अनवर साबरी के शेर
ज़ुल्मतों में रौशनी की जुस्तुजू करते रहो
ज़िंदगी भर ज़िंदगी की जुस्तुजू करते रहो
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निगाह-ओ-दिल से गुज़री दास्ताँ तक बात जा पहुँची
मिरे होंटों से निकली और कहाँ तक बात जा पहुँची
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मैं जो रोया उन की आँखों में भी आँसू आ गए
हुस्न की फ़ितरत में शामिल है मोहब्बत का मिज़ाज
लपका है बगूला सा अभी उन की तरफ़ को
शायद किसी मजबूर की आहों का धुआँ था
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तसव्वुर के सहारे यूँ शब-ए-ग़म ख़त्म की मैं ने
जहाँ दिल की ख़लिश उभरी तुम्हें आवाज़ दी मैं ने
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वक़्त जब करवटें बदलता है
फ़ित्ना-ए-हश्र साथ चलता है
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टैग : वक़्त
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जीने वाले तिरे बग़ैर ऐ दोस्त
मर न जाते तो और क्या करते
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हासिल-ए-ग़म यही समझते हैं
मौत को ज़िंदगी समझते हैं
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उफ़ वो आँखें मरते दम तक जो रही हैं अश्क-बार
हाए वो लब उम्र भर जिन पर हँसी देखी नहीं
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आया है कोई पुर्सिश-ए-अहवाल के लिए
पेश आँसुओं की आप भी सौग़ात कीजिए
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आप करते जो एहतिराम-ए-बुताँ
बुत-कदे ख़ुद ख़ुदा ख़ुदा करते
दे कर नवेद-ए-नग़्मा-ए-ग़म साज़-ए-इश्क़ को
टूटे हुए दिलों की सदा हो गए हो तुम
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इश्क़ की आग ऐ मआज़-अल्लाह
न कभी दब सकी दबाने से
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मुझे तस्लीम है क़ैद-ए-क़फ़स से मौत बेहतर है
नशेमन पर हुजूम-ए-बर्क़-ओ-बाराँ कौन देखेगा
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मोहब्बत है अज़ल के दिन से शामिल मेरी फ़ितरत में
बिला तफ़रीक़ शैख़ ओ बरहमन से इश्क़ है मुझ को
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तमाम उम्र क़फ़स में गुज़ार दी हम ने
ख़बर नहीं कि नशेमन की ज़िंदगी क्या है
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जब ज़माने का ग़म उठा न सके
हम ही ख़ुद उठ गए ज़माने से
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मेरी निगाह-ए-फ़िक्र में 'अनवर'
इश्क़ फ़साना हुस्न है उर्यां
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शामिल हो गर न ग़म की ख़लिश ज़िंदगी के साथ
रक्खे न कोई रब्त-ए-मोहब्बत किसी के साथ
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मायूस न हो बे-रुख़ी-ए-चश्म-ए-जहाँ से
शाइस्ता-ए-एहसास कोई काम किए जा
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जफ़ा ओ जौर-ए-मुसलसल वफ़ा ओ ज़ब्त-ए-अलम
वो इख़्तियार तुम्हें है ये इख़्तियार मुझे
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मुमकिन है मिरे बाद भुला दें मुझे लेकिन
ता उम्र उन्हें मेरी वफ़ा याद रहेगी
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अता-ए-ग़म पे भी ख़ुश हूँ मिरी ख़ुशी क्या है
रज़ा तलब जो नहीं है वो बंदगी क्या है
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अल्लाह अल्लाह ये फ़ज़ा-ए-दुश्मन-ए-मेहर-ओ-वफ़ा
आश्ना के नाम से होता है बरहम आश्ना
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उफ़ वो मासूम ओ हया-रेज़ निगाहें जिन पर
क़त्ल के बाद भी इल्ज़ाम नहीं आता है
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रोज़ आपस में लड़ा करते हैं अर्बाब-ए-ख़िरद
कोई दीवाना उलझता नहीं दीवाने से
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मुमकिन है मिल ही जाए मक़ाम-ए-सुकूँ कहीं
ता मर्ग हम-रिकाब रहो ज़िंदगी के साथ
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लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका मेरे बाद
कोई आया ही नहीं आबला-पा मेरे बाद
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शब-ए-फ़िराक़ की ज़ुल्मत है ना-गवार मुझे
नक़ाब उठा कि सहर का है इंतिज़ार मुझे
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जिस को तेरे अलम से निस्बत है
हम उसी को ख़ुशी समझते हैं
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आदमियत के सिवा जिस का कोई मक़्सद न हो
उम्र भर उस आदमी की जुस्तुजू करते रहो
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