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Farhan Hanif Warsi's Photo'

फ़रहान हनीफ़ वारसी

1966 | मुंबई, भारत

फ़रहान हनीफ़ वारसी के शेर

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जिस की ख़ातिर सभी रिश्तों से हुआ था मुंकिर

अब सुना है कि वही शख़्स ख़फ़ा है मुझ से

वो एक मोड़ जहाँ वो कभी मिला था मुझे

उस एक मोड़ पर उस को जुदा भी होना था

अभी मुझ में बहुत हिम्मत है लेकिन

किसी हारे हुए लश्कर में हूँ मैं

और क्या देंगे हम तुझे जानाँ

ज़िंदगी तेरे नाम करते हैं

मुझ से बिछड़ा है मगर ये भी सोचा तू ने

इस क़दर टूट के फिर कौन तुझे चाहेगा

तुम्ही ने राह में इक घर बसा लिया वर्ना

मोहब्बतों का सफ़र तो तवील था जानाँ

हमारी चाहतें सच हैं मगर हालात का दरिया

मुझे इस पार रखता है तुझे उस पार रखता है

सब्त है मेरे लबों पर आज भी तेरा वो लम्स

आज भी है तेरे ख़्वाबों का बसेरा आँख में

ये रस्ता तो सीधा उस के घर तक जा कर रुकता है

मेरे आवारा क़दमो किस रुख़ पर ले आए तुम

रोज़ मुझ को वो याद आता है

रोज़ मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ

ये घटा जाम और तन्हाई

याद आता है बेवफ़ा कोई

उस से मिलने का बहाना चाहे

दिल वही दर्द पुराना चाहे

वो मेरे नाम करे अपनी ख़ुशबुएँ इर्साल

मैं उस के नाम करूँ अपनी शाइ'री सोचूँ

परिंदे सो गए जा के घरों में

शजर जंगल में फिर क्यूँ जागता है

मुतमइन है ये मेरी क़ौम बहुत

तू भी कुछ ख़ुश-गुमानियाँ दे जा

उस का अंदाज़ रूठ जाने का

है बहाना क़रीब आने का

वरक़ वरक़ हैं यहाँ हादसात-ए-रोज़-ओ-शब

किताब-ए-ज़ीस्त मैं मंसूब अब करूँ किस से

वो आँखों से उतर आया है दिल में

इसी मंज़र के पस-मंज़र में हूँ मैं

रात भर कोई सूरज दहकता लगे

मेरी आँखों के ये नूर आँसू अजब

ये और बात कि भूलेगा ख़द्द-ओ-ख़ाल मगर

वो मुझ को याद रखेगा किसी कथा की तरह

दिलों के मेल से आगे लबों के सिलसिले सारे

जो लब ख़ामोश होते हैं तो आँखें बात करती हैं

अव्वल अव्वल तो इस को सब दिलचस्पी से पढ़ते हैं

जैसे मेरा चेहरा भी अख़बार का कोई कॉलम हो

मैं भी सपने दर आने के सब रस्ते मसदूद करूँ

तुम भी आँखें बंद करना वस्ल का मौसम आने तक

हर सोचता दिमाग़ हर इक देखती नज़र

लम्हों की भाग-दौड़ में शामिल है इन दिनों

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