वहदत-उल-वजूद के फ़लसफ़े को इस शे’र में समोया है। लेकिन इसमें सिर्फ़ सूफ़ियाना फ़लसफ़ा ही नहीं बल्कि इन्सान की हक़ीक़त भी मौजूद है। ये उसकी उसी उलूही ख़ुदनुमाई और किबरियाई का मज़हर है कि वो तस्ख़ीर-ए-काइनात किए जा रहा है और उसकी तबी’अत-ए-सरकश अपना सर किसी के सामने फ़रो नहीं लाती है। इन्सान की इस ख़ुदनुमाई और किबरियाई की ता’वील मुख़्तलिफ़ सूरतों में की जा सकती है लेकिन ये हक़ीक़त अपनी जगह पर अटल रहती है कि इन्सान ख़ुद-गर, ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-नुमा है। मीर का ये इस्ति’आरा दाइमी हुस्न और मा’नवियत का हामिल है, उसकी दाइमियत दस्त-ए-क़ुदरत से आईने के छूट जाने और क़द-ए-आदम ‘अक्स-ए-किबरिया के साथ टूट जाने में है।
हुस्न-ए-यकता चे जुनूँ दाश्त कि अज़-नंग-ए-दुई
ख़ास्त बर-संग-ए-ज़न्द आईना बरमा ज़दा अस्त
बेदिल
यहाँ न तो “हुक्म-ए-सफ़र” की बात है और न “इंतिज़ार करने” का मसअला है बल्कि रुख़्सत-ए-इंतिज़ार की बात है। अब किस की नियाबत और कहाँ के ता’ईनात “शैख़-जी आओ मुसल्ला गर्व-ए-जाम करो।” अब बेचारगी-ओ-बंदगी बे-सूद है।
कब से नज़र लगी थी दरवाज़ा-ए-हरम से
पर्दा उठा तो लड़ियाँ आँखें हमारी हम से
मीर तक़ी मीर
रू-ए-ऊ दर-मुक़ाबिल-ए-मिरत
रू-ए-मा बूद दर मुक़ाबिल-ए-मा
मा कि जुज़ हक़ न ईम ज़ि ‘इरफ़ाँ
पस चे पुर्सी ज़ि-हक़-ओ-बातिल-ए-मा
मुल्ला शाह क़ादरी
ये थी हमारे अदब में (Humanism) या इन्सान-परस्ती की तहरीक जो हमारे अदब का सदियों से संग-ए-बुनियाद है। आर्ट सही मा’नों में उसी वक़्त बा-क़द्र और बा-मा’नी होता है जबकि इन्सान भी ब-क़ौल-ए-इक़बाल अपने को ख़ालिक़ तसव्वुर करता है। वर्ना वो बे-क़द्र और बे-मा’नी हो जाता है। बहर-हाल इस वक़्त इस मौज़ू’ पर मज़ीद बहस की गुन्जाइश नहीं। मीर का ये शे’र पढ़िए और उनके इ’रफ़ान-ए-ज़ात की दाद दीजिए,
लाया है मिरा शौक़ मुझे पर्दे से बाहर
मैं वर्ना वही ख़ल्वती-ए-राज़-ए-निहाँ हूँ
और फिर बेदिल के ये अश’आर पढ़िए,
दरीं गुंबद-ए-बे-दर-ए-आसमाँ
ज़ि बेगाना ता-चंद जूई निशाँ
तूई क़ब्ल-ए-ख़ुद चू मुहर्रम शवी
तूई महराब-ए-ख़्वेशी अगर ख़म शवी
यहाँ आदमी अल्लाह का एक सर-ए-निहाँ ही नहीं बल्कि वाक़िफ़-ए-असरार या ख़ल्वती-ए-राज़-ए-निहाँ भी है। इसी तरह ग़ालिब का भी ये इस्ति’आरा इन्क़िलाबी मा’नवियत का हामिल है,
आराइश-ए-जमाल से फ़ारिग़ नहीं हनूज़
पेश-ए-नज़र है आईना दाइम नक़ाब में
ग़ालिब ने इस शे’र में जिस तख़्लीक़-ए-पैहम की तरफ़ इशारा किया है वो हक़ीक़त अपनी जगह पर दाइमी है, इस हक़ीक़त की ता’वीलें बदलती रहती हैं और बदलती जाएँगी लेकिन ये हक़ीक़त अपनी जगह बर-क़रार रहेगी कि तख़्लीक़ पैहम और ग़ैर मुख़्तमिम है। इस्ति’आरे की दाइमियत इसमें है कि वो हक़ीक़त-ए-मा’नी की मुख़्तलिफ़ ता’वीलों को सह जाए क्योंकि इस्तिआ’रा जहान-ए-मा’नी के अनगिनत दरवाज़ों को वा कर देता है। इसमें शुबह नहीं कि मीर और ग़ालिब के इन दोनों अशआ’र में मा’नवी तस्वीर सूफ़ियाना है या’नी उन्होंने हक़ीक़त को जो एक मुजर्रद शय है, शख़्सियत का लिबास पहना दिया है लेकिन ये अम्र भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि आर्ट की तो बुनियाद ही इसी पर है कि ग़ैर-शख़्स (Impersonal) को शख़्सी (Personal) या मुजर्रद को महसूस बनाकर पेश किया जाए।
चुनाँचे सूफ़ी के (Vision) और शा’इर के विज्दान में एक तरह की मुमासिलत भी पाई जाती है। दोनों ही हक़ीक़त का जल्वा महसूस सूरत में देखते हैं। चुनाँचे अगर आप इन अश’आर में आईने की हेयत पर निगाह न रखें बल्कि हक़ीक़त पर निगाह रखें तो यही देखेंगे कि इस शे’र में भी हक़ीक़त ही को आईना दिखाने की कोशिश की गई है न कि उसे किसी फ़लसफ़ियाना ता’वील से मुकद्दर करने की कोशिश की गई है। ता’वील तस्वीर (Image) में बड़ा फ़र्क़ है। यहाँ सूफ़ियाना तस्वीर है न कि सूफ़ियाना ता’वील। इशारा तख़्लीक़-ए-पैहम की तरफ़ वाज़ेह है लेकिन अब जबकि नया फ़लसफ़ा-ए-ज़िन्दगी है, ज़िन्दगी को देखने का एक नया अंदाज़ है, ज़िन्दगी को एक मुत’अय्यन रुख़ की तरफ़ ले जाने की बातचीत है तो ज़रूरत इस बात की है कि हम पुराने इस्ति’आरों की तरफ़ बग़ैर किसी तन्क़ीदी नज़र के न झुकें। क्योंकि हर इस्ति’आरा अपनी जगह पर एक ता’मीम भी है जिसमें नाज़िर हक़ीक़त का नुक़्ता-ए-नज़र भी झलकता है।
शहादत-गाह है बाग़-ए-ज़माना
कि हर गुल इसमें इक ख़ूनी कफ़न है
ये मीर के ज़माने की एक सच्ची तस्वीर है, लेकिन उनका नुक़्ता-ए-नज़र ख़ुश-बीं नहीं है, ग़ालिबन इसलिए कि जिन तारीख़ी क़ुव्वतों ने आज एक ख़ुश-बीं नुक़्ता-ए-नज़र को इस शु’ऊर के तहत पैदा किया है कि हक़ीक़त एक तरक़्क़ी-पज़ीर शय है, वो शु’ऊर उस वक़्त हमारी सोसाइटी में पैदा नहीं हुआ था। आप कहेंगे कि किसी का नुक़्ता-ए-नज़र ख़ुश-बीं है कि बद-बीं, इससे मुशाहदा की ठेठ सच्चाई पर क्या असर पड़ता है। मेरा ये जवाब है कि असर पड़ता है, जो शय कि तरक़्क़ी-पज़ीर है, उसको उसके तरक़्क़ी करने वाले पहलू ही की तरफ़ से देखना चाहिए। ख़ुश-बीनी इसीलिए तरक़्क़ी-पसन्दों के मुशाहदात का जुज़ बन गई है। लेकिन ख़ुश-बीनी को ख़ुश-फ़हमी के साथ ख़लत-मलत न करना चाहिए, ख़ुश-फ़हमी एक मुग़ालता है, फ़रेब-ए-नज़र है, ख़ुश-बीनी एक नुक़्ता है।
ठहरी हुई है शब की सियाही वहीं मगर
कुछ-कुछ सहर के रंग पर-अफ़्शाँ हुए तो हैं
इनमें लहू जला हो हमारा कि जान-ओ-दिल
महफ़िल में कुछ चिराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो हैं
है दश्त अब भी दश्त मगर ख़ून-ए-पा से ‘फ़ैज़’
सैराब चंद ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हुए तो हैं
देखिए इन अश’आर में मुशाहिदे की सूरत कितनी मुख़्तलिफ़ है। शा’इर ब-ज़ाहिर ठहरी हुई शब की सियाही में भी अनवार-ए-सहर की पर-अफ़्शानियाँ देखता है। ये उसकी ख़ुश-फ़हमी नहीं बल्कि हक़ीक़त का जदल्लियाती मुतालि’आ है। इसी तरह जब वो ये कहता है,
है दश्त अब भी दश्त मगर ख़ून-ए-पा से ‘फ़ैज़’
सैराब चंद ख़ार-ए-मुग़ीलाँ हुए तो हैं
तो वो बज़ाहिर स’ई-ए-रायगाँ का एक क़द्र-आफ़रीं पहलू भी देख लेता है। इन्सान का कोई भी ‘अमल रायगाँ नहीं जाता है। उसके रद्द-ए-अमल का एक पूरा सिलसिला, हरकत में आता है जो नए से नए ‘अमल का पेश-ख़ेमा होता है। यहाँ ख़ार-ए-मुग़ीलाँ का इस्ति’माल हमारे रिवायती इस्ति’माल से किस क़दर मुख़्तलिफ़ है और ग़ालिबन वो लोग जो उर्दू शा’इरी में ग़ज़ल के ‘इलावा कोई और सिन्फ़-ए-सुख़न पसन्द ही नहीं करते हैं, वो इसे अपने उस दा’वे में बतौर सबूत के भी पेश कर सकते हैं कि ग़ज़ल में बहुत कुछ कहा जा सकता है। पुराने उस्तादों के कलीदी अल्फ़ाज़ को नए से नए मा’नों में इस्ति’माल किया जा सकता है।
इस में शुबह नहीं कि हमारी ग़ज़ल-गोई में ये बड़ा ही ख़ुशगुवार मोड़ है और इससे हमने नई लज़्ज़त हासिल की है लेकिन इन कलीदी अल्फ़ाज़ का महदूद ज़ख़ीरा उकता देने वाला भी है। क़त’-ए-नज़र इस बात के कि वो तलाज़िमात के दो मुख़्तलिफ़ हवालों के हामिल होते हैं। एक क़दीम और एक जदीद, जो उनके इशाराती मा’नों को बाहमी इख़्तिलाफ़ात की वज्ह से धुंदला भी सकते हैं। ऐसी सूरत में ये सोचने से मैं क़ासिर हूँ कि हमारे पुराने इस्ति’आरों के कलीदी अल्फ़ाज़ का ख़ज़ाना बहुत दिनों तक हमारा साथ दे सकता है। एक तब्दीली की हद तक तो ये मोड़ बड़ा अच्छा मा’लूम होता है लेकिन ये हमें दूर तक ले नहीं जा सकता है और अब ये रुज्हान एक क़िस्म की सहल-पसन्दी में तब्दील हो रहा है।
रिवायत का एहतिराम कुछ इसी में नहीं है कि हम पुराने इस्ति’आरों के कलीदी अल्फ़ाज़ को नए मा’नों में इस्ति’माल करते रहें। उसका एहतिराम फ़नकाराना तख़्लीक़ की रिवायत को आ’ला से आ’ला दर्जे पर पहुँचाने में भी है। हर वो लफ़्ज़ जिसे हम इस्ति’माल करते हैं, अपने अंदर इस्ति’आरा बनने की सलाहियत रखता है। एक ख़ल्लाक़ ज़ेह्न अपने को सिर्फ़ गिने-चुने अल्फ़ाज़ का पाबंद नहीं किया करता है। एक बड़े शा’इर को इससे भी जाँचा जाता है कि उसके ज़ख़ीरा-ए-अल्फ़ाज़ में किस क़दर तनव्वो’ और किस क़दर वुस’अत है। उसने अपने तजरबात के जमालियाती इज़हार के लिए कितनी मुख़्तलिफ़ सूरतों को आज़माया है और कितनी नई तरकीबें और नए इस्ति’आरे दिए हैं और ग़ालिबन यही सबब है कि ग़ज़ल की इस रौनक़ और मक़बूलियत के बावुजूद जो इन दिनों है, न तो नज़्म-गोई का रुज्हान दबा है और न नज़्म के मैदान में नए से नए तजरबात करने ही का रुज्हान घटा है। मुझे इन दिनों फ़ैज़ की इस नज़्म ने,
ये रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे ‘अज़ीम-तर है
बड़ा चौंकाया है। इसमें कुछ अ‘जीब सी लज़्ज़त महसूस की है। ऐसा मा’लूम हुआ कि जैसे कोई सिम्बॉलिक नज़्म इतनी अच्छी पहली बार हमारी ज़बान में कही गई है। लेकिन मेरे इस ख़याल से ग़ालिबन क़दीम मज़ाक़ के लोग मुत्तफ़िक़ न होंगे क्योंकि हमारी शा’इरी की रिवायत इस्ति’आरों की रही है न कि सिम्बल की। इस्ति’आरे और सिम्बल का फ़र्क़ ये है कि सिम्बल अश्या के सिर्फ़ रिश्तों को ज़ाहिर करता है इसका कोई त’अल्लुक़ अश्या की शेय्यत (Thingness) से नहीं होता है। या’नी सिम्बल मुजर्रद-ए-महज़ होता है। इसके बर-’अक्स इस्ति’आरा मुजर्रद और महसूस दोनों ही होता है। चुनाँचे यही सबब है कि सिम्बल में वज्ह-ए-जामे’ कभी-कभी इस क़दर मुजर्रद होती है कि वो सिम्बल निजी तलाज़िमा-ए-ख़याल का हामिल बन जाता है और इस तरह ना-क़ाबिल-ए-फ़हम भी बन सकता है। लेकिन किसी सालिम तख़्लीक़ में जो सिम्बॉलिक हो सिम्बल और इस्ति’आरे का ये फ़र्क़ कोई मा’नी नहीं रखता है, क्योंकि सिम्बॉलिक नज़्म में पूरी तख़्लीक़ सिम्बॉलिक होती है न कि उसका कोई जुज़।
एक नज़्म सिम्बॉलिक इस वज्ह से नहीं कहलाती है कि उसमें कुछ सिम्बल इस्ति’माल किए गए हैं बल्कि इसलिए कि वो पूरी नज़्म या उस नज़्म का पूरा ख़याल सिम्बॉलिक होता है मसलन गोर्की की नज़्म (Stormy Petrel) या चेख़ोफ़ का ड्रामा (Sea Gull) या इब्सन का ड्रामा (Wild Duck) कि इनमें से हर एक सालिम हैसियत से सिम्बॉलिक है न कि जुज़्वी हैसियत से। चुनाँचे जब मैंने फ़ैज़ की इस नज़्म को सिम्बॉलिक क़रार दिया था तो यही चीज़ मेरे ज़ेह्न में थी, कि ये कि इसमें चंद सिम्बल इस्ति’माल किए गए हैं। ऐसा तो हमारी अक्सर नज़्मों में होता रहा है लेकिन अब जबकि मैं इस फ़र्क़ को वाज़ेह कर चुका हूँ ये बताना भी ज़रूरी है कि इस नज़्म का आख़िरी बंद, दरख़्त के सिम्बल से आज़ाद हो जाता है, ये इसका नुक़्स है।
आख़िर में मुझे ये कहना है कि इस मज़्मून में न तो शा’इरी को किसी एक टाइप में जकड़ने की कोशिश की गई है न उसे किसी एक उस्लूब में महदूद करने की कोशिश की गई है। हर गुले रा रंग-ओ-बू-ए-दीगर अस्त। हर वो शय जो कसरत-उल-सूर है और शा’इरी भी वैसी ही एक शय है... जो अपनी ज़ात में किसी न किसी उसूल की भी पाबंद होती है ये क़ानून-ए-फ़ित्रत है, इससे न तो शा’इरी आज़ाद है और न कोई और शय, चुनाँचे यहाँ बहस शा’इरी के इसी उसूली क़ानून या’नी क़ानून-ए-हुस्न से की गई है जो मुख़्तलिफ़ असालीब और अस्नाफ़ में जल्वा-गर रहता है लेकिन जहाँ तक कि हुस्न-ए-माने’ का त’अल्लुक़ है वो इस्ति’आरे ही के आईने में जल्वा-गर होता है। शा’इर जहाँ नग़्मा-साज़ है वहाँ वो इस्ति’आरा-साज़ भी है।
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