अख़्तर सईद ख़ान के शेर
किस जुर्म-ए-आरज़ू की सज़ा है ये ज़िंदगी
ऐसा तो ऐ ख़ुदा मैं गुनहगार भी नहीं
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किस को फ़ुर्सत थी कि 'अख़्तर' देखता मेरी तरफ़
मैं जहाँ जिस बज़्म में जब तक रहा तन्हा रहा
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ये बस्ती इस क़दर सुनसान कब थी
दिल-ए-शोरीदा थक कर सो गया क्या
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आ कि मैं देख लूँ खोया हुआ चेहरा अपना
मुझ से छुप कर मिरी तस्वीर बनाने वाले
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ना-उमीदी हर्फ़-ए-तोहमत ही सही क्या कीजिए
तुम क़रीब आते नहीं हो और ख़ुदा मिलता नहीं
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खुली आँखों नज़र आता नहीं कुछ
हर इक से पूछता हूँ वो गया क्या
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किसी के तुम हो किसी का ख़ुदा है दुनिया में
मिरे नसीब में तुम भी नहीं ख़ुदा भी नहीं
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बहुत क़रीब रही है ये ज़िंदगी हम से
बहुत अज़ीज़ सही ए'तिबार कुछ भी नहीं
मिरा फ़साना हर इक दिल का माजरा तो न था
सुना भी होगा किसी ने तो क्या सुना होगा
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हम ने माना इक न इक दिन लौट के तू आ जाएगा
लेकिन तुझ बिन उम्र जो गुज़री कौन उसे लौटाएगा
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टैग : विदाई
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निगाहें मुंतज़िर हैं किस की दिल को जुस्तुजू क्या है
मुझे ख़ुद भी नहीं मालूम मेरी आरज़ू क्या है
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तू कहानी ही के पर्दे में भली लगती है
ज़िंदगी तेरी हक़ीक़त नहीं देखी जाती
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टैग : ज़िंदगी
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इसी मोड़ पर हम हुए थे जुदा
मिले हैं तो दम भर ठहर जाइए
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चराग़ ले के उसे ढूँडने चला हूँ मैं
जो आफ़्ताब की मानिंद इक उजाला है
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कौन जीने के लिए मरता रहे
लो सँभालो अपनी दुनिया हम चले
मैं सफ़र में हूँ मगर सम्त-ए-सफ़र कोई नहीं
क्या मैं ख़ुद अपना ही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हूँ क्या हूँ
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टैग : सफ़र
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सफ़र ही शर्त-ए-सफ़र है तो ख़त्म क्या होगा
तुम्हारे घर से उधर भी ये रास्ता होगा
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बंद कर दे कोई माज़ी का दरीचा मुझ पर
अब इस आईने में सूरत नहीं देखी जाती
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टैग : माज़ी
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बहें न आँख से आँसू तो नग़्मगी बे-सूद
खिलें न फूल तो रंगीनी-ए-फ़ुग़ाँ क्या है
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टैग : आँख
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ज़िंदगी क्या हुए वो अपने ज़माने वाले
याद आते हैं बहुत दिल को दुखाने वाले
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टैग : याद
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ये दश्त वो है जहाँ रास्ता नहीं मिलता
अभी से लौट चलो घर अभी उजाला है
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टैग : घर
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बंद रक्खोगे दरीचे दिल के यारो कब तलक
कोई दस्तक दे रहा है उठ के देखो तो सही
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ज़माना इश्क़ के मारों को मात क्या देगा
दिलों के खेल में ये जीत हार कुछ भी नहीं
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ये बे-सबब नहीं आए हैं आँख में आँसू
ख़ुशी का लम्हा कोई याद आ गया होगा
हर मौज गले लग के ये कहती है ठहर जाओ
दरिया का इशारा है कि हम पार उतर जाएँ
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मुझे अब देखती है ज़िंदगी यूँ बे-नियाज़ाना
कि जैसे पूछती हो कौन हो तुम जुस्तुजू क्या है
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टैग : बेनियाज़ी
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दुश्मन-ए-जाँ ही सही साथ तो इक उम्र का है
दिल से अब दर्द की रुख़्सत नहीं देखी जाती
ज़िंदगी छीन ले बख़्शी हुई दौलत अपनी
तू ने ख़्वाबों के सिवा मुझ को दिया भी क्या है
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