सय्यद ज़मीर जाफ़री के शेर
हम ने कितने धोके में सब जीवन की बर्बादी की
गाल पे इक तिल देख के उन के सारे जिस्म से शादी की
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बहन की इल्तिजा माँ की मोहब्बत साथ चलती है
वफ़ा-ए-दोस्ताँ बहर-ए-मशक़्कत साथ चलती है
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अब इक रूमाल मेरे साथ का है
जो मेरी वालिदा के हाथ का है
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टैग : माँ
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एक लम्हा भी मसर्रत का बहुत होता है
लोग जीने का सलीक़ा ही कहाँ रखते हैं
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हँस मगर हँसने से पहले सोच ले
ये न हो फिर उम्र भर रोना पड़े
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दर्द में लज़्ज़त बहुत अश्कों में रानाई बहुत
ऐ ग़म-ए-हस्ती हमें दुनिया पसंद आई बहुत
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उन का दरवाज़ा था मुझ से भी सिवा मुश्ताक़-ए-दीद
मैं ने बाहर खोलना चाहा तो वो अंदर खुला
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जितना बढ़ता गया शुऊ'र-ए-हुनर
ख़ुद को उतना ही बे-हुनर जाना
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ज़ाहिद ख़ुदी-फ़रोश तो वाइ'ज़ ख़ुदा-फ़रोश
दोनों बुज़ुर्ग मेरी नज़र से गुज़र गए
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