अंजुम इरफ़ानी के शेर
चराग़ चाँद शफ़क़ शाम फूल झील सबा
चुराईं सब ने ही कुछ कुछ शबाहतें तेरी
हम फ़ना-नसीबों को और कुछ नहीं आता
ख़ूँ शराब कर लेना जिस्म जाम कर लेना
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कोई पुराना ख़त कुछ भूली-बिसरी याद
ज़ख़्मों पर वो लम्हे मरहम होते हैं
सफ़र में हर क़दम रह रह के ये तकलीफ़ ही देते
बहर-सूरत हमें इन आबलों को फोड़ देना था
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तेशा-ब-कफ़ को आइना-गर कह दिया गया
जो ऐब था उसे भी हुनर कह दिया गया
लहजे का रस हँसी की धनक छोड़ कर गया
वो जाते जाते दिल में कसक छोड़ कर गया
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अदा हुआ न कभी मुझ से एक सज्दा-ए-शुक्र
मैं किस ज़बाँ से करूँगा शिकायतें तेरी
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उधर सच बोलने घर से कोई दीवाना निकलेगा
उधर मक़्तल में इस्तिक़बाल की तय्यारियाँ होंगी
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सर-ए-राह मिल के बिछड़ गए था बस एक पल का वो हादसा
मिरे सेहन-ए-दिल में मुक़ीम है वही एक लम्हा अज़ाब का
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इस ने देखा है सर-ए-बज़्म सितमगर की तरह
फूल फेंका भी मिरी सम्त तो पत्थर की तरह
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लौट कर यक़ीनन मैं एक रोज़ आऊँगा
पलकों पे चराग़ों का एहतिमाम कर लेना
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आबादियों में कैसे दरिंदे घुस आए हैं
मक़्तल गली गली है हर इक घर लहू लहू
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लम्हे लम्हे में हुआ जाता हूँ रेज़ा रेज़ा
वजह कुछ मुझ से न पूछो मिरे रब से पूछो
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आया था पिछली रात दबे पाँव मेरे घर
पाज़ेब की रगों में झनक छोड़ कर गया
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मिरी नज़र में आ गया है जब से इक सहीफ़ा-रुख़
कशिश रही न दिल में अब किसी किताब के लिए
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यक-ब-यक जाँ से गुज़रना तो है आसाँ 'अंजुम'
क़तरा क़तरा कई क़िस्तों में पिघल कर देखें
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बात कुछ होगी यक़ीनन जो ये होते हैं निसार
हम भी इक रोज़ किसी शम्अ पे जल कर देखें
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क्या अजब है कि ये मुट्ठी में हमारी आ जाए
आसमाँ की तरफ़ इक बार उछल कर देखें
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याद है क़िस्सा-ए-ग़म का मुझे हर लफ़्ज़ अभी
हाल जिस दर्द का जिस रंज का जब से पूछो
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मुट्ठी से फिसले ही जाते हैं हर फल
वस्ल के लम्हे तार-ए-रेशम होते हैं
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पलकों पे जुगनुओं का बसेरा है वक़्त-ए-शाम
'अंजुम' मैं पानियों में चमक छोड़ कर गया
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दर्द-ए-दिल बाँटता आया है ज़माने को जो अब तक 'अंजुम'
कुछ हुआ यूँ कि वही दर्द से दो-चार हुआ चाहता है
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हर चेहरा हर रंग में आने लगता है
पेश-ए-नज़र यादों के अल्बम होते हैं
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