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Faza Ibn e Faizi's Photo'

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

1923 - 2009 | मऊनाथ भंजन, भारत

शायरी में एक आज़ाद सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध

शायरी में एक आज़ाद सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी के शेर

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आँखों के ख़्वाब दिल की जवानी भी ले गया

वो अपने साथ मेरी कहानी भी ले गया

ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना

आया हम को बरहना गुज़ारिशें लिखना

अच्छा हुआ मैं वक़्त के मेहवर से कट गया

क़तरा गुहर बना जो समुंदर से कट गया

ज़िंदगी ख़ुद को इस रूप में पहचान सकी

आदमी लिपटा है ख़्वाबों के कफ़न में ऐसा

उस की क़ुर्बत का नशा क्या चीज़ है

हाथ फिर जलते तवे पर रख दिया

शख़्सियत का ये तवाज़ुन तेरा हिस्सा है 'फ़ज़ा'

जितनी सादा है तबीअत उतना ही तीखा हुनर

वक़्त ने किस आग में इतना जलाया है मुझे

जिस क़दर रौशन था मैं उस से सिवा रौशन हुआ

एक दिन ग़र्क़ कर दे तुझे ये सैल-ए-वजूद

देख हो जाए पानी कहीं सर से ऊँचा

मुझे तराश के रख लो कि आने वाला वक़्त

ख़ज़फ़ दिखा के गुहर की मिसाल पूछेगा

किस तरह उम्र को जाते देखूँ

वक़्त को आँखों से ओझल कर दे

जला है शहर तो क्या कुछ कुछ तो है महफ़ूज़

कहीं ग़ुबार कहीं रौशनी सलामत है

हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला

किताब का कोई दर्स मो'तबर निकला

किसी लम्हे तो ख़ुद से ला-तअल्लुक़ भी रहो लोगो

मसाइल कम नहीं फिर ज़िंदगी भर सोचते रहना

वो मेल-जोल हुस्न बसीरत में अब कहाँ

जो सिलसिला था फूल का पत्थर से कट गया

हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते

दौलत-ए-सुख़न ले कर बे-फ़राग़ हैं यारो

यूँ मआनी से बहुत ख़ास है रिश्ता अपना

ज़िंदगी कट गई लफ़्ज़ों को ख़बर करने में

तलाश-ए-मअ'नी-ए-मक़्सूद इतनी सहल थी

मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ उतरता गया बहुत गहरा

अब मुनासिब नहीं हम-अस्र ग़ज़ल को यारो

किसी बजती हुई पाज़ेब का घुंघरू लिखना

ख़बर मुझ को नहीं मैं जिस्म हूँ या कोई साया हूँ

ज़रा इस की वज़ाहत धूप की चादर पे लिख देना

पलकों पर अपनी कौन मुझे अब सजाएगा

मैं हूँ वो रंग जो तिरे पैकर से कट गया

ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'

नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा

कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़

पुरानी बात हुई चुस्त बंदिशें लिखना

लोग मुझ को मिरे आहंग से पहचान गए

कौन बदनाम रहा शहर-ए-सुख़न में ऐसा

नुत्क़ से लब तक है सदियों का सफ़र

ख़ामुशी ये दुख भला झेलेगी क्या

तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो

ऐसे पस-मंज़र में क्या रहना सर-ए-मंज़र तो

लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा

यहाँ भी काम अर्ज़-ए-हुनर से निकलेगा

शब-गज़ीदा को तिरे इस की ख़बर ही कब थी

दिन जो आएगा ग़म-ए-ला-मुतनाही देगा

तुझे हवस हो जो मुझ को हदफ़ बनाने की

मुझे भी तीर की सूरत कमाँ में रख देना

ये तमाशा दीदनी ठहरा मगर देखेगा कौन

हो गए हम राख तो दस्त-ए-दुआ रौशन हुआ

देखना हैं खेलने वालों की चाबुक-दस्तियाँ

ताश का पत्ता सही मेरा हुनर तेरा हुनर

'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत

मेरे लफ़्ज़ों से उफ़ुक़ इक दूसरा रौशन हुआ

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