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Abul Hasanat Haqqi's Photo'

अबुल हसनात हक़्क़ी

कानपुर, भारत

अबुल हसनात हक़्क़ी के शेर

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ये बात अलग है किसी धारे पे नहीं है

दुनिया किसी कमज़ोर इशारे पे नहीं है

दूर रहता है मगर जुम्बिश-ए-लब बोस-ओ-कनार

डूबता रहता है दरिया में किनारा क्या क्या

मैं क़त्ल हो के भी शर्मिंदा अपने-आप से हूँ

कि इस के बाद तो सारा ज़वाल है उस का

ज़मीर-ए-ख़ाक शह-ए-दो-सरा में रौशन है

मिरा ख़ुदा मिरे हर्फ़-ए-दुआ में रौशन है

मैं अपनी माँ के वसीले से ज़िंदा-तर ठहरूँ

कि वो लहू मिरे सब्र-ओ-रज़ा में रौशन है

वो बे-ख़बर है मिरी जस्त-ओ-ख़ेज़ से शायद

ये कौन है जो मुक़ाबिल मिरे खड़ा हुआ है

बदन ख़ुद अपनी ही तज्सीम कर नहीं पाते

क़रीब आया तो आँखों को ख़्वाब मैं ने दिया

कभी वो ख़ुश भी रहा है कभी ख़फ़ा हुआ है

कि सारा मरहला तय मुझ से बरमला हुआ है

कभी ख़ाली मिला बू-ए-हम-नफ़स से दिमाग़

तमाम बाग़ में जैसे कोई छुपा हुआ है

अपने मंज़र से अलग होता नहीं है कोई रंग

अपनी आँखों के सिवा बाद-ए-बहारी और क्या

बजती हुई ख़ून की रवानी

ख़्वाहिश की गिरफ़्त में बदन है

ये सच है उस से बिछड़ कर मुझे ज़माना हुआ

मगर वो लौटना चाहे तो फिर ज़माना भी क्या

शब को हर रंग में सैलाब तुम्हारा देखें

आँख खुल जाए तो दरिया किनारा देखें

जाने क्या सूरत-ए-हालात रक़म थी उस में

जो वरक़ चाक हुआ उस को दोबारा देखें

मेरे जुनूँ का सिलसिला मरहला-वार हो गया

पहले ज़मीन बुझ गई बा'द में आसमाँ बुझा

नक़्श तो सारे मुकम्मल हैं अब उलझन ये है

किस को आबाद करे और किसे वीरानी दे

मुझे भी रफ़्ता रफ़्ता गया है

ख़ुद अपने काम को दुश्वार करना

'हक़्क़ी'-ए-दिल-गिरफ़्ता के बस में जाने कब नहीं

हिज्र में शाद-काम था वस्ल के दरमियाँ बुझा

दीवार का बोझ बाम पर है

ये घर भी हुआ ख़राब कैसा

मैं अपने ज़हर से वाक़िफ़ हूँ वो समझता नहीं

है मेरे कीसा-ए-सद-काम में शराफ़त भी

बे-नियाज़-ए-दहर कर देता है इश्क़

बे-ज़रों को लाल-ओ-ज़र देता है इश्क़

मुझ को दरवेश समझने वाला

ख़ुश-गुमानी का सिला चाहता है

वो एक डूबती आवाज़-ए-बाज़-गश्त कि

सवाल मैं ने किया था जवाब मैं ने दिया

वो मेहरबान नहीं है तो फिर ख़फ़ा होगा

कोई तो राब्ता उस को बहाल रखना है

मेरी वहशत भी सकूँ-ना-आश्ना मेरी तरह

मेरे क़दमों से बंधी है ज़िम्मेदारी और क्या

ये इज्ज़ है कि क़नाअत है कुछ नहीं खुलता

बहुत दिनों से वो ख़ैर-ओ-ख़बर से बाहर है

ख़ुद अपनी लौह-ए-तमन्ना पे खिल के देखूँगा

किसी के जब्र ने लिक्खा था राएगाँ मुझ को

फूल की पत्ती पे कोई ज़ख़्म डाल

आइने में रंग का इज़हार कर

वो कश्ती से देते थे मंज़र की दाद

सो हम ने भी घर को सफ़ीना किया

वो रहा था मगर मैं निकल गया कहीं और

सौ ज़ख़्म-ए-हिज्र से बढ़ कर अज़ाब मैं ने दिया

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