तक़सीम का अदब और तशद्दुद की शेरियात
ख़वातीन-ओ-हज़रात आज की गुफ़्तगू का मौज़ू’ है तक़्सीम का अदब और इससे मुरत्तब होने वाली शे’रियात, जिसका शनास-नामा फ़िर्का-वाराना तशद्दुद के तजरबे से मुंसलिक है। तशद्दुद हमारे ज़माने का ग़ालिब उस्लूब है। बीसवीं सदी को इंसानी तारीख़ की सबसे ज़ियादा तशद्दुद-आमेज़ सदी का नाम दिया गया है। इस सदी की पेशानी पर, दो आलमी जंगों से क़त’-ए-नज़र, सियासी, मज़हबी, फ़िर्का-वाराना तशद्दुद, लिसानी और तहज़ीबी तशद्दुद, इ’लाक़ाई और नस्ली तशद्दुद, जज़्बाती, इक़्तिसादी और नज़रियाती तशद्दुद के बहुत से दाग़ बिखरे हैं।
इस सूरत-ए-हाल ने तशद्दुद के तजरबे को आ’म इंसानों के लिए बहुत पेचीदा बना दिया है। लेकिन 1947 की तक़्सीम के साथ फ़िर्का-वाराना फ़सादाद के बा’इस तशद्दुद की जिन सूरतों से हमारी इज्तिमाई’ ज़िंदगी दो-चार हुई, उसके असरात निहायत गहरे और देर-पा साबित हुए। बीसवीं सदी की जंगें हमारे लिए पराया, या दूर का तजरबा थीं, लेकिन 1947 की तक़्सीम के नतीजे में रू-नुमा होने वाला तशद्दुद हमारे लिए एक निजी वारदात थी। इसीलिए, इस अलमिए का साया भी हमारी अदबी, तहज़ीबी और तख़्लीक़ी ज़िंदगी पर बहुत गहरा साबित हुआ। हिन्दोस्तान और पाकिस्तान का ज़हनी माहौल अब तक इस साए की गिरफ़्त में है। हमारे लिए तक़्सीम का अदब और इस अदब की पहचान क़ाएम करने वाली शे’रियात, मुताले’ के एक मुस्तक़िल मौज़ू’ की हैसियत रखते हैं।
1947 जदीद हिन्दोस्तान की तारीख़ और हमारी इज्तिमाई’ ज़िंदगी में मंसूबा-बंद दीवानगी, दहशत और अबतरी का सबसे बड़ा वाक़िआ’ है। ब-ज़ाहिर तक़्सीम के नतीजे में जो इंसानी सूरत-ए-हाल रू-नुमा हुई उसकी तफ़सील में जाएँ तो बहुत से वाक़िआ’त मुबालग़ा-आमेज़ और मोहमलियत की हद तक ग़ैर-हक़ीक़ी दिखाई देते हैं। जीती-जागती ज़िंदगी की सत्ह पर जो सच्चाईयाँ हमें अपनी तरफ़ मुतवज्जेह करती हैं, हमारे एहसासात पर-असर अंदाज़ होती हैं और हमारी मुआ’शरती फ़िक्र, हमारे आसाब से अपने होने और दिखाई देने (visibility) की जो क़ीमत तलब करती हैं, उन पर बा’ज़ औक़ात महज़ फ़र्ज़ी या fictional होने का गुमान गुज़रता है। ऐसा लगता है कि इस तख़्ईली और तख़्लीक़ी सच्चाई को, जो सामने के तारीख़ी अस्बाब और अ’वामिल की पैदा-कर्दा है, दर-अस्ल किसी ना-दीदा और पुर-असरार तारीख़ ने या ताक़त ने जनम दिया है और इसके वास्ते से हमारी इज्तिमाई’ ज़िंदगी के एक पूरे सिलसिले में छुपी हुई सच्चाई से पर्दा उठाया है।
सलमान रुश्दी ने अपनी एक ग़ैर-अफ़सानवी तहरीर में, अदब और तारीख़ के तअ’ल्लुक़ का तज्ज़िया करते हुए लिखा था कि हमारे शऊ’र की ख़ुफ़िया और ना-दीदा तन्हाइयों में अदब की हैसियत, उस ममनूआ’ इ’लाक़े की होती है जहाँ अदीब को ऐसी आवाज़ें सुनाई देती हैं जिनसे आ’म लोग बे-ख़बर गुज़र जाते हैं। दर-अस्ल इन्ही आवाज़ों की मदद से उस पर गिर्द-ओ-पेश की मर्मूज़ सदाक़तों के असरार खुलते हैं और वो अपनी मानूस दुनिया के ना-मानूस गोशों और क़रियों तक पहुँचता है।
इस सिलसिले में अदब और आर्ट के तारीख़ी तनाज़ुर का अहाता करते वक़्त एक ज़रूरी बात जो हमेशा याद रखनी चाहिए, ये है कि तारीख़ी सच्चाईयाँ चाहे जितनी ठोस हों और हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी में ज़ुहूर-पज़ीर होने वाली तारीख़ी सूरत-ए-हाल चाहे जितनी सख़्त-गीर हो, वो तख़्लीक़ी अ’मल की सिम्त और रफ़्तार के तअ’य्युन में हमेशा मुअस्सिर नहीं होती, न इस अ’मल को रोकने में कामयाब हो सकती है।
अदब और आर्ट की तख़्लीक़ करने वाला अपनी मुनफ़रिद रुहानी तलाश के मुताबिक़ अपने तख़्लीक़ी और फ़न्नी मक़ासिद की तलाश करता है और अपनी अलग राह निकालता है। बड़े अदबी शहपारों में ज़हनी कश्मकश और इज़्तिराब या अंदरूनी पेच-ओ-ताब के निशानात जो नुमायाँ होते हैं, तो इसीलिए कि अदब और आर्ट की तख़्लीक़ करने वाले का बुनियादी सरोकार तारीख़ी शऊ’र की अफ़्ज़ाइश से नहीं है, उसका अस्ल काम तो मुरव्वजा शऊ’र पर ग़लबा हासिल करना और इससे बच कर अपनी राह निकालना है। हमारी इज्तिमाई’ तारीख़ के हवाले से अठारहवीं सदी की उथल-पुथल के दौरान मीर साहिब का रद्द-ए-अ’मल, या उन्नीसवीं सदी की निशात-ए-सानिया और 1857 के इन्क़िलाब की वो परछाईयाँ जो ग़ालिब के तख़्लीक़ी शऊ’र और हिस्सियत की निशान-दही करती हैं, इन सबसे इसी सच्चाई का इज़्हार होता है।
मिसाल के तौर पर ग़ालिब ब-ज़ाहिर तारीख़ की मंतिक़ को समझते हैं और ये कहते हैं कि वक़्त की तक़वीम में माज़ी सिर्फ़ माज़ी है और हर अ’हद, बहर-हाल अपने एक अलग आईन का पाबंद होता है, लेकिन अपने अ’हद में माज़ी और हाल की मुसलसल कश्मकश के बा’इस अपने बातिनी पेच-ओ-ताब से वो कभी दामन न बचा सके। उन्होंने इस तमाम सूरत-ए-हाल को तख़्लीक़ी सत्ह पर जिस तरह क़ुबूल किया, वो आ’म ज़हनी सत्ह की ब-निस्बत बहुत पेचीदा और मुख़्तलिफ़ है। इस सत्ह के गिर्द माज़ी का हिसार खिंचा हुआ है। इससे सिर्फ़ उनके हाल में पैवस्त सच्चाइयों की तर्जुमानी नहीं होती। उनके हाल पर यूँ भी उनका तहज़ीबी माज़ी हमेशा हावी रहा और गिर्द-ओ-पेश की तब्दीलियों से वो कभी मुतमइन न हुए।
मिरा शुमूल हर इक दिल के पेच-ओ-ताब में है
मैं मुद्दआ हूँ तपिश-नामा-ए-तमन्ना का
या ये कि,
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
मतलब नहीं कुछ इससे कि मतलब बर आवे
बे-शक 1857 ब-क़ुबूल-ए-इर’फ़ान हबीब न सिर्फ़ तारीख़ हिंद का बल्कि अस्र-ए-जदीद की तारीख़ का भी एक बड़ा वाक़िआ’ था और इस वाक़िए’ की तहज़ीबी, सियासी, मुआ’शरती जिहतें कसीर थीं लेकिन ग़ालिब ने शाइ’री में इस वाक़िए’ को एक ज़ाती वारदात के तौर पर क़ुबूल किया था।
1947 और तक़्सीम के साथ हमारी इज्तिमाई’ तारीख़ में जो वाक़िआ’त रू-नुमा हुए, उनकी नौइ’यत भी 1857 के बा’द के हिन्दुस्तानी मुआ’शरे और माहौल से ख़ासी मुमासिल है। 1857 की तरह 1947 का रद्द-ए-अ’मल भी हमारी तख़्लीक़ी और सक़ाफ़ती ज़िंदगी पर यकसाँ नहीं रहा। मुख़्तलिफ़ अश्ख़ास ने मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से देखा और इसके अलग-अलग मअ’नी अख़ज़ किए।
ब-ज़ाहिर हमारे ज़मान-ओ-मकाँ तक महदूद होने के बा-वजूद 1947 का वाक़िआ’ भी एक वसीअ’ और हमागीर तनाज़ुर की गुंजाइश रखता है। जज़्बाती, ज़हनी और मुआ’शरती सत्ह पर इस वाक़िए’ के साथ जिस तरह के तजरबे पेश आए, उनकी गूँज हमें दुनिया-भर के अदब में सुनाई देती है। अनीता इंदर सिंह ने अपनी किताब (The Partition of India) इशा’अत 2003, नैशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली में तक़्सीम के वाक़िए’ को दुनिया की तारीख़ के सबसे ज़ियादा तूफ़ाँ-ख़ेज़ और इन्क़िलाबी (cataclysmic) वाक़िओं’ में शुमार किया है और लिखा है कि,
“अठारहवीं सदी से लेकर अब तक यूरोप, एशिया, अफ़्रीक़ा और मशरिक़-ए-वुस्ता में जो मुतअ’द्दिद तक़्सीमें हुई हैं, उन्ही में से एक 1947 की तक़्सीम भी है। इस तक़्सीम के साथ भी मुख़्तलिफ़ मज़हबी गिरोहों के माबैन तशद्दुद और फ़साद बरपा हुआ। लेकिन इस तक़्सीम के नतीजे में ऐसी किसी भी दूसरी तक़्सीम से ज़ियादा जानें ज़ाए’ हुईं। हिन्दोस्तान की तक़्सीम में कितने अफ़राद मारे गए, कितने लोग उजड़े और ब-घर हुए (क़तई’ तौर पर) कुछ पता नहीं, ये ता’दाद दो से लेकर तीस लाख तक कुछ भी हो सकती है। 1946 से 1951 के दरमियान लगभग नब्बे लाख हिंदुओं और सिखों ने पाकिस्तान से हिन्दोस्तान की सरहद में क़दम रखा और तक़रीबन साठ लाख मुसलमान हिन्दोस्तान से पाकिस्तान गए...”
बर्तानवी सामराज के साए में आयरलैंड, फ़िलिस्तीन और साइप्रस के इ’लावा ये चौथी तक़्सीम थी, इस बुनियाद पर कि मुख़्तलिफ़ कौमें एक साथ नहीं रह सकती थीं, लेकिन ज़ाहिर है कि हिन्दोस्तान के बटवारे का सिर्फ़ यही सबब नहीं था। इन चारों तक़्सीमों के पीछे बर्तानिया के फ़ौजी मुफ़ादात का एक सिलसिला भी था।
अनीता इंदर सिंह ने अपनी छोटी सी किताब में ये सवाल उठाया है कि क्या तक़्सीम से मुतअ’ल्लिक़ इख़्तिलाफ़ात कभी ख़त्म हो सकते हैं? अगर मुख़्तलिफ़ मज़हबी और तहज़ीबी क़ौमियतें साथ-साथ न रह सकें तो क्या तक़्सीम के ज़रीए’ उनका मसअला हल किया जा सकता है? तक़्सीम की वकालत करने वालों के नज़दीक तक़्सीम एक ज़रीआ’ है तसादुम को क़ाबू में करने का। लेकिन क्या वाक़ई’ इससे तसादुम पर रोक लगाई जा सकती है?
1947 की तक़्सीम ने एक के दो मुल्क तो बना दिए लेकिन इज्तिमाई’ ज़िंदगी में एक अ’जब अबतरी भी पैदा कर दी। हर तक़्सीम की तरह 1947 की तक़्सीम ने भी ने बैनुल-अक़वामी सरहद के दोनों तरफ़ एक मख़्लूत सक़ाफ़त और जज़्बाती माहौल को राह दी है। हमारी तख़्लीक़ी रवायत के पस-मंज़र में कितने ही ज़हनी मैलानात, तजरबात और मौज़ू’आत इसी माहौल की देन हैं। लेकिन हर ज़मीनी तक़्सीम की तरह 1947 की तक़्सीम ने भी सियासी, मुआ’शरती, तहज़ीबी और तख़्लीक़ी ए’तिबार से मुतअ’द्दिद नए सवालों को जनम दिया है, जिसके असरात हिन्दोस्तान और पाकिस्तान के अदबी मंज़र-नामे पर साफ़ दिखाई देते हैं।
तक़्सीम के हामियों का ख़याल है कि ऐसी हर तक़्सीम अपनी एक मंतक़ी बुनियाद रखती है। हर क़ौम की अदबी और तख़्लीक़ी रवायत उस क़ौम की ज़हनी ज़िंदगी, अ’क़ाइद, मुआ’शरती रुसूम, जज़्बाती तरजीहात और उस्लूब ज़ीस्त की ताबे’ होती है। लिहाज़ा 1947 की तक़्सीम के साथ अदबी और तख़्लीक़ी लिहाज़ से एक तरह के ज़हनी और जज़्बाती तज़ाद और तसादुम की फ़िज़ा तो पैदा होनी ही थी। यहाँ मैं इस मसअले की तफ़्सीलात में नहीं जाना चाहता। ताहम इस वक़्त अपने मौज़ू’-ए-गुफ़्तगू की ज़रूरियात के पेश-ए-नज़र इसके बा’ज़ पहलुओं की निशान-दही मा-गुज़ीर है। मिसाल के तौर पर “पाकिस्तानी अदब का मसअला” के उ’नवान से सलीम अहमद ने अपने मा’रूज़ात की इब्तिदा इस मुक़द्दमे के साथ की थी कि,
“अदब किसी क़ौम के मख़्सूस तर्ज़-ए-एहसास का इज़्हार होता है। ये तर्ज़-ए-एहसास ख़ुदा, काएनात और इंसानों के बारे में इस क़िस्म के इज्तिमाई’ तजरबात और रूयों से पैदा होता है।”
फिर फ़रमाते हैं, “लेकिन मजमूई’ तौर पर मुसलमानों का तर्ज़-ए-एहसास एक होने के बा-वजूद क़ौमों के लिहाज़ से इस तर्ज़-ए-एहसास की मुख़्तलिफ़ शक्लें हैं। अ’रबी, ईरानी, तुर्की और हिन्दी मुसलमानों का तर्ज़-ए-एहसास बुनियादी तौर पर एक होने के बा-वजूद एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ है। इस इख़्तिलाफ़ से उनके अदब का इख़्तिलाफ़ पैदा होता है।”
इस मज़्मून में सलीम अहमद पाकिस्तानी अदब के मसअले को जिस क़द्र समझने और समझाने की कोशिश करते हैं, उनके मौक़िफ़ में ज़ोलीदगी उसी क़द्र बढ़ती जाती है। इस ज़ोलीदगी का नुक़्ता-ए-उ’रूज उनके इस बयान में दिखाई देता है कि, “हमारे नज़दीक उर्दू ग़ज़ल की मर्कज़ी रवायत में ख़ुदा, काएनात और इंसानों के बारे में एक बिल्कुल नया तर्ज़-ए-एहसास मिलता है जो मुसलमानों के शे’र-ओ-अदब में एक मुनफ़रिद चीज़ है। तअ’ज्जुब है कि मुसलमानों को इसका एहसास नहीं है, लेकिन एक हिंदू फ़िराक़ को इतना शदीद एहसास है कि उनकी सारी ज़िंदगी मुसलमानों के तर्ज़-ए-एहसास से लड़ने ही में गुज़र गई।”
गोया कि 1947 की तक़्सीम से पहले भी उर्दू के हिंदू और मुसलमान शाइ’रों में उनकी तख़्लीक़ी वारदात और तर्ज़-ए-एहसास के हिसाब से तक़्सीम की एक लकीर मौजूद थी और इसका तअ’ल्लुक़ दोनों क़ौमों के अलग-अलग असालीब-ए-ज़ीस्त और मजमूई’ तनाज़ुर से था। ज़ाहिर है कि ये मफ़रूज़ा सिरे से ग़लत है और उर्दू की अदबी रवायत के सियाक़ में इसके जवाज़ की कोई सूरत दिखाई नहीं देती। अमीर ख़ुसरो से लेकर मीर, मुसहफ़ी, आतिश, ग़ालिब, बहादुरशाह ज़फ़र, यगाना, फ़ानी, फ़िराक़ यहाँ तक कि 1947 के बा’द नुमायाँ होने वाले ग़ज़ल-गोयों मसलन नासिर काज़मी और अहमद मुश्ताक़ तक, इनके तर्ज़-ए-एहसास की बुनियाद पर अगर कोई ख़ाका मुरत्तब करना है तो हिन्दोस्तान के सवाल या मज़हबी तफ़रीक़ और तशख़्ख़ुस के सवाल को सिरे से अलग रखना होगा। ये सब के सब दर-अस्ल उस हमागीर हिस्सियत के नुमाइंदे हैं जिसका ताना-बाना हिंदुओं और मुसलमानों की मुश्तरका जुस्तजू और जद्द-ओ-जहद ने तैयार किया था।
इस हिस्सियत की ता’मीर में दोनों क़ौमों के बुनियादी अ’क़ाइद का, फ़िर्का-वाराना क़द्रों का, ज़ाब्ता अख़्लाक़ और रवायत का कोई ख़ास रोल नहीं है। अपनी तरकीब के लिहाज़ से ये एक सेक्युलर हिस्सियत थी और इसकी तश्कील में वो अ’नासिर सर-गर्म रहे थे जिनका तअ’ल्लुक़ जम्हूरी ज़िंदगी से है। इस लिहाज़ से मीर, ग़ालिब, फ़ैज़, फ़िराक़ और नासिर काज़मी, सब के सब एक ही माला के मनके हैं। अदवार के फ़र्क़ के साथ, इन सब के यहाँ एक सी मुआ’शरती फ़िज़ा का एहसास होता है।
1947 की तक़्सीम के आस-पास का दौर बे-शक जज़्बाती, इंतिहा-पसंदी, बे-क़ाबू होते हुए सियासी इख़्तिलाफ़ात और अपने अपने क़ौमी या फ़िर्क़ा-वाराना तशख़्ख़ुस पर इसरार का दौर था। आज़ादी के बा’द फ़ौरन का ज़माना शदीद ज़हनी परागंदगी, एक दूसरे के तईं बे-ए’तिबारी और महदूद वाबस्तगियों का ज़माना था। दूसरे लफ़्ज़ों में यूँ कहा जा सकता है कि ये एक इज्तिमाई’ दहशत, दीवानगी, आसाबी तशन्नुज और इज़्मिहलाल का दौर था।
अदब के मुआ’मले में सियास-तदानों की अकसरीयत और हुकूमतें तो ख़ैर बिल-उ’मूम अहमक़ होती हैं लेकिन तक़्सीम के बा’द की फ़िज़ा में तो बहुत से अदीबों के लिए भी अपने ज़हनी और जज़्बाती तवाज़ुन क़ाएम रखना दुश्वार हो गया था। इस सूरत-ए-हाल ने पाकिस्तान में निसबतन ज़ियादा पेचीदा शक्ल इख़्तियार कर ली थी, इ’ल्मी और अदबी हल्क़ों में एक नए तशख़्ख़ुस के क़याम को मर्कज़ी मसअले की हैसियत दी जाने लगी थी और मुख़्तलिफ़ फ़िक्री गिरोह अपने अपने तौर पर इसके मफ़्हूम का तअ’य्युन और इसकी ता’बीर कर रहे थे। रफ़्ता-रफ़्ता एक परेशाँ फ़िक्री की कैफ़ियत आ’म होती जा रही थी। चुनाँचे इस दौर में लिखे जाने वाले कुछ मा’रूफ़ मज़ामीन से ये चंद इक़्तिबासात देखिए। पहला इक़्तिबास मुहम्मद हसन अ’सकरी की जून 1949 की एक तहरीर है,
“हमारे अदब में जो अफ़रा-तफ़री मची हुई है, उसके पेश-ए-नज़र मैं भी मंटो साहब की इस राय का क़ाइल हो चला हूँ कि अभी दस साल तक हमारे अदब का मुस्तक़बिल तारीक नज़र आता है। अगर अदीब ख़ुद अपने आपको बदलना न चाहें तो दुनिया की कोई ताक़त उन्हें नहीं बदल सकती मगर अपने आपको बदले बग़ैर अदब में ताज़गी भी नहीं आ सकती। इसलिए पाकिस्तान में अदब के मुस्तक़बिल के बारे में ख़ुश-फ़हमियों की गुंजाइश ज़रा है।” (पाकिस्तानी अदब, मशमूला तख़्लीक़ी अ’मल और उस्लूब)
ये दूसरा इक़्तिबास जुलाई अगस्त 1949 की एक तहरीर है, “ज़िंदगी के शो’बों की तरह अदब में भी अपने माज़ी और अपनी तारीख़ को रद नहीं कर सकते। हर मुआ’मले में हमारा आइंदा अ’मल बड़ी हद तक हमारे माज़ी पर मुनहसिर है, तो पाकिस्तानी या इस्लामी अदब की नई रवायत क़ाएम करने के लिए भी हमें यही देखना होगा कि मुसलमानों के फ़न्नी कारनामों में इस्लामी रूह किस तरह ज़ाहिर हुई है।” (पाकिस्तानी क़ौम, अदब और अदीब, हवाला ईज़न)
ये तीसरा इक़्तिबास भी अ’सकरी साहिब ही के एक मज़्मून, “तकसीम-ए-हिंद के बा’द” से है, इसकी तारीख़-ए-इशाअ’त अक्तूबर 1948 है और ये इस लिहाज़ से बहुत मअ’नी-ख़ेज़ है कि इससे तक़्सीम के बा’द हिन्दी मुसलमानों और उर्दू से उनके तअ’ल्लुक़ की बाबत एक ऐसा मौक़िफ़ इख़्तियार किया गया है जो तक़्सीम के मजमूई’ तौर से हम-आहंग नहीं है। लिखते हैं,
“उर्दू ज़बान से अ’ज़ीम-तर कोई चीज़ हमने हिन्दोस्तान को नहीं दी। इसकी क़ीमत ताज-महल से भी हज़ारों गुनी ज़ियादा है। हमें इस ज़बान पर फ़ख़्र है, इसकी हिंदोस्तानियत पर फ़ख़्र है और हम इस हिंदोस्तानियत को अरबियत या ईरानियत से बदलने को क़तअ’न तैयार नहीं हैं। इस ज़बान के लब-ओ-लहजे में, इसके अल्फ़ाज़ और जुमलों की साख़्त में हमारी बेहतरीन सलाहियतें सर्फ़ हुई हैं और हमने मांझ-मांझ कर इस ज़बान की हिंदोस्तानियत को चमकाया है। इतना कुछ कर चुकने के बा’द हम इस पर ज़रा भी राज़ी नहीं हैं कि इसके बजाए हिन्दी इख़्तियार कर लें या एक नई ज़बान ‘हिन्दुस्तानी’ ईजाद करें और फिर एक से गिनती शुरू’ करें।
हिंदुओं को इख़्तियार है कि वो हिन्दी छोड़कर संस्कृत बोलने लगें लेकिन हमारे लिए फिर से अ’रबी या फ़ारसी इख़्तियार कर लेना ना-मुम्किन है। जिस तरह हमें हिन्दी से गुरेज़ है बिल्कुल उसी तरह फ़ारसी से भी गुरेज़ है। अगर हम फ़ारसी इख़्तियार कर भी लें तो हिन्दुस्तानी मुसलमानों का मख़्सूस कल्चर बाक़ी नहीं रह सकता। उर्दू के इ’लावा कोई दूसरी ज़बान इख़्तियार करने के मअ’नी सिर्फ़ ये होते हैं कि हमने अपने माज़ी से बिल्कुल क़त’-ए-तअ’ल्लुक़ कर लिया और हम एक नई चीज़ शुरू’ कर रहे हैं। कोई क़ौम ऐसे तजरबों की मुतहम्मिल नहीं हो सकती।” (झलकियाँ, सफ़्हा 333-ता-334)
लगभग इसी दौर में मुहम्मद हसन अ’सकरी ने मंटो के साथ मिलकर मकतबा जदीद लाहौर, कराची की तरफ़ से ‘उर्दू अदब’ के दो शुमारे शाए’ किए थे। उस वक़्त अदबी रसाइल की तरफ़ हुकूमत का रवैया सख़्त-गीरी का था। ‘उर्दू अदब’ को बा-क़ाएदा सरकुलेशन की इजाज़त नहीं मिली थी। इसलिए ये दोनों शुमारे किसी तारीख़ के हवाले के बग़ैर मंज़र-ए-आ’म पर आए। पहले शुमारे में ‘हमारा अदबी शऊ’र और मुसलमान’ के उ’नवान से अ’सकरी का एक मज़्मून शामिल है, जिसमें नई आज़ाद मम्लिकत के क़ियाम, उसे दरपेश मसाइल, उस मम्लिकत को सियासी पस-मंज़र मुहय्या करने वाली सियासत की तरफ़ मुसलमान अदीबों के रवैये और अंदाज़-ए-नज़र के बारे में कई तवज्जोह-तलब बातें कही गई हैं। ख़ासकर इस इक़्तिबास में,
“हक़ीक़त ये है कि मजमूई’ ए’तिबार से मुसलमान अदीब अपने अ’क़ाइद, अपने तसव्वुरात और अपने रुजहानात में मुसलमान अ’वाम से बिल्कुल अलग थे। अब तक मुसलमान अदीब अपनी क़ौम की सियासत से कम-अज़-कम ज़हनी हम-दर्दी ज़रूर रखते थे। तख़्लीक़ी दिलचस्पी नहीं थी तो न सही मगर अपने अदीबों की ग़ालिब अकसरीयत को मुसलमानों के सियासी अ’ज़ाइम से कोई दिलचस्पी नहीं थी। बहुत से अदीब तो मुस्लिम लीग की सियासत के सख़्त मुख़ालिफ़ थे और बहुत से अदीब बिल्कुल बे-तअ’ल्लुक़ और बे-नियाज़ थे। इसी तरह या तो अदीब पाकिस्तान के मुतालिबे के ख़िलाफ़ थे या फिर गो-म-गो की हालत में थे और समझते थे कि पाकिस्तान बन जाए तो हमें क्या, न बने तो हमें क्या। मज़हब और सियासत का तअ’ल्लुक़ उन्हें पसंद था ही नहीं। जिन लोगों को इश्तिराकियत से दिलचस्पी नहीं थी, उनका भी यही हाल था कि सियासी गुत्थियों का मआ’शी हल दूसरे सब हलों पर फ़ौक़ियत रखता है। फिर यूरोप को ता’रीफ़ की नज़रों से देखने के लोग ऐसे आदी हो चुके थे कि जो बात यूरोप वालों की अ’क़्ल में नहीं आ सकती थी, वो हमारे अदीबों की अ’क़्ल में भी नहीं आ सकती थी।
चुनाँचे बीसवीं सदी में किसी जमाअ’त का मज़हबी इख़्तिलाफ़ की बिना पर सियासी हुक़ूक़ माँगना उन्हें बिल्कुल नाक़ाबिल-ए-यक़ीन मा’लूम होता था। मगर चूँकि मुस्लिम लीग को अ’वाम की इतनी ज़बरदस्त हिमायत हासिल थी, इसलिए वो इस मुतालिबे को झुटला भी नहीं सकते थे। चुनाँचे हमारे अदीबों ने पाकिस्तान की न हिमायत की न खुल कर मुख़ालिफ़त ही की... हमारे अदीब तो जैसे अपने मुस्तक़बिल को क़ौम के मुस्तक़बिल से वाबस्ता ही नहीं समझते थे।
ग़रज़ कि इस दौर में अदीबों ने अपनी हालत भी अ’जीब मुअ’म्मे की सी बना ली थी। न तो अपने आपको मुसलमानों से बिल्कुल अलग ही कर सकते थे, न उनमें शामिल ही होते थे। चुनाँचे इस अंदरूनी तज़ाद की वज्ह से बा’ज़ मुसलमान अदीब बड़ी मज़हका-ख़ेज़ क़िस्म की ज़हनी उलझनों में पड़ गए। कभी कहा मुस्लिम कल्चर होता है, कभी कहा नहीं होता। कभी सोचा कि उर्दू अ’वाम की ज़बान है। कभी ख़याल आया कि नहीं, महज़ एक तब्क़े की ज़बान है। फिर ऊपर से ये फ़िक्र दामन-गीर रहने लगी कि हमारे मुँह से कोई ऐसी बात न निकल जाए जिससे फ़िर्का-परस्ती की बू आती हो। आज़ाद ख़याली की ऐसी धुन समाई कि अपने आपको किसी चीज़ से अटका ही नहीं रखा। न खुल के मुहब्बत की न नफ़रत...”
1947 और हिन्दोस्तान की तक़्सीम के पस-मंज़र में लिखे जाने वाले अदब का ग़ालिब आहंग तक़्सीम से इंकार का है। सक़ाफ़ती बे-जुड़ी के एहसास और ढुलमुल यक़ीनी की एक मुस्तक़िल कैफ़ियत ने इस दौर के तख़्लीक़ी अदब को बिल-उ’मूम एक गहरे मलाल, इज़्तिराब और महरूमी का तर्जुमान बना दिया है। कुछ दिनों तक तो एक ज़हनी तअ’त्तुल की फ़िज़ा क़ाएम रही। हिजरत, फ़सादाद और बेबसी का सैलाब थमने के बा’द अपने नज़रियाती और क़ौमी तशख़्ख़ुस का सवाल सामने आया।
इस सवाल पर ठंडे दिल से ग़ौर-ओ-फ़िक्र की रवायत तक़्सीम के साँचे के पाँच-छ: बरस बा’द शुरू’ हुई। ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ की मुरत्तब-कर्दा किताब ‘ग़म-ए-दौराँ’ में तक़्सीम और उसके साए में रू-नुमा होने वाले फ़सादाद और फ़िर्का-वाराना जुनून के मौज़ू’ पर उर्दू में जो नज़्में कही गईं, उनमें ख़याल की यकसानियत इतनी थका देने वाली और बयान की बे-हिजाबी इस दर्जा बेज़ार करने वाली है कि उनसे बिल-उ’मूम किसी ख़ास हुनरमंदी और बसीरत का इज़्हार नहीं होता और उन्हें दिल-जमई’ के साथ पढ़ना आसान नहीं है। जोश ने ये कहते हुए इन नज़्मों का मज़ाक़ उड़ाया था कि,
आफ़रीं बर ग़ुलाम रब्बानी
क्या निकाला है मेंढ़कों का जुलूस
लेकिन ख़ुद जोश साहिब ने फ़सादाद के पस-मंज़र में जो नज़्म कही उससे न तो किसी बड़े ख़याल की तश्कील होती है न किसी बड़े शे’रियात की। इस नज़्म पर आसाबी तशन्नुज और जज़्बे के इश्तिआ’ल का रंग हावी है। इस नज़्म से किसी ऐसे तजरबे का इज़्हार नहीं होता जिसके लिए शे’र की हैअत मा-गुज़ीर कही जा सके। पूरी नज़्म का उस्लूब और आहंग डाँट-डपट का है। जोश साहिब की इस नज़्म के इ’लावा इसी मौज़ू’ पर और इसी दौर में कही जाने वाली कुछ नज़्मों के इक़्तिबासात हस्ब-ए-ज़ैल हैं,
ऐ नाक़िद तबाही-ओ-नब्बाज़-ए-रोज़गार
हाँ इस तरह भी एक नज़र ब-हर-कर्द-गार
हम ज़ुल्म के हैं शाह शिक़ावत के ताजदार
इंसान है तो डाल हमारे गलों में हार
इबलीसीयत का मर्द है तो एहतिराम कर
हम हैं अमीर-ए-नादिर-ओ-नीरू सलाम कर
किस-किस मज़े से हमने उछाली हैं औ’रतें
साँचे में बे-हयाई की ढाली हैं औ’रतें
शहवत की भट्टियों में उबाली हैं औ’रतें
घर से बरहना करके निकाली हैं औ’रतें
ये लुत्फ़ भी किए हैं हवस-परवरी के बा’द
फाड़ा है शर्म-गाहों को इ’स्मत-दरी के बा’द
बू-जहल की शराब से छलका के जाम को
बट्टा लगा दिया है मुहम्मद के नाम को
ज़िंदा किया है रावन-ए-दोज़ख़-मक़ाम को
हाँ हमने रू-सियाह बनाया है राम को
क़ुरआँ को हम पे फ़ख़्र है वेदों को नाज़ है
सच है हराम-ज़ादे की रस्सी दराज़ है
जब तक कि दम है हिंदू-ओ-मुस्लिम के दरमियाँ
हाँ हाँ छिड़ी रहेगी यूँही जंग-ए-बे-अमाँ
उलझी रहेंगी शाम-ओ-सहर ज़ेर-ए-आसमाँ
ये चोटियाँ सरों की ये चेहरों की दाढ़ियाँ
हाँ होश में क़िताल का भंगी न आएगा
जिस वक़्त तक पलट के फ़िरंगी न आएगा
ये एक शाइ’र का या तख़्लीक़ी आदमी का कर्ब और बरहमी नहीं, एक आ’म आदमी का इश्तिआ’ल और ग़म-ओ-ग़ुस्सा है जो न तो अपने जज़्बात की तहज़ीब पर क़ादिर है, न अपने इज़्हार की बे-लगामी पर। बेशक वारदात बहुत बड़ी थी और बहुत बर-अंगेख़्ता करने वाली, लेकिन हर फ़न की तरह शाइ’री के अपने हुदूद होते हैं और अपनी शर्तें। जोश ने इन अश’आर में जिस शदीद रद्द-ए-अ’मल का इज़्हार किया है, उससे उनके इंसानी सरोकार, उनकी दर्द-मंदी और उनके तजरबे की सच्चाई को समझा जा सकता है।
लेकिन ज़ाहिर है कि शाइ’री सिर्फ़ एहसासात को गिरफ़्त में लेने वाली, दिमाग़ को परागंदा करने वाली और सीने में हश्र बपा करने वाली कैफ़ियतों के बे-कम-ओ-कास्त बयान का नाम नहीं है। उन्हें एक तख़्लीक़ी तजरबे में मुंतक़िल करने, उन्हें एक नई ज़बान देने का नाम है। वारदात चाहे जितनी हौलनाक और आसाब-शिकन हो, शाइ’री या अदब या फ़न की कोई भी शक्ल, महज़ उसकी रिपोर्टिंग तो नहीं होती। जोश की क़ुदरत-ए-कलाम और उनके बयान की घन-गरज के बा-वजूद इस तरह की शाइ’री किसी मुअस्सिर और पाएदार तख़्लीक़ी तजरबे, किसी रम्ज़-आमेज़ शे’री क़द्र की तश्कील से क़ासिर रह जाती है।
मजमूई’ तौर पर इस तरह की शाइ’री के पस-ए-पर्दा जिस शे’रियात का ताना-बाना तैयार होता है, वो अपनी ख़ारिजी सत्ह से आगे किसी और बारीक और बलीग़ सत्ह तक हमें नहीं ले जाती। ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ की मुरत्तबा एंथोलोजी में फ़साद के तजरबे का अहाता करने वाली जो नज़्में शामिल हैं उनमें सबसे बेहतर नज़्में सरदार जा’फ़री और साहिर लुधियानवी की हैं। हर-चंद कि अपने ज़ख़्मों की नुमाइश और अपनी नेक-अंदेशी के बरमला इज़्हार का जज़्बा यहाँ भी बहुत नुमायाँ है। मिसाल के तौर पर ये इक़्तिबास देखिए,
शरीफ़ बहनो
ग़यूर माओ
ये किस से फ़रियाद कर रही हो
तुम अपने ज़ख़्मों की राखियाँ ले के किसकी महफ़िल में जा रही हो
तुम्हारे ये राहबर नहीं हैं
तुम्हारे ये दाद-गर नहीं हैं
ये काठ की पुतलियाँ हैं जिनको
सियासी पर्दों के पीछे बैठे हुए मदारी
सफ़ैद रेशम की डोरियों पर नचा रहे हैं
ये सामराजी बिसात-ए-शतरंज के पियादे हैं जिनको शातिर
हज़ार चालों से शाह-ओ-फ़र्ज़ीं बना-बना कर चला रहे हैं
यही तो हैं वो जिन्होंने क़ानून के दहकते हुए क़लम से
वतन के सीने पे ख़ून-ए-नाहक़ की एक गहरी लकीर खींची
इन्होंने महफ़िल के साज़ बदले
इन्होंने साज़ों के राग बदले
यही तो हैं जो तुम्हारे अश्कों से अपने मोती बना रहे हैं
तुम्हारी इ’स्मत, तुम्हारी इ’ज़्ज़त, तुम्हारी ग़ैरत चुरा रहे हैं
(सरदार जा’फ़री, आँसुओं के चराग़... हिन्दोस्तान के शरणार्थियों और पाकिस्तान के मुहाजिरीन के नाम)
इस नज़्म से शाइ’र की समाजी हिस्सियत और उसके इंसानी सरोकार का एक ख़ाका मुरत्तब हुआ है। जा’फ़री ने इस्तिआराती तर्ज़-ए-इज़्हार को बरतने की जुस्तजू भी की है लेकिन ख़तीबाना लय और लहजे की बुलंद-आहंगी ने नज़्म के मुहर्रिक तजरबे की अ’क्कासी के लिए, एक मा’रूज़ी तलाज़िमे की तलाश के अ’मल को महदूद कर दिया है। इसी तरह साहिर लुधियानवी की ‘आज’ में एक तरह की रूमानी अफ़्सुर्दगी और ख़ुद-रहमी के जज़्बे की तर्जुमानी, उनके ग़म-आलूद तजरबे को किसी पुर-पेच फ़िक्री जिहत से हम-किनार करने में नाकाम नज़र आती है।
मैं तुम्हारा मुग़न्नी हूँ, नग़्मा नहीं हूँ
और नग़्मे की तख़्लीक़ का साज़-ओ-सामाँ
आज तुमने जला कर भसम कर दिया है
और मैं अपना टूटा हुआ साज़ थामे
सर्द लाशों के अंबार को तक रहा हूँ
मेरे चारों तरफ़ मौत की वहशतें नाचती हैं
और इंसाँ की हैवानियत जाग उठती है
बरबरीयत के ख़ूँ-ख़्वार इ’फ़रीत
अपने नापाक जबड़ों को खोले
ख़ून पी-पी के ग़ुर्रा रहे हैं
बच्चे माओं की गोदों में सहमे हुए हैं
बहनें बे-हुरमती के तसव्वुर से लर्ज़ां हैं, अफ़्सुर्दा हैं, भाई मजबूर हैं
हर तरफ़ शोर-ए-आह-ओ-बका है
और मैं इस तबाही के तूफ़ान में
आग और ख़ूँ के हैजान में
सर-निगूँ और शिकस्ता मकानों के मलबे से पुर रास्तों में
अपने नग़्मों की झोली पसारे
दर-ब-दर फिर रहा हूँ
मुझको अम्न और तहज़ीब की भीक दो
मेरे गीतों की लय, मेरे सुर, मेरी नय
मेरे मजरूह होंटों को फिर सौंप दो
नाला-ओ-फ़रियाद का ये रिक़्क़त-आमेज़ अंदाज़ इज्तिमाई’ आशोब पर मबनी वारदात के बयान से कितना हम-आहंग है और समाजी सरोकार के इज़्हार से कितनी मुताबिक़त रखता है, यहाँ इस बहस में जाए बग़ैर भी शायद इतना तो कहा ही जा सकता है कि आ’लमी अदबियात से क़त’-ए-नज़र, ख़ुद उर्दू में तारीख़ और गिर्द-ओ-पेश की आ’म सूरत-ए-हाल के सियाक़ में शे’र कहने की रवायत, इससे ज़ियादा की तलबगार थी।
हाली, अकबर, इक़बाल हत्ता कि जोश और उनके जूनियर मुआ’सिरीन तक के यहाँ (जिनमें फ़ैज़, मख़दूम, जा’फ़री, वामिक़, साहिर, कैफ़ी, नियाज़ हैदर, सब हैं) मौज़ू’आती शाइ’री के वक़ीअ’ नमूने मिल जाते हैं। इक़बाल ने अपने पुर-जलाल फ़लसफ़ियाना आहंग और अपने ख़ल्लाक़ाना वफ़ूर की मदद से सामने के मौज़ू’आत पर मबनी शाइ’री को जिस दर्जा कमाल तक पहुँचा दिया था, उसके पेश-ए-नज़र जोश, सरदार जा’फ़री और साहिर की नज़्मों से नक़्ल की जाने वाली ये चंद मिसालें बहुत मा’मूली बल्कि आ’मियाना दिखाई देती हैं।
कैसी अंदोह-परवर और दहशतनाक वारदात, यहाँ ख़ाली खोली लफ्फ़ाज़ी और एक तरह के सत्ही versification की नज़र हो गई, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। इस दौर के दूसरे शो’रा की नज़्में, इनसे भी बे-असर और बे-कैफ़ हैं। शाइ’राना बयानPoetic statement पर क़ुदरत के बग़ैर, बयान की शाइ’री (Poetry of Statement) किसी गहरी, बा-मअ’नी हैअत की दरियाफ़्त में बहुत मुश्किल से कामयाब हो सकती है। पाब्लो नेरूदा, लोरका, नाज़िम हिक्मत, मायाकोवस्की के यहाँ रोज़मर्रा ज़िंदगी से माख़ूज़ मौज़ू’आत या तारीख़ी वाक़िआ’त और वारदात के शाइ’राना महाकमे की जो हैरान-कुन मिसालें मौजूद हैं, उनके होते हुए 1947 की तक़्सीम और बर्र-ए-सग़ीर हिंदू-पाक के मुख़्तलिफ़ इ’लाक़ों में फूट पड़ने वाले फ़सादाद, इंसानी वहशत और बरबरीयत के वाक़िआ’त का अहाता करने वाली शाइ’री का ऐसा काल ना-क़ाबिल-ए-फ़हम है।
और इस वाक़िए’ से यही गुमान गुज़रता है कि हर इंसानी सूरत-ए-हाल अपने इज़्हार-ओ-बयान के लिए शे’रियात की एक ख़ास सत्ह और मिज़ाज का मुतालिबा करती है। 1947 के आस-पास रू-नुमा होने वाले शो’रा अपने गिर्द-ओ-पेश की ज़िंदगी के तक़ाज़ों से बिल-उ’मूम ओ’हदा-बर-आ न हो सके। आज़ादी के बा’द इस मौज़ू’ पर जो नज़्में कही गईं, उनमें फ़ैज़ की नज़्म ‘सुब्ह-ए-आज़ादी’ और मख़दूम की नज़्म ‘चाँद तारों का बन’ अपनी अलग पहचान रखती हैं और अपने मुआ’सिरीन की आ’म रविश से मुख़्तलिफ़ हैं।
यही हाल इस अ’हद के आ’म फ़िक्शन का है। तक़्सीम और इससे मुल्हिक़ तजरबों पर मबनी जो भी अच्छा फ़िक्शन लिखा गया, उसका बेशतर हिस्सा इस वाक़िए’ के बरसों बा’द सामने आया। ऐसा लगता है कि हौलनाक तजरबों के एक पूरे सिलसिले ने लिखने वालों से उनकी तख़्लीक़ी बसीरत छीन ली थी और वो किसी फ़नकाराना सत्ह पर सोचने और अपना इज़्हार करने से क़ासिर थे। ज़ियादा-तर लिखने वाले एक सिक्का बंद फार्मूले के मुताबिक़ लिखते रहे। इस मसअले पर तफ़्सीली गुफ़्तगू तो बा’द में होगी। यहाँ मैं वज़ीर-आग़ा के एक मज़्मून ‘उर्दू नज़्म, तक़्सीम बा’द’ (इशाअ’त, सौग़ात, शुमारा 5) से ये इक़्तिबास नक़्ल करना चाहता हूँ कि,
“अदब की तारीख़ में कोई वाक़िआ’ या हादिसा उस वक़्त एक मर्कज़ी हैसियत का हामिल क़रार पाता है जब एक तूल-ए-ज़मानी बुअ’द के बा’द उसके बिल-वास्ता या बिला-वास्ता असरात एक बिल्कुल वाज़ेह सूरत में दिखाई देने लगते हैं। ख़ुद अदब की परख भी ज़मानी बुअ’द की ताबे’ होती है क्योंकि बिल-उ’मूम अदीब और उसके ज़माने से क़ुर्बत के बा’इस एक ना-मा’लूम सी पासदारी या तअस्सुब जनम लेता है और इस्तिख़राज, नतीजे के अ’मल को मुलव्वस कर देता है। लेकिन बा’ज़ वाक़िआ’त इस क़दर अहम होते हैं और उनका दामन इस क़दर फैला हुआ होता है कि उनके बारे में क़यास-आराई का अ’मल कुछ ज़ियादा ना-क़ाबिल-ए-क़बूल नहीं हो सकता। तकसीम-ए-हिंद का वाक़िआ’ भी इसी नौइ’यत का है और अगरचे उसके दौर-रस नताइज के सिलसिले में तो अभी वसूक़ के साथ कुछ कहना मुम्किन नहीं, ताहम इसके बा’इस उर्दू अदब के मिज़ाज में जो तब्दीलियाँ नुमूदार हुई हैं, उनकी एहमियत से इंकार करना हक़ाएक़ से आँखें चुराने के मुतरादिफ़ है।”
ये हक़ाएक़ क्या हैं और तक़्सीम के बा’द की नस्र-ओ-नज़्म में किस क़िस्म की तब्दीलियाँ नुमूदार हुईं, उनका नक़्शा मुरत्तब करना अब मुश्किल नहीं रह गया है। इसका सबब ये है कि एक तो तक़्सीम के वाक़िए’ पर अब तक़रीबन साठ बरस गुज़र चुके हैं। मुश्तरका तहज़ीबी विरासत और मुश्तरका असालीब ज़िंदगी के बिल-मुक़ाबिल पाकिस्तानी दानिश्वरों के एक हल्क़े में अपनी इन्फ़िरादी शनाख़्त की जुस्तजू और इस पर इसरार ने भी अब एक भूली हुई रवायत की हैसियत हासिल कर ली है। पाकिस्तानी अदब और सक़ाफ़त की इन्फ़िरादियत का मसअला इस वक़्त हमारी गुफ़्तगू के दाएरे से बाहर है, इसलिए फ़िलहाल मैं इस सवाल से अपने आपको अलग करता हूँ और इस सिलसिले में सिर्फ़ ये अ’र्ज़ करना चाहता हूँ कि सियासी माहौल और हिन्दोस्तान-ओ-पाकिस्तान के तअ’ल्लुक़ात में कशीदगी और गर्मी के दौरान तो बेशक इस सवाल की लय तेज़ हो जाती है, लेकिन अदीबों की अकसरीयत ने ये सवाल अब सियासतदानों और समाजी उ’लूम के मैदान में काम करने वालों के सपुर्द कर दिया है।
अब हिन्दोस्तान पाकिस्तान के तख़्लीक़ी अदब की दुनिया में ये शोर थम चुका है। ताहम इस हक़ीक़त की निशान-दही यहाँ ज़रूरी है कि हिन्दोस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में तक़्सीम के अदब पर कच्ची-पक्की तारीख़ी और सहाफ़ियाना अंदाज़ की किताबों का एक सैलाब सा आया हुआ है और इस मौज़ू’ ने अदबी या तख़्लीक़ी वुजूहात से ज़ियादा सियासी और समाजी अस्बाब की बिना पर एक इंडस्ट्री की हैसियत इख़्तियार कर ली है।
तक़्सीम के बा’द के अदब पर, जिसमें तक़्सीम के अलमिए और उससे वाबस्ता वाक़िआ’त की रौशनी में नस्र-ओ-नज़्म की मुख़्तलिफ़ सिन्फ़ों पर नज़र डाली गई थी, पहली मा’रूफ़ किताब डाक्टर ए’जाज़ हुसैन की ‘उर्दू अदब आज़ादी के बा’द’ है। लेकिन तक़्सीम के अदब या पार्टीशन लिटरेचर की इस्तिलाह का चलन उर्दू और अंग्रेज़ी में पिछले कई बरसों से आ’म हुआ है। लेज़्ली फ्लेमिंग ने अपनी किताब Another Lonely Voice (इशाअ’त1979, यूनीवर्सिटी आफ़ कैलीफोर्निया बर्कले) में मंटो की कहानियों को इसी पस-मंज़र में समझने की कोशिश की है। उन्होंने Stories (1) Political Stories, (2) Partition Stories (3) Sympathetic Storiesऔर 4) Romantic Stories के ज़ैली उ’नवानात क़ाएम किए हैं और उ’नवानात के तहत मंटो की कुछ कहानियों की ख़ाना बंदी की है।
क़त’-ए-नज़र इस बात के कि ये तक़्सीम ग़ैर-मंतक़ी बल्कि मुहमल है और एक ही कहानी ब-यक-वक़्त इन तमाम उ’नवानात के तहत रखी जा सकती है, लेज़्ली फ्लेमिंग ने “पार्टीशन स्टोरीज़” के मौज़ू’आत और मसअलों का अहाता बहुत महदूद और सत्ही बुनियादों पर किया है। वाक़िआ’ ये है कि तक़्सीम का अदब, सियासी, मुआ’शरती, तारीख़ी, जज़्बाती, फ़िक्री और समाजियाती सत्ह पर ब-यक-वक़्त मुतअ’द्दिद जिहतें रखता है। ये जिहतें तक़्सीम के फ़ौरन बा’द लिखे जाने वाले अदब से ज़ियादा मुस्तहकम और मर्मूज़ तरीक़े से उर्दू नज़्म-ओ-नस्र में 196 के आस-पास या इसके बा’द आईं। मिसाल के तौर पर 1947 की तक़्सीम और फ़सादाद को मौज़ू’ बनाने वाले शाइ’रों में जिगर, जोश, फ़ैज़, जज़्बी, मख़दूम, जाँ-निसार अख़्तर, साहिर, कैफ़ी, वामिक़, ताबाँ, मजाज़, अहमद नदीम क़ासमी, फ़िक्र तौंसवी, ग़रज़ कि छोटे बड़े तक़रीबन तमाम शाइ’रों के नाम शामिल हैं, लेकिन तक़्सीम की या शाइ’री Partition Poetry को उसका बुनियादी तशख़्ख़ुस नासिर काज़मी के वास्ते से मिला।
नासिर ने अपने पहले मजमूए’ ‘बर्ग-ए-नै’ के तआ’रुफ़ में लिखा था कि “नाला महफ़िलें बरहम नहीं करता। नाला-आफ़रीं पर जो कुछ भी गुज़री हो, उसकी फ़रियाद फ़न के साँचे में ढल कर नग़्मा नहीं बन सकती तो महज़ चीख़-पुकार है।”
उनका ये अंदाज़-ए-नज़र तक़्सीम के फ़ौरन बा’द की शाइ’री और नासिर काज़मी के साथ मंज़र-ए-आ’म पर आने वाली शाइ’री के दरमियान एक ख़त-ए-इम्तियाज़ क़ाएम करता है। ‘बर्ग-ए-नै’ की कुछ ग़ज़लों में जज़्बाती ग़ुलू, आसाबी तशन्नुज और हिस्टीरियाई रद्द-ए-अ’मल की वैसी ही सूरतों दिखाई देती हैं जो उनके पेश-रवों की शाइ’री को शाइ’री के बजाए सीधी-सादी ना’रे-बाज़ी बना देती हैं लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता 1947 की तक़्सीम, उसके बा’द रू-नुमा होने वाले फ़सादाद, फ़सादाद के नतीजे में वक़ूअ’-पज़ीर होने वाले हिजरत के तजरबे या बे-ज़मीनी के एहसास और इंसानी रिश्तों की शिकस्त-ओ-रेख़्त के तसव्वुर ने नासिर काज़मी की शाइ’री में एक नया मफ़्हूम पाया।
बे-ज़मीनी, मुसाफ़िरत, मुआ’शरती अबतरी और इंसानी तअ’ल्लुक़ात की बे-तौक़ीरी ने एक नई तख़्लीक़ी वारदात, एक नए तजरबे की शक्ल इख़्तियार कर ली। नासिर काज़मी के इस बयान से उनकी तख़्लीक़ी मौक़िफ़ को समझा जा सकता है कि, “नाला आफ़रीनी जब्र-ओ-इख़्तियार का एक अनोखा करिश्मा है। क़ारी के दिल में जगह पाना भी महज़ इसके बस की बात नहीं।”
देखना ये है कि एक आवाज़ हज़ारों की आवाज़ बन भी सकती है या नहीं। इस नुक्ते की वज़ाहत के लिए मैं यहाँ नासिर काज़मी के कुछ शे’र नक़्ल करना चाहता हूँ।
रौनक़ें थीं जहाँ में क्या-क्या कुछ
लोग थे रफ़्तगाँ में क्या-क्या कुछ
अब की फ़स्ल-ए-बहार से पहले
रंग थे गुलसिताँ में क्या-क्या कुछ
क्या कहुँ अब तुम्हें ख़िज़ाँ वालो
जल गया आशियाँ में क्या-किया
दिल तिरे बा’द सो गया वर्ना
शोर था इस मकाँ में क्या-क्या कुछ
(1947)
ये शब ये ख़याल-ओ-ख़्वाब तेरे
क्या फूल खिले हैं मुँह-अँधेरे
शो’ले में है एक रंग तेरा
बाक़ी हैं तमाम रंग मेरे
आँखों में छुपाए रहा हूँ
यादों के बुझे हुए सवेरे
देते हैं सुराग़ फ़स्ल-ए-गुल का
शाख़ों पे जले हुए बसेरे
मंज़िल न मिली तो क़ाफ़िलों ने
रस्ते में जमा लिए हैं डेरे
जंगल में हुई है शाम हमको
बस्ती से चले थे मुँह-अँधेरे
रूदाद-ए-सफ़र न छेड़ नासिर
फिर अश्क न थम सकेंगे मेरे
(1948)
गली गली आबा’द थी जिनसे कहाँ वो लोग
दिल्ली अब के ऐसी उजड़ी घर-घर फैला सोग
सारा-सारा दिन गलियों में फिरते हैं बेकार
रातों उठ-उठकर रोते हैं इस नगरी के लोग
सहमे-सहमे से बैठे हैं रागी और फ़नकार
भोर-भए अब इन गलियों में कौन सुनाए जोग
जब तक हम मसरूफ़ रहे ये दुनिया थी सुनसान
दिन ढलते ही ध्यान में आए कैसे कैसे लोग
नासिर हम को रात मिला था तन्हा और उदास
वही पुरानी बातें उसकी वही पुराना रोग
(1949)
ये मिसालें तक़्सीम के तजरबे से गुज़रने के फ़ौरन बा’द की हैं और इनमें सूरत-ए-हाल का बयान बे-साख़्ता तौर पर किया गया है। ब-तदरीज उदासी और दिल-गिरफ़्तगी की एक मुस्तक़िल सूरत नासिर की शाइ’री का शनास-नामा बनती गई। जैसे-जैसे उनमें और उनके माज़ी में एक फ़ासिला पैदा होता गया, उनके बातिनी लैंड-स्केप के रंग पहले से ज़ियादा रौशन होते गए। इस सिलसिले में नासिर के दूसरे मजमूए ‘दीवान’ (इशाअ’त 1073) की एक ग़ज़ल जिसका मजमूई’ आहंग एक नौहे का है और उनकी नज़्मों की किताब ‘निशात-ए-ख़्वाब’ (इशाअ’त 1977) की एक नज़्म (उ’नवान, ‘निशात-ए-ख़्वाब’) की तरफ़ ध्यान जाता है। ये दोनों मिसालें तक़्सीम, हिजरत और इज्तिमाई’ माज़ी की बाज़याफ़्त या तक़्सीम के सियाक़ में हाफ़िज़े के ग़म आमेज़ अ’मल की निशान-दही करती हैं। ग़ज़ल के अश’आर जिनके उस्लूब और दाख़िली आहंग से एक थके-हारे सफ़र के साथ-साथ एक मौहूम उम्मीद की तस्वीर उभरती है, हस्ब-ए-ज़ैल हैं,
रह-नवर्द-ए-बयाबाँ-ए-ग़म, सब्र कर सब्र कर
कारवाँ फिर मिलेंगे बहम सब्र कर सब्र कर
बे-निशाँ है सफ़र, रात सारी पड़ी है मगर
आ रही है सदा दम-ब-दम सब्र सब्र कर
तेरी फ़रियाद गूँजेगी धरती से आकाश तक
कोई दिन और सह ले सितम सब्र कर सब्र कर
तेरे क़दमों से जागेंगे उजड़े दिलों के ख़ुतन
पा-शिकस्ता ग़ज़ाल-ए-हरम सब्र कर सब्र कर
शहर उजड़े तो क्या है कुशादा ज़मीन-ए-ख़ुदा
इक नया घर बनाएँगे हम सब्र कर सब्र कर
पहले खिल जाए दिल का कँवल फिर लिखेंगे ग़ज़ल
कोई दम ऐ सरीर-ए-क़लम सब्र कर सब्र कर
दर्द के तार मिलने तो दे होंट हिलने तो दे
सारी बातें करेंगे रक़म सब्र कर सब्र कर
देख ‘नासिर’ ज़माने में कोई किसी का नहीं
भूल जा उसके क़ौल-ओ-कसम सब्र कर सब्र कर
और नासिर की नज़्म ‘निशात-ए-ख़्वाब’ तो शायद आज़ादी और तक़्सीम के बा’द लिखा जाने वाला सबसे ख़ूबसूरत और एक निजी वारदात के बयान के बा-वजूद आ’म इज्तिमाई’ ख़सारे का एहसास पैदा करने वाला ''शहर-आशोब' है। इस हुज़्नीया क़सीदे का इख़्तिताम मुंदरजा ज़ैल शेरों पर होता है,
दिल खींचती है मंज़िल-ए-आबा-ए-रफ़्तनी
जो उसपे मर मिटे वही क़िस्मत के थे धनी
वो शहर सो रहे हैं जहाँ काज़मीन के
हैबत से जिनके गर्द हुए कोह-ए-आहनी
अंबाला एक शहर था सुनते हैं अब भी है
मैं हूँ उसी लुटे हुए क़र्ये की रौशनी
ऐ साकिनान-ए-ख़ित्ता-ए-लाहौर देखना
लाया हूँ इस ख़राबे से मैं लाल-ए-मादिनी
जलता हूँ दाग़-ए-बे-वतनी से मगर कभी
रौशन करेगी नाम मिरा सोख़्ता-तनी
ख़ुश रहने के हज़ार बहाने हैं दहर में
मेरे ख़मीर में है मगर ग़म की चाशनी
या रब ज़माना मुम्तहिन-ए-अहल-ए-सब्र है
दे इस दुनी को और भी तौफ़ीक़-ए-दुश्मनी
नासिर ये शे’र क्यों न हों मोती से आबदार
इस फ़न में की है मैंने बहुत देर जाँ-कनी
हर लफ़्ज़ एक शख़्स है, हर मिसरा’ आदमी
देखो मिरी ग़ज़ल में मरे दिल की रौशनी
तक़्सीम के बा’द पेश आने वाले वाक़िआ’त, उस दौर की आ’म फ़िज़ा और ज़हनी-ओ-जज़्बाती माहौल और एक मुल्क के दो मुल्कों में बाँट दिए जाने के मजमूई’ तजरबे की रौशनी में देखा जाए तो नासिर काज़मी की शाइ’री एक फ़र्द की आवाज़ से ज़ियादा एक तर्ज़-ए-एहसास और सोचने के एक उस्लूब की तर्जुमान दिखाई देती है। ये उस्लूब-ए-फ़िक्र पाकिस्तानी क़ौम और सियासतदानों के सरकारी नज़र official view के बजाए एक सीधे सच्चे ज़ाती रवैये personal view की शहादत देता है। इसी हक़ीक़त का इतलाक़ हमारी इज्तिमाई’ तारीख़ के उस ख़ास मोड़ पर हैरान, परेशान और सरासीमा दिखाई देने वाले ज़ियादा-तर अदीबों की तख़्लीक़ात पर किया जा सकता है। आग का दरिया (इशाअ’त 1959) जिसे तक़्सीम के बा’द मंज़र-ए-आ’म पर आने वाले पहले अहम नावल की हैसियत हासिल है और जिसे हम फ्रेडरिक जेमसन की वज़्अ’-कर्दा इस्तिलाह के मुताबिक़ एक क़ौमी तमसील या national allegory से ता’बीर कर सकते हैं, उसे तक़्सीम के अदब में एक नुमाइंदा-तरीन तख़्लीक़ी दस्तावेज़ क़रार दिया जा सकता है।
इस ज़ाविया-ए-नज़र की सच्चाई से इंकार करने वाले यहाँ नसीम हिजाज़ी या ऐम. असलम का नाम ले सकते हैं जिनके नावल (बिल-तर्तीब ‘ख़ाक और ख़ून’, ‘रक़्स-ए-इबलीस’) पाकिस्तानी हुकूमत के official view से पूरी तरह हम-आहंग थे और दो-क़ौमी नज़रिए की मंतिक़ के मुताबिक़ लिखे गए थे। ऐसे कुछ और नावल भी मंज़र-ए-आ’म पर आए मसलन रामानंद सागर का, ‘और इंसान मर गया।’, रशीद अख़्तर नदवी का नावल ‘15 अगस्त’, रईस अहमद जा’फ़री का ‘मुजाहिद’ और कैसी रामपुरी के नावल ‘ख़ून’, ‘बे-आबरू’ और ‘फ़िरदौस’। लेकिन इनमें से बेशतर में जज़्बातियत का ग्राफ़ बहुत ऊँचा है और इन्हें संजीदा अदब के दाएरे में नहीं रखा जा सकता।
इज्तिमाई’ दीवानगी और तशद्दुद की इस फ़िज़ा में, जो फ़सादाद, ग़ारत-गरी, फ़िर्का-परस्ती की बू से बोझल थी और हमारे माज़ी की मुश्तरका क़द्रों से अलग एक मंसूबा-बंद अलाहिदगी-पसंदी की तर्जुमान थी, उसे एक महदूद लेकिन हक़ीक़त पर मबनी मुतवाज़ी मैलान के तौर पर देखा जाना चाहिए। इस मैलान को एक तरह की आ’रिज़ी क़ुबूलियत इन हल्क़ों में भी मिली जिनका ख़मीर तो हिंद-इस्लामी तहज़ीबी रवायत का परवर्दा था लेकिन जिनके लिए अपने घर के उजड़ने का, अपने बे-वतन होने और बे-ज़मीनी की अज़ीयत से दो-चार होने का ग़म इतना शदीद था कि वो अपने नस्ली हाफ़िज़े के दाएरे को तोड़-ताड़ कर वक़्ती तौर पर बाहर निकल आए थे।
हाल के दबाव ने उनसे इज्तिमाई’ माज़ी का एहसास छीन लिया था। उनके पीछे अब सिर्फ़ मुआ’शरती ज़िंदगी के इंतिशार और दहशत की कहानियाँ थीं और सामने एक ग़ैर यक़ीनी मौहूम मुस्तक़बिल की सय्याल तस्वीर।
ऐसा लगता है कि उन्हें हालात के इस अचानक मोड़ पर, तारीख़ की इस ग़ैर-मुतवक़्क़े’ करवट पर कुछ सोचने समझने का मौक़ा’ ही नहीं मिला। सामने की हक़ीक़तों ने जिस तरह बहा दिया, बे-मर्ज़ी और बे-इरादा बस उसी तरह बह गए। हिजरत के तजरबे से गुज़रने वाले अदीबों की अकसरीयत का, उस वक़्त यही हाल था। पाकिस्तानी अदब के अलाहिदा तशख़्ख़ुस और इस्लामी अदब की तख़्लीक़-ओ-ता’मीर के ना’रे उसी माहौल में बुलंद हुए। मगर इनका अंजाम सबको मा’लूम है ये गर्द बिल-आख़िर छट गई और ये जोश कुछ ही दिनों में ठंडा पड़ गया। जिस तहरीक को अच्छे लिखने वाले न मिल सकें उसका हश्र यही होना था।
इस पस-मंज़र में, तरक़्क़ी-पसंद शाइ’रों और अफ़साना निगारों की आ’म फ़िक्र, नीज़ तक़्सीम, फ़सादाद और अबतरी का शिकार होने वाली ज़िंदगी और इस ज़िंदगी की अख़लाक़ी असास के बारे में उनके आ’म अंदाज़-ए-नज़र का जाएज़ा लिया जाए तो एक हक़ीक़त वाज़ेह तौर पर सामने आती है। यहाँ इख़तिसार के साथ उसकी निशान-दही ज़रूरी है। ज़ाहिर है कि 1947 के ज़माने का तूफ़ानी माहौल और इंतिहा-पसंदियों का वो दौराम इंसानों के साथ तख़्लीक़ी ज़िंदगी गुज़ारने के लिए भी एक बहुत बड़ा चैलेंज था। उनमें से कुछ तो सलामती के साथ आग और ख़ून के इस दरिया के पार उतर गए। कुछ इस हौलनाक हक़ीक़त के पेच में उलझ कर गए।
रामानंद सागर का नावल ‘और इंसान मर गया’, ख़्वाजा अहमद अब्बास की नीम-सहाफ़ती अंदाज़ की कहानियाँ जो फ़सादाद के मौज़ू’ पर लिखी गईं, कृष्ण चंद के मुतअ’द्दिद अफ़साने, इ’स्मत चुग़्ताई का ड्रामा ‘धानी बाँकें’, ख़दीजा मस्तूर, हाजिरा मसरूर और शकीला अख़्तर की कई तख़्लीक़ात, ये सब के सब एक गहरे रूमानी दर्द की तर्जुमानी करते हैं। लेकिन कहानी सिर्फ़ नेक-अंदेशों से और सेहत-मंद जज़्बों से नहीं बनती। आदर्शवाद और प्रोपेगैंडे का उं’सुर उनमें बहुत नुमायाँ है। मुम्ताज़ शीरीं का ख़याल है कि,
“बहुत से अदीब ख़ुद इस तूफ़ान की ज़द में आ गए थे और कई एक ज़हनों को इस ट्रेजडी की हौलनाकी ने ऐसी कारी ज़र्ब लगाई थी कि वो कुछ लिखना चाहते थे, उनके पास मवाद भी था लेकिन सँभल कर लिख नहीं सकते थे। ये ट्रेजडी इतनी बड़ी ही नहीं, अपनी नौइ’यत में ऐसी हौलनाक थी कि किसी को सूझ नहीं रहा था कि उसे कैसे पेश करें... हद से ज़ियादा एहतियात और शऊ’र की कोशिश ने इन अफ़्सानों को बे-रूह और बे-असर बना दिया।”
शाइ’री हो या फ़िक्शन-निगारी, मौज़ू’आती हद-बंदियाँ उन्हें अ’क्सर रास नहीं आतीं। फिर इसी के साथ-साथ अगर लिखने वाले की फ़िक्र भी मंसूबा-बंदी और पहले से तय-शुदा नताइज के साथ अपने इज़्हार पर मुसिर हो तो मुआ’मला मज़ीद दुश्वार हो जाता है। प्रेमचंद ने अपने अ’हद के नए लिखने वालों को हुस्न का मे’यार बदलने का मश्वरा दिया था, हुस्न और तनासुब के एहसास से ग़फ़लत और बे-नियाज़ी का नहीं। तक़्सीम और फ़सादाद के ख़ूँ-चकाँ माहौल में बहुत से लिखने वाले, अदब और ग़ैर-अदब में फ़र्क़ करना भूल गए थे। इंसानी क़द्रों की पामाली और हर बड़े यक़ीन और ए’तिमाद की शिकस्त के इस दौर में सलीक़े के साथ लिखने के आदाब से क़त’-ए-नज़र, गहराई के साथ सोचने के आदाब को बर-क़रार रखना भी मुश्किल हो गया। इस क़िस्म की नफ़सियाती फ़िज़ा में अपने आपसे उलझते रहना या अपने आपको जज़्बाती इंतिहा-पसंदी के रास्ते पर डाल देना, शायद ज़ियादा आसान था। शायद बड़ी हद तक फ़ितरी भी था। बहुत से शाइ’र और फ़िक्शन-निगार तज़बज़ुब के ऐसे शिकार हुए कि सम्तों का एहसास खो बैठे। अपनी ही बात से अचानक पलट जाते थे और बाज़-औक़ात अपने आ’म मौक़िफ़ से यकसर मुतज़ाद मौक़िफ़ इख़्तियार करने लगते थे।
ग़रज़ कि अ’जीब तरह की फ़िक्री अफ़रा-तफ़री का आलम था। नफ़सियाती कश्मकश और गो-म-गो की जिस कैफ़ियत की तरफ़ पहले इशारा किया जा चुका है, उस कैफ़ियत से नासिर काज़मी के कलाम से ऐसी मिसालें भी ढूँढ निकाली जा सकती हैं जिनसे तक़्सीम और हिजरत के तजरबे की तरफ़ उनके ग़ालिब रवैये की तरदीद होती है। फ़त्ह मुहम्मद मलिक ने तो मंटो तक के यहाँ ऐसे बयानात का सुराग़ लगाया है जो दो-क़ौमी नज़रिए की वकालत करते हैं। क़ाएम-ए-पाकिस्तान के बा’द एक तरफ़ तो मंटो के ये अल्फ़ाज़ हैं कि,
“समझ में नहीं आता कि हिन्दोस्तान अपना वतन है या पाकिस्तान, और वो लहू किसका है जो हर-रोज़ इतनी बे-दर्दी से बहाया जा रहा है, वो हड्डियाँ कहाँ जलाई या दफ़न की जाएँगी जिन पर से मज़हब का गोश्त-पोस्त चीलें और गिध नोच-नोच कर खा गए थे। हिंदू और मुसलमान धड़ाधड़ मर रहे थे, कैसे मर रहे थे, क्यों मर रहे थे? इन सवालों के मुख़्तलिफ़ जवाब थे। भारती जवाब, पाकिस्तानी जवाब, अंग्रेज़ी जवाब। हर सवाल का जवाब मौजूद था मगर उस जवाब में हक़ीक़त तलाश करने का सवाल पैदा होता तो उसका कोई जवाब न मिलता। कोई कहता इसे ग़दर के खंडरात में तलाश करो। कोई कहता ये ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत में मिलेगा। कोई और पीछे हट कर उसे मुग़लिया ख़ानदान की तारीख़ में टटोलने के लिए कहता। सब पीछे ही पीछे हटते जाते थे और क़ातिल और सफ़्फ़ाक बराबर आगे बढ़ते जा रहे थे।” (ब-हवाला-ए-डाक्टर बुर्ज प्रेम, मंटो कथा, स - 73)
दूसरी तरफ़ फ़त्ह मुहम्मद मलिक की किताब ‘सआ’दत हसन मंटो, एक नई ता’बीर’ के एक मज़्मून ‘मंटो की पाकिस्तानियत’ का ये इक़्तिबास है कि,
“सआ’दत हसन मंटो ने ख़ुद को अगस्त सन सैंतालीस में पहचाना। वो हमारे तख़्लीक़ी लिखने वालों की उस नस्ल के मुम्ताज़-तरीन फ़न-कारों में से एक हैं जो बीसवीं सदी की तीसरी दहाई में उर्दू अदब के उफ़ुक़ पर नुमूदार हुई थी। ये वो लोग हैं जो मज़हबी हद-बंदियों से मावरा और क़ौमी तक़ाज़ों से ना-आशना होने को अपने लिए बा’इस-ए-फ़ख़्र गरदानते थे और यूँ अपनी हिंदू या मुसलमान शनाख़्त को मिटाकर इंसानियत के ऊँचे सिंघासन पर बिराजमान हो जाने को तरक़्क़ी-पसंदी या जदीदियत का लाज़िमा क़रार देते थे। उनका अदबी मिज़ाज मग़रिबी इश्तिराकीयत या मग़रिबी जदीदियत के ज़ेर-ए-असर पुख़्तगी को पहुँचा था।”
और ये कि, “सआ’दत हसन मंटो भी अपने मुआ’सिरीन की तरह सेक्युलर अंदाज़-ए-नज़र को वसीअ’-उल-नज़री, इंसान दोस्ती और आफ़ाक़ियत की माँ तसव्वुर करते थे। इसलिए मुसलमान क़ौम की इस तहज़ीबी या सियासी जद्द-ओ-जहद से भी वो सरासर ला-तअ’ल्लुक़ रहे, जिसे तहरीक-ए-पाकिस्तान के नाम से मौसूम किया जाता है। वो भी अपने नज़रिया और अ’मल से यही साबित करने में कोशाँ रहे कि बर्र-ए-सग़ीर में जुदागाना मुसलमान क़ौमियत की बुनियाद पर एक अलाहिदा मुसलमान मम्लिकत के क़याम का मुतालिबा रजअ’त-पसंदाना मुतालिबा है।
मंटो तहरीक-ए-पाकिस्तान से इस हद तक ला-तअ’ल्लुक़ थे कि जब पाकिस्तान क़ाएम हो गया, फ़िर्का-वाराना फ़सादाद की आग भड़क उठी और मंटो के हिंदू दोस्तों तक ने उसकी इंसानी पहचान को फ़रामोश करके उसकी मुसलमान शनाख़्त पर इसरार किया, तब उसकी आँखें खुलीं और उसने इस हक़ीक़त को तस्लीम किया कि वो ख़ुद तो बे-शक दीन-ओ-मिल्लत और तहज़ीब-ओ-मुआ’शरत के छोटे-बड़े इख़्तिलाफ़ात को ख़ातिर में न लाने वाला इंसान हुआ करे, मगर बोहरान की हर घड़ी में उसका मुक़द्दर मुसलमान क़ौम ही से वाबस्ता रहेगा। वो अपने इस मुक़द्दर से न तो सेक्युलरिज़्म के नाम पर नजात पा सकता है और न ही अपने आफ़ाक़ी तर्ज़-ए-फ़िक्र की बुनियाद पर। जहाँ फ़सादाद में मुसलमान क़त्ल किए जा रहे होंगे, वहाँ क़ातिल का ख़ंजर उसे भी वाजिब-उल-क़त्ल ठहराएगा...”
1947 की तक़्सीम और इससे मरबूत वाक़िआ’त, इंसानी सत्ह पर एक इंतिहाई मुश्किल और पुर-पेच सूरत-ए-हाल का पता देते हैं। इस सूरत-ए-हाल में बहुतों के लिए ज़हनी और जज़्बाती तवाज़ुन को बर-क़रार रखना मुश्किल हो गया था। फ़िर्का-वाराना जुनून और बहीमाना तशद्दुद की इस फ़िज़ा में बहुत से ए’तिबार टूटे और कई ऐसे लिखने वालों का यक़ीन भी मुतज़लज़ल हुआ जो 1947 के आसेब से निकलने के बा’द अब इस पूरी वारदात को एक अलग ज़ाविए से देखते हैं और जो मुश्तरका तहज़ीबी विरासत और अक़दार का गहरा शऊ’र रखते हैं। मिसाल के तौर पर इंतिज़ार हुसैन, जिनकी पूरी तख़्लीक़ी ज़िंदगी अपना एक ख़ास तशख़्ख़ुस रखती है और जिस तशख़्ख़ुस की ता’मीर रौशन-ख़याली, रवादारी और इंसान-दोस्ती के गहरे तसव्वुरात की बुनियाद पर हुई है, 1947 के फ़ौरन बा’द के दौर में एक अलग नहज पर सोच रहे थे,
तक़्सीम की वारदात, उनके लिए भी जज़्बाती इंतिहा-पसंदी का और तहज़ीबी हम-आहंगी में यक़ीन की शिकस्त का संदेसा लेकर आई, उस वक़्त उनकी सोच, उनके मौजूदा फ़िक्री मैलानात और तख़्लीक़ी मौक़िफ़ से मुसलसल बरसर-ए-पैकार थी। अब तो शायद उन्हें ख़ुद अपनी कही हुई बातों पर यक़ीन करने और अपने उस वक़्त के ज़ाविया-ए-नज़र को जो जज़्बाती उबाल और एक अन्दोह-नाक इश्तिआ’ल के माहौल में मुरत्तब हुआ, क़ुबूल करने में तअ’म्मुल होगा, लेकिन 1947 के बा’द उन्होंने बहुत पुर-जोश अंदाज़ में ये सब लिखा था कि,
“फ़सादाद के अफ़्सानों के बारे में पहला और बुनियादी सवाल ये है कि वो फ़सादाद के अफ़साने हैं या नहीं... आग और ख़ून का ये हंगामा जो गर्म हुआ था वो ख़ला में नहीं उगा था। इसका एक आगा-पीछा था और इस आगा-पीछा के सिलसिले में सिर्फ़ ये कह कर पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता कि ये सब अंग्रेज़ी सामराज की कारस्तानी थी... तो यूँ समझिए कि जिस चीज़ को हम फ़सादाद कहते हैं वो एक पेचीदा क़ौमी वाक़िआ’ है जिसके मुख़्तलिफ़ ख़ारिजी और दाख़िली हैं”
“इन अफ़्सानों का एक प्रोपेगंडाई पहलू भी है जिसकी बिना पर वो सियासी नुक़्ता-ए-नज़र से बहुत अहम हो जाते हैं। पस अगर क़ौमी नुक़्ता-ए-नज़र के तहत में अदबी लिहाज़ से कमतर दर्जे के अफ़्सानों पर भी संजीदगी से बहस करूँ तो शायद क़ाबिल-ए-ए’तिराज़ बात न होगी।”
“मुसलमानों के साथ एक बड़ी ट्रेजडी ये हुई कि उनकी सियासी जद्द-ओ-जहद में उनके अदीब उनसे टूट गए। मिल्लत की सियासी जद्द-ओ-जहद से वाबस्तगी की रवायत इक़बाल पर ख़त्म हो गई। इसके बा’द कांग्रेस का प्रोपेगंडा ये रंग लाया कि इस क़िस्म की वाबस्तगी फ़िर्का-परस्ती शुमार की जाने लगी।”
“उर्दू अफ़साने में मुत्तहदा क़ौमियत के नज़रिए की मौत पर टसवे बहाए गए। बर्तानवी सामराज को गाली कोसने दिए गए और इस बर्र-ए-अ’ज़ीम के फिर एक मुल्क हो जाने के ख़्वाब देखे गए। कृष्ण-चंदर ने अफ़साना पढ़ने वालों और अफ़साना लिखने वालों, दोनों को गहरे तौर पर मुतास्सिर किया है और कृष्ण-चंदर इस नज़रिए का सबसे बड़ा मबलग़ है। बात सीधी-सादी तब्लीग़ पर ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि उसने मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करने का भी एहतिमाम किया है। ‘हम वहशी हैं’ की इशाअ’त से उर्दू अदब में फ़िर्का-परस्ती की बा-क़ाएदा इब्तिदा होती है।
सानिहा दर-अस्ल ये है कि बा’ज़ बहुत ही संजीदा क़िस्म के अफ़्साना-निगार इस ग़ैर-संजीदा रविश के शिकार हो गए। मुझे सबसे ज़ियादा ग़म इ’स्मत चुग़्ताई की मौत का है। जहाँ ‘धानी बाँकें’ का तअ’ल्लुक़ है तो मेरे ज़हन में ये सवाल अब भी जूँ का तूँ मौजूद है कि आया ये ड्रामा इ’स्मत का लिखा हुआ है या नहीं।”
“अगर क़ौमी ज़रूरत ये है कि ख़ंदक़ें खोदी जाएँ तो अदीब को ये काम भी करना होगा। पमफ़्लेट-बाज़ी वाक़ई’ बड़ी मकरूह चीज़ है। आ’म हालात में तो इसके नाम ही से अदीब को उबकाई आ जानी चाहिए लेकिन दिक़्क़त ये है कि आज के हमारे हालात आ’म हालात नहीं हैं। अफ़राद को ही नहीं बल्कि क़ौमों को ज़िंदा रहने के लिए बहुत से अच्छे बुरे काम करने पड़ते हैं। ये क़ौम ज़िंदा रहना चाहती है और अपनी गुज़िश्ता नाकामियों के दाग़ों को धोना चाहती है। इस वक़्त वो प्रोपेगंडाई अदब की मुहताज है और पाकिस्तानी अदीब अगर पाकिस्तानी होने में शर्म महसूस नहीं करता तो उसे पमफ़्लेट-बाज़ी पर उतरना पड़ेगा।” (साक़ी, कराची, जून 1949, ब-हवाला ज़ुल्मत-ए-नीमरोज़, मुरत्तबा, मुम्ताज़ शीरीं)
ये एक तरह की आ’रिज़ी बद-हवासी और तारीख़ के जब्र का नतीजा है। नीत्शे ने कहा था कि तारीख़ कभी-कभी हमारे रास्ते का पत्थर बन जाती है और कोई बड़ा तख़्लीक़ी कारनामा अंजाम देने के लिए बाज़-औक़ात तारीख़ को भूलना ज़रूरी हो जाता है। तक़्सीम के पस-मंज़र की भी एक अपनी तारीख़ थी, बहुत उलझी हुई। जज़्बा-अंगेज़ और एहसासात को बोझल कर देने वाली तारीख़। इस तारीख़ का सबसे अलम-नाक और आज़माईशी पहलू उसे उ’क़्बी पर्दा मुहय्या करने वाली फ़िर्का-वाराना सियासत थी। इसमें उलझने का मतलब था अपने शऊ’र को अलाहिदगी-पसंदी की इस सियासत के हवाले कर देना। ज़ाहिर है कि उर्दू नज़्म-ओ-नस्र की का वो हिस्सा जो एक दूसरे से बरसर-ए-पैकार दो क़ौमों के इन्फ़िरादी तशख़्ख़ुस पर इसरार करता है, अलाहिदगी-पसंदी की इसी सियासत का नुमाइंदा है।
इस क़िस्म की तहरीरें बिल-उ’मूम लिखने की जल्दी में लिखी गईं। इसलिए उनका अंदाज़ा तख़्लीक़ी से ज़ियादा सहाफ़ियाना है। मुम्ताज़ शीरीं ने तक़्सीम, फ़सादाद और उर्दू अफ़साने के बाहमी रिश्तों का जाएज़ा लेते हुए एक मअ’नी-ख़ेज़ बात ये कही थी कि “फ़सादाद उस वक़्त तक किसी पाएदार ज़हनी तजरबे की हद में दाख़िल नहीं हुए थे और बा’ज़ लिखने वालों ने पहले से तय कर लिया था कि इस फ़िज़ा में किस क़िस्म के अफ़साने लिखे जाने चाहिएँ। गोया कि उन्होंने अपनी अपनी हद मुक़र्रर कर ली थी और अपनी जज़्बाती मजबूरियों के तहत ख़ुद को उस तख़्लीक़ी आज़ादी से अपने आप ही महरूम कर लिया था, जो किसी फ़नपारे को ना-मा’लूम नताइज तक पहुँचाने में मुआ’विन होती है।” लिहाज़ा तक़्सीम और फ़सादाद के ज़ेर-ए-असर जो मंसूबा-बंद फ़िक्शन वजूद में आया, उसकी शक्ल कुछ इस तरह की थी,
(1) जहाँ तक मुम्किन हुआ फ़सानों में हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों को बराबर का क़सूर-वार बताया जाए।
(2) ग़ैर-जानिबदारी का तअस्सुर बर-क़रार रखा जाए।
(3) इख़्तिताम इस नुक्ते पर हुआ कि बिल-आख़िर इसी अबतरी और इंतिशार की तह से एक नए इंसान का ज़हूर होगा और इंसानियत की बहाली होगी।
बर्र-ए-सग़ीर का समाजी और ज़हनी लैंड-स्केप उस वक़्त बड़ी हद तक पहली जंग-ए-अ’ज़ीम के बा’द के यूरोप से मुमासिल था, जहाँ किसी मर्कज़ी इक़्तिदार की अदम-मौजूदगी के बा’इस अश्या अपना तवाज़ुन खो चुकी थीं। एक दूसरे से टूट रही थीं और बिखर रही थीं और तशद्दुद के इस माहौल में तख़्लीक़ी तर्ज़-ए-एहसास पर भी एक तरह की दहशत-ख़ेज़ी का साया गहरा होता जा रहा था। जैसा कि इस गुफ़्तगू में पहले अ’र्ज़ किया जा चुका है, ये इज़्तिराब-आगीं और सरासीमगी पैदा करने वाली फ़िज़ा किसी तख़्लीक़ी तजरबे की तश्कील के लिए बहुत साज़गार नहीं थी। इस फ़िज़ा में किसी भी हस्सास रूह के लिए गिर्द-ओ-पेश के वाक़िआ’त और अपने फ़नकाराना मौक़िफ़ के माबैन उस मा’रूज़ी फ़ासले को क़ाएम रखना आसान नहीं था, जो अपने जज़्बों की तंज़ीम और ज़हनी रद्द-ए-अ’मल के तनासुब के लिए है।
तक़्सीम के तजरबे पर मबनी तमाम क़ाबिल-ए-ज़िक्र नावल, आग का दरिया (क़ुर्रतुल-ऐ’न-हैदर), उदास नस्लें (अ’बदुल्लाह हुसैन), आँगन (ख़दीजा मस्तूर), बस्ती (इंतिज़ार हुसैन), तज़किरा (इंतिज़ार हुसैन), इसीलिए तक़्सीम के बरसों बा’द लिखे गए। 1947 और 1950 के दरमियान शाए’ होने वाले नावलों में क़ुर्रतुल-ऐ’न-हैदर का, ‘मेरे भी सनम-ख़ाने’, अ’ज़ीज़ अहमद का ‘ऐसी बुलंदी पस्ती’ और मुहम्मद अहसन फ़ारूक़ी का ‘शाम-ए-अवध’ एक ग़ैर-मुनक़सिम मुआ’शरे और तहज़ीबी मंज़र-नामे को अपना मौज़ू’ बनाते हैं लेकिन इनमें ज़ियादा ज़ोर मख़्लूत असालीब ज़िंदगी और क़द्रों पर मिलता है, फ़सादाद पर नहीं।
डाक्टर रोज़ी सिंह की किताब Rilke, Kafka, Manto، The semiotics of love Life and Death के तआ’रुफ़ में प्रोफ़ैसर हरजीत सिंह गिल (प्रोफ़ैसर एमरेटस, जवाहर लाल यूनीवर्सिटी) ने फ़सादाद के मौज़ू’ पर मंटो की कहानियों का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि “मंटो के लिए मज़हबी और समाजी सक़ाफ़ती माहौल का हवाला बे-मअ’नी है। वो हस्सासियत और इंसानी वक़ार के निशान, मुआ’शरे के सबसे हक़ीर किरदारों की हस्ती में भी ढूँढ निकालता है। और अगरचे उसके किरदारों का रद्द-ए-अ’मल और बरताव, हमें क़द्र-ए-मुबालग़ा-आमेज़ दिखाई देता है और एक तरह की मावरा-ए-हक़ीक़त की सत्ह तक जा पहुँचता है, लेकिन मंटो के तख़्लीक़ी मुतून हमेशा ग़ैर-मा’मूली और बे-मिसाल इंसानी डिस्कोर्स बने रहते हैं।”
अफ़सोस कि उर्दू में तक़्सीम के अदब का बहुत कम हिस्सा इस ज़ुमरे में रखा जा सकता है। 1947 की वारदात बहुत बड़ी थी। उसे अपनी तख़्लीक़ी जुस्तजू और सरगर्मी के तौर पर बरतने वाले इतने बड़े नहीं थे। या यूँ कहा जाए कि इस वारदात के तक़ाज़े, लिखने वालों से बहुत सख़्त थे। चुनाँचे गिनती के चंद अफ़साने, नज़्में, ग़ज़लें और नावल इस अ’ज़ीमुश्शान मौज़ू’ के मुतालिबात अदा कर सकते हैं। नज़्म और नस्र में किसी भी बयानिए की ता’मीर करने वाला अपनी तहरीर के अंदर भी होता है और इसके बाहर भी। वो अपने बहुत से शख़्सी, मुआ’शरती और तहज़ीबी मरहलों को उ’बूर करने के बा’द अपने तख़्लीक़ी मिंतक़े तक पहुँचता है। इसीलिए किसी ख़ास सूरत-ए-हाल के तईं हर बड़े लिखने वाले का रवैया और जवाबी रद्द-ए-अ’मल उसकी निजी मिल्कियत होता है। तक़्सीम के अदब के सियाक़ में बेदी, मंटो, क़ुर्रतुल-ऐ’न-हैदर, अ’बदुल्लाह हुसैन, इंतिज़ार हुसैन और नासिर काज़मी ने जो मुस्तक़िल हवालों की हैसियत इख़्तियार की तो इसीलिए कि उनकी निगारिशात अपने दौर की आ’मियाना फ़िक्र और तर्ज़-ए-एहसास से अलग एक शख़्सी और वजूदी सत्ह पर अपने मौज़ू’ से रिश्ता क़ाएम करती हैं।
मुम्ताज़ शीरीं ने तक़्सीम के अदब पर अपनी एंथोलोजी में कुल सतरह कहानियाँ शामिल की हैं। क़ुर्रतुल-ऐ’न-हैदर (लेकिन आशियाना जल गया), अ’ज़ीज़ अहमद (काली रात), कृश्न-चंदर (पिशावर ऐक्सप्रैस), हयातुल्लाह अंसारी (शुक्रगुज़ार आँखें), मंटो (ठंडा गोश्त और खोल दो), रामानंद सागर (भाग इन बुर्दा-फ़रोशों से), प्रेमनाथ दर (आख़ थू), सुहैल अ’ज़ीमाबादी (अँधियारे में एक किरन), उपेन्द्रनाथ अश्क (टेबल लैंड), क़ुदरतुल्लाह शहाब (या ख़ुदा), अहमद नदीम क़ासमी (परमेश्वर सिंह), अशफ़ाक़ अहमद (गडरिया), जमीला हाश्मी (बनबास), राजिंदर सिंह बेदी (लाजवंती), इ’स्मत (जड़ें) और इंतिज़ार हुसैन (बिन लिखी रज़्मिया)
इनमें मंटो की दोनों कहानियों को आ’लम-गीर शुहरत मिली। हैरानी की बात ये है कि ये दोनों कहानियाँ तक़्सीम के फ़ौरन बा’द लिखी गईं। दोनों कहानियों पर मुक़द्दमे चले और इनके हवाले से तक़्सीम के अदब पर बहसों के कई दरवाज़े खुले।
ये कहानियाँ बुनियादी तौर पर इस हक़ीक़त से पर्दा उठाती हैं कि तक़्सीम के वाक़िए’ ने इंसान की जज़्बाती और तहज़ीबी ज़िंदगी में कैसी हौलनाक उथल-पुथल पैदा कर दी थी और इंसानी फ़ितरत के कैसे-कैसे संगीन मज़ाहिर, वजूदी शख़्सियत के कैसे-कैसे मख़फ़ी गोशे इस तारीख़ी वारदात के वास्ते से सामने आए थे। इसी तरह मंटो के ‘सियाह हाशिए’ ब-ज़ाहिर आ’म ज़िंदगी से अपना मवाद अख़ज़ करते हैं लेकिन मंटो उन्हें इस तरह सामने लाता है कि सोई हुई हैरतें जाग उठती हैं। मंटो का ज़हर-ए-ख़ंद हमें सोचने पर मजबूर कर देता है और उसका क़हक़हा सुनकर हम काँप उठते हैं। ब-क़ौल इ’स्मत चुग़्ताई, “इन लतीफों को पढ़ कर रोना आ जाता है।”
दहशत और बद-हैअती की फ़िज़ा में ये हमारी जज़्बाती तंज़ीम और तख़्लीक़ी इज़्हार के एक नए उस्लूब की दरियाफ़्त थी।
‘सियाह हाशिए’ ने मज़ाह और संजीदगी के फ़र्क़ को मिटा दिया और ये उर्दू फ़िक्शन की रवायत में एक नई शे’रियात की तश्कील का तजरबा था। आ’म इंसानों के लिए ये इज्तिमाई’ दहशत और बरहमी का दौर था। सियासतदानों के लिए अपनी-अपनी मजरूह अना की कश्मकश का। ऐसा लगता है कि इस वक़्त हमारी इज्तिमाई’ ज़िंदगी सिरे से बे-सुरी हो गई थी और जज़्बाती इश्तिआ’ल के पुर-शोर माहौल में ज़िंदगी फ़ितरत के किसी उसूल, किसी क़द्र, किसी रवायत, किसी ज़ाब्ते और क़ानून को तस्लीम करने के लिए तैयार नहीं थी। मुश्तरका विरासत, इंसानी रिश्तों का निज़ाम, क़ौमी आज़ादी की हुसूलयाबी के साथ रू-नुमा होने वाली रौशनी की किरन, इनमें से किसी का एहसास बाक़ी नहीं रहा था। उस वक़्त-ए-सुब्ह आज़ादी के साथ फैलने वाला उजाला दाग़दार था और दोनों मुल्कों के लिए आज़ादी एक बुरी ख़बर। हम सब आप अपने लिए अजनबी बन गए थे। शाहिद अहमद देहलवी का रिपोर्ताज़ ‘दिल्ली बिपता’ सिर्फ़ एक शहर की बर्बादी का बयान नहीं है, हमारे पूरे इज्तिमाई’ माज़ी की बर्बादी का बयान है।
ऐसी सूरत में वाक़िआ’त और हक़ीक़ी सूरत-ए-हाल के दाएरे से ख़ुद को बाहर निकाल कर इस सब पर नज़र डालना तक़रीबन ना-मुम्किन था। सारी वारदात एक ख़ास ज़मान-ओ-मकाँ में उलझी हुई थी और इसकी सत्ह से ऊपर उठकर ख़ुद को या दूसरे इंसानों को एक तख़्लीक़ी तजरबे के तौर पर देखना एक बहुत बड़ी ज़हनी और फ़नकाराना तलाश की ज़िम्मेदारी को निभाना था। फूकोयामा का तारीख़ के ख़ात्मे (End of History) का ऐ’लान तो इस वाक़िए के तक़रीबन पचास साल बा’द (1995 में) सामने आया लेकिन हिन्दोस्तान और पाकिस्तान के लिए 1947 बरबरीयत के एक नए दौर के आग़ाज़ और इज्तिमाई’ तारीख़ के एक तवील दौर के ख़ात्मे का ऐ’लान था। लेकिन अदब की तख़्लीक़ का मक़सद, बहर-हाल सख़्त तरीन आज़माईशों की फ़िज़ा में भी आफ़ाक़ी इंसानी सदाक़तों तक पहुँचना होता है। हालात चाहे जितने ख़राब हों, एक अदबी डिस्कोर्स बहर-हाल समाजियाती, तारीख़ी, इक़्तिसादी, मज़हबी डिस्कोर्स से अलग अपनी एक ख़ास पहचान रखता है।
तख़्लीक़ी और अदबी इज़्हार और उस्लूब की गिरफ़्त में आने के बा’द अफ़राद किसी तबक़े या गिरोह में गुम नहीं हो जाते। हम इस तरह की तख़्लीक़ात का मुताला’ तारीख़ी मवाद के तौर पर या सियासी और समाजी दस्तावेज़ के तौर पर नहीं करते। बेदी की ‘लाजवंती’ या मंटो के ‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो’, ‘गुरूमुख सिंह की वसीयत’, ‘यज़ीद’, ‘टोबा टेक सिंह’ जैसी कहानियों का मुताला’ हमारे इज्तिमाई’ माज़ी या तारीख़ का मुताला’ नहीं है।
हौलनाक तशद्दुद और दहशत की तह से नुमूदार होने के बा-वजूद ये कहानियाँ इंसानी तक़दीर और तजरबे की तख़्लीक़ी दस्तावेज़ के तौर पर सामने आती हैं और किसी तरह के सियासी मौक़िफ़ की तर्जुमान नहीं बनतीं। ये इंसान, तक़्सीम और फ़सादाद को मौज़ू’ तो बनाते हैं लेकिन सिर्फ़ तक़्सीम और फ़सादाद के अदब का हिस्सा नहीं हैं। इनमें किसी तरह की जज़्बातियत का, ख़ुद-रहमी का, इंफ़िआ’लियत का, रिक़्क़त-ख़ेज़ी का गुज़र नहीं। शदीद-तरीन जज़्बाती लम्हों में भी फ़िक्री ज़िम्मेदारी का एहसास क़ाएम रहता है। यही बात इंतिज़ार हुसैन की मा’रूफ़ कहानी ‘बिन लिखी रज़्मिया’ पर भी सादिक़ आती है जिसे जदीद हिन्दोस्तान के बा’ज़ मुअर्रिख़ों (मसलन सुधीरचन्द्र) ने एक आतिश-फ़िशाँ दौर के तख़्लीक़ी माख़िज़ के तौर पर इस्ति’माल किया है और उसमें मअ’नी की कई जिहतें दरियाफ़्त की हैं।
अस्ल में तशद्दुद, दहशत, इज्तिमाई’ दीवानगी और बहीमियत के दौर की तख़्लीक़ी और फ़नकाराना ता’मीर, या ज़हनी इंतिशार की फ़िज़ा में किसी मुनज़्ज़म तख़्लीक़ी उस्लूब की ता’मीर, या इज़्हार को किसी पाएदार या जमालियाती ज़ाइक़े से हम-कनार करने का अ’मल, या एक देर-पा तअस्सुर क़ाएम करने वाली शे’रियात वज़्अ’ करने की कोशिश के मुतालिबात से ओ’हदा-बर-आ होना, ग़ैर-मा’मूल तख़्लीक़ी ज़ब्त और फ़न्नी रख-रखाव के बग़ैर मुम्किन नहीं। आरोल ने कहा था कि जंग के दौर का अदब, सहाफ़त है, या’नी ये कि शऊ’र की ऊपरी सत्हों तक महदूद और उ’जलत-पसंदी के साथ पेश किया जाने वाला, बड़ी हद तक आ’मियाना और बे-पेच या असरार के उं’सुर से तही रद्द-ए-अ’मल।
पहली जंग-ए-अ’ज़ीम के बा’द का ज़माना, जिसमें जेम्स ज्वाइस की ‘यूलेसिस’ और इलियट की ‘वेस्टलैंड’ लिखी गईं, उस दौर की वीरानी, अबतरी और अंदोह का बोझ उठाना हरकिस-ओ-नाकिस के बस की बात न थी। स्पेन की ख़ाना-जंगी के दौर की अ’क्कासी, जो इंसान की बेचारगी और बहीमियत के ग़ुरूर की तर्जुमान कही जा सके, उसके लिए पिकासो की गोइरनका का तख़्लीक़ी मुहावरा दरकार था, एक तरह का दहशत-ख़ेज़ हुस्न (terrible beauty) जो रिवायती ज़ौक़-ए-जमाल और शे’रियात से आगे, इज़्हार का एक ऐसा उस्लूब वज़्अ’ कर सके जिसमें दुरुश्तगी और जज़्बे की संगीनी का हुस्न हो, जिसमें खुरदरापन हो।
जंगें सिर्फ़ सिपाही नहीं लड़ते। तख़्लीक़ी इज़्हार का शुग़्ल इख़्तियार करने वाले भी इन तजरबों का बोझ उठाते हैं और अपनी हिस्सियत के दर्द रसीदा इ’लाक़ों से अपनी तवानाई अख़ज़ करते हैं। बेदी की ‘लाजवंती’, मंटो की ‘ठंडा गोश्त’ और ‘खोल दो’ जैसी कहानियाँ रूमानी दर्द के एहसास से यकसर ख़ाली हैं, लेकिन इन्हें पढ़ने वाला एक पल के लिए भी चैन से नहीं बैठ सकता। ये कोशिश फ़ैज़ की ज़बान में एक कड़े दर्द को गीत में ढालने की है।
मुम्ताज़ शीरीं ने अपने यादगार मज़्मून ‘फ़सादाद और हमारे अफ़साने’ में 1947 से वाबस्ता अ’हद की सूरत-ए-हाल का तज्ज़िया करते हुए लिखा था,
“फ़सादाद हमारे लिए बिल्कुल क़रीबी हक़ीक़त हैं। हौलनाक, इंतिहाई भयानक, हमारे चारों तरफ़ फैली हुई आँखों के सामने की हक़ीक़त, यही वज्ह है कि बने-गढ़े प्लाट और ख़ाली रिक़्क़त-आफ़रीनी, इ’बारत-आराई, लफ्फ़ाज़ी और तंज़ कोई असर पैदा नहीं करते, क्योंकि जिन तजरबात से गुज़रना पड़ा है वो आ’म हो चुके हैं। हमें अपने गिर्द-ओ-पेश की ज़िंदगी में हर तरफ़ फ़सादाद के भयानक असरात नज़र आते हैं। फ़सादाद ने ज़िंदगी को तह-ओ-बाला कर दिया था...”
“फ़सादाद के पीछे तो इतना वसीअ’ सियासी, तारीख़ी, मुआ’शरती पस-मंज़र है कि उस पर टाल्स्टाय के ‘जंग और अम्न’ की सी चीज़ लिखी जा सकती है। ये अलग बात है कि हम में कोई ऐसा अदीब न हो जो ऐसी चीज़ लिखे या लिख सके।”
इस मौज़ू’ पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र नावल जो भी उर्दू में लिखे गए, जैसा कि इस गुफ़्तगू में पहले अ’र्ज़ किया जा चुका है, फ़सादाद और बहीमियत का सैलाब थमने के बा’द लिखे गए। गिनती की कुछ अच्छी कहानियाँ सामने आईं जिनमें यहाँ-वहाँ कुछ वाक़िआ’त और सिचवेशन्ज़ (situations) का बयान ग़ैर-मा’मूली है औरsublime की हदों को छू लेता है। मिसाल के तौर पर मंटो के अफ़साने ‘खोल दो’ या अ’ज़ीज़ अहमद की ‘काली रात’ और हयातुल्लाह अंसारी की ‘शुक्रगुज़ार आँखें’ का इख़्तितामिया या फिर क़ुर्रतुल-ऐ’न-हैदर, अ’बदुल्लाह हुसैन, ख़दीजा मस्तूर और इंतिज़ार हुसैन के नावलों के वो हिस्से हैं जो तक़्सीम के तजरबे और लिखने वालों की अपनी हिस्सियत के दरमियान एक मा’रूज़ी फ़ासले के साथ उस वक़्त लिखे गए, जब आग और ख़ून का तमाशा ख़त्म हो चुका था और धूप सिमट चुकी थी। तशद्दुद, दहशत और दर्द की फ़िज़ा जब लिखने वालों के लिए एक डरावने ख़्वाब की याद बन चुकी थी।
नोस्टलजिया सिर्फ़ एक ज़हनी या नफ़सियाती कैफ़ियत ही नहीं, एक जमालियाती ज़ाइक़े, एक तख़्लीक़ी तर्ज़-ए-एहसास की तलाश भी है। तक़्सीम के अदब का सबसे नुमाइंदा और वक़ीअ’ हिस्सा वही है जो एक पुर-तशद्दुद माहौल के बख़्शे हुए तजरबे की बाज़-दीद और इस तजरबे के पैदा-कर्दा इज़्तिराब की बाज़याबी पर मबनी है।
किसी ख़ूँ-चकाँ मंज़र की हैबत और अज़ीयत को समझने के लिए उसे क़द्र-ए-दूर से देखना ज़रूरी है। इस ज़िम्न में मंटो की हैसियत इस्तिसनाई है कि उसने तशद्दुद के तजरबे से ज़मानी और मकानी क़ुर्बत के बा-वजूद, शायद अपनी तख़्लीक़ी सरिशत की संगीनी और अपनी ख़ुदा-दाद सलाहियत के बा’इस अपने आपको हालात से मग़्लूब नहीं होने दिया। अपने आपको हर नौ’ की जज़्बातियत से, छिचली रूमानियत से और रिक़्क़त-ख़ेज़ी से बचाए रखा। जिसने ज़ालिम और मज़लूम के फेर में पड़ने के बजाए, अपने किरदारों को सिर्फ़ इंसान के तौर पर देखने और समझने से ग़रज़ रखी। 'सियाह हाशिए’ की इशाअ’त के बा’द ग़ालिबन उसके पहले तफ़्सीली तब्सिरे में डाक्टर आफ़ताब अहमद ने लिखा था,
“मंटो ने ग़ैर-मा’मूली हालात में मा’मूली बातों को नुमायाँ करके ज़िंदगी में उनकी गहरी मा’नवियत का एहसास दिलाया है। फ़सादाद के बारे में मंटो को इंसान की बरबरीयत, उसकी मज़लूमी और बेबसी ने मुतास्सिर नहीं किया, क्योंकि ये सब अपनी शिद्दत के बा-वजूद इंसानी रूह की हंगामी कैफ़ियात हैं। उसे अगर मुतास्सिर किया है तो उन ब-ज़ाहिर ग़ैर-अहम और मा’मूली बातों ने जो मुख़्तलिफ़ इंसानों के शऊ’र में बुनियादी हैसियत रखती हैं। उनके ख़ून में रची हुई और हंगामी कैफ़ियात की शिद्दत के बा-वजूद बार-बार उभर आती हैं। कभी वो उसकी बुलंदी की आईना-दार होती हैं और कभी उसकी पस्ती की, मगर बहर-सूरत उसकी इंसानियत की।”
ये रवैया हमें नज़ीर अकबराबादी की नज़्म “आदमी-नामा” की याद दिलाता है, जो नज़ीर की मख़्सूस अर्ज़ियत और उं’सुरी सादगी के साथ इंसानी वजूद के मुख़्तलिफ़ ज़ावियों और जिहतों से पर्दा उठाती है। हर बड़े इंसानी अलमिए की तरह तक़्सीम और फ़सादाद के दौर का तजरबा भी एक पुर-पेच तजरबा था। इसके तवस्सुत से इंसानी वजूद के मुतज़ाद और एक दूसरे से यकसर मुख़्तलिफ़ मज़ाहिर सामने आए। इस हवाले से ये सवाल भी उठाया गया है कि फ़सादाद के बारे में लिखने वला क्या सिर्फ़ एक अदीब की हैसियत से लिख रहा होता है? एक शहरी की हैसियत से उसका रोल उसके अदबी मंसब पर असर-अंदाज़ होता है या नहीं? ज़ाहिर है कि इंसान मुआ’शरे में एक साथ एक से ज़ियादा सत्हों पर ज़िंदगी बसर करता है। फ़सादाद के मौज़ू’ पर बहुत सी तख़्लीक़ात नज़्म-ओ-नस्र की मुख़्तलिफ़ सिन्फ़ों में, ऐसी भी हैं जिनमें इंसानी मुक़द्दरात सियासी और फ़िर्का-वाराना तक़्सीम में उलझे हुए दिखाई देते हैं और लिखने वाले का इज़्हार-ओ-अ’मल, उसकी सरगर्मी के ग़ैर-अदबी मसाइल से बार-बार मुतसादिम और मग़्लूब होता है।
लेकिन सियासत, मज़हब, मईशत की तरह अदब और तख़्लीक़ी इज़्हार की एक अपनी लफ़्ज़ियात होती है। अदब और आर्ट की तख़्लीक़ करने वाला अव्वल-ओ-आख़िर इसी लफ़्ज़ियात का पाबंद है। उसका रोल बहर-हाल एक समाजी मुफ़क्किर, एक सियासत-दाँ, एक समाजी मुसल्लेह के रोल से अलग है। उसके रोल की पहचान उसके अपने दाएरा-ए-कार और उसकी तख़्लीक़ी हुनर-मंदी के वास्ते से होगी। इसी वज्ह से तक़्सीम के अदब और इज्तिमाई’ तशद्दुद के सियाक़ में हम तक पहुँचने वाली बेहतरीन तहरीरें वही हैं जो लिखने वाले की अदबी हैसियत से मशरूत हैं और एक ऐसी शे’रियात, एक ऐसे जमालियाती तजरबे, इज़्हार-ओ-उस्लूब के एक ऐसे निज़ाम को अपना मे’यार बनाती हैं जो लिखने वाले की हैसियत से उसका ए’तिबार क़ाएम कर सकें। इन तहरीरों में इंसान की हैसियत एक मर्कज़ी किरदार की है। इसके बा-वजूद उनमें किसी तरह का आदर्शवाद नहीं। वा’ज़-ओ-पंद की कोई कोशिश की, कोई अख़्लाक़ पोज़ नहीं है। उनमें फ़नकाराना इदराक की वो सत्ह मिलती है जहाँ नेकी और बदी दोनों का शऊ’र एक साथ पढ़ने वाले तक पहुँचता है और उसे इंसानी हस्ती की वहदत, एक तरह की गहरी अख़लाक़ी मुसावात के एहसास तक ले जाता है।
इसीलिए ये तख़्लीक़ात हमसे सिर्फ़ जज़्बात की ज़मीन पर मुकालमा क़ाएम नहीं करतीं, हमें इंसानी वजूद और हस्ती के असरार से भी मुतआरिफ़ कराती हैं और हमें अपने माज़ी और हाल के इ’लावा मुस्तक़बिल की बाबत सोचने का एक रास्ता भी दिखाती हैं। ब-ज़ाहिर आ’म और हक़ीर दिखाई देने वाले किरदार, बड़े और ग़ैर-मा’मूली मुआ’शरती मसअलों की निशान-दही करते हैं और इसी तरह सिर्फ़ तारीख़ के लिए नहीं बल्कि हमारी इंसान-फ़हमी के लिए भी एक फ्रेमवर्क मुहय्या करते हैं। मैं इस मा’रूज़े पर अपनी गुफ़्तगू ख़त्म करना चाहता हूँ कि अदब तारीख़ी सूरत-ए-हाल का बयान नहीं होता बल्कि बजा-ए-ख़ुद तारीख़ के पस-मंज़र में जनम लेने वाला एक क़ाएम बिल-ज़ात वाक़िआ’ होता है। हम 1947 के तशद्दुद को भूल जाएँ जब भी उस पुर-तशद्दुद दौर के साए से निकल कर हम तक पहुँचने वाले ये अदब-पारे, हमारे हाफ़िज़े पर दस्तक देते रहेंगे। तक़्सीम के अदब का नुमाइंदा हिस्सा वही है जो हमारे इज्तिमाई’ माज़ी की एक वारदात को हाल से और हाल को मुस्तक़बिल से मिलाता है और हमें ये एहसास दिलाता है कि,
आज भी बज़्म में हैं रफ़्ता-ओ-आईंदा के लोग
हर ज़माने में हैं मौजूद ज़माने सारे
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