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अनवर साबरी

1901 - 1985 | दिल्ली, भारत

विद्वान, स्वतंत्रता सेनानी और वक्ता, अपनी शायरी में सूफीवाद और मस्तानगी के लिए मशहूर

विद्वान, स्वतंत्रता सेनानी और वक्ता, अपनी शायरी में सूफीवाद और मस्तानगी के लिए मशहूर

अनवर साबरी के शेर

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ज़ुल्मतों में रौशनी की जुस्तुजू करते रहो

ज़िंदगी भर ज़िंदगी की जुस्तुजू करते रहो

निगाह-ओ-दिल से गुज़री दास्ताँ तक बात जा पहुँची

मिरे होंटों से निकली और कहाँ तक बात जा पहुँची

मैं जो रोया उन की आँखों में भी आँसू गए

हुस्न की फ़ितरत में शामिल है मोहब्बत का मिज़ाज

लपका है बगूला सा अभी उन की तरफ़ को

शायद किसी मजबूर की आहों का धुआँ था

तसव्वुर के सहारे यूँ शब-ए-ग़म ख़त्म की मैं ने

जहाँ दिल की ख़लिश उभरी तुम्हें आवाज़ दी मैं ने

वक़्त जब करवटें बदलता है

फ़ित्ना-ए-हश्र साथ चलता है

जीने वाले तिरे बग़ैर दोस्त

मर जाते तो और क्या करते

हासिल-ए-ग़म यही समझते हैं

मौत को ज़िंदगी समझते हैं

उफ़ वो आँखें मरते दम तक जो रही हैं अश्क-बार

हाए वो लब उम्र भर जिन पर हँसी देखी नहीं

आया है कोई पुर्सिश-ए-अहवाल के लिए

पेश आँसुओं की आप भी सौग़ात कीजिए

आप करते जो एहतिराम-ए-बुताँ

बुत-कदे ख़ुद ख़ुदा ख़ुदा करते

दे कर नवेद-ए-नग़्मा-ए-ग़म साज़-ए-इश्क़ को

टूटे हुए दिलों की सदा हो गए हो तुम

इश्क़ की आग मआज़-अल्लाह

कभी दब सकी दबाने से

मुझे तस्लीम है क़ैद-ए-क़फ़स से मौत बेहतर है

नशेमन पर हुजूम-ए-बर्क़-ओ-बाराँ कौन देखेगा

मोहब्बत है अज़ल के दिन से शामिल मेरी फ़ितरत में

बिला तफ़रीक़ शैख़ बरहमन से इश्क़ है मुझ को

तमाम उम्र क़फ़स में गुज़ार दी हम ने

ख़बर नहीं कि नशेमन की ज़िंदगी क्या है

जब ज़माने का ग़म उठा सके

हम ही ख़ुद उठ गए ज़माने से

मेरी निगाह-ए-फ़िक्र में 'अनवर'

इश्क़ फ़साना हुस्न है उर्यां

शामिल हो गर ग़म की ख़लिश ज़िंदगी के साथ

रक्खे कोई रब्त-ए-मोहब्बत किसी के साथ

मायूस हो बे-रुख़ी-ए-चश्म-ए-जहाँ से

शाइस्ता-ए-एहसास कोई काम किए जा

जफ़ा जौर-ए-मुसलसल वफ़ा ज़ब्त-ए-अलम

वो इख़्तियार तुम्हें है ये इख़्तियार मुझे

मुमकिन है मिरे बाद भुला दें मुझे लेकिन

ता उम्र उन्हें मेरी वफ़ा याद रहेगी

अता-ए-ग़म पे भी ख़ुश हूँ मिरी ख़ुशी क्या है

रज़ा तलब जो नहीं है वो बंदगी क्या है

अल्लाह अल्लाह ये फ़ज़ा-ए-दुश्मन-ए-मेहर-ओ-वफ़ा

आश्ना के नाम से होता है बरहम आश्ना

उफ़ वो मासूम हया-रेज़ निगाहें जिन पर

क़त्ल के बाद भी इल्ज़ाम नहीं आता है

रोज़ आपस में लड़ा करते हैं अर्बाब-ए-ख़िरद

कोई दीवाना उलझता नहीं दीवाने से

मुमकिन है मिल ही जाए मक़ाम-ए-सुकूँ कहीं

ता मर्ग हम-रिकाब रहो ज़िंदगी के साथ

लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका मेरे बाद

कोई आया ही नहीं आबला-पा मेरे बाद

शब-ए-फ़िराक़ की ज़ुल्मत है ना-गवार मुझे

नक़ाब उठा कि सहर का है इंतिज़ार मुझे

जिस को तेरे अलम से निस्बत है

हम उसी को ख़ुशी समझते हैं

आदमियत के सिवा जिस का कोई मक़्सद हो

उम्र भर उस आदमी की जुस्तुजू करते रहो

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