अज़हर हाश्मी सबक़त के शेर
दवाम पाएगा इक रोज़ हक़ ज़माने में
ये इंतिज़ार नहीं इंतिज़ार-ए-वहशत है
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कहीं सुराग़ नहीं है किसी भी क़ातिल का
लहूलुहान मगर शहर का नज़ारा है
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उसी पे सब्र है मुझ को हर एक दौर यहाँ
बहार आने से पहले ख़िज़ाँ से गुज़रा है
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मिलती है ख़ुशी सब को जैसे ही कहीं से भी
भूली हुइ बचपन की तस्वीर निकलती है
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सज्दे का सबब जान के शीरीं है परेशाँ
फ़रहाद ने कह डाला के रब ढूँड रहा हूँ
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बस रंज की है दास्ताँ उन्वान हज़ारों
जीने के लिए मर गए इंसान हज़ारों
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कोई हयात ज़माने को है अज़ीज़ बहुत
कोई हयात है कि रोज़ रोज़ मरती है
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मिरे वजूद का मेहवर चमकता रहता है
इसी सनद से मुक़द्दर चमकता रहता है
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देखा नहीं जिस ने मिरे तूफ़ाँ को सुकूँ में
वो शख़्स मिरी रूह के अंदर नहीं उतरा
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जिस ख़ाक से कहते हो वफ़ा हम नहीं करते
सोए हैं उसी ख़ाक में सुल्तान हज़ारों
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ये तमन्ना है ख़ुदा आलम-ए-हस्ती में तिरे
मैं अयाँ देखना चाहूँ तो निहाँ तक देखूँ
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इतनी न इंतिशार की हिद्दत हो रू-ब-रू
इंसाँ ग़म-ए-हयात में जलता दिखाई दे
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ख़ुदा की रज़ा है न हासिल किसी को
ख़ुदा के लिए पर लड़ाई बहुत है
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गुमान कहता है के मैं यक़ीं का शाइ'र हूँ
यक़ीन कहता है के मैं गुमाँ का शाइ'र हूँ
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ये जो बेहाल सा मंज़र ये जो बीमार से हम तुम
सियासत की नवाज़िश है किसी से कुछ नहीं बोलें
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