अब्दुर्रहीम नश्तर के शेर
देख रहा था जाते जाते हसरत से
सोच रहा होगा मैं उस को रोकूँगा
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वो सो रहा है ख़ुदा दूर आसमानों में
फ़रिश्ते लोरियाँ गाते हैं उस के कानों में
मैं तेरी चाह में झूटा हवस में सच्चा हूँ
बुरा समझ ले मगर दूसरों से अच्छा हूँ
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आवाज़ दे रहा है अकेला ख़ुदा मुझे
मैं उस को सुन रहा हूँ हवाओं के कान से
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मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी
एक पत्थर ने रवाँ धार किया है मुझ को
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पान के ठेले होटल लोगों का जमघट
अपने तन्हा होने का एहसास भी क्या
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टैग : पान
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वो अजनबी तिरी बाँहों में जो रहा शब भर
किसे ख़बर कि वो दिन भर कहाँ रहा होगा
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फटे पुराने बदन से किसे ख़रीद सकूँ
सजे हैं काँच के पैकर बड़ी दुकानों में
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पत्थर ने पुकारा था मैं आवाज़ की धुन में
मौजों की तरह चारों तरफ़ फैल गया हूँ
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उस ने चलते चलते लफ़्ज़ों का ज़हराब
मेरे जज़्बों की प्याली में डाल दिया
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अपनी ही ज़ात के सहरा में सुलगते हुए लोग
अपनी परछाईं से टकराए हय्यूलों से मिले
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कुछ मधुर तानें फ़ज़ा में थरथरा कर रह गईं
धान के खेतों में चंचल पंछियों का शोर था
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टैग : खेत
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फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से
कोई पुकारता है मुझे आसमान से
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