अली जवाद ज़ैदी के शेर
जिन हौसलों से मेरा जुनूँ मुतमइन न था
वो हौसले ज़माने के मेयार हो गए
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अब न वो शोरिश-ए-रफ़्तार न वो जोश-ए-जुनूँ
हम कहाँ फँस गए यारान-ए-सुबुक-गाम के साथ
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अब दर्द में वो कैफ़ियत-ए-दर्द नहीं है
आया हूँ जो उस बज़्म-ए-गुल-अफ़्शाँ से गुज़र के
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ये दुश्मनी है साक़ी या दोस्ती है साक़ी
औरों को जाम देना मुझ को दिखा दिखा के
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टैग : साक़ी
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एक तुम्हारी याद ने लाख दिए जलाए हैं
आमद-ए-शब के क़ब्ल भी ख़त्म-ए-सहर के बाद भी
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मोनिस-ए-शब रफ़ीक़-ए-तन्हाई
दर्द-ए-दिल भी किसी से कम तो नहीं
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मुद्दतों से ख़लिश जो थी जैसे वो कम सी हो चली
आज मिरे सवाल का मिल ही गया जवाब क्या
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नज़्ज़ारा-ए-जमाल की फ़ुर्सत कहाँ मिली
पहली नज़र नज़र की हदों से गुज़र गई
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ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें
अब तो हम वो हैं जिसे अपने भी बेगाना कहें
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दिखा दी मैं ने वो मंज़िल जो इन दोनों के आगे है
परेशाँ हैं कि आख़िर अब कहें क्या कुफ़्र ओ दीं मुझ से
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हिज्र की रात ये हर डूबते तारे ने कहा
हम न कहते थे न आएँगे वो आए तो नहीं
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दिल में जो दर्द है वो निगाहों से है अयाँ
ये बात और है न कहें कुछ ज़बाँ से हम
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गुफ़्तुगू के ख़त्म हो जाने पर आया ये ख़याल
जो ज़बाँ तक आ नहीं पाया वही तो दिल में था
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लज़्ज़त-ए-दर्द मिली इशरत-ए-एहसास मिली
कौन कहता है हम उस बज़्म से नाकाम आए
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टैग : दर्द
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हार के भी नहीं मिटी दिल से ख़लिश हयात की
कितने निज़ाम मिट गए जश्न-ए-ज़फ़र के बाद भी
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दयार-ए-सज्दा में तक़लीद का रिवाज भी है
जहाँ झुकी है जबीं उन का नक़्श-ए-पा तो नहीं
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शौक़-ए-मंज़िल हम-सफ़र है जज़्बा-ए-दिल राहबर
मुझ पे ख़ुद भी खुल नहीं पाता किधर जाता हूँ मैं
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जब छेड़ती हैं उन को गुमनाम आरज़ुएँ
वो मुझ को देखते हैं मेरी नज़र बचा के
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ऐश ही ऐश है न सब ग़म है
ज़िंदगी इक हसीन संगम है
पी तो लूँ आँखों में उमडे हुए आँसू लेकिन
दिल पे क़ाबू भी तो हो ज़ब्त का यारा भी तो हो
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हम अहल-ए-दिल ने मेयार-ए-मोहब्बत भी बदल डाले
जो ग़म हर फ़र्द का ग़म है उसी को ग़म समझते हैं
हैं वजूद-ए-शय में पिन्हाँ अज़ल ओ अबद के रिश्ते
यहाँ कुछ नहीं दो रोज़ा कोई शय नहीं है फ़ानी
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जब कभी देखा है ऐ 'ज़ैदी' निगाह-ए-ग़ौर से
हर हक़ीक़त में मिले हैं चंद अफ़्साने मुझे
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आँखों में लिए जल्वा-ए-नैरंग-ए-तमाशा
आई है ख़िज़ाँ जश्न-ए-बहाराँ से गुज़र के
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दिल का लहू निगाह से टपका है बार-हा
हम राह-ए-ग़म में ऐसी भी मंज़िल से आए हैं
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मिरे हाथ सुलझा ही लेंगे किसी दिन
अभी ज़ुल्फ़-ए-हस्ती में ख़म है तो क्या ग़म
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ग़ज़ब हुआ कि इन आँखों में अश्क भर आए
निगाह-ए-यास से कुछ और काम लेना था
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