यासीनआतिर के शेर
मैं आंधियों से लड़ा था इस ए'तिमाद के साथ
दरख़्त टूट भी जाए तो काम आता है
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एक हल्की सी भी आहट हो तो डर जाता है
शेर की खाल को दहलीज़ पे रखने वाला
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बदन की खाल को कपड़ों से ढाँप कर रखिए
हमें तो क़ीमती पोशाक को बचाना है
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न जाने कौन सी ग़ुर्बत है मेरी आँखों में
कि उस बदन में ख़ज़ाने तलाश करता हूँ
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मैं अपनी ज़ात में ख़ुद से झगड़ता रहता हूँ
वो चाहता है रहूँ उस की हुक्मरानी में
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एक दो घोंट में कर डालेगा ख़ाली तुम को
तुम जो दरिया हो तो सहरा से न टक्कर लेना
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ऐ ज़िंदगी तू मिरे हौसले की दाद तो दे
मैं उठ के रोज़ नया दिन गले लगाता हूँ
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रेत बन कर मिरी मुट्ठी से फिसल जाती है
अब मोहब्बत भी सँभाली नहीं जाती मुझ से
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तुम्हें हमेशा ज़रूरत पकड़ के लाती है
कभी तो आओ मिरे घर मिरे हवाले से
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मैं चाहता था मिरा इश्क़ ला-ज़वाल रहे
सो मग़्फ़िरत की दुआ माँगता रहा कल रात
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जाँच लेती हैं मोहब्बत की निगाहें पल में
नाप ले कर तो स्वेटर नहीं बुनते जानाँ
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तुम से अब मेरा त'अल्लुक़ सिर्फ़ इतना है कि बस
रोज़ मौसम देख लेता हूँ तुम्हारे शहर का
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अपने दुश्मन को भी मोहब्बत दे
इश्क़ के दाएरे को वुसअ'त दे
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ख़्वाब सच्चा हो तो मुबहम नहीं रहता 'आतिर'
दिल वो यूसुफ़ है कि ता'बीर बता देता है
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अब उस को लोग सितारा-शनास कहते हैं
दुकाँ ख़रीद ली तोते की फ़ाल वाले ने
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मस्त हसीन लोगों में ढूँडिए वफ़ादारी
ख़ुशनुमा दरख़्तों पर फल नहीं लगा करते
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अब आ गया हूँ तो दिल में उतार लेना मुझे
बुला के पास मुझे राएगाँ न कर देना
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फिर ये ग़ुर्बत नहीं करती है तआ'क़ुब उस का
जब कोई शख़्स मोहब्बत को कमाने निकले
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आप सीने में छुपाते हैं मोहब्बत अपनी
हम को दीवार के पीछे भी नज़र आता है
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मैं ख़ुद को भी नहीं इतना मयस्सर
वो सौ फ़ीसद तवज्जोह चाहता है
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तमाम शहर ही जोगी समझ रहा है मुझे
तुम्हारे ध्यान की माला गले में क्या पहनी
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मैं तो गुमनाम था कम-क़द्र था और ख़ाक-बसर
इक तिरे इश्क़ ने तौक़ीर बढ़ा दी मेरी
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सफ़र में कैसे मोहब्बत से साथ रहते हैं
सबक़ ये मैं ने परिंदों की डार से सीखा
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फिर से दो चार समुंदर के थपेड़ों ने मुझे
ये बताया कि मिरी माँ थी जज़ीरा जैसी
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दिल के अंदर यूँ छुपा रक्खा है इक तेरा ख़याल
जैसे इक बीज में पोशीदा शजर रहता है
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तिरी गिरफ़्त मिरा मर्तबा बढ़ाती है
मुझे तू अपनी मोहब्बत में मुब्तला रखना
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दफ़्तर-ए-हुस्न सजा रक्खा है उस ने 'आतिर'
वो ग़ज़ल को मिरी अर्ज़ी की तरह पढ़ता है
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