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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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Munawwar Rana

1952 - 2024 | Lucknow, India

Popular poet having dominating presence in mushairas.

Popular poet having dominating presence in mushairas.

Quotes of Munawwar Rana

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परहेज़ दुनिया की सबसे कारगर दवा है लेकिन सबसे कम इस्तेमाल होती है।

नींद तो उस नाज़ुक-मिज़ाज बच्ची की तरह है जो सबकी गोद में नहीं जाती।

मैं ने ग़ुर्बत के दिनों में भी बीवी को हमेशा ऐसे रखा है जैसे मुक़द्दस किताबों में मोर के पर रखे जाते हैं।

उर्दू मुशायरों की हवेली देखते देखते ही कैसी वीरान होती जा रही है। हवेली की मुंडेरों पर रखे हुए चराग़ एक-एक करके बुझते जा रहे हैं। ऐवान-ए-अदब की तरफ़ ले जाती हुई सबसे ख़ूबसूरत, पुर-विक़ार और पुर-कशिश पगडंडी कितनी सुनसान हो चुकी है। ख़ुदा करे किसी भी ज़बान पर ये बुरा वक़्त आए, कोई कुंबा ऐसे बिखरे, किसी ख़ानदान का इतनी तेज़ी से सफ़ाया हो, किसी क़बीले की ये दुर्दशा हो। अभी कल की बात है कि मुशायरे का स्टेज किसी भरे-पुरे दिहात की चौपाल जैसा था, स्टेज पर रौनक़-अफ़रोज़ मोहतरम शो'अरा किसी देव-मालाई किरदार मा'लूम होते थे। इन ज़िंदा किरदारों की मौजूदगी में तहज़ीब इस तरह फलती-फूलती थी जैसे बरसात के दिनों में इश्क़-ए-पेचाँ ऊँची-ऊँची दीवारों का सफ़र तय करता है।

थकन मौत की पहली दस्तक का नाम है।

शादी के घर में सुकून ढूँढना रेलवे स्टेशन पर अस्ली मिनरल वाटर ढूँढने की तरह होता है।

अस्पताल आदमी को ज़िंदा रखने की आख़िरी कोशिश का नाम है।

हम सब सर्कस के उस जोकर का रोल अदा कर रहे हैं जो हँसाने के लिए रोता है और रुलाने के लिए खिल्खिला कर हँस देता है।

शादी वाले घर में हर शख़्स मस्रूफ़ दिखाई देता है, जिसके पास कुछ काम नहीं होता वो ज़ियादा ही मसरूफ़ दिखाई देता है।

उर्दू हिन्दुस्तानी नस्ल की वो लड़की है जो अपने सलोने हुस्न और मिठास भरे लहजे की ब-दौलत सारी दुनिया में महबूब-ओ-मक़बूल है।

सच पूछें तो शाइ'री वो नहीं होती जिसे आप मिस्रों में क़ैद कर लेते हैं। बल्कि अस्ल शाइ'री तो वो होती है जिसकी ख़ुश्बू आपके किरदार से आती है।

शाइ'री तो वो सब्र है जिसका बाँध कभी-कभी तो सदियों के बाद टूटता है।

मौत, बीमारी और डॉक्टर से नजात ना-मुम्किन है।

डॉक्टर और क़साई दोनों काट-पीट करते हैं लेकिन एक ज़िंदगी बचाने के लिए ये सब करता है जब्कि दूसरा ज़िंदगी को ख़त्म करने के लिए।

पस्ती की तरफ़ जाती हुई किसी भी क़ौम का पहला क़दम अपनी ज़बान को रौंदने के लिए उठता है।

गाँव में किसी को पानी पिलाने से पहले मिठाई नहीं तो कम-अज़-कम गुड़ ज़रूर पेश किया जाता है। जब कि शहरों में पानी पच्चीस पैसे फ़ी-गिलास मिलता है। ये फ़र्क़ होता है कुँए के मीठे पानी और शहर के पाइपों के पानी में।

मशक़्क़त की रोटी में सबसे ज़ियादा नशा होता है क्योंकि मशक़्क़त की रोटी के ख़मीर से ख़ुदा की ख़ुश्बू आती है।

आज भी गाँव में एक आदमी की मौत को गाँव की मौत समझा जाता है। मर्हूम के साथ क़ब्रिस्तान तक सारा गाँव जाता है। लेकिन शहर में शरीक-ए-ग़म होना दूर की बात है। काँधा भी उसी जनाज़े को देते हैं जिसके लवाहिक़ीन से दामे-दिरमे कोई फ़ाएदा पहुँचने वाला हो।

ज़िंदगी आँखों में ख़्वाबों की सुनह्री फ़स्ल उगाए ता'बीरों की बारिश की मुंतज़िर रहती है और एक एक दिन थक जाती है।

एक तल्ख़ हक़ीक़त ये भी है कि ज़बान वही मुस्तनद और मक़बूल होती है जो हाकिम की होती है। महकूम की कोई ज़बान नहीं होती।

दुनिया अगर सिर्फ़ डॉक्टरों के कहने पर चलना शुरू कर दे तो सारी दुनिया के कारोबार ठप पड़ जाएँ।

अस्पताल की लिफ़्ट भी इतनी सुस्त-रफ़्तार होती है कि बजाए बिजली के ऑक्सीजन से चलती हुई महसूस होती है।

शाइ'री करना कुँए में नेकियाँ फेंकने जैसा अ'मल है। शाइ'री तो वो इम्तिहान है जिसका नतीजा आते-आते कई नस्लें मर-खप चुकी होती हैं।

ख़ाकसारी वो ने'अमत है जो पेशानी पर ख़ुश्-नसीबी का सूरज उगा देती है।

साईंस अपने वजूद की आहट को सूर-ए-इस्राफ़ील साबित करने के लिए चाँद पर चर्ख़ा कातती हुई बुढ़िया के पास पहुँच गई लेकिन ज़िंदगी रोज़ शिकरे के पंजे में दबी गौरय्या की तरह फड़फड़ा कर आँखें बंद कर लेती है।

ग़ीबत और पान का रिश्ता बहुत पुराना है।

मुशायरा कभी अदब की तरसील और नौ-उ'म्रों की ज़ेहनी तर्बियत की जगह था। लेकिन अब सिर्फ़ जज़्बात भड़काने की जगह है।

मुसलमानों की रिश्तेदारियाँ भी रेशम की उलझी डोर की तरह होती हैं। सुलझाने से और ज़ियादा उलझने का ख़त्रा रहता है।

आज तक डॉकटरी वो मुक़द्दस पेशा है जिसके ए'तिबार की चादर के नीचे बाप अपनी बेटी, भाई अपनी जवान बहन को तन्हा छोड़ देता है। हर-चंद कि इस पेशे में भी कुछ ख़राब लोग गए हैं मगर ख़राब लोगों से कैसे और कहाँ बचा जा सकता है। क्योंकि ये तो मस्जिद और मंदिरों में भी मंडलाते हुए मिल जाते हैं।

उर्दू हिन्दुस्तानी तहज़ीब की वो चादर है जिसके चारों कोनों को इसके नाम-निहाद मुहाफ़िज़ अपनी ख़ुद-ग़र्ज़ियों के दाँतों से कुतर रहे हैं।

उर्दू अदब में पैदा होने वाले तक़रीबन सभी ख़ुद-साख़्ता ख़ुदाओं से मुझे इख़्तिलाफ़ ही नहीं बल्कि नफ़रत भी रही है।

अ'ज़ीम हिन्दुस्तान वो आईना-ख़ाना है जिसमें दुनिया की मुहज़्ज़ब कौमें अपना सरापा देख सकती हैं।

उर्दू तन्क़ीद का सबसे बड़ा मस्अ'ला यही रहा है कि जिस पर लिखा जाना चाहिए था उस पर नहीं लिखा जा रहा है और जिस पर लिखा जा रहा है वो लिखे जाने के लाएक़ नहीं।

आज पूरे बर्र-ए-सग़ीर में उर्दू के इतने वफ़ादार भी नहीं मिलेंगे जितने जाँ-निसारों की ज़रूरत दौरान-ए-जंग एक-आध सरहदी चौकी के लिए पड़ती है।

उर्दू को हर ज़माने में लश्करी ज़बान के ख़िताब से नवाज़ा जाता रहा है। लेकिन ये अफ़सोस का मक़ाम है कि इसकी तरवीज-ओ-तरक़्क़ी के लिए जंगी पैमाने पर कभी काम नहीं हुआ। ग़ालिबन इसकी वजह यही रही होगी कि उस लश्कर की कमान ऐसे लोगों के हाथों में रही है जो या तो ख़ुद बैसाखी लेकर चलते रहे हों या उन्हें ऐसे वक़्त में कमान-दारी सौंपी गई जब उनकी कमर ख़ुद ज़'ईफ़ी, बीमारी और एहसास-ए-कम्तरी का शिकार हो चुकी थी।

इक़्तिदार जब्र-ओ-तशद्दुद से नहीं बल्कि हिक्मत-ए-अ'मली और इल्म से हासिल होता है।

मुशायरों में आजकल नक़्ली कलाम दवाओं से ज़ियादा इस्तिमाल हो रहा है।

उर्दू वालों ने तख़्लीक़ से ज़ियादा तन्क़ीदी खुसर-पुसर में अपना क़ीमती वक़्त ज़ाए'अ किया है।

इंटरनेट की मदद से अंग्रेज़ी अदब के दो-चार बे-रब्त लेकिन भारी-भरकम जुमलों का तर्जुमा करके उर्दू अदब में फ़र्ज़ी रो'अब गाँठने वाले फ़ार्मी अंडों की तरह इतने नाक़िद पैदा हो रहे हैं कि तन्क़ीद से अदब को फ़ाएदे का इम्कान ही ख़त्म हो गया है।

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