फ़ारूक़ बाँसपारी के शेर
मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी
तिरे सामने है तूफ़ाँ मिरे सामने किनारा
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अल्लाह के बंदों की है दुनिया ही निराली
काँटे कोई बोता है तो उगते हैं गुलिस्ताँ
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मिरी ज़िंदगी का महवर यही सोज़-ओ-साज़-ए-हस्ती
कभी जज़्ब-ए-वालहाना कभी ज़ब्त-ए-आरिफ़ाना
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किसी की राह में 'फ़ारूक़' बर्बाद-ए-वफ़ा हो कर
बुरा क्या है कि अपने हक़ में अच्छा कर लिया मैं ने
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नदीम तारीख़-ए-फ़तह-ए-दानिश बस इतना लिख कर तमाम कर दे
कि शातिरान-ए-जहाँ ने आख़िर ख़ुद अपनी चालों से मात खाई
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यक़ीं मुझे भी है वो आएँगे ज़रूर मगर
वफ़ा करेगी कहाँ तक कि ज़िंदगी ही तो है
ग़म-ए-इश्क़ ही ने काटी ग़म-ए-इश्क़ की मुसीबत
इसी मौज ने डुबोया इसी मौज ने उभारा
सितारों से शब-ए-ग़म का तो दामन जगमगा उठ्ठा
मगर आँसू बहा कर हिज्र के मारों ने क्या पाया
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टैग : आँसू
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