आदिल मंसूरी
ग़ज़ल 38
नज़्म 42
अशआर 47
मेरे टूटे हौसले के पर निकलते देख कर
उस ने दीवारों को अपनी और ऊँचा कर दिया
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किस तरह जमा कीजिए अब अपने आप को
काग़ज़ बिखर रहे हैं पुरानी किताब के
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वो कौन था जो दिन के उजाले में खो गया
ये चाँद किस को ढूँडने निकला है शाम से
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कोई ख़ुद-कुशी की तरफ़ चल दिया
उदासी की मेहनत ठिकाने लगी
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जो चुप-चाप रहती थी दीवार पर
वो तस्वीर बातें बनाने लगी
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