आमिर उस्मानी के शेर
चंद अल्फ़ाज़ के मोती हैं मिरे दामन में
है मगर तेरी मोहब्बत का तक़ाज़ा कुछ और
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बाक़ी ही क्या रहा है तुझे माँगने के बाद
बस इक दुआ में छूट गए हर दुआ से हम
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आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का ग़म कैसा
आदमी मोहब्बत में सब को भूल जाता है
इश्क़ के मराहिल में वो भी वक़्त आता है
आफ़तें बरसती हैं दिल सुकून पाता है
सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के
वो लोग फिर भी ग़नीमत हैं जो पराए हैं
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ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ
वो यहीं से लौट जाए जिसे ज़िंदगी हो पियारी
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उस के वादों से इतना तो साबित हुआ उस को थोड़ा सा पास-ए-तअल्लुक़ तो है
ये अलग बात है वो है वादा-शिकन ये भी कुछ कम नहीं उस ने वादे किए
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मिरी ज़िंदगी का हासिल तिरे ग़म की पासदारी
तिरे ग़म की आबरू है मुझे हर ख़ुशी से प्यारी
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हमें आख़िरत में 'आमिर' वही उम्र काम आई
जिसे कह रही थी दुनिया ग़म-ए-इश्क़ में गँवा दी
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ज़ाहिरन तोड़ लिया हम ने बुतों से रिश्ता
फिर भी सीने में सनम-ख़ाना बसा है यारो
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कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ
वो तबस्सुम जो हक़ीक़त में फ़ुग़ाँ होता है
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इश्क़ सर-ता-ब-क़दम आतिश-ए-सोज़ाँ है मगर
उस में शोला न शरारा न धुआँ होता है
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अक़्ल थक कर लौट आई जादा-ए-आलाम से
अब जुनूँ आग़ाज़ फ़रमाएगा इस अंजाम से
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थी सियाहियों का मस्कन मिरी ज़िंदगी की वादी
तिरे हुस्न के तसद्दुक़ मुझे रौशनी दिखा दी
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