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मुफ़्लिसी पर शेर

मुफ़्लिसी से शायद आप

न गुज़रे हों लेकिन इंसानी समाज का हिस्सा होने की वजह से इस का एहसास तो कर सकते हैं। अगर कर सकते हैं तो अंदाज़ा होगा कि मुफ़्लिसी किस क़दर जाँ-सोज़ होती है और साथ ही एक मुफ़्लिस आदमी के तईं समाज का रवैय्या क्या होता है वो किस तरह समाजी अलाहदगी का दुख झेलता है। हमारा ये शेअरी इंतिख़ाब मुफ़्लिस और मुफ़्लिसी के मसाइल पर एक तख़लीक़ी मुकालिमा है आप उसे पढ़िए और ज़िंदगी का नया शऊर हासिल कीजिए।

फ़रिश्ते कर उन के जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं

वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं

मुनव्वर राना

चमन में ख़ुश्क-साली पर है ख़ुश सय्याद कि अब ख़ुद

परिंदे पेट की ख़ातिर असीर-ए-दाम होते हैं

सदा अम्बालवी

ग़ुर्बत की तेज़ आग पे अक्सर पकाई भूक

ख़ुश-हालियों के शहर में क्या कुछ नहीं किया

इक़बाल साजिद

खिलौनों की दुकानो रास्ता दो

मिरे बच्चे गुज़रना चाहते हैं

अज्ञात

ग़म की दुनिया रहे आबाद 'शकील'

मुफ़लिसी में कोई जागीर तो है

शकील बदायूनी

बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था

भूक में ज़हरीली रोटी भी मीठी लगती है

बेकल उत्साही

भूक चेहरों पे लिए चाँद से प्यारे बच्चे

बेचते फिरते हैं गलियों में ग़ुबारे बच्चे

बेदिल हैदरी

जो मेरे गाँव के खेतों में भूक उगने लगी

मिरे किसानों ने शहरों में नौकरी कर ली

आरिफ़ शफ़ीक़

उस के हाथ में ग़ुब्बारे थे फिर भी बच्चा गुम-सुम था

वो ग़ुब्बारे बेच रहा हो ऐसा भी हो सकता है

सय्यद सरोश आसिफ़

देव परी के क़िस्से सुन कर

भूके बच्चे सो लेते हैं

अतीक़ इलाहाबादी

खिलौनों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे

तुझे मुफ़्लिसी कोई बहाना ढूँड लेना है

मुनव्वर राना

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ

मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही हो

जाँ निसार अख़्तर

खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए

सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को

नज़ीर बाक़री

मुफ़लिसी सब बहार खोती है

मर्द का ए'तिबार खोती है

वली मोहम्मद वली

मुफ़्लिसी भूक को शहवत से मिला देती है

गंदुमी लम्स में है ज़ाइक़ा-ए-नान-ए-जवीं

अब्दुल अहद साज़

वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से

गली में फिर खिलौने बेचने वाला जाए

मोहसिन नक़वी

मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में

अपनी घर-वाली को इक कंगन दिलाने के लिए

ज़फ़र गोरखपुरी

मुफ़्लिसी सीं अब ज़माने का रहा कुछ हाल नईं

आसमाँ चर्ख़ी के जूँ फिरता है लेकिन माल नईं

आबरू शाह मुबारक

दुनिया में ग़रीबों को दो काम ही आते हैं

खाने के लिए जीना जीने के लिए खाना

कलीम आजिज़

आया है इक राह-नुमा के इस्तिक़बाल को इक बच्चा

पेट है ख़ाली आँख में हसरत हाथों में गुल-दस्ता है

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

दो-शाला शाल कश्मीरी अमीरों को मुबारक हो

गलीम-ए-कोहना में जाड़ा फ़क़ीरों का बसर होगा

आग़ा अकबराबादी

घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में

मिट्टी के खिलौने भी सस्ते थे मेले में

क़ैसर-उल जाफ़री

जब चली ठंडी हवा बच्चा ठिठुर कर रह गया

माँ ने अपने ला'ल की तख़्ती जला दी रात को

सिब्त अली सबा

अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े

मुफ़्लिसी तो भरी बरसात में बे-घर हुई है

सलीम सिद्दीक़ी

अपने बच्चों को मैं बातों में लगा लेता हूँ

जब भी आवाज़ लगाता है खिलौने वाला

राशिद राही

आज फिर माँ मुझे मारेगी बहुत रोने पर

आज फिर गाँव में आया है खिलौने वाला

नवाज़ ज़फ़र

बच्चों की फ़ीस उन की किताबें क़लम दवात

मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया

मुनव्वर राना

ग़रीबों पर तो मौसम भी हुकूमत करते रहते हैं

कभी बारिश कभी गर्मी कभी ठंडक का क़ब्ज़ा है

मुनव्वर राना

जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन

पाँव फैलाने नहीं देती है चादर मुझ को

बिस्मिल अज़ीमाबादी

मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना

किस मरज़ की दवा करे कोई

यगाना चंगेज़ी

मुफ़लिसों की ज़िंदगी का ज़िक्र क्या

मुफ़्लिसी की मौत भी अच्छी नहीं

रियाज़ ख़ैराबादी

ईद का दिन है सो कमरे में पड़ा हूँ 'असलम'

अपने दरवाज़े को बाहर से मुक़फ़्फ़ल कर के

असलम कोलसरी

भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में

ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

मुनव्वर राना

हटो काँधे से आँसू पोंछ डालो वो देखो रेल-गाड़ी रही है

मैं तुम को छोड़ कर हरगिज़ जाता ग़रीबी मुझ को ले कर जा रही है

अज्ञात

अपनी ग़ुर्बत की कहानी हम सुनाएँ किस तरह

रात फिर बच्चा हमारा रोते रोते सो गया

इबरत मछलीशहरी

मुफ़्लिसी हिस्स-ए-लताफ़त को मिटा देती है

भूक आदाब के साँचों में नहीं ढल सकती

अज्ञात

ग़रीब-ए-शहर तो फ़ाक़े से मर गया 'आरिफ़'

अमीर-ए-शहर ने हीरे से ख़ुद-कुशी कर ली

आरिफ़ शफ़ीक़

हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते

दौलत-ए-सुख़न ले कर बे-फ़राग़ हैं यारो

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

भूके बच्चों की तसल्ली के लिए

माँ ने फिर पानी पकाया देर तक

नवाज़ देवबंदी

मैं ओझल हो गई माँ की नज़र से

गली में जब कोई बारात आई

अज्ञात

जब आया ईद का दिन घर में बेबसी की तरह

तो मेरे फूल से बच्चों ने मुझ को घेर लिया

बिस्मिल साबरी

सियह-बख़्ती में कब कोई किसी का साथ देता है

कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इंसाँ से

इमाम बख़्श नासिख़

बे-ज़री फ़ाक़ा-कशी मुफ़्लिसी बे-सामानी

हम फ़क़ीरों के भी हाँ कुछ नहीं और सब कुछ है

नज़ीर अकबराबादी

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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