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फ़ारूक़ नाज़की

1940 | श्रीनगर, भारत

फ़ारूक़ नाज़की के शेर

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भटक जाता अगर ज़ात के बयाबाँ में

तो मेरा नक़्श-ए-क़दम मेरा राहबर होता

काँच के अल्फ़ाज़ काग़ज़ पर रख

संग-ए-मअ'नी बन के टकराऊँगा मैं

मैं हूँ 'मुज़्तर' बदन की नगरी में

मेरे हिस्से में ला-मकाँ लिखना

क़द्रों की हदें तोड़ नई तरह निकाल

दम तुझ में अगर है तो बाग़ी हो जा

हिसार-ए-ख़ौफ़-ओ-हिरास में है बुतान-ए-वहम-ओ-गुमाँ की बस्ती

मुझे ख़बर ही नहीं कि अब मैं जुनूब में या शुमाल में हूँ

सुना है लोग वहाँ मुझ से ख़ार खाते हैं

फ़साना आम जहाँ मेरी बेबसी का है

सितारे बोती रहीं नींद से तही आँखें

इधर ये हाल कि दामन भी तर नहीं होता

जब कोई नौजवान मरता है

आरज़ू का जहान मरता है

जुनूँ-आसार मौसम का पता कोई नहीं देगा

तुझे दश्त-ए-तन्हाई सदा कोई नहीं देगा

बहकी हुई रूहों को तसल्ली दे कर

खोए हुए अज्साम की जन्नत हो जा

तू ख़ुदा है तो बजा मुझ को डराता क्यूँ है

जा मुबारक हो तुझे तेरे करम का साया

मुझ से क्या पूछते हो नाम पता

मैं तो बस आप का ही साया हूँ

संग-परस्तों की बस्ती में शीशा-गरों की ख़ैर नहीं है

जिन की आँखें नूर से ख़ाली उन के दिल हैं आहन आहन

आप की तस्वीर थी अख़बार में

क्या सबब है आप घर जाते नहीं

अब फ़क़ीरी में कोई बात नहीं

हश्मत-ओ-जाह-ओ-कर्र-ओ-फ़र दे दे

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