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अम्बर बहराईची

1949 - 2021 | लखनऊ, भारत

विख्यात संस्कृत विद्वान, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

विख्यात संस्कृत विद्वान, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

अम्बर बहराईची के शेर

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हर इक नदी से कड़ी प्यास ले के वो गुज़रा

ये और बात कि वो ख़ुद भी एक दरिया था

ये सच है रंग बदलता था वो हर इक लम्हा

मगर वही तो बहुत कामयाब चेहरा था

मेरा कर्ब मिरी तन्हाई की ज़ीनत

मैं चेहरों के जंगल का सन्नाटा हूँ

बाहर सारे मैदाँ जीत चुका था वो

घर लौटा तो पल भर में ही टूटा था

जाने क्या सोच के फिर इन को रिहाई दे दी

हम ने अब के भी परिंदों को तह-ए-दाम किया

जाने क्या बरसा था रात चराग़ों से

भोर समय सूरज भी पानी पानी है

चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं

अब जीने के ढंग बड़े ही महँगे हैं

इक शफ़्फ़ाफ़ तबीअत वाला सहराई

शहर में रह कर किस दर्जा चालाक हुआ

जान देने का हुनर हर शख़्स को आता नहीं

सोहनी के हाथ में कच्चा घड़ा था देखते

हर फूल पे उस शख़्स को पत्थर थे चलाने

अश्कों से हर इक बर्ग को भरना था हमें भी

एक सन्नाटा बिछा है इस जहाँ में हर तरफ़

आसमाँ-दर-आसमाँ-दर-आसमाँ क्यूँ रत-जगे हैं

आम के पेड़ों के सारे फल सुनहरे हो गए

इस बरस भी रास्ता क्यूँ रो रहा था देखते

हम पी भी गए और सलामत भी हैं 'अम्बर'

पानी की हर इक बूँद में हीरे की कनी थी

रोज़ हम जलती हुई रेत पे चलते ही थे

हम ने साए में खजूरों के भी आराम किया

एक साहिर कभी गुज़रा था इधर से 'अम्बर'

जा-ए-हैरत कि सभी उस के असर में हैं अभी

सूप के दाने कबूतर चुग रहा था और वो

सेहन को महका रही थी सुन्नतें पढ़ते हुए

उस ने हर ज़र्रे को तिलिस्म-आबाद किया

हाथ हमारे लगी फ़क़त हैरानी है

गए थे हम भी बहर की तहों में झूमते हुए

हर एक सीप के लबों में सिर्फ़ रेगज़ार था

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