अमीक़ हनफ़ी के शेर
दोनों का मिलना मुश्किल है दोनों हैं मजबूर बहुत
उस के पाँव में मेहंदी लगी है मेरे पाँव में छाले हैं
फूल खिले हैं लिखा हुआ है तोड़ो मत
और मचल कर जी कहता है छोड़ो मत
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एक उसी को देख न पाए वर्ना शहर की सड़कों पर
अच्छी अच्छी पोशाकें हैं अच्छी सूरत वाले हैं
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सिगरेट जिसे सुलगता हुआ कोई छोड़ दे
उस का धुआँ हूँ और परेशाँ धुआँ हूँ मैं
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इश्क़ के हिज्जे भी जो न जानें वो हैं इश्क़ के दावेदार
जैसे ग़ज़लें रट कर गाते हैं बच्चे स्कूल में
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उन आँखों में डाल कर जब आँखें उस रात
मैं डूबा तो मिल गए डूबे हुए जहाज़
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टैग : आँख
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सुकूत तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का इक गराँ लम्हा
बना गया है सदाओं का सिलसिला मुझ को
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आता हूँ मैं ज़माने की आँखों में रात दिन
लेकिन ख़ुद अपनी नज़रों से अब तक निहाँ हूँ मैं
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घर के दुखड़े शहर के ग़म और देस बिदेस की चिंताएँ
इन में कुछ आवारा कुत्ते हैं कुछ हम ने पाले हैं
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हर घड़ी इक नया तक़ाज़ा है
दर्द-ए-सर बन गया बदन मेरा
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रंज-ओ-ग़म उठाए हैं फ़िक्र-ओ-फ़न भी पाए हैं
ज़िंदगी को जितना भी जी सके जिया हम ने
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कभी हरम में है काफ़िर तो दैर में मोमिन
न जाने क्या दिल-ए-दीवाना तेरा मज़हब है
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ख़्वाब जो देखे न थे उन की सज़ा तो मिल गई
बारहा देखा जिन्हें उन का सिला मिलता नहीं
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छूते ही आशाएँ बिखरीं जैसे सपने टूट गए
किस ने अटकाए थे ये काग़ज़ के फूल बबूल में
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वो जब मुझ को देख रही थी मैं ने उस को देख लिया था
बस इतनी सी बात थी लेकिन बढ़ते बढ़ते कितनी बढ़ी है
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दिल है वीरान बयाबाँ की तरह
गोशा-ए-शहर-ए-ख़मोशाँ की तरह
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दिल में दुख आँखों में नमी आसमाँ पर घटाएँ
अंदर बाहर इस ओर उस ओर हर ओर बादल
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बे-सूरत बे-जिस्म आवाज़ें अंदर भेज रही हैं हवाएँ
बंद हैं कमरे के दरवाज़े लेकिन खिड़की खुली हुई है
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करता हूँ तवाफ़ अपना तो मिलती है नई राह
क़िबला भी है ये ज़ात मिरा क़िबला-नुमा भी
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ख़्वाहिशों की बिजलियों की जलती बुझती रौशनी
खींचती है मंज़रों में नक़्शा-ए-आसाब सा
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