मोहम्मद दीन तासीर के शेर
ये दलील-ए-ख़ुश-दिली है मिरे वास्ते नहीं है
वो दहन कि है शगुफ़्ता वो जबीं कि है कुशादा
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ये डर है क़ाफ़िले वालो कहीं न गुम कर दे
मिरा ही अपना उठाया हुआ ग़ुबार मुझे
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हुज़ूर-ए-यार भी आँसू निकल ही आते हैं
कुछ इख़्तिलाफ़ के पहलू निकल ही आते हैं
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वो मिले तो बे-तकल्लुफ़ न मिले तो बे-इरादा
न तरीक़-ए-आश्नाई न रुसूम-ए-जाम-ओ-बादा
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रब्त है हुस्न ओ इश्क़ में बाहम
एक दरिया के दो किनारे हैं
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जिस तरह हम ने रातें काटी हैं
उस तरह हम ने दिन गुज़ारे हैं
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दावर-ए-हश्र मिरा नामा-ए-आमाल न देख
इस में कुछ पर्दा-नशीनों के भी नाम आते हैं
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हमें भी देख कि हम आरज़ू के सहरा में
खिले हुए हैं किसी ज़ख़्म-ए-आरज़ू की तरह
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टैग : आरज़ू
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